Thursday 23 January 2020

भगवान सब के हृदय में हैं .....

भगवान सबके ह्रदय में हैं, ढूँढने से वहीं मिलते हैं| मेरा आध्यात्मिक हृदय इस शरीर का यह भौतिक हृदय नहीं, कूटस्थ चैतन्य है| मुझे भगवान की अनुभूतियाँ कूटस्थ में ही होती हैं, पर इस भौतिक हृदय में भी वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही साँस ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, और इस मन से वे ही सोच रहे हैं| वे और कोई नहीं, मेरे प्रियतम ही हैं, जिनके साथ जुड़कर मैं भी उनके साथ एक हूँ|
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति| भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६१||
सभी को सप्रेम सादर नमन! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
२४ जनवरी २०२०

स्वयं के साथ सत्संग .....

मैं जो कुछ भी भगवान के बारे में सोचता व लिखता हूँ, वह मेरा स्वयं के साथ एक सत्संग है| जीवन में इस मन ने बहुत अधिक भटकाया है, जो अब पूरी तरह भगवान में निरंतर लगा रहे इसी उद्देश्य से लिखना होता रहता है| मैं किसी अन्य के लिए नहीं, स्वयं के लिए ही लिखता हूँ| वास्तव में वे ही इसे लिखवाते हैं| किसी को अच्छा लगे तो ठीक है, नहीं लगे तो भी ठीक है| किसी को अच्छा नहीं लगे तो उनके पास मुझे Block करने का विकल्प है, जिसका प्रयोग वे निःसंकोच कर सकते हैं|
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भगवान हैं, यहीं हैं, अभी हैं, और सदा ही रहेंगे| भगवान का और मेरा साथ शाश्वत है| वे निरंतर मेरे साथ हैं, पल भर के लिए भी कभी मुझ से पृथक नहीं हुए हैं| सारी सृष्टि ही भगवान से अभिन्न है, मैं भी भगवान से अभिन्न हूँ| भगवान ही है जो यह "मैं" बन गए हैं| मैं यह देह नहीं बल्कि एक सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हूँ, भगवान का ही अंश और अमृतपुत्र हूँ| अयमात्मा ब्रह्म| जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिल कर स्वयं भी महासागर ही बन जाती है, कहीं कोई भेद नहीं होता, वैसे ही भगवान में समर्पित होकर मैं स्वयं भी उनके साथ एक हूँ, कहीं कोई भेद नहीं है|
जिसे मैं सदा ढूँढ रहा था, जिसको पाने के लिए मैं सदा व्याकुल था, जिसके लिए मेरे ह्रदय में सदा एक प्रचंड अग्नि जल रही थी, जिस के लिए एक अतृप्त प्यास ने सदा तड़फा रखा था, वह तो मैं स्वयं ही हूँ| उसे देखने के लिए, उसे अनुभूत करने के लिए और उसे जानने या समझने के लिए कुछ तो दूरी होनी चाहिए| पर वह तो निकटतम से भी निकट है, अतः उसका कुछ भी आभास नहीं होता, वह मैं स्वयं ही हूँ|
सभी को सप्रेम सादर नमन! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
२४ जनवरी २०२०

भारत के विभाजन का किसी को क्या अधिकार था? ....

भारत के विभाजन का किसी को क्या अधिकार था? क्या इसके लिए कोई जनमत संग्रह करवाया गया था? जो लोग इसके लिए जिम्मेदार थे वे अब तक तो नर्कगामी हो गए होंगे, पर उन को दिये गए सभी सम्मान बापस लिए जाएँ, और उनकी आधिकारिक रूप से सार्वजनिक निंदा की जाये| उन के कारण ३५ लाख से अधिक निर्दोष लोगों की हत्याएँ हुईं, करोड़ों लोग विस्थापित हुए, और लाखों महिलाओं और बच्चों पर दुराचार हुए| विभाजन के लिए जिम्मेदार लोग मनुष्य नहीं, साक्षात नर-पिशाच हत्यारे थे|
ऐसे ही कश्मीर से कश्मीरी हिंदुओं पर भयावह अत्याचार कर के उनको वहाँ से निष्काषित करने वाले नर-पिशाच राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों, हत्यारों, बलात्कारियों, धमकाने वालों, हिंदुओं के मकानों पर कब्जा करने वालों, व अन्य अत्याचारियों पर देर से ही सही पर प्राथमिकियाँ दर्ज हों| उस समय अपराधियों पर कार्यवाई न करने वाले मन्त्रियों और अफसरों पर भी प्राथमिकियाँ दर्ज हों| उन हत्यारों व अत्याचारियों के विरुद्ध अब तक कोई कारवाई क्यों नहीं हुई है?

