Tuesday 31 October 2017

सृष्टि का और जीव का उत्थान व पतन .....

सृष्टि का और जीव का उत्थान व पतन .....
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(यह मेरा निजी चिंतन है, जिस से किसी को आहत होने की आवश्यकता नहीं है, पूरी तरह पढ़े और समझे बिना किसी भी तरह की कोई टिप्पणी न करें)
मुझे प्रतीत होता है कि इस सृष्टि के सारे उत्थान और पतन के पीछे ज्योतिषीय कारण हैं जिन से मनुष्य की चेतना प्रभावित होती है | इसमें किसी भी प्राणी का कोई दोष नहीं है | सब प्रकृति के आधीन कठपुतलियाँ हैं, जो प्रकृति के नियमों के अंतर्गत ही संचालित हो रही हैं | मुझे प्रतीत होता है कि इस पूरी सृष्टि का कोई न कोई केंद्र अवश्य है जहाँ से समस्त सृष्टि को ऊर्जा मिल रही है | उस केंद्र को आप कोई भी नाम एक बार दे सकते हैं | जिस सौर मंडल में अपनी यह पृथ्वी है उसका केंद्र सूर्य है | इस तरह के अनंत सौर मंडल, अनंत ब्रह्माण्ड और अनंत सूर्य हैं व अनंत प्रकार के प्राणी हैं | सारे ब्रह्मांड गतिशील और परिक्रमारत हैं और एक निश्चित समय में अपने परिक्रमापथ पर सृष्टिकेंद्र से समीप और दूर आते जाते रहते हैं | जब कोई सूर्य अपने परिक्रमापथ पर सृष्टिकेंद्र के समीपतम होता है तब उसके ग्रहों में रहने वाले अधिकांश प्राणी अपनी उच्चतम चेतना में होते हैं, यह वहाँ सत्ययुग का चरम होता है | और जब वह सूर्य सृष्टिकेंद्र से अधिकतम दूरी पर होता है तब उसके ग्रहों में कलियुग का चरम होता है, और वहाँ के प्राणियों की निम्नतम चेतना होती है |
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ऐसे ही हर व्यक्ति के अस्तित्व में भी एक आत्मसूर्य है जिससे उसके चैतन्य की दूरी और समीपता ही यह तय करती है कि उसके विचार और भाव कैसे हों | ध्यान में अपना आत्मसूर्य आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य स्पष्ट दिखाई देता है | चैतन्य में उससे हमारी समीपता और दूरी ही हमारे विचार और भावों का निर्माण करती है |
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अब इस पृथ्वी ग्रह की बात करते हैं | जब भी पृथ्वी पर आवश्यकता होती है तब महान आत्माओं का अवतरण होता है | वे अपने उपदेश रूपी प्रकाश देकर चले जाते हैं, पर कालखंड में समय के प्रभाव से वे उपदेश और शिक्षाएँ लुप्त और प्रक्षिप्त हो जाती हैं | अतः किसी को दोष न देकर समय को ही दोष देना चाहिए |
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भगवान ने हमें एक दायित्व देकर इस संसार में भेजा है, वह दायित्व है ..... आत्मसाक्षात्कार | हमें उसी की ओर बढना चाहिए | वह तभी संभव होगा जब हम अपनी चेतना को अपने आत्मसूर्य से एकाकार कर लें | उस आत्मसूर्य की ओर बढने का प्रयास ही आध्यात्मिक साधना है |
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कर्मफलों का सिद्धांत भी सही है | जैसे हर एक व्यक्ति के कर्म होते हैं, वैसे ही हर एक राष्ट्र के भी कर्म और उनके फल होते हैं | उन कर्मफलों को हर राष्ट्र को भुगतना ही पड़ता है |
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मुझे मेरे विचार व्यक्त करने का अवसर देने के लिए आप सब को साभार धन्यवाद ! कम से कम शब्दों में मैनें अपने विचार प्रस्तुत किए हैं | आप अपनी स्वतंत्र दृष्टी से विचार कीजिये |
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कृपाशंकर
०१ नवम्बर २०१७

Monday 30 October 2017

परमात्मा के परमप्रेममय रूप का हम सदा ध्यान करें .....

परमात्मा के परमप्रेममय रूप का हम सदा ध्यान करें .....
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प्रेम ही ब्रह्म है, प्रेम ही हमारा स्वभाव है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है, और उस पर ध्यान ही सच्चिदानंद की प्राप्ति का मार्ग है| सब कुछ ब्रह्ममय है | ब्रह्म ही हमारा साक्षिरूप है, वही परमशिव है, वही गुरु रूप में निरंतर कूटस्थ में बिराजमान है | सहस्त्रार गुरुचरण हैं और सहस्त्रार में स्थिति ही गुरुचरणों में आश्रय है |
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जिस देह में हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं, इस देह का भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, सहस्त्रार उत्तर दिशा है, बिंदु विसर्ग (शिखास्थल) पश्चिम दिशा है और उससे नीचे का क्षेत्र दक्षिण दिशा है|
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सहस्त्रार से परे का क्षेत्र परा है, वही परब्रह्म है वही परमशिव है जहाँ उनके सिर से प्रेममयी ज्ञानगंगा उनकी परम कृपा के रूप में हम सब पर तैलधारा की तरह निरंतर बरस रही है|
ॐ ॐ ॐ !!
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वह परब्रह्म परमशिव परमप्रेम हम स्वयं हैं, कहीं कोई पृथकता नहीं है| भगवान के इसी परमप्रेममय रूप पर हम सदा ध्यान करें| ॐ ॐ ॐ !!
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ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्चः :---- जब हम कहते हैं कि पूर्व दिशा में मुँह कर के ध्यान करो, इसका अर्थ है अंतर्दृष्टि भ्रूमध्य में रख कर ध्यान करो| जब हम कहे हैं कि उत्तर दिशा में मुँह कर के ध्यान करो, इसका अर्थ है सहस्त्रार पर अंतर्दृष्टि रख कर ध्यान करो| दक्षिण दिशा में ध्यान मत करो ... का अर्थ है आज्ञा चक्र से नीचे दृष्टी मत रखो ध्यान के समय |

हिंदुत्व, हिन्दूराष्ट्र और भारतमाता .....

हिंदुत्व, हिन्दूराष्ट्र और भारतमाता .....
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हिंदुत्व एक ऐसी ऊर्ध्वमुखी चेतना है जो मनुष्य को निरंतर परमात्मा की ओर उन्मुख व अग्रसर करती है| ऐसी ही विभा में रत आदर्श लोगों का समूह हिन्दु राष्ट्र हिन्दुस्तान भारतवर्ष है जो हिंसा से सदा दूर है|
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हे जगन्माता, भारत के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का समूल नाश करो| इस राष्ट्र में कहीं भी अन्धकार और असत्य की शक्तियों का अस्तित्व न रहे| इस राष्ट्र में सारे सदगुण हों, इस राष्ट्र को द्विगुणित परम वैभव, सर्वशक्तिसम्पन्नता और परम ऐश्वर्य प्रदान करो| इस राष्ट्र में सभी नागरिक तपस्वी, तेजस्वी व शक्तिशाली बनें, उन्हें तप करने का सामर्थ्य, निरंतर ब्रह्मचिंतन और स्वाध्याय करने की शक्ति और प्रेरणा दो| यहाँ आत्म-ज्ञानी महान आत्माओं का जन्म हो, इस राष्ट्र को आध्यात्म और ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ करो|
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यह राष्ट्र हमारे लिए माता है, कोई भूखंड मात्र नहीं| इस राष्ट्र की आध्यात्मिक आत्मा को हम भारतमाता कहते हैं| भारतमाता अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हों, कहीं कोई अन्धकार व असत्य का अस्तित्व न रहे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ........

चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ........
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जब भगवान चंद्रशेखर का आश्रय मिल जाए तो यमराज किसी का क्या बिगाड़ लेगा ? मार्कंडेय के समक्ष उनके प्राण हरने यमराज आये तो मार्कंडेय ने भगवान चंद्रशेखर का आश्रय लिया और अनेक कल्पों के लिए अमर हो गए| भगवान शिव की मानस कन्या नर्मदा के वे आज भी द्वारपाल है| नर्मदा की परिक्रमा उनकी आशीर्वाद से ही पूर्ण होती है| अनेक कल्प बीत जायेंगे पर वे सदा अमर ही रहेंगे|
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चंद्रशेखर चंद्रशेखर चंद्रशेखर पाहिमाम् ।
चंद्रशेखर चंद्रशेखर चंद्रशेखर रक्षमाम् ॥
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रत्नसानु शरासनं रजताद्रि शृंग निकेतनं
शिंजिनीकृत पन्नगेश्वर मच्युतानल सायकम् ।
क्षिप्रदग्द पुरत्रयं त्रिदशालयै रभिवंदितं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ १ ॥
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मत्तवारण मुख्यचर्म कृतोत्तरीय मनोहरं
पंकजासन पद्मलोचन पूजितांघ्रि सरोरुहम् ।
देव सिंधु तरंग श्रीकर सिक्त शुभ्र जटाधरं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २ ॥
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कुंडलीकृत कुंडलीश्वर कुंडलं वृषवाहनं
नारदादि मुनीश्वर स्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् ।
अंधकांतक माश्रितामर पादपं शमनांतकं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ३ ॥
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पंचपादप पुष्पगंध पदांबुज द्वयशोभितं
फाललोचन जातपावक दग्ध मन्मध विग्रहम् ।
भस्मदिग्द कलेबरं भवनाशनं भव मव्ययं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ४ ॥
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यक्ष राजसखं भगाक्ष हरं भुजंग विभूषणम्
शैलराज सुता परिष्कृत चारुवाम कलेबरम् ।
क्षेल नीलगलं परश्वध धारिणं मृगधारिणम्
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ५ ॥
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भेषजं भवरोगिणा मखिलापदा मपहारिणं
दक्षयज्ञ विनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् ।
भुक्ति मुक्ति फलप्रदं सकलाघ संघ निबर्हणं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ६ ॥
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विश्वसृष्टि विधायकं पुनरेवपालन तत्परं
संहरं तमपि प्रपंच मशेषलोक निवासिनम् ।
क्रीडयंत महर्निशं गणनाथ यूथ समन्वितं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ७ ॥
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भक्तवत्सल मर्चितं निधिमक्षयं हरिदंबरं
सर्वभूत पतिं परात्पर मप्रमेय मनुत्तमम् ।
सोमवारिन भोहुताशन सोम पाद्यखिलाकृतिं
चंद्रशेखर एव तस्य ददाति मुक्ति मयत्नतः ॥ ८ ॥
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!!ॐ नमः शिवाय !!

