Wednesday, 18 January 2017

मेरे चरित्र में श्वेतकमल से भी अधिक पवित्रता हो .....

मेरे चरित्र में श्वेतकमल से भी अधिक पवित्रता हो, कहीं कोई दाग न रहे| कोई अभिलाषा, कोई कामना, कोई राग-द्वेष का अवशेष भी न रहे|
अनगिनत छिद्रों से भरी इस जीर्णशीर्ण नौका के कर्णधार हे गुरुरूप ब्रह्म, मुझे भुलावा देकर इस मायावी भवसागर से पार ले चलो जहाँ सिर्फ और सिर्फ सच्चिदानंद परमात्मा की ही परम चेतना हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||

किसी अन्य पर दोषारोपण न करें .......

हम जहाँ भी हैं, जैसी भी स्थिति में हैं, चाहे किसी भी कारण से हैं, उसके लिए किसी अन्य पर दोषारोपण करने से, उसे बुरा-भला कहने से, कोई लाभ नहीं है| दूसरों पर ताने मारना, व्यंग्य करना, किसी को नीचा दिखाना, और गाली देना भी निरर्थक है|
पूरी स्थिति की समीक्षा कर के, निज विवेक से उसका समाधान स्वयं से ही करना चाहिए| दूसरों से कोई अपेक्षा न करें|
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दूसरों का सर काट कर हम बड़े नहीं बन सकते| हमें स्वयं ही ऊपर उठना होगा| पर्वत शिखर से यदि तालाब में पानी आता है तो इसमें दोष पर्वत शिखर का नहीं है| हमें स्वयं को पर्वत शिखर बनना होगा|
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भौतिक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक हर दृष्टी से स्वयं को परोपकार के लिए सशक्त बनना होगा| जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को बनायें| हम परमात्मा के एक उपकरण मात्र बन जाएँ| फिर सब सही होगा|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

धर्म की रक्षा .... स्वयं के द्वारा धर्म के पालन से ही होगी ....

धर्म की रक्षा .... स्वयं के द्वारा धर्म के पालन से ही होगी ......
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हमारी अस्मिता पर एक बहुत लम्बे समय से बड़े भयंकर मर्मान्तक प्रहार होते आ रहे हैं| साधू-संतों-भक्तों-वीर-वीरांगणाओं व सद् गृहस्थों के त्याग, संघर्ष और पुण्यों के प्रताप से हमारी अस्मिता अभी तक जीवित बची हुई है|
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वर्त्तमान में धर्मनिरपेक्षता, तथाकथित आधुनिकता, सहिष्णुता, वर्त्तमान शिक्षापद्धति और धार्मिक/आध्यात्मिक शिक्षा के अभाव के कारण हमारी आस्था कम होती जा रही है| कई विधर्मी धूर्ततापूर्वक मतांतरण द्वारा हमारी जड़ों पर प्रहार कर रहे हैं| वे स्वयं को मुक्तिदाता के प्रचारक बताकर गरीबों के गले में मानसिक दासता का फंदा डाल रहे हैं|
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इसका एकमात्र प्रतिकार यह है कि हम स्वयं अपने स्वधर्म का पालन करें और अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें| निज विवेक से उन धूर्तों के चक्कर में न आयें जिन्हें आध्यात्म का प्राथमिकी ज्ञान भी नहीं है| कुछ लोग विदेशों से भारत की कानून व्यवस्था को धार्मिक स्वतंत्रता का उत्पीडक बताते हुए इसके विरूद्ध अमेरिका से हस्तक्षेप की मांग भी करते रहे हैं|
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स्वधर्म का पालन ही हमें मुक्ति के मार्ग पर ले जा सकता है| भगवान् की खूब भक्ति करें और स्वधर्म पर दृढ़ रहें| शुभ कामनाएँ और नमन|
ॐ ॐ ॐ ||

माया का सबसे बड़ा शस्त्र .....'प्रमाद' ..... यानि 'आलस्य' है .....

माया का सबसे बड़ा शस्त्र .....'प्रमाद' ..... यानि 'आलस्य' है .....
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ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय ......
भक्तिसुत्रों के आचार्य देवर्षि नारद के गुरु भगवान सनत्कुमार जो ब्रह्मविद्या के आचार्य भी हैं, के सनत्सुजातीय ग्रन्थ में लिखा है ..... "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि", अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है|
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अपने " अच्युत स्वरूप " को भूलकर "च्युत" हो जाना ही प्रमाद है और इसी का नाम "मृत्यु" है| जहाँ अपने अच्युत भाव से च्युत हुए, बस वहीँ मृत्यु है|
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दुर्गा सप्तशती में 'महिषासुर' --- प्रमाद --- यानि आलस्य रूपी तमोगुण का ही प्रतीक है|
आलस्य यानि प्रमाद को समर्पित होने का अर्थ है -- 'महिषासुर' को अपनी सत्ता सौंपना|
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ओम् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
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ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभि र्व्यशेम देवहितं यदायुः
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स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
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दीर्घसूत्रता मेरा सबसे बड़ा दुर्गुण है .........

