Wednesday 18 January 2017

कुछ उलझनें .....

कुछ उलझनें .....
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(१) चारों ओर इतना शोर है .......... क्या इस शोर में मौन संभव है ? .............
चारों ओर इतना अधिक वैचारिक और ध्वनि प्रदूषण है ... जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
इतने शोर में मौन कैसे रहें ? ......... क्या बाहर का शोर भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति हैं?
बाहर के शोर से निरपेक्ष होकर कैसे आतंरिक मौन को उपलब्ध हों?
बाहर का शोर बाधा है या परमात्मा की एक अभिव्यक्ति?
बार बार मन में उठने वाले विचार भी भयंकर से भयंकर शोर से कम नहीं हैं| क्या ये भी परमात्मा के ही अनुग्रह है?
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(२) पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे, व उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि वह एक डोर से बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है|
असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है ?
वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है|
क्या कोई लघु मार्ग है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे ?
इस कर्मों कि डोर से इस अल्प काल में कैसे मुक्त हो सकते हैं ? सभी प्रकार के विक्षेपों और मिथ्या आवरणों से कैसे तुरंत प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं ?
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(३) हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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(४) क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाए ? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग है ?
बार बार मन को प्रभु में लगाते हैं पर यह मानता ही नहीं है? भाग कर बापस आ जाता है |
अब इसका क्या करें ? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनाई ही क्यों ?
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १० वि.सं.२०७२| 19जनवरी2016.

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