किस का ध्यान करें ? किस को प्रेम करें ? ....

किस का ध्यान करें ? किस को प्रेम करें ?
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ध्यान उसी का होता है जिस से प्रेम होता है| बिना प्रेम के कोई ध्यान नहीं होता| प्रेम तो हमें उस से हो गया है जिस का कभी जन्म ही नहीं हुआ है, और जिस की कभी मृत्यु भी नहीं होगी| जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो अवश्य ही होगी| पर जिसने कभी जन्म ही नहीं लिया, क्या वह मृत्यु को प्राप्त कर सकता है?
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हमारा भी एक अजन्मा स्वरुप भी है जो अनादि और अनंत है| वह ही हमारा वास्तविक अस्तित्व है| हम यह देह नहीं हैं, प्रभु की अनंतता हैं| उस अनंतता को ही प्रेम करें और उसी का ध्यान करें|
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यही शिव भाव है| उन सर्वव्यापी भगवान परम शिव में परम प्रेममय हो कर पूर्ण समर्पण करना ही उच्चतम साधना है, वही मुक्ति है, और वही लक्ष्य है|
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अपने विचारों के प्रति सतत् सचेत रहिये| जैसा हम सोचते हैं वैसे ही बन जाते हैं| हमारे विचार ही हमारे "कर्म" हैं, जिनका फल भोगना ही पड़ता है| मन की हर इच्छा, हर कामना एक कर्म या क्रिया है जिसकी प्रतिक्रया अवश्य होती है| यही कर्मफल का नियम है|
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अतः हम स्वयं को मुक्त करें ..... सब कामनाओं से, सब संकल्पों से, सब विचारों से, और निरंतर शिव भाव में रहें|
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उन परम शिव से परम प्रेम, उन्हें पाने की अभीप्सा और तड़प, उन के प्रति पूर्ण समर्पण व प्रेम, समष्टि के कल्याण की कामना व प्रार्थना, और कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
२९ अक्टूबर २०१७

शिक्षा की तरह आध्यात्म में भी क्रम होते हैं .....

किसी भी विद्यालय में जैसे कक्षाओं के क्रम होते हैं ..... पहली दूसरी तीसरी चौथी पांचवीं आदि कक्षाएँ होती है, वैसे ही साधना में भी क्रम होते हैं| जो चौथी में पढ़ाया जाता वह पाँचवीं में नहीं| एक चौथी कक्षा का बालक अभियांत्रिकी गणित के प्रश्न हल नहीं कर सकता| वैसे ही आध्यात्म में है|
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किसी भी जिज्ञासु के लिए आरम्भ में भगवान की साकार भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है| उसके पश्चात ही क्रमशः स्तुति, जप, स्वाध्याय, ध्यान आदि के क्रम आते हैं| वेदों-उपनिषदों को समझने की पात्रता आते आते तो कई जन्म बीत जाते हैं| एक जन्म में वेदों का ज्ञान नहीं मिलता, उसके लिए कई जन्मों की साधना चाहिए| दर्शन और आगम शास्त्रों को समझना भी इतना आसान नहीं है|
सबसे अच्छा तो यह है कि सिर्फ भगवान की भक्ति करें और भगवान जो भी ज्ञान करादें उसे ही स्वीकार कर लें, भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई कामना न रखें|
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आरम्भ में भगवान के अपने इष्ट स्वरुप की साकार भक्ति ही सबसे सरल और सुलभ है| किसी भी तरह का दिखावा और प्रचार न करें| घर के किसी एकांत कोने को ही अपना साधना स्थल बना लें| उसे अन्य काम के लिए प्रयोग न करें, व साफ़-सुथरा और पवित्र रखें| जब भी समय मिले वहीं बैठ कर अपनी पूजा-पाठ, जप आदि करें|
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ह्रदय में प्रेम और तड़प होगी तो भगवान आगे का मार्ग भी दिखाएँगे| जो आपको भगवान से विमुख करे ऐसे लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें| भगवान से प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ है| उन्हें अपने ह्रदय का पूर्ण प्रेम दें| शुभ कामनाएँ|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

आँख मींच कर किसी को संत ना मानें .....

आँख मींच कर किसी को संत ना मानें चाहे सरकार, समाज या दुनिया उसे संत कहती हो ...
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हमारी आस्था को खंडित करने वाला, हमारा धर्मांतरण करने वाला, हमारी जड़ें खोदने वाला, और हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार करने वाला कोई व्यक्ति कभी संत नहीं हो सकता है |
संतों में कुटिलता का अंशमात्र भी नहीं होता ...... संत जैसे भीतर से हैं, वैसे ही बाहर से होते है| उनमें छल-कपट नहीं होता |

संत सत्यनिष्ठ होते हैं ...... चाहे निज प्राणों पर संकट आ जाए, संत किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलेंगे | रुपये-पैसे माँगने वे चोर बदमाशों के पास नहीं जायेंगे| वे पूर्णतः परमात्मा पर निर्भर होते हैं |
संत समष्टि के कल्याण की कामना करते हैं, न कि सिर्फ अपने मत के अनुयायियों की |
उनमें प्रभु के प्रति अहैतुकी प्रेम लबालब भरा होता है | उनके पास जाते ही कोई भी उस दिव्य प्रेम से भर जाता है|
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आजकल हिन्दुओं का धर्मांतरण करने और हिन्दुओं को भ्रमित करने बहुत सारे देशी-विदेशी सैंट लोग भारत में घूम रहे हैं, अपने विद्यालय खोल रहे हैं, सेवा के दिखावे कर रहे हैं, व और भी अनेक फर्जी कार्य कर रहे हैं | उनके प्रभाव में न आयें |

ॐ ॐ ॐ ||

बोल्शेविक क्रांति का शताब्दी वर्ष ......

बोल्शेविक क्रांति का शताब्दी वर्ष ......
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२५ अक्टूबर १९१७ को वोल्गा नदी में खड़े रूसी युद्धपोत औरोरा से एक सैनिक विद्रोह के रूप में आरम्भ हुई रूस की बोल्शेविक क्रांति का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है| पिछले सौ वर्षों में हुई यह विश्व की सबसे बड़ी घटना थी जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया|
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मैं कम्युनिष्ट नहीं हूँ, मार्क्सवाद में नहीं, वेदान्त दर्शन में पूर्ण आस्था रखता हूँ, पर जीवन की युवावस्था में एक ऐसा समय अवश्य था जब मार्क्सवाद के प्रभाव से अछूता नहीं रहा था| शायद ही कोई युवा उस समय ऐसा रहा होगा जिस पर मार्क्सवाद की छाया नहीं पड़ी हो|
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समाज में व्याप्त अन्याय, अभाव और वर्गसंघर्ष की भावना ही मार्क्सवाद को जन्म देती है| यह एक घोर भौतिक और आध्यात्म विरोधी विचारधारा है| विश्व को इसके अनुभव से निकलना ही था| इस विचारधारा ने अन्याय और अभाव से पीड़ित विश्व में एक समता की आशा जगाई पर कालांतर में सभी को निराश किया|
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इस विचारधारा का उद्गम ब्रिटेन से हुआ पर ब्रिटेन में इसका प्रभाव शून्य था| रूस उस समय एक ऐसा देश था जहाँ विषमता, अन्याय, शोषण और अभावग्रस्तता बहुत अधिक थी| व्लादिमीर इल्यिच उलियानोव लेनिन एक ऊर्जावान और ओजस्वी वक्ता था जिसने रूस में इस विचार को फैलाया| लेनिन का जन्म १० अप्रेल १८७० को सिम्बर्स्क (रूस) में हुआ था| सन १८९१ में इसने क़ानून की पढाई पूरी की| अपने उग्र विचारों के कारण यह रूस से बाहर निर्वासित जीवन जी रहा था| रूसी शासक जार निकोलस रोमानोव ने इसके भाई को मरवा दिया था अतः यह जार के विरुद्ध एक बदले की भावना से भी ग्रस्त था|
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इसी के प्रयास से (और कुछ पश्चिमी शक्तियों की अप्रत्यक्ष सहायता से) सोवियत सरकार की स्थापना हुई और रूस एक कमजोर देश से विश्व की महाशक्ति बना| मार्क्स के विचारों को मूर्त रूप लेनिन ने ही दिया| मार्क्सवाद की स्थापना के लिए करोड़ों लोगों की हत्याएँ हुईं, बहुत अधिक अन्याय भी हुआ| पूरे विश्व में यह विचारधारा फ़ैली, कई देशों में मार्क्सवादी सरकारें भी बनीं, पर अंततः यह विचारधारा विफल ही सिद्ध हुई क्योंकि यह घोर भौतिक विचारधारा थी|
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७ नवम्बर १९१७ को सोवियत सरकार स्थापित हुई थी अतः विधिवत रूप से ७ नवम्बर को ही बोल्शेविक क्रांति दिवस के रूप में रूस में मनाया जाता था| २१ जनवरी १९२४ को लेनिन की मृत्यु हुई| उसके बाद स्टालिन ने सोवियत संघ पर राज्य किया| स्टालिन रूसी नहीं था, जॉर्जियन था (जॉर्जिया अब रूस से अलग देश है)| निरंकुश निर्दयी तानाशाह स्टालिन को ही द्वितीय विश्वयुद्ध जीतने और मार्क्सवादी विचारधारा को फैलाने का श्रेय जाता है|
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सन १९९१ में सोवियत संघ के पतन के बाद रूसी सरकार ने मार्क्सवाद को अस्वीकार कर दिया पर विश्व में विशेषकर भारत में इसका प्रभाव अभी भी है|
चीन में भी कम्युनिज्म व्यवहारिक रूप से समाप्त हो गया है| अब कम्युनिष्ट सता विश्व में कहीं भी नहीं है| कल मैंने बोल्शेविक क्रांति पर एक विस्तृत पोस्ट भी डाली थी|
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सभी को नमन ! शुभ कामनाएँ | ॐ ॐ ॐ !!

पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल ......

पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल ......

जब तेल ही बेचना था तो फारसी क्यों सीखी ?

जब सांसारिक मोह माया में ही फँसे रहना था तो आध्यात्म में क्यों आये ?
त्रिशंकु की गति सबसे अधिक खराब होती है| या तो इस पार ही रहना चाहिए या उस पार निकल जाना चाहिए| बीच में लटकना अति कष्टप्रद है|
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"पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल" एक बहुत पुराना मुहावरा है| देश पर जब मुसलमान शासकों का राज्य था तब उनका सारा सरकारी और अदालती कामकाज फारसी भाषा में ही होता था| उस युग में फारसी भाषा को जानना और उसमें लिखने पढने की योग्यता रखना एक बहुत बड़ी उपलब्धी होती थी| फारसी जानने वाले को तुरंत राजदरबार में या कचहरी में अति सम्मानित काम मिल जाता था| बादशाहों के दरबार में प्रयुक्त होने वाली फारसी बड़ी कठिन होती थी, जिसे सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी|
बादशाहों के उस जमाने में तेली और तंबोली (पान बेचने वाला) के काम को सबसे हल्का माना जाता था| अतः यह कहावत पड़ गयी कि "पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल"| अर्थात जब तेल ही बेचना था तो इतना परिश्रम कर के फारसी पढने का क्या लाभ हुआ?
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किसी को आत्मज्ञान ही प्राप्त करना है तो लक्ष्य की प्राप्ति तक उसे गुरु प्रदत्त आध्यात्मिक साधना के अतिरिक्त अन्य सब कुछ भूल जाना चाहिए| इधर उधर हाथ मारने से कुछ भी लाभ नहीं है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

रूस की अक्टूबर क्रांति (बोल्शेविक क्रांति) क्या सचमुच एक महान क्रांति थी या एक भयंकर छलावा थी ?........

(संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख / October 25, 2015)
रूस की अक्टूबर क्रांति (बोल्शेविक क्रांति) क्या सचमुच एक महान क्रांति थी या एक भयंकर छलावा थी ?........
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7 नवंबर 1917 (रूसी कैलेंडर 25 अक्टूबर) को हुई बोल्शेविक क्रांति पिछले एक सौ वर्षों में हुई विश्व की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी जिसे महान अक्टूबर क्रांति का नाम दिया गया| इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि रूस में जारशाही का अंत हुआ और मार्क्सवादी सता स्थापित हुई व सोवियत संघ का जन्म हुआ|
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी योरोप के अनेक देशों में, चीन, उत्तरी कोरिया, उत्तरी विएतनाम, व क्यूबा में रूसी प्रभाव से मार्क्सवादी शासन स्थापित हुए| मार्क्सवाद ने विश्व की चिंतनधारा को बहुत अधिक प्रभावित किया| कहते हैं कि पिछले सौ वर्षों में विश्व की चिंतनधारा को सर्वाधिक प्रभावित जिन तीन व्यक्तियों ने किया है, वे हैं ..... मार्क्स, फ्रायड और गाँधी|
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पर मेरे दृष्टिकोण से यह तथाकथित क्रांति एक छलावा थी| मार्क्सवादी मित्र मुझे क्षमा करें, मेरा यह मानना है कि मार्क्सवादी साम्यवाद ने विश्व की चेतना को नकारात्मक रूप से ही बहुत अधिक प्रभावित किया है| यह मार्क्सवादी साम्यवाद एक छलावा था जिसने मेरे जैसे करोड़ों लोगों को भ्रमित किया| मुझे इसके छलावे से निकलने में बहुत समय लगा| बाद में मेरे जैसे और भी अनेक लोग इस अति भौतिक व धर्म-विरोधी विचारधारा के भ्रमजाल से मुक्त हुए|
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विश्व में जहाँ भी साम्यवादी सत्ताएँ स्थापित हुईं वे अपने पीछे एक विनाशलीला छोड़ गईं| इनके द्वारा अपने ही करोड़ों लोगों का भयानक नरसंहार हुआ और मानवीय चेतना का अत्यधिक ह्रास हुआ| अब तो विश्व इसके प्रभाव से मुक्त हो चुका है| सिर्फ उत्तरी कोरिया में ही एक निरंकुश तानाशाही द्वारा यह व्यवस्था बची हुई है, जिसका मार्क्स से कोई सम्बन्ध नहीं है| भारत में भी साम्यवादी मार्क्सवाद के बहुत अधिक अनुयायी हैं|
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यह एक धर्म-विरोधी व्यवस्था थी इसलिए मैं यह लेख लिख रहा हूँ| यह क्रांति कोई सर्वहारा की क्रांति नहीं थी| यह एक सैनिक विद्रोह था जो वोल्गा नदी में खड़े औरोरा नामक नौसैनिक युद्धपोत से आरम्भ हुआ और सारी रुसी सेना में फ़ैल गया| इस विद्रोह का कोई नेता नहीं था अतः फ़्रांस में निर्वासित जीवन जी रहे व्लादिमीर इलीइच लेनिन ने जर्मनी की सहायता से रूस में आकर इस विद्रोह का नेतृत्व संभाल लिया और इसे सर्वहारा की मार्क्सवादी क्रांति का रूप दे दिया|
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इस सैनिक विद्रोह की पृष्ठभूमि में जाने के लिए तत्कालीन रूस की भौगोलिक, राजनितिक, सैनिक व आर्थिक स्थिति को समझना होगा| रूस में भूमि तो बहुत है पर उपजाऊ भूमि बहुत कम है| रूस सदा से एक विस्तारवादी देश रहा है| इसने फैलते फैलते पूरा साइबेरिया, अलास्का और मंचूरिया अपने अधिकार में ले लिया था| उसका अगला लक्ष्य कोरिया को अपने अधिकार में लेने का था| रूस की इस योजना से जापान में बड़ी उत्तेजना और आक्रोश फ़ैल गया क्योंकी जापान का बाहरी विश्व से सम्बन्ध कोरिया के माध्यम से ही था| अतः जापान ने युद्ध की तैयारियाँ कर के अपनी सेनाएँ रूस के सुदूर पूर्व, कोरिया और मंचूरिया में उतार दीं| रूस और जापान में युद्ध हुआ जिसमें रूस पराजित हुआ| जापान ने कोरिया और पूरा मंचूरिया उसकी राजधानी पोर्ट आर्थर सहित रूस से छीन लिया|
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रूसी शासक जार ने अपनी नौसेना को युद्ध के लिए भेजा जो बाल्टिक सागर से हजारों मील की दूरी तय कर अटलांटिक महासागर में उत्तर से दक्षिण की ओर समुद्री यात्रा करते करते, अफ्रीका का चक्कर लगाकर जब तक मेडागास्कर पहुँची, मंचुरिया का पतन हो गया था| फिर भी रुसी नौसेना हिन्द महासागर को पार कर, सुंडा जलडमरूमध्य और चीन सागर होती हुई सुदूर पूर्व में व्लादिवोस्टोक की ओर रवाना हुईं| जब रुसी नौसेना जापान और कोरिया के मध्य त्शुशीमा जलडमरूमध्य को पार कर रही थी उस समय जापान की नौसेना ने अचानक आक्रमण कर के पुरे रूसी नौसेनिक बेड़े को डुबा दिया, जिसमें से कोई भी जहाज नहीं बचा और हज़ारों रुसी सैनिक डूब कर मर गए| यह एक ऐसी घटना थी जिससे रूसी सेना में और रूस में एक घोर निराशा फ़ैल गयी|
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बाद में हुए प्रथम विश्व युद्ध में रुसी सेना की बहुत दुर्गति हुई| रुसी सेना के पास न तो अच्छे हथियार थे, न अच्छे वस्त्र और न पर्याप्त खाद्य सामग्री| जितने सैनिक युद्ध में मरे उससे अधिक सैनिक तो भूख और ठण्ड से मर गए| अतः सेना में अत्यधिक आक्रोश था अपने शासक जार निकोलस रोमानोव के प्रति| रूस में खाद्य सामग्री की बहुत अधिक कमी थी और पेट भर के भोजन भी सभी को नहीं मिलता था| सामंतों और पूँजीपतियों द्वारा जनता का शोषण भी बहुत अधिक था| अतः वहाँ की प्रजा अपने शासक और वहाँ की व्यवस्था के प्रति अत्यधिक आक्रोशित थी|
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उपरोक्त परिस्थितियों में सैनिक विद्रोह के रूप में रूस में तथाकथित महान अक्टूबर क्रांति हुई| जो सैनिक इसके पक्ष में थे वे बहु संख्या में थे अतः "बोल्शेविक" कहलाये और जो वहाँ के शासक के पक्ष में अल्प संख्या में थे वे "मेन्शेविक" कहलाये| उनमें युद्ध हुआ और बोल्शेविक जीते अतः यह क्रांति बोल्शेविक क्रांति कहलाई|
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फिर रूस में क्या हुआ और कैसे साम्यवाद अन्य देशों में फैला यह तो प्रायः सब को पता है| चीन में साम्यवाद रूस की सैनिक सहायता से आया| माओ के long march में स्टालिन के भेजे हुए रुसी सेना के टैंक भी थे जिनके कारण ही माओ सत्ता में आ पाया, न कि अपने स्वयं के बलबूते पर|
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सन १९६७ में जब बोल्शेविक क्रांति की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी, संयोग से मैं उस समय रूस में रहकर एक प्रशिक्षण ले रहा था| मेरी आयु तब उन्नीस-बीस वर्ष की थी और वहाँ की सब बातें याद हैं| सन १९६८ में जब मार्क्सवाद विरोधी प्रतिक्रांति चेकोस्लोवाकिया में हुई थी, और २० अगस्त १९६८ को वारसा पेक्ट के दो लाख से अधिक सैनिकों ने चेकोस्लोवाकिया पर मार्क्सवाद की पुनर्स्थापना के लिए आक्रमण कर दिया था, उन दिनों भी मैं रूस में ही था| पूरे चेकोस्लोवाकिया में मार्क्सवाद और रूस विरोधी प्रदर्शन हुए थे, प्राग में कई देशभक्त चेक युवक जोश में आकर अपना सीना खोलकर रूसी टेंकों के सामने खड़े हो गए, पर उन सबको कुचल दिया गया और पूरी प्रतिक्रांति को निर्दयता से दबा दिया गया| १९५६ में ऐसी ही प्रतिक्रांति हंगरी में भी हुई थी जिसे भी कुचल दिया गया था| २५ अगस्त १९६८ को मास्को के लाल चौक में अनेक रूसी लोगों ने ही साहस कर के अपनी सरकार की नीतियों और मार्क्सवादी व्यवस्था के विरुद्ध प्रदर्शन किया था जिन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया|
बाद में मुझे जीवन में अनेक मार्क्सवादी देशों .... लातविया, रोमानिया, युक्रेन, चीन और उत्तरी कोरिया में जाना हुआ, अतः इस व्यवस्था को मैं अच्छी तरह समझता हूँ|
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विश्व की चेतना को इस प्रभाव से निकलना ही था और आने वाले समय के लिए यह आवश्यक भी हो गया था| सन १९८९ में रोमानिया में जब वहाँ के महाभ्रष्ट मार्क्सवादी शासक चाउसेस्को के विरुद्ध बुखारेस्ट में प्रदर्शन और आन्दोलन हो रहे थे तब सोवियत संघ ने आन्दोलनकारियों का समर्थन किया, जो अपने आप में ही मार्क्सवाद के पतन का सूचक था| उस समय मैं युक्रेन में था और समझ गया कि मार्क्सवाद का अंतिम समय आ गया है| अगले एक वर्ष में सोवियत संघ रेत में बने एक महल की तरह अपने आप ही ढह गया और विश्व में साम्यवादी सरकारों का गिरना आरंभ हो गया| सभी साम्यवादी देशों में लोगों ने मार्क्स और लेनिन की मूर्तियों को तोड़ना और मार्क्सवादियों को पीटना आरम्भ कर दिया| मार्क्सवाद ने अपनी अंतिम साँसे लीं और दम तोड़ दिया|
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मार्क्सवादी सत्ताओं ने धर्म की जड़ों को उखाड़ कर फैंक दिया था| पर अब वहाँ धर्म पुनर्जीवित हो रहा है|
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साम्यवाद का मूल स्रोत ब्रिटेन है| जैसे भारतीय सभ्यता को नष्ट करने का षडयंत्र ब्रिटेन से आरम्भ हुआ था, वैसे ही रूस को नष्ट करने का भी यह मार्क्सवाद एक षड्यंत्र था जिसे लेनिन के माध्यम से रूस में निर्यातित किया गया| | जर्मनी से उपद्रवी मार्क्स को ब्रिटेन बुलाया गया| उसके साहित्य को ब्रिटेन में तो नहीं पढ़ाया गया पर सरकारी खर्च से उसके साहित्य को छाप कर पूरे विश्व में फैलाया गया| मुझे लगता है कि मार्क्सवाद को एक षड्यंत्र के अंतर्गत भारत में भी श्री ऍम.ऐन. रॉय नाम के एक विचारक के द्वारा निर्यातित किया गया, पर भारत में धर्म की जड़ें बहुत गहरी थीं, इसलिए भारत में मार्क्सवादी सत्ता कभी केंद्र में स्थापित नहीं हो पाई| दुनिया के सारे उपद्रवियों को ब्रिटेन में शरण मिल जाती है| अब आजकल जर्मनी को नष्ट करने का एक षड्यंत्र चल रहा है, जिसके अंतर्गत अरब मुस्लिम शरणार्थियों को वहाँ भेजा जा रहा है| वे जर्मनी के मूल स्वरुप को कुछ वर्षों में नष्ट कर देंगे|
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आश्चर्य है कि कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगल्स और लेनिन व माओ, इन सब को मार्क्सवादी सत्ताओं ने देवता की तरह अपनी प्रजा पर थोपा| सारे साम्यवादी देशों में प्रायः हर प्रमुख चौराहों पर इनकी मूर्तियाँ स्थापित की गईं| अब तो वे सब तोड़ दी गईं हैं| इन तीनों के व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी आदर्श नहीं था| चीन में माओ भी कोई आदर्श नहीं था पर उसने साम्यवाद को चीनी राष्ट्रवाद से जोड़कर एक अच्छा काम किया| भारत में साम्यवाद को हिन्दू राष्ट्रवाद के विरुद्ध खड़ा किया गया|
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अपने जीवन के अंतिम काल में लेनिन एक आदतन शराबी और अत्यधिक परस्त्रीगामी हो गया था और शराब के नशे में ही मर गया| मार्क्स एक चैन स्मोकर और परस्त्रीगामी था, जिसने अपनी नौकरानियों से अवैध बच्चे पैदा किये और कभी उनकी जिम्मेदारी नहीं ली| स्टालिन को उसके ही पुलिस प्रमुख बेरिया ने शराब में जहर देकर मार दिया और अंत में स्वयं भी ख्रुश्चेव द्वारा मरवा दिया गया| चीन में चेयरमैन माओ के बारे में उसके एक निजी डॉक्टर ने (जिसने बाद में भागकर अमेरिका में शरण ली थी) अपनी पुस्तक में लिखा है कि माओ ने सत्ता के मद में अपने जीवन में एक हज़ार से भी अधिक युवा महिलाओं से बलात् यौन सम्बन्ध स्थापित किये और करोड़ों चीनियों की हत्याएँ करवाईं| किम इल सुंग भी निजी जीवन में एक दुराचारी था| कोई भी एक ऐसा मार्क्सवादी नेता नहीं है जिसके जीवन में कुछ तो आदर्श हो|
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सार की बात तो यह है कि साम्यवादी बोल्शेविक क्रांति एक छलावा थी| अब तो रूस में सनातन धर्म जिस गति से फ़ैल रहा है उससे लगता है रूस का भावी धर्म सनातन धर्म ही हो जाएगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