भगवान सदा हमारे साथ एक हैं, वे पृथक हो ही नहीं सकते .....

भगवान सदा हमारे साथ एक हैं, वे पृथक हो ही नहीं सकते .....
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भगवान के बारे में मनीषी कहते हैं कि वे अचिंत्य और अगम्य हैं, पर मैं इसे नहीं मानता| वे तो निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं| जिनका साथ शाश्वत है वे कभी अगम्य और अचिंत्य नहीं हो सकते| यहाँ पर मैं न तो वेदान्त की भाषा का प्रयोग करूँगा और न ही दार्शनिकों की भाषा का| जो मेरे हृदय की भाषा है वही लिख रहा हूँ| यहाँ मैं एक ईर्ष्यालु प्रेमी हूँ क्योंकि भगवान स्वयं भी ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| भगवान पर मेरा एकाधिकार है जिस पर मेरा पेटेंट भी है| उनके सिवाय मेरा अन्य कोई नहीं है अतः वे सदा के लिए मेरे हृदय में बंदी हैं| मैं नहीं चाहता कि वे मेरे हृदय को छोड़कर कहीं अन्यत्र जायें, इसलिए मैंने उनके बाहर नहीं निकलने के पुख्ता इंतजाम कर दिये हैं| वे बाहर निकल ही नहीं सकते चाहे वे कितने भी शक्तिमान हों| चाहे जितना ज़ोर लगा लें, उनकी शक्ति यहाँ नहीं चल सकती|
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भगवान करुणा और प्रेमवश हमें अपनी अनुभूति करा ही देते हैं| हमें तो सिर्फ पात्रता ही जागृत करनी पड़ती है| पात्रता होते ही वे गुरुरूप में आते हैं और अपने प्रेमी की साधना का भार भी अपने ऊपर ही ले लेते हैं| उन्होने इसका वचन भी दे रखा है| जब भी परम प्रेम की अनुभूति हो, तब उस अनुभूति को संजो कर रखें| यहाँ भगवान अपने परमप्रेमरूप में आए हैं| उनके इस परमप्रेमरूप का ध्यान सदा रखें| इस दिव्य प्रेम का ध्यान रखते रखते हम स्वयं भी प्रेममय और आनंदमय हो जाएँगे|
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योगियों को भगवान की अनुभूति प्राण-तत्व के द्वारा परमप्रेम और आनंद के रूप में होती है| यह प्राण तत्व ही विस्तृत होते होते आकाश तत्व हो जाता है| आकाश तत्व प्राण का ही विस्तृत रूप है| प्राण का घनीभूत रूप कुंडलिनी महाशक्ति है, और यह एक राजकुमारी की तरह शनैः शनैः बड़े शान से उठती उठती सुषुम्ना के सभी चक्रों को भेदती हुई ब्रह्मरंध्र से भी परे अनंत परमाकाश में स्वतः ही परमशिव से मिल जाती है, जो योगमार्ग की परमसिद्धि है| गुरु के आदेशानुसार शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करते करते जब ब्रहमज्योति प्रकट होती है, तब उसमें लिपटी हुई अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है| नाद व ज्योति दोनों ही कूटस्थ ब्रह्म हैं जिनका ध्यान सदा योगी साधक करते हैं| यहाँ भी करुणावश भगवान स्वयं ही साधना करते हैं, हम नहीं| साधक होने का भाव एक भ्रम ही है|
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भगवान कण भी है और प्रवाह भी| स्पंदन भी वे हैं और आवृति भी| वे ही नाद हैं और बिन्दु भी| वास्तव में उनके सिवाय अन्य कोई है भी नहीं| अतः वे कैसे अचिंत्य और अगम्य हो सकते हैं? अपने प्रेमियों के समक्ष तो वे नित्य ही निरंतर रहते हैं| उनके प्रति प्रेम जागृत हो जाने का अर्थ है कि हमने उन्हें पा लिया है| निरंतर उनके प्रेम में मग्न रहो| हम भगवान के साथ एक हैं| वे हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं और सर्वदा हमारे साथ एक हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२२ जनवरी २०२०

मेरा धर्म क्या है? .....

