Thursday, 26 June 2025

अध्यापक, शिक्षक, आचार्य, प्राचार्य, उपाध्याय और गुरु... इन सब में क्या अंतर है? ---

 अध्यापक, शिक्षक, आचार्य, प्राचार्य, उपाध्याय और गुरु... इन सब में क्या अंतर है?.....

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सनातन परंपरा में उपरोक्त सब में बहुत अधिक अंतर है| अपनी सीमित व अत्यल्प बुद्धि से कुछ-कुछ प्रकाश इस विषय पर डाल रहा हूँ| जितना मुझे ज्ञान है उतना सब कुछ लिख रहा हूँ, जो नहीं लिखा है उसका मुझको ज्ञान नहीं है|
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(१) अध्यापक कौन है? :--- अध्यापक हमें सांसारिक विषयों का पुस्तकीय अध्ययन करवाता है, जिस से कोई प्रमाण-पत्र या डिग्री मिलती है| इसके बदले में वह नियोक्ता से वेतन लेता है, और गृह-शिक्षा (ट्यूशन) लेने वालों से शुल्क (ट्यूशन फीस) लेता है| इस पुस्तकीय ज्ञान से हमें कहीं नौकरी करने की या कुछ व्यवसाय करने की योग्यता आती है| इस से सांसारिक ज्ञान बढ़ता है और सांसारिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है| पुराने जमाने के अध्यापक अपने स्टूडेंट्स को जी-जान से पढ़ाते थे, और उनकी योग्यता बढ़ाने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करते थे, आजकल यह देखने में नहीं आता|
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(२) शिक्षक कौन है? :--- शिक्षक वह है जो हमें जीवन में उपयोग में आने वाली व्यवहारिक चीजों की शिक्षा देता है| सबसे बड़े और प्रथम शिक्षक तो माँ-बाप होते हैं| सिखाने के बदले में शिक्षक कोई आर्थिक लाभ नहीं देखता, सिर्फ सम्मान की अपेक्षा रखता है|
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(३) आचार्य कौन है? :--- वास्तव में आचार्य एक स्थिति है| आचार्य अपने अति उच्च आचरण और अति उच्च चरित्र से अपने अर्जित ज्ञान की शिक्षा देता है| आचार्य के समीप जाते ही मन शांत हो जाता है और अपने आप ही कुछ न कुछ शिक्षा मिलने लगती है| उनके सत्संग से श्रद्धा उत्पन्न होती है|
आजकल तो आचार्य की डिग्री मिलती है जिसको पास करने वाले स्वयं को आचार्य लिखने लगते हैं| कॉलेजों के प्रोफेसरों को भी आचार्य कहा जाने लगा है|
ब्राह्मणों में जो श्रावणी-कर्म करवाते हैं, व यज्ञोपवीत आदि संस्कार करवाते हैं, उन्हें भी आचार्य कहा जाता है| यहाँ आचार्य एक पद और सम्मान होता है| यज्ञादि अनुष्ठानों को करवाने वाले ब्राह्मणों में जो प्रमुख होता है, उसे भी आचार्य कह कर संबोधित करते हैं| यह भी एक पद और सम्मान होता है|
जो मृतकों के कर्म करवाते हैं उन ब्राह्मणों में कोई हीन भावना न आए इसलिए उनको महाब्राह्मण, महापात्र या आचार्य-ब्राह्मण कहा जाता है| यह भी एक सम्मान है|
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(४) प्राचार्य कौन हैं? :--- वास्तव में प्राचार्य उस आचार्य को कहते हैं जो यह सुनिश्चित करता है कि जिसे वह ज्ञान दे रहा है, वह उसे अपने आचरण में ला रहा है| आजकल तो कॉलेजों के प्रिंसिपलों को प्राचार्य कहा जाता है|
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(५) उपाध्याय कौन हैं? :--- जो शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त की शिक्षा देते हैं, उन्हें उपाध्याय कहा जाता है| वे बदले में कोई धन नहीं मांगते पर शिक्षार्थी का दायित्व है कि वह उन्हें यथोचित यथासंभव धन, दक्षिणा के रूप में दे|
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(६) गुरु कौन है? :--- जो हमें आत्मज्ञान यानि आध्यात्मिक ज्ञान देकर हमारे चैतन्य में छाए अंधकार को दूर करता है, वह गुरु होता है| जीवन में गुरु का प्रादुर्भाव तभी होता है जब हम में शिष्यत्व की पात्रता आती है| यथार्थ में गुरु एक तत्व होता है जो एक बार तो हाड़-मांस की देह में आता है, पर वह हाड़-मांस की देह नहीं होता| गुरु के आचरण व वचनों में कोई अंतर नहीं होता, यानि उनकी कथनी-करनी में कोई विरोधाभास नहीं होता| गुरु असत्यवादी नहीं होता| गुरु में कोई लोभ-लालच या अहंकार नहीं होता| गुरु की दृष्टि चेलों के धन पर नहीं होती| चेलों से वह कभी नहीं पूछता कि उनके पास कितना धन है| गुरु की दृष्टि चेलों की आध्यात्मिक प्रगति पर ही रहती है|
गुरु के उपदेशों का पालन ही गुरु-सेवा है| गुरु यदि शरीर में हैं, तो उनको किसी तरह का अभाव और पीड़ा न हो, इसका ध्यान तो रखना ही चाहिए| आजकल लोग गुरु के देह की या उनके चित्र या मूर्ति की पूजा करते हैं जो मेरे विचार से गलत है| पूजा गुरु-पादुका की होती है| गुरु-पादुका ....एक प्रतीक है गुरु के आचरण को अपने अन्दर में उतारने की| गुरु के शरीर-अवयव को पूजना गुरु के विचारों को मिटटी में मिलाना है|
"ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्|
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं, भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि||"
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ जून २०२०