समाज और राष्ट्र में व्याप्त अज्ञानता और अन्धकार दूर कैसे हो ? ....

समाज और राष्ट्र में व्याप्त अज्ञानता और अन्धकार दूर कैसे हो ? .....
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पूरी सृष्टि परमात्मा के संकल्प से बनी है| परमात्मा से जुड़कर ही कोई सृजनात्मक कार्य और समस्याओं का समाधान किया जा सकता है| इसके लिए साधना और समर्पण आवश्यक है| भगवान भुवनभास्कर की उपस्थिति मात्र से ही कहीं पर भी कोई अन्धकार नहीं रहता| उसी तरह हमें अपने निज जीवन को ज्योतिर्मय बनाना होगा तभी हम समाज और राष्ट्र में व्याप्त अन्धकार और अज्ञानता को दूर कर सकते हैं, अन्यथा नहीं| सिर्फ बुद्धि से ही हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते| किसी भी मान्यता के पीछे निज अनुभव भी होना चाहिए|
जीवन की किसी भी जटिल समस्या और बुराई का समाधान मात्र स्वयं के प्रयास से नहीं हो सकता| परमात्मा की करुणामयी कृपा का होना अति आवश्यक है| निष्काम भाव से परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम और समर्पण ही सब समस्याओं का समाधान है| फिर योग-क्षेम का वहन वे ही करते हैं|
हम सब के जीवन में शुभ ही शुभ हो| सभी को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अक्टूबर २०१७

आत्मा की विस्मृति पाप है ....

आत्मा की विस्मृति पाप है, आत्मा में स्थिति पुण्य है, आत्मज्ञान धर्म है, और आत्मानुसंधान सबसे बड़ी साधना है ......
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आत्मा की विस्मृति पाप है, आत्मा में स्थिति पुण्य है, आत्मज्ञान धर्म है, और आत्मानुसंधान सबसे बड़ी साधना है| स्वयं को पापी कहना पाप है क्योंकि यह साक्षात भगवान नारायण को गाली देना है जो ह्रदय में नित्य बिराजमान हैं| सत्य ज्ञान अनंत परम ब्रह्म सच्चिदानंद हम सब के हृदय में नित्य बिराजमान हैं, उनका चैतन्य हमारे ह्रदय में सदा प्रकाशित है|
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गहन ध्यान में दिखाई देने वाले कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक ही बाहर के तिमिर का नाश कर सकता है| अपने सर्वव्यापी शिवरूप में स्थित होना समष्टि का कल्याण है| हम सब सामान्य मनुष्य नहीं, परमात्मा की अमृतमय अभिव्यक्ति, साक्षात शिव परमब्रह्म हैं| जिस पर भी हमारी दृष्टि पड़े वह तत्क्षण परम प्रेममय हो जाए, जो भी हमें देखे वह भी तत्क्षण धन्य हो जाए| भगवान कहीं आसमान से नहीं उतरने वाले, अपने स्वयं के हृदय में ही हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

जो हृदय की घनीभूत पीड़ा को दूर करे वही सबसे बड़ा लाभ है ......

जो हृदय की घनीभूत पीड़ा को दूर करे वही सबसे बड़ा लाभ है ......
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मैं स्वयं की पीड़ा, स्वयं का दुःख और कष्ट तो सहन कर लेता हूँ, पर जो लोग मुझ से जुड़े हुए हैं उनका कष्ट सहन नहीं कर पाता और उनके दुःख में स्वयं दुखी होजाता हूँ, यह मेरी कमी ही है|
यह संसार सचमुच दुःख का महासागर है जिसमें चारों ओर कपटी हिंसक प्राणी भरे हुए हैं? कोई कहता है कि मनुष्य का अहंकार दुखी है, कोई इसे कर्मों का खेल बताता है, तो कोई कुछ और| दुखी मनुष्य बेचारा कपटी ठगों के चक्कर में पड़ जाता है जो आस्थाओं के नाम पर उसका सब कुछ ठग लेते हैं| इस संसार में मनुष्य जिन्हें अपना समझता है वे भी उसके साथ छल करते हैं|
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गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने बहुत अच्छा मार्गदर्शन दिया है| उन्होंने एक स्थिति को प्राप्त करने का आदेश दिया है जिसमें स्थित होकर मनुष्य दुःखों से परे हो जाता है ....