मेरा धर्म क्या है?
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मैं अपने धर्म को दो भागों में बांटता हूँ .....
(१) मेरे में जो भी सर्वश्रेष्ठ है ----- मेरी सर्वश्रेष्ठ क्षमता और सर्वश्रेष्ठ विचार .... उनकी निज जीवन में पूर्ण अभिव्यक्ति का यथासंभव प्रयास ही मेरा प्रथम धर्म है| उससे किसी को पीड़ा न हो, सिर्फ कल्याण ही हो|
(२) साधनाकाल में मेरा धर्म .....सूक्ष्म "प्राणायाम" हैं| जिन साधना पद्धतियों में मैं दीक्षित हूँ, और जिनका अनुशरण करता हूँ, वे कुछ गोपनीय सूक्ष्म प्राणायामों पर आधारित हैं जो सूक्ष्म देह में मेरुदंडस्थ सुषुम्ना, परासुषुम्ना और उत्तरासुषुम्ना नाड़ियों में किए जाते हैं| मुझे सूक्ष्म जगत से मार्गदर्शन मिलता है, अतः कहीं, किसी भी प्रकार की कोई शंका नहीं है| उन सूक्ष्म प्राणायामों के साथ साथ अजपा-जप और नादानुसंधान भी साधना के भाग है| साधना की परावस्था में मेरा धर्म सच्चिदानंद भगवान से परमप्रेम (भक्ति), और प्रत्याहार-धारणा-ध्यान द्वारा जीवन में समत्व की प्राप्ति का प्रयास, पहिले से ही जागृत कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव में समर्पण, और अनंत परमशिव का ध्यान|
बस ये ही मेरे धर्म है| इससे अधिक मैं कुछ भी अन्य नहीं जानता| पूरा मार्गदर्शन मुझे मेरी गुरु-परंपरा और गीता से मिल जाता है| उपनिषदों का कुछ कुछ स्वाध्याय किया है जो आंशिक रूप से ही समझ पाया हूँ, पर वेदों को समझना मेरी बौद्धिक सामर्थ्य से परे है, इसलिए उन्हें नहीं समझ पाया हूँ|
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भगवान से परमप्रेम मेरा स्वभाव है, जिसके विरुद्ध मैं नहीं जा सकता| मेरी जाति-कुल-गौत्र आदि सब वे ही हैं जो परमात्मा के हैं| यह देह तो नष्ट होकर एक दिन पंचभूतों में मिल जाएगी, पर भगवान के साथ मेरा सम्बन्ध शाश्वत है|
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ॐ तत्सत, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर बावलिया
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२१ जनवरी २०२०

बाहर के विश्व या अन्य व्यक्तियों में पूर्णता की खोज निराशाजनक है .....