ध्यान :---

ध्यान :--- कूटस्थ में परमात्मा की अनंतता का ध्यान करते हुए, अपनी चेतना का जितना अधिक विस्तार कर सकते हो, उतना अधिक विस्तार करो। पूरी सृष्टि तुम्हारी चेतना में है, और तुम समस्त सृष्टि में हो। सारे आकाशों की सीमाओं को तोड़ दो। कुछ भी तुम्हारे से परे नहीं है। लाखों किलोमीटर ऊपर उठ जाओ, और भी ऊपर उठ जाओ, ऊपर उठते रहो, जितना ऊपर उठ सकते हो, उतना ऊपर उठ जाओ। चेतना की जो उच्चतम सीमा है, वह परमशिव है, और वह परमशिव तुम स्वयं हो।

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सच्चिदानंद परमशिव परमात्मा के साथ एकत्व का भाव चेतना की उच्चतम अवस्था है। उसी चेतना में स्थिर रहने का अभ्यास करते रहो। यही उपासना और साधना है, यही कर्मयोग है, यही भक्ति है। अपने नित्य अभ्यास के अन्त में कुछ समय तक शान्त बैठे रहिये, आनंद से भर जाओगे। प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्त में इस तरह उठो जैसे जगन्माता की गोद से उठ रहे हो। प्रातःकालीन दिनचर्या से निवृत होकर परमात्मा में स्वयं को विलीन कर दो। पूरे दिन यही भाव रखो कि आपको निमित्त-मात्र बनाकर परमशिव स्वयं आपके माध्यम से सारे काम कर रहे हैं।
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उस चेतना में मैं स्वयं को गुरु-चरणों में अर्पित कर रहा हूँ, जो मुझ अकिंचन से ये शब्द लिखवा रहे हैं। सब कुछ उन्हीं का है और सब कुछ वे ही हैं। मैं और मेरा कुछ भी नहीं है। मुझ अकिंचन को आता-जाता कुछ भी नहीं है, कोई गुण मुझ में नहीं है। सब ओर से निराश होकर जब से भगवान के श्रीचरणों में नतमस्तक हुआ, तभी से उन्होनें मुझे अपना लिया। सारी महिमा उन्हीं की है।
ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जून २०२१