"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते" ||६.२२||
भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसको आत्मलाभ बताकर इसकी व्याख्या यों की है .....
"यं लब्ध्वाम् यम् आत्मलाभं लब्ध्वा प्राप्य च अपरम् अन्यत् लाभं लाभान्तरं ततः अधिकम् अस्तीति न मन्यते न चिन्तयति | किञ्च यस्मिन् आत्मतत्त्वे स्थितः दुःखेन शस्त्रनिपातादिलक्षणेन गुरुणा महता अपि न विचाल्यते" ||
आचार्य शंकर के अनुसार यह आत्मतत्व में स्थिति रूपी सबसे बड़ा लाभ है जिस लाभ को प्राप्त होने से अधिक अन्य कुछ भी लाभ नहीं है, जिसमें स्थित हुआ योगी बड़े भारी से भारी दुःख से भी विचलित नहीं होता है|
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आत्मतत्व में स्थित होने का मार्ग तो कोई श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही बता सकता है| ह्रदय में परम प्रेम और अभीप्सा होगी तो भगवान स्वयं किसी न किसी रूप में हमारा मार्गदर्शन करेंगे| भगवान से बड़ा कोई अन्य हमारा हितैषी नहीं है, उनसे बड़ा कोई अन्य मित्र भी नहीं है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ अक्टूबर २०१७

एक साधे सब सब सधे, सब साधे सब खोय ....

एक साधे सब सब सधे, सब साधे सब खोय ....
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हमारे एक मित्र के बच्चे परीक्षा के दिनों में कई मंदिरों में प्रार्थना करने, आशीर्वाद प्राप्त करने, और साथ साथ एक मज़ार पर भी दुआ माँगने जाते थे| उनकी माताजी यह सफाई देती थी कि हम तो सभी धर्मों और देवी-देवताओं को मानते हैं| उनके बच्चे कहते कि किसी ना किसी देवी-देवता की तो दुआ लग ही जायेगी|
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अधिकाँश घरों में पूजा घरों में अनेक देवी-देवताओं के चित्र सजे रहते हैं ... दुर्गा जी के, हनुमान जी के, राम जी के, शिव जी के, साईं बाबा के और यहाँ तक कि जीसस क्राइस्ट के भी| सभी की विधिवत आरती और प्रार्थना भी होती है| एक-दो काली मंदिरों में तो काली जी की प्रतिमा के साथ मदर टेरेसा के चित्र की भी पूजा होते मैनें स्वयं अपनी आँखों से देखा है| और भी बहुत सारी बाते हैं|
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ऐसा सब धर्म शिक्षण के अभाव में होता है| ये सभी तो एक ही परमात्मा के विविध रूप हैं| अब क्या बताऊँ, क्या लिखूं? किसी को कुछ कहने से कोई लाभ नहीं है, अपने विरोधियों की संख्या ही बढ़ाना है|
भगवान सभी को सद् बुद्धि दे| ॐ ॐ ॐ !!


Sunday 29 October 2017

एक श्वान बादशाह का शूकर-शूकरी प्रेम :-----

एक श्वान बादशाह का शूकर-शूकरी प्रेम :-----

एक श्वान बादशाह को एक पराई शादीशुदा स्त्री "मुमताज महल" पसंद आई जिसे पाने के लिए उसने उसके पति की ह्त्या करा दी, और अपनी शक्ति के जोर से उसे अपनी चौथी बीबी बना लिया| उसके बाद उसने तीन और निकाह किये यानी उसकी तीन सौतनें और ले आई गयीं| उन्नीस वर्ष के विवाहित जीवन में चौदह बच्चे उस स्त्री से पैदा किये गए| कोई मातृत्व अवकाश नहीं| वह बीबी थी या बच्चे पैदा करने की मशीन? ऐसे महान प्रेम के आगे शूकर-शूकरी भी शर्मा जाएँ| उसने अपनी इस बीबी को सदा गर्भवती ही रखा, कभी आराम नही करने दिया| जब वह चौदहवीं संतान पैदा करने वाली थी तब बादशाह उसे अपने साथ दक्खिन में लड़ाई के मैदान में ले गया, जहाँ जख्मी सिपाहियों के मरहम लगाने वाले हकीम मौजूद थे| उस लड़ाई के मैदान में अपनी चौदहवीं संतान पैदा करते समय वह अपने शौहर की हवश का शिकार हो गयी| काश उस श्वान बादशाह ने ताजमहल की जगह एक जच्चा-बच्चा घर बनाया होता| उस बदनसीब मुमताज महल के मरते ही उसकी छोटी बहिन से उसने निकाह कर लिया| इस श्वान बादशाह को उसकी अगली शैतान औलाद ने बंदीगृह में डाल दिया तो वह श्वान बादशाह अपनी हवश अपनी बेटी जहाँआरा से पूरी करता रहा क्योंकि उसकी शक्ल #मुमताजमहल से मिलती थी| बगीचे के फल पर पहला हक उसके माली का ही होता है .... यही उसने कर दिखाया| कहा जाता है कि उसने मुमताज की याद में #ताजमहल बनवाया, पर वह प्यार कहाँ था? Where the hell was love?

"धर्मनिरपेक्षता" और "जातिवादी भेदभाव" की अफीम :--


"धर्मनिरपेक्षता" और "जातिवादी भेदभाव" की अफीम :--
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पिछले दो सौ वर्षों से हिंदुत्व विरोधी शक्तियों ने भारत से हिंदुत्व को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है| हिंदुत्व को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम तो भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को समाप्त किया गया| पूरे देश में लाखों गुरुकुल थे जिन्हें बड़ी क्रूरता व निर्दयता से बंद किया गया| आचार्यों की हत्याएँ की गईं, बचे हुओं को निर्धन बना कर भगा दिया गया, उनके ग्रन्थ जला दिए गए,और उन्हें इतना निर्धन बना दिया गया कि वे अपने बच्चों को भी नहीं पढ़ा सकें| उन्हें दरिद्र बनाकर उनके ग्रन्थ रद्दी में खरीद लिए गए| ग्रंथों में मिलावट कर के उन्हें विवादित बना दिया गया, शिक्षक वर्ग जो प्रायः ब्राह्मण थे उनको अत्यधिक बदनाम किया गया, जान बूझ कर जातिगत विद्वेष उत्पन्न किया गया, आर्य आक्रमण का झूठा इतिहास बना कर पढ़ाया गया जो अब तक पढ़ाया जा रहा है| भारत के संविधान को हिन्दू विरोधी बनाने के लिए उसमें ऐसी व्यवस्था की गयी कि हिन्दू अपना धर्म विद्यालयों में न पढ़ा सकें| भारत में हिन्दू अपना धर्म विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते जबकि अन्य मतावलंबी पढ़ा सकते हैं| सबसे बड़ा प्रहार किया गया "धर्मनिरपेक्षता" और "जातिवादी भेदभाव" की अफीम खिलाकर| भारत में अभी भी भारत के शत्रुओं द्वारा लिखा गया झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है| एक षडयंत्र के अंतर्गत हिन्दुओं को आत्महीनता के बोध से ग्रस्त किया गया|
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अब स्थिति ऐसी हो गयी है कि धर्म-शिक्षण के अभाव में हिन्दू केवल नाम के ही हिन्दू रह गए हैं| विदेशों से नियंत्रित हिन्दू विरोधी मीडिया और कुशिक्षा ने हिन्दुओं के दिमाग में झूठे "सेक्युलरिज्म" और "जातिवादी भेदभाव" का अफीम इतना अधिक भर दिया है कि मौत को सामने देखकर भी वे शुतुरमुर्ग की तरह एक झूठ-कपट से भरे फर्जी सिद्धांत "सर्वधर्म-समभाव" की रेत में मुँह छुपा लेते हैं| अब तो स्थिति ऐसी बन गयी है कि हिन्दुओं को अपने ही धर्म को जानने की भी रूचि नहीं रही है|
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देश की पिछली सरकार ने तो हिंदुत्व को समाप्त करने की पूरी योजना बना ली थी एक ऐसा कानून ला कर जो हिंदुत्व को समाप्त ही कर देता| भगवा आतंकवाद का सिद्धांत गढ़ा गया, संतों को बदनाम किया गया, कांची के शंकराचार्य को ठीक दीपावली के दिन गिरफ्तार किया गया, साध्वी प्रज्ञा, स्वामी असीमानंद आदि अनेकों को गिरफ्तार कर के जेलों में अमानवीय यंत्रणाएँ दी गईं| उद्देश्य एक ही था .... हिंदुत्व को बदनाम करना| यह तो भगवान की परम कृपा थी कि वह हिन्दू विरोधी सरकार सत्ता से बाहर हो गयी| अब वे हिन्दू विरोधी शक्तियाँ बापस सत्ता पाने को फड़फड़ा रही हैं| हर दिन देश के किसी न किसी भाग में हिन्दुओं पर सुनियोजित साम्प्रदायिक आक्रमण होते रहते हैं, मीडिया का अधिकाँश भाग तो देखने तक के लिए तैयार नहीं होता|
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नरेन्द्र मोदी से इन छद्म-सेक्युलरों को घृणा इस कारण है कि हिन्दू विरोधी शक्तियों द्वारा आरम्भ कराए गए गोधरा दंगे को मोदी ने सेना बुलाकर शान्त करा दिया, और उसके पश्चात फिर कभी गुजरात में दंगा नहीं भड़कने दिया| दंगा नहीं होगा तो हिन्दुओं को बदनाम करने का अवसर नहीं मिलेगा|
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भारत को बहुत सारे देशभक्त राष्ट्रवादी नेताओं की आवश्यकता है| जो समझदार हैं उन प्रबुद्ध लोगों को चाहिए हिन्दुओं की अपने धर्म को जानने में रूचि जागृत करें अन्यथा हिन्दुओं का वही हाल होगा जो पाकिस्तान में हुआ है| कहीं ऐसी स्थिति न आ जाए की चीन की सहायता से पकिस्तान फिर भारत पर आक्रमण कर दे|
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आध्यात्मिक रूप से हमें आवश्यकता है एक "ब्रह्मशक्ति" की जो देश के "क्षत्रीयत्व" व स्वाभिमान को जगा सके| वीरता का भाव उत्पन्न करने के लिए गीता का अध्ययन अध्यापन और भगवान श्रीराम की भी साधना करनी होगी जिन्होंने आतताइयों का नाश करने के लिए हाथ में अस्त्र धारण कर रखा है| असत्य और अन्धकार की आसुरी शक्तियाँ अनादि काल से सक्रीय रही हैं, उन्होंने राज्य भी किया है, पर अंततः सदा उनका पराभव हुआ है|
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भारत की अस्मिता और प्राण हिन्दू धर्म है| बिना हिंदुत्व के भारत भारत नहीं है| अगर हिन्दू , अपने धर्म को जीवन की प्राथमिकता नहीं बनाएगा .... तो हर हिन्दू का जीवन समस्याग्रस्त होना सुनिश्चित है| भारत की आत्मा आध्यात्मिकता है| भारत में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए हमें आध्यात्म की ओर लौटना होगा और स्वयं को दैवीय शक्तियों से युक्त कर बलशाली होना होगा| स्वयं सब प्रकार से शक्तिशाली बनकर ही हम धर्म और राष्ट्र की रक्षा कर सकेंगे|
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निज जीवन में हम धर्म का पालन करें और परमात्मा को व्यक्त करें| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Wednesday 18 October 2017