दीर्घसूत्रता मेरा सबसे बड़ा दुर्गुण है .........
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मैं अन्य किसी की आलोचना नहीं कर रहा हूँ, स्वयं की ही कर रहा हूँ| मैं अपने पूरे जीवन का सिंहावलोकन कर के विश्लेषण करता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे जीवन में, मेरे व्यक्तित्व में सबसे बड़ी कमी कोई है तो वह है ....... 'आत्मविस्मृति'......, जिसका एकमात्र कारण है .....'दीर्घसूत्रता'.....|
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आत्मविस्मृति दीर्घसूत्रता के कारण ही होती है| यह दीर्घसूत्रता सब से बड़ा दुर्गुण है जो हमें परमात्मा से दूर करता है| दीर्घसूत्रता का अर्थ है काम को आगे के लिए टालना| यह दीर्घसूत्रता ही प्रमाद यानि आलस्य का दूसरा नाम है| साधना में दीर्घसूत्रता यानि आगे टालने की प्रवृति साधक की सबसे बड़ी शत्रु है, ऐसा मेरा निजी प्रत्यक्ष अनुभव है|
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सबसे बड़ा शुभ कार्य है भगवान की भक्ति जिसे आगे के लिए नहीं टालना चाहिए| जो लोग कहते हैं कि अभी हमारा समय नहीं आया, उनका समय कभी भी नहीं आयेगा|
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जल के पात्र को साफ़ सुथरा रखने के लिए नित्य साफ़ करना आवश्यक है अन्यथा उस पर जंग लग जाती है| एक गेंद को सीढ़ियों पर गिराओ तो वह उछलती हुई क्रमशः नीचे की ओर ही जायेगी| वैसे ही मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ (जो वासनाओं के रूप में व्यक्त होती है) अधोगामी होती है, वे मनुष्य का क्रमशः निश्चित रूप से पतन करती हैं| उनके निरोध को ही 'योग' कहा गया है|
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नित्य नियमित साधना अत्यंत आवश्यक है| मन में इस भाव का आना कि .....'थोड़ी देर बाद करेंगे'....., हमारा सबसे बड़ा शत्रु है| यह 'थोड़ी देर बाद करेंगे' कह कर काम को टाल देते हैं वह ..... 'थोड़ी देर'..... फिर कभी नहीं आती| इस तरह कई दिन और वर्ष बीत जाते हैं| जीवन के अंत में पाते हैं की बहुमूल्य जीवन निरर्थक ही नष्ट हो गया|
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अतः मेरे अनुभव से यह दीर्घसूत्रता, प्रमाद और आलस्य सब एक ही हैं| यही सबसे बड़ा तमोगुण है| यही माया का सबसे बड़ा हथियार है| यह माया ही है जिसे कुछ लोग 'शैतान' या 'काल पुरुष' कहते हैं| सृष्टि के संचालन के लिए माया भी आवश्यक है पर इससे परे जाना ही हमारा प्राथमिक लक्ष्य है|
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जब ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार कहते हैं की --- "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि" --- अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है तो उनकी बात पूर्ण सत्य है| भगवान सनत्कुमार ब्रह्मविद्या के आचार्य हैं और भक्तिसुत्रों के आचार्य देवर्षि नारद के गुरु हैं| उनका कथन मिथ्या नहीं हो सकता|
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सभी मनीषियों का साधुवाद और सब को मेरा सादर नमन|
"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १० वि.सं.२०७२| 19जनवरी2016.

*********** उपदेश सार **********

*********** उपदेश सार **********
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"अलप तो अवधि
जीव तामें बहुत सोच पोच करिबे
को बहुत काह काह कीजिए|
पार न पुरानहु को
वेदहु को अन्त नाही
वाणी तो अनेक चित्त कहाँ कहाँ दीजिए।।१||
काव्य की कला अनन्त
छन्द को प्रबन्ध बहुत
राग तो रसीले रस कहाँ कहाँ पीजिए।
लाखन में एक बात
तुलसी बताए जात
जनम जो सुधारा चहो 'राम' नाम लीजिए।।२||"

कुछ उलझनें .....

कुछ उलझनें .....
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(१) चारों ओर इतना शोर है .......... क्या इस शोर में मौन संभव है ? .............
चारों ओर इतना अधिक वैचारिक और ध्वनि प्रदूषण है ... जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
इतने शोर में मौन कैसे रहें ? ......... क्या बाहर का शोर भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति हैं?
बाहर के शोर से निरपेक्ष होकर कैसे आतंरिक मौन को उपलब्ध हों?
बाहर का शोर बाधा है या परमात्मा की एक अभिव्यक्ति?
बार बार मन में उठने वाले विचार भी भयंकर से भयंकर शोर से कम नहीं हैं| क्या ये भी परमात्मा के ही अनुग्रह है?
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(२) पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे, व उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि वह एक डोर से बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है|
असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है ?
वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है|
क्या कोई लघु मार्ग है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे ?
इस कर्मों कि डोर से इस अल्प काल में कैसे मुक्त हो सकते हैं ? सभी प्रकार के विक्षेपों और मिथ्या आवरणों से कैसे तुरंत प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं ?
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(३) हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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(४) क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाए ? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग है ?
बार बार मन को प्रभु में लगाते हैं पर यह मानता ही नहीं है? भाग कर बापस आ जाता है |
अब इसका क्या करें ? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनाई ही क्यों ?
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १० वि.सं.२०७२| 19जनवरी2016.