बाहर के विश्व या अन्य व्यक्तियों में पूर्णता की खोज निराशाजनक है .....
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इस संसार में मैं अकेला हूँ| मेरे साथ मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है| मैं सदा से ही बार-बार इस संसार से दूर जाने का प्रयास करता हूँ पर भगवान फिर से खींच कर यहाँ बापस इस संसार में ले आते हैं| एक क्षण के लिए भी यहाँ रहने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, पर ईश्वर की इच्छा के आगे विवश हूँ| अब सोचना ही छोड़ दिया है, जैसी ईश्वर की इच्छा! जो उनकी इच्छा है वह ही सर्वोपरी है| वे कुछ सिखाना चाहते हैं अतः इस जीवन को वे ही जी रहे हैं| न तो मैं हूँ और न ही मेरा कुछ है| मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा भी नहीं होनी चाहिए| स्वतंत्र इच्छाओं का होना ही मेरी सारी पीड़ाओं का कारण है| अब बचा-खुचा जो कुछ भी है वह बापस भगवान को समर्पित है| समर्पण के उन क्षणों में ही मैं ..... मैं नहीं होता, सिर्फ परमात्मा ही होते हैं|
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किसी भी अन्य व्यक्ति में मेरी कोई आस्था नहीं रही है, चाहे संसार की दृष्टि में वे कितने भी बड़े हों| जो जितना बड़ा दिखाई देता है, वास्तविकता में वह उतना ही छोटा है| पर क्या मेरे से अतिरिक्त अन्य कोई है? इसमें भी मुझे संदेह है| कोई अन्य है भी नहीं| मैं ही सभी में व्यक्त हो रहा हूँ| पूर्णता कहीं बाहर नहीं, परमात्मा में ही है, और परमात्मा स्वयं में ही है| बाहर के विश्व या अन्य व्यक्तियों में पूर्णता की खोज निराशाजनक है| किसी भी अन्य का साथ दुःखदायी है| साथ स्वयं में सिर्फ परमात्मा का ही हो| अन्य सारे साथ अंततः दुःखी ही करेंगे| मेरी साधना ही मेरा बल है और मेरा संकल्प ही मेरी शक्ति है, परमात्मा के सिवाय अन्य कोई सहारा नहीं है|
ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय!
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"मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:, चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः, न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ, मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं, न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:, पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो, विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||"
(इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं).
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कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२० जनवरी २०२०

जातिवाद सबसे बड़ा धोखा है .....

"जाति हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम | गृह हमारा शून्य में, अनहद में विश्राम ||"
जो जाति परमात्मा की है, वह जाति ही मेरी है| जैसे विवाह के बाद स्त्री का वर्ण, गौत्र और जाति वही हो जाती है जो उसके पति की होती है, वैसे ही परमात्मा को समर्पित हो जाने के बाद मेरा वर्ण, गौत्र और जाति वह ही है जो सर्वव्यापी परमात्मा की है| मैं 'अच्युत' हूँ|
जातिवाद सबसे बड़ा धोखा है| मैं किसी भी जाति, सम्प्रदाय, या उनकी किसी संस्था से सम्बद्ध नहीं हूँ| सब संस्थाएँ, सब सम्प्रदाय व सब जातियाँ मेरे लिए हैं, मैं उन के लिए नहीं| मैं असम्बद्ध, अनिर्लिप्त, असंग, असीम, शाश्वत आत्मा हूँ जो इस देह रूपी वाहन पर यह लोकयात्रा कर रहा हूँ| मेरा ऐकमात्र शाश्वत सम्बन्ध सिर्फ परमात्मा से है जो सदा रहेगा| जिस नाम से मेरे इस शरीर की पहिचान है, उस शरीर का नाम इस जन्म में कृपा शंकर है| पता नहीं कितने जन्म लिए हैं और पता नहीं कब कितने नाम तत्कालीन घर वालों ने रखे होंगे|
यथार्थ में परमात्मा के सिवाय न मेरी कोई माता है, और न कोई पिता है, और परमात्मा के सिवाय मेरी कोई जाति नहीं है| परमात्मा की अनंतता में जहाँ अनाहत नाद गूंज रहा है, वहीं मेरा घर है, वहीं मुझे विश्राम मिलता है| वहीं मैं हूँ| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०२०

मोक्ष-सन्यास योग में पराभक्ति .....

मोक्ष-सन्यास योग में पराभक्ति .....
भक्ति का अर्थ, नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार भगवान के प्रति परम प्रेम है| गीता में भक्ति के बारे में भगवान श्री कृष्ण ने बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है| हिन्दी में रामचरितमानस, और संस्कृत में भागवत, भक्ति के ही ग्रंथ हैं| इन ग्रन्थों के स्वाध्याय के पश्चात भक्ति पर और कुछ लिखने को रह ही नहीं जाता| गीता के मोक्ष-सन्यास योग नाम के अठारहवें अध्याय में भी मुझे तो भगवान की पराभक्ति ही दिखाई देती है| इस अध्याय का अगली बार जब भी पाठ करें तब भक्ति के दृष्टिकोण से ही करें| कुछ बहुत ही प्यारे श्लोक हैं....
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः| ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः||१८:५२||
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्| विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते||१८:५३||
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति| समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्||१८:५४||
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः| ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्||१८:५५||
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः| मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्||१८:५६||"