क्या दोष सिर्फ उत्तरी कोरिया का ही है ?

क्या दोष सिर्फ उत्तरी कोरिया का ही है ?
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हम लोग उत्तरी कोरिया के तानाशाह शासक किम जोंग उन को कितना भी बुरा बताएँ पर जापान और अमेरिका ने वहाँ जो पाप किये हैं, वे अक्षम्य हैं| मुझे सन १९८० में बीस दिनों के लिए उत्तरी कोरिया जाने का अवसर मिला था| उन दिनों रूसी भाषा का अच्छा ज्ञान होने के कारण वहाँ किसी भी तरह की भाषा की समस्या नहीं आई| वहाँ के सभी अधिकारी रूसी भाषा समझते और बोलते थे| वहाँ काफी रूसी काम करते थे जिनका व्यवहार बड़ा मित्रवत था| कुछ हमारे मित्र भी बन गये थे| जब मैं वहाँ था उसी समय कोरियाई युद्ध की तीसवीं वर्षगाँठ भी मनाई गयी थी| भारत में उन दिनों संजय गाँधी की एक दुर्घटना में मरने की खबर भी मुझे वहाँ रूसियों से ही मिली थी| संयोगवश वहाँ की सेना के एक-दो वरिष्ठ अधिकारियों से भी काफी बातचीत हुई थी जिनसे वहाँ के जीवन के बारे में काफी कुछ जानने को मिला| वहाँ का सरकारी प्रचार साहित्य भी काफी पढ़ा| सबसे अधिक जानकारी तो अपनी जिज्ञासुवृति और अध्ययन से मिली|
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वहाँ की स्थिति को समझने के लिए हमें सन १९०० ई.के बाद से द्वितीय विश्वयुद्ध, और उसके बाद के दस वर्षों के इतिहास को जानना होगा| यहाँ मैं कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक जानकारी देने का प्रयास करूँगा|
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विगत में रूस ने धीरे धीरे अपनी सीमाओं का विस्तार एशिया के विशाल निर्जन उत्तरी भाग (साइबेरिया), एशिया के सुदूर पूर्व भाग, जापान सागर में सखालिन द्वीप, उत्तरी प्रशांत में अल्युशियन द्वीप समूह से होते हुए उत्तरी अमेरिका में अलास्का तक कर लिया था| उत्तरी-पूर्वी एशिया में मंचूरिया भी रूस के आधीन था जहाँ के पोर्ट आर्थर में रूसी पूर्वी सेना का मुख्यालय था| एक रूसी जनरल उस क्षेत्र का प्रशासक हुआ करता था|
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रूस ने धीरे धीरे पूरे कोरिया पर अपना अधिकार करने का प्रयास किया जिसमें वह लगभग सफल भी हो गया था, पर जापान इस से तिलमिला उठा क्योंकि जापान का विश्व के अन्य भागों से संपर्क कोरिया के माध्यम से ही था| जापान से रहा नहीं गया और जापान ने सन १९०५ में कोरिया में अपनी सेनाएँ उतार कर रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी|
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जापानी सेना ने रूसी सेना को पराजित करते हुए पूरे कोरिया पर तो अधिकार कर ही लिया, पोर्ट आर्थर और पूरा मंचूरिया भी छीन लिया| त्शुशीमा जलडमरूमध्य के पास में हुए एक समुद्री युद्ध में जापान की नौसेना ने रूस की पूरी नौसेना को डुबो दिया जिसमें हज़ारों रूसी नौसैनिक मारे गए| यह रूस की अत्यधिक शर्मनाक पराजय थी| (इसी युद्ध में रूस की पराजय के कारण बोल्शेविक क्रांति की नींव पड़ी, और भारत में क्रांतिकारियों को अंग्रेजों का विरोध करने की प्रेरणा मिली)
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कोरिया पर जापान का ३५ वर्षीय शासन (१९१०-१९४५) कोरिया के लिए एक भयावह त्रासदी था| जापानी सैनिक अत्यधिक क्रूर थे, उन्होंने वहाँ बहुत अधिक अमानवीय अत्याचार किये जिसे कोरिया का जनमानस अभी तक नहीं भुला पाया है| जापान ने कोरिया पर सेना की निर्मम शक्ति से राज्य किया, किसी भी असहमति और विद्रोह को निर्दयता से कुचल दिया| सबसे बुरा काम तो यह किया की वहाँ की हज़ारों महिलाओं को जापानी सैनिकों की यौन दासियाँ (Sex slave) और गुलाम बनने को बाध्य किया|
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द्वितीय विश्व युद्ध में जापान में हिरोशिमा पर ६ अगस्त १९४५ को अमेरिका द्वारा अणुबम गिराए जाने के दो दिन बाद ८ अगस्त १९४५ को सोवियत रूस ने जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और रूसी सेना ने पूरी शक्ति के साथ कोरिया पर १४ अगस्त से अधिकार करना प्रारम्भ कर दिया और शीघ्र ही कोरिया के उत्तरी-पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया| १६ अगस्त को वोंसान पर और २४ अगस्त को प्योंगयांग पर रूस अधिकार कर चुका था|
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अमेरिका की सेना भी जो जापान के विरुद्ध युद्धरत थी, ८ सितम्बर १९४५ को वहाँ पहुँच गयी और बंदरबाँट की तरह रूस और अमेरिका ने एक संधि कर के ३८ वीं अक्षांस रेखा पर कोरिया को दो भागों .... उत्तरी और दक्षिणी - में विभाजित कर के संयुक्त रूप से उसे प्रशासित करना शुरू कर दिया| और भी अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ इन दिनों हुईं जिन्हें इस लेख में लिखने की आवश्यकता मैं नहीं समझता|
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कोरियाई नेताओं से रूस और अमेरिका ने वादा किया था कि पाँच वर्ष के पश्चात वे पूरे देश को उन्हें सौंप देंगे| कोरिया की जनता इस व्यवस्था के विरुद्ध थी, वे अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता चाहते थे| कोरिया में विरोध प्रदर्शन होने लगे| इन परिस्थितियों में अमेरिकी प्रभाव वाले दक्षिणी हिस्से में १९४८ में चुनाव कराये गए और वहाँ एक अमेरिकी समर्थक सरकार का गठन हो गया|
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उत्तरी क्षेत्र में रूस और चीन के समर्थन वाली साम्यवादी सरकार बनी| उत्तरी कोरिया की सरकार ने दक्षिण कोरिया की सरकार को मान्यता नहीं दी| १९४८ में सोवियत संघ यानी रूस की सेनाएँ कोरिया से चली गईं और १९४९ में अमेरिकी सेना भी दक्षिण कोरिया से हट गयी|
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२५ जून १९५० को उत्तरी कोरिया की सरकार ने रूसी शासक स्टालिन की शह पर देश के एकीकरण के लिए दक्षिणी भाग पर आक्रमण कर दिया| यह कोरियाई युद्ध की शुरुआत थी जिसमें पराजय और हानि तो कोरिया की जनता की ही हुई|
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इस युद्ध में छः दिनों के भीतर भीतर ही दक्षिणी कोरिया लड़ाई में लगभग हार गया था, और पूरे कोरिया पर उत्तरी कोरिया के शासक किम इल सुंग का शासन पक्का ही हो गया था, पर अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से एक प्रस्ताव पारित करवा कर सहयोगी देशों की सेना के साथ दक्षिणी कोरिया की सहायता का अधिकार ले कर अपने दस लाख सैनिक युद्धभूमि में उतार दिए|
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अमेरिका ने भारत पर पूरा जोर डाला कि भारत भी अमेरिका की सहायता के लिए अपनी सेना भेजे पर भारत ने मना कर दिया| सिर्फ अपनी एक मेडिकल यूनिट घायलों की सहायतार्थ भेजी|
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अमेरिका की सेना जीतती हुई जब उत्तरी कोरिया की ओर बढने लगी तब चीन भी पूरी शक्ति के साथ इस युद्ध में कूद पड़ा और अमेरिकी सेना को पीछे हटना पड़ा| इस बीच में महाशक्तियों के बीच कई दांवपेंच खेले गए पर सन १९५३ में स्टालिन की मृत्यु से परिस्थिति बदल गयी, और २७ जुलाई को युद्ध विराम हो गया|
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भारत ने शांति स्थापित करने के बहुत प्रयास किये थे| युद्ध बंदियों की अदला बदली में सहायता के लिए भारत ने अपने छः हज़ार सैनिक भी भेजे थे| पर चीन के विरोध के कारण भारत पीछे हट गया|
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इस युद्ध में अमेरिका का सेनापति जनरल डगलस मैकार्थर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सिर्फ स्थल सेना की सहायता से वह यह युद्ध नहीं जीत सकता अतः उसने अपने वायुयानों से भयानक बमवर्षा करानी आरम्भ कर दी| यह अमेरिका का महा भयानक अक्षम्य पाप था|
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अमेरिकी वायुसेना ने उत्तरी कोरिया पर छः लाख पैंतीस हज़ार नापाम बम गिराए जिनसे उत्तरी कोरिया के हजारों गाँव और नगर राख के ढेर में बदल गए| इस बमबारी से उत्तरी कोरिया के ५००० स्कूल, १००० हॉस्पिटल और छह लाख घर तबाह हो गए| इस बम वर्षा से उत्तरी कोरिया की २० प्रतिशत जनसंख्या मारी गयी| इसीलिए उत्तरी कोरिया अमेरिका को अपना शत्रु मानता है| इस युद्ध में अमेरिका के ३३ हज़ार से अधिक सैनिक मारे गए| इस युद्ध में न तो कोई जीता और न कोई हारा|
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इसके बाद का और वर्त्तमान का घटनाक्रम तो सब को पता है अतः मैं इस विषय पर और नहीं लिख कर इस लेख का समापन कर रहा हूँ| आजकल अमेरिका और उत्तरी कोरिया के बीच में तनाव चल रहा है, उसके कारणों का लोगों को पता नहीं है| इस में जितना दोष उत्तरी कोरिया का है उससे कई गुणा अधिक दोष अमेरिका का है| मुझे दक्षिण कोरिया जाने का भी अवसर कई बार मिला हैऔर वहाँ खूब घूमा फिरा हूँ| अमेरिकी सेना के कई सैनिको और अधिकारियों से भी बातचीत करने का अवसर मिला है| अमेरिकी लोग बहुत चतुर और देशभक्त होते हैं| उनसे बात करो तो वे घर परिवार और अन्य विषयों पर तो खूब बात करेंगे पर अपने देश के विरुद्ध किसी भी तरह की बात नहीं होने देंगे| मुझे अमेरिका भी जाने का कई बार अवसर मिला है अतः अमेरिकी मनोविज्ञान को समझता हूँ| अमेरिका भारत को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करेगा पर भारत का ह्रदय से मित्र कभी नहीं होगा| भारत को भी ऐसा ही करना चाहिए|
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अब रही बात मंचूरिया की| वह देश अब चीन के अधिकार में है| मुझे सन १९८८ में युक्रेन के ओडेसा नगर में एक वृद्धा अति विदुषी तातार मुस्लिम महिला ने अपने घर निमंत्रित किया था| वह महिला मंचूरिया में दाँतों की डॉक्टर थी और मंचूरिया पर चीन के अधिकार के बाद १० वर्ष तक चीन में राजनीतिक बंदी थी| उसने वहाँ की परिस्थितियों के बारे मुझे विस्तार से बताया| वह एक अलग विषय है जिसका इस लेख से कोई सम्बन्ध नहीं है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और दीपावली की राम राम |
१८ अक्टूबर २०१७