सम्पूर्ण सृष्टि ही मेरा शरीर हो सकता है, यह भौतिक देह नहीं ---

 सम्पूर्ण सृष्टि ही मेरा शरीर हो सकता है,

यह भौतिक देह नहीं ---
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परमात्मा की परोक्षता और स्वयं की परिछिन्नता को मिटाने का एक ही उपाय है, और वह है -- परमात्मा का ध्यान। परम-प्रेम (भक्ति) और ध्यान से पराभक्ति प्राप्त होती है, व ज्ञान में निष्ठा होती है, जो एक उच्चतम स्थिति है, जहाँ तक पहुँचते पहुँचते सब कुछ निवृत हो जाता है। त्याग करने को भी कुछ अवशिष्ट नहीं रहता। यह धर्म और अधर्म से परे की स्थिति है।
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जब मैं इस तथाकथित मेरी देह को देखता हूँ तब स्पष्ट रूप से यह बोध होता है कि यह तो मूल रूप से एक ऊर्जा-खंड है, जो पहले अणुओं का एक समूह बनी, फिर पदार्थ बनी। फिर इसके साथ अन्य सूक्ष्मतर तत्वों से निर्मित मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार आदि जुड़े। इस ऊर्जा-खंड के अणु निरंतर परिवर्तनशील हैं। इस ऊर्जा-खंड ने कैसे जन्म लिया और धीरे धीरे यह कैसे विकसित हुआ इसके पीछे परमात्मा का एक संकल्प और विचार है। ये सब अणु और सब तत्व भी एक दिन विखंडित हो जायेंगे। पर मेरा अस्तित्व फिर भी बना रहेगा।
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अब यह प्रश्न उठता है कि मैं कौन हूँ ? क्या मैं यह शरीर हूँ ?
>>>>> निश्चित रूप से मैं यह शरीर रूपी-ऊर्जा खंड नहीं हूँ <<<<<
फिर मैं कौन हूँ ?
यह सत्य है कि मैं परमात्मा के मन का एक विचार हूँ जिसे परमात्मा ने पूर्ण स्वतंत्रता दी है|
>>>> मैं परमात्मा का अमृत पुत्र हूँ। मैं और मेरे पिता एक हैं। मैं यह देह नहीं हूँ, बल्कि परमात्मा का एक संकल्प हूँ। परमात्मा की अनंतता मेरी ही अनंतता है, उनका प्रेम ही मेरा भी प्रेम है, और उनकी पूर्णता मेरी भी पूर्णता है। <<<<<
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"मैं" अपरिछिन्न और अपरोक्ष केवल एक हूँ, मेरे सिवाय अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है। जो ब्रह्म है वह ही इस सम्पूर्णता के साथ व्यक्त हुआ है। मैं उसके साथ एक हूँ, अतः निश्चित रूप से मैं यह देह नहीं अपितु प्रत्यगात्मा विकार-रहित ब्रह्म हूँ। मैं धर्म और अधर्म से परे जीवन-मुक्त और देह-मुक्त हूँ।
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यह मेरा अंतर्भाव है। यदि मैं स्वयं को देह मानता हूँ तो यह मेरा अहंकार होगा। मैं सर्वव्यापि आत्म-तत्व हूँ जो सत्य है। जो कुछ भी सृष्ट हुआ है, और जो कुछ भी सृष्ट होगा, वह मैं ही हूँ। पूरी समष्टि भी मैं हूँ, और जो समष्टि से परे है, वह भी मैं ही हूँ। मैं पूर्ण हूँ और परमात्मा के साथ एक हूँ।
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शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२७ जून २०१६

अनेक कारणों से मैं जीवन में क्षुब्ध रहा हूँ

अनेक कारणों से मैं जीवन में क्षुब्ध रहा हूँ, लेकिन अब अपनी सोच बदल ली है, जिससे जीवन में सुख-शांति है। यह सृष्टि मेरी नहीं, परमात्मा की है। उसे उनकी प्रकृति अपने अपरिवर्तनीय नियमों के अनुसार चला रही है। प्रकृति तो अपने नियमों के अनुसार ही चलेगी, जिन्हें हम नहीं समझते हैं। हमें ही स्वयं को बदलना होगा। हम जो कुछ भी और जैसे भी हैं, अपने ही कर्मों के कारण हैं।

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अपनी सीमित क्षमतानुसार परमात्मा को समर्पित होकर हर परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ करें। लेकिन परमात्मा को कभी भूलें नहीं। यही हमारा कर्मयोग है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ जून २०२२