रूप चतुर्दशी ....

>>>>> आज का दिन ज्ञान के प्रकाश से जगमगाने का दिन है .....
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आज रूप चतुर्दशी है जिसे नर्क चतुर्दशी व छोटी दीपावली भी कहते हैं| आज के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था| इस युद्ध में उनके साथ उनकी पत्नी सत्यभामा भी थी| कुछ समय के लिए जब भगवान श्रीकृष्ण मूर्छित हो गए, उस समय सत्यभामा ने अपने दिव्यास्त्रों के साथ नरकासुर से युद्ध किया|
इस दिन के बारे में एक कथा पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा रंतिदेव के बारे भी है|
बंगाल में यह दिन काली चौदस के नाम से जाना जाता है|
एक कथा के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण करके देवताओं को राजा बलि के आतंक से मुक्ति दिलाई थी| भगवान ने राजा बलि से वामन अवतार के रूप में तीन पैर जितनी जमीन दान के रूप में मांगकर उसका अंत किया था| राजा बलि के बहुत ज्ञानी होने के कारण भगवान विष्णु ने उसे साल में एक दिन याद किये जाने का वरदान दिया था| अतः नरक चतुर्दशी ज्ञान के प्रकाश से जगमगाने का दिन माना जाता है|
इस दिन हनुमान जी की भी विशेष पूजा उनके भक्त करते हैं|
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आज रूप निखारने का दिन है| आज रूप चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व शरीर पर तेल व उबटन लगा कर एक बाल्टी में जल भरकर उसमें अपामार्ग के पौधे का टुकड़ा डाल कर उस जल से स्नान करने का महत्त्व है| अपामार्ग का पौधा न मिले तो एक बहुत ही कड़वा फल रखते हैं| सूर्योदय से पूर्व स्नान करते समय स्नानागार में एक दीपक भी जलाने की प्रथा रही है|
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आज के दिन तेल उबटन लगाकर सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से देह रूपवान हो जायेगी| रूप चौदस का दिन बहुत ही शुभ दिन है अतः प्रसन्न रहकर भक्तिभाव से अपने इष्ट की उपासना करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ध्यान साधना ......

ध्यान साधना ......
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परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम के साथ, जिह्वा को ऊपर पीछे की ओर मोड़ कर तालु में लगाकर, भ्रूमध्य पर दृष्टी एकाग्र कर, नीरव शान्त तथा एकान्त स्थल में सुविधाजनक मुद्रा में कमर सीधी रखते हुए बैठकर धीरे-धीरे श्रद्धापूर्वक अजपा-जप, ओंकार, द्वादशाक्षारी भागवत मन्त्र, गायत्री मन्त्र, या किसी अन्य गुरु-प्रदत्त मन्त्र को मानसिक रूप से जपते हुए ध्यान का अभ्यास किया जाता है|
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किसी भी साधना को करने का महत्त्व है, न कि उसकी चर्चा करने का| आपके सामने फल रखे हैं तो आनंद उनको खाने में है, न कि उनकी विवेचना करने में| अतः उसकी अनावश्यक चर्चा न कर, उसका अभ्यास ही करना चाहिए| यह साधना एक क्षण में भी संपन्न हो सकती है और कई जन्मों में भी , अतः इसकी चिंता छोड़ कर इसका परिणाम भी परमात्मा को अर्पित कर देना चाहिए|
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हमारा मन परमात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी पूर्ण विश्रान्ति नहीं पा सकता, अतः परमात्मा का स्मरण नित्य निरंतर रखने का अभ्यास करना चाहिए| इसके अतिरिक्त स्वाध्याय और सत्संग भी यथासंभव करना चाहिए| जो साहित्य निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे वही सार्थक है, और परमात्मा का निरंतर संग ही वास्तविक सत्संग है|
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इधर उधर के अनावश्यक भ्रमजाल में न फँस कर परमात्मा से प्रेम करो| इसी में जीवन की सार्थकता है|

ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अक्टूबर २०१७

भारत के सबसे दक्षिणी भौगोलिक भाग "इंदिरा पॉइंट" का प्रकाश स्तम्भ .....

भारत के सबसे दक्षिणी भौगोलिक भाग "इंदिरा पॉइंट" का प्रकाश स्तम्भ .....
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भारत का सबसे दक्षिणी भौगोलिक भाग "इंदिरा पॉइंट" और वहाँ स्थित प्रकाश स्तम्भ २६ दिसंबर २००४ तक भारत के सर्वाधिक मन मोहक स्थानों में से एक था (इसके चित्र गूगल पर देख सकते हैं)| वहाँ जाने और प्रकाश स्तम्भ पर चढ़कर चारों ओर के नयनाभिराम दृश्य देखने का सुअवसर मुझे २००१ में मिला था| भारत सरकार के Department of Light House and Light Ships के समुद्री अनुसंधान जहाज "प्रदीप" पर यात्रा कर के ग्रेट निकोबार द्वीप के बंदरगाह "कैम्बल बे" गया था| वहाँ पोर्ट ब्लेयर से यात्री जहाज भी जाते हैं| जिन स्थानों पर संरक्षित जनजातियाँ रहती हैं उन स्थानों पर जाने के लिए पर्यटकों को तो प्रशासन से अनुमति लेनी पड़ती है, जो आराम से मिल जाती है| वहाँ वायुसेना और तटरक्षक बल के ठिकाने हैं और अति महत्वपूर्ण क्षेत्र होने के कारण बिना पूर्व अनुमति के जाना संभव नहीं है|
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"कैम्बल बे" से कुछ किलोमीटर दूर तक तो गाड़ी में जाना पड़ा और सड़क टूटी होने के कारण लगभग आधा किलोमीटर पैदल चलने के पश्चात् वहाँ पहुँच गए| वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों से मिलकर वहाँ के प्रकाश स्तम्भ पर जो उस समय भूमि पर ही था चढ़ा और चारों ओर के नयनाभिराम दृश्य देखकर अभिभूत हो गया| उस समय चित्र लेने की अनुमति नहीं थी इसलिए कोई चित्र नहीं लिए| अब तो वहाँ के चित्र गूगल पर देख सकते हैं| बापस भी वैसे ही आना पड़ा| पैदल चलते हुए वहाँ के घने वन में कई बड़े सुन्दर और विचित्र पक्षी देखे जो पहले अन्यत्र कहीं भी नहीं देखे थे, इंडोनेशिया और मलयेशिया में भी नहीं|
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२६ दिसंबर २००४ को जब सुनामी आई थी तब प्रचंड लहरों के कारण वहाँ प्रकाश स्तम्भ के चारों ओर की भूमि कट गयी और प्रकाश स्तम्भ के चारों ओर पानी गहरा हो गया| वहाँ रहने वाले बीस परिवार और चार जीव वैज्ञानिक जो वहाँ के कछुओं पर अनुसंधान कर रहे थे, उस सुनामी में मारे गए| वहाँ धीरे धीरे सामान्य स्थिति बहाल कर दी गयी थी और वहाँ के प्रकाश प्रक्षेपण यंत्र और रडार आदि भी ठीक कर दिए गए, पर प्रकाश स्तम्भ अभी भी चार मीटर गहरे समुद्री पानी में है|
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"कैम्बल बे" बहुत सुन्दर स्थान है| वहाँ के समुद्र तट तो बहुत ही सुन्दर हैं| कोई हिंसक जीव वहाँ नहीं हैं अतः बिना किसी भय के प्रातःकाल वहाँ के समुद्री तटों पर अकेले ही घूमने का आनंद कई दिनों तक लिया| पर्यटक बहुत कम आते हैं अतः कोई भीड़ नहीं होती| तमिलनाडु और केरल से आकर बहुत लोग वहाँ बस गये हैं, कुछ पंजाबी भी हैं| सभी लोग हिंदी बोलते और समझते हैं|
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इंदिरा पॉइंट का पूर्व नाम Pygmalion Point था| वर्त्तमान नाम श्रीमती इंदिरा गाँधी के नाम पर पड़ा जो वहाँ १९ फरवरी १९८४ को पधारी थीं| प्रकाश स्तम्भ तो ३० अप्रेल १९७२ को ही चालू हो गया था|
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अगर आप एकांत प्रेमी हैं और भीड़भाड़ पसंद नहीं है तो अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के कई द्वीप आपको पसंद आयेंगे| समुद्र में मूंगे की चट्टानों (Coral reefs) में डुबकी लगाने और पानी के नीचे तैरने का शौक है तो लक्षद्वीप के टापुओं में ऐसे कुछ स्थान हैं| श्रीलंका में ट्रिन्कोमाली बड़ा सुन्दर स्थान था| वहाँ अब पता नहीं कैसी स्थिति है, मैं १९८० में वहाँ सपत्नीक गया था| वहाँ भी समुद्र में मूंगे की चट्टाने हैं| एक जीवनरक्षक मार्गदर्शक गोताखोर को किराए पर साथ लेकर अपना शौक पूरा किया|

अहोई अष्टमी पर माताओं को नमन ....

उन सब श्रद्धालु माताओं को नमन जो आज अपनी संतान की लम्बी आयु के लिए अहोई अष्टमी का व्रत रख रही हैं|
अपने पति के लिए ही नहीं पुत्र के लिए भी यह साधना और त्याग केवल एक भारतीय नारी ही कर सकती है|

जयशंकर प्रसाद की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ ......
"इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है |
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है ||
क्या कहती हो ठहरो नारी ! संकल्प अश्रु-जल-से-अपने |
तुम दान कर चुकी पहले ही, जीवन के सोने-से सपने ||
नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास-रजत-नग पगतल में |
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में ||"

कस्मै देवाय हविषा विधेम ? यह सभी की एक शाश्वत जिज्ञासा है .....

कस्मै देवाय हविषा विधेम ? यह सभी की एक शाश्वत जिज्ञासा है .....
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कस्मै देवाय हविषा विधेम ? हम किस देवता की प्रार्थना करें और किस देवता के लिए हवन करें, यजन करें, प्रार्थना करें ? कौन सा देव है,जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सके, हमको शांति प्रदान कर सके , हमें ऊँचा उठाने में सहायता दे सके ? किस देवता को प्रणाम करें ? ऐसा देव कौन है ?
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अपने ह्रदय में उस परमात्मा को पाने की प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित कर शिवभाव में स्थित होकर प्रणव की चेतना से युक्त हो अपने अस्तित्व की आहुतियाँ देकर प्रभु की सर्वव्यापकता और अनंतता में विलीन होकर ही हम उस जिज्ञासा को शांत कर सकते हैं | अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का प्रभु में पूर्ण समर्पण कर उनके साथ एकाकार हो जाना ही इस जीवन यज्ञ कि परिणिति है|
ॐ ॐ ॐ ||

धारणा व ध्यान .....

धारणा व ध्यान .....
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हे परमशिव, वह चैतन्य पूर्णतः जागृत हो जहाँ जन्म, मृत्यु और पृथकता का बोध एक स्वप्न है |
मैं समष्टि से पृथक नहीं हो सकता | सृष्ट और असृष्ट जो कुछ भी है वह ही मैं हूँ | यह सारी अनंतता मैं हूँ |
कई ऐसे नक्षत्र मंडल हैं जहाँ से जब प्रकाश चला था तब पृथ्वी का अस्तित्व नहीं था | जब तक वह प्रकाश यहाँ पहुँचेगा तब तक यह पृथ्वी ही नहीं रहेगी, वह नक्षत्र मंडल और उनका प्रकाश भी मैं ही हूँ |
यह समस्त अस्तित्व ..... मेरी देह, मेरा घर और मेरा परिवार है | मैं यह नश्वर देह नहीं हूँ |
मेरा अस्तित्व शुभ और कल्याणमय है |
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ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूणात्पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
ॐ खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति ह स्माह कौर व्यायणीपुत्रों वेदो ये ब्राह्मण विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम् ||
(वह ब्रह्मण पूर्ण है, यह जगती पूर्ण है | उस पूर्ण ब्रह्म से ही यह पूर्ण विश्व प्रादुर्भूत हुआ है | उस पूर्ण ब्रह्म में से इस पूर्ण जगत् को निकाल लेने पर पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है |
ॐ अक्षर से सम्बोधित अनन्त आकाश या परम व्योम ब्रह्म ही है | यह आकाश सनातन परमात्म-रूप है | जिस आकाश में वायु विचरण करता है, वह आकाश ही ब्रह्म है | ऐसा कौरव्यायणी पुत्र का कथन है | यह ओंकार-स्वरूप ब्रह्म ही वेद है | इस प्रकार सभी ज्ञानी ब्राह्मण जानते हैं; क्योंकि जो जानने योग्य है, वह सब इस ओंकार-रूप वेद से ही जाना जा सकता है |)
ॐ ॐ ॐ ||

(भगवान परमशिव को समर्पित होकर उस ओंकार रूपी प्रणव नाद को गहनतम ध्यान से निरंतर सुनते रहें जो बंद या खुले कानों से एकांत में सदा सुनाई देता है)

ॐ तत्सत् | अयमात्मा ब्रह्म | तत्वमसि | सोsहं | ॐ ॐ ॐ ||

क्या महिषासुर और रावण सचमुच मर गये ? .....

क्या महिषासुर और रावण सचमुच मर गये ? .....
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अभी कुछ दिन पूर्व ही हमने विजयदशमी यानि दशहरे का त्यौहार मनाया और स्थान स्थान पर रावण के कागजी पुतलों को जलाया था| इससे पूर्व नवरात्रों में महिषासुरमर्दिनी माँ दुर्गा की आराधना की| अब प्रश्न है कि क्या महिषासुर और रावण सचमुच में ही मर गए हैं?
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नहीं, महिषासुर और रावण दोनों ही अमर और शाश्वत हैं, जब तक सृष्टि है तब तक इनका अस्तित्व बना रहेगा, ये कभी नहीं मर सकते| ये प्रत्येक व्यक्ति के अवचेतन मन में हैं, और हर व्यक्ति को निज प्रयास से अपने अंतर में ही इनका दमन करना होगा| इनका दमन हो सकता है, नाश नहीं|
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महिषासुर हमारे भीतर का तमोगुण है जो प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि अवगुणों के रूप में छिपा हुआ है| हम सब के भीतर यह महिषासुर बहुत गहराई से छिपा है|
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यह रावण हमारे अवचेतन मन में लोभ, कामुकता, अहंकार आदि वासनाओं के रूप में छिपा हुआ है| हम दूसरों का धन, दूसरों के अधिकार आदि छीनना चाहते हैं, अपने अहंकार के समक्ष दूसरों को कीड़े-मकोड़ों से अधिक कुछ नहीं समझते, यह हमारे अंतर का रावण है| नशा अहंकार का हो या मदिरा का, दोनों में विशेष अंतर नहीं है, पर यह अहंकार का नशा मदिरा के नशे से हज़ार गुणा अधिक घातक है| इस नशे में हर रावण स्वयं को राम समझता है|
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हमारे ह्रदय के एकमात्र राजा राम हैं| उन्होंने ही सदा हमारी ह्रदय भूमि पर राज्य किया है, और सदा वे ही हमारे राजा रहेंगे| अन्य कोई हमारा राजा नहीं हो सकता| वे ही हमारे परम ब्रह्म हैं|
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हमारे ह्रदय की एकमात्र महारानी सीता जी हैं| वे हमारे ह्रदय की अहैतुकी परम प्रेम रूपा भक्ति हैं| वे ही हमारी गति हैं| वे ही सब भेदों को नष्ट कर हमें राम से मिला सकती हैं| अन्य किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं है|
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हमारी पीड़ा का एकमात्र कारण यह है कि हमारी सीता का रावण ने अपहरण कर लिया है| हम सीता को अपने मन के अरण्य में गलत स्थानों पर ढूँढ रहे हैं और रावण के प्रभाव से दोष दूसरों को दे रहे हैं, जब कि कमी हमारे प्रयास की है| यह मायावी रावण ही हमें भटका रहा है| सीता जी को पा कर ही हम रावण का नाश कर सकते हैं, और तभी राम से जुड़ सकते हैं|
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राम से एकाकार होने तक इस ह्रदय की प्रचंड अग्नि का दाह नहीं मिटेगा, और राम से पृथक होने की यह घनीभूत पीड़ा हर समय निरंतर दग्ध करती रहेगी| राम ही हमारे अस्तित्व हैं और उनसे एक हुए बिना इस भटकाव का अंत नहीं होगा| उन से जुड़कर ही हमारी वेदना का अंत होगा और तभी हम कह सकेंगे ..... "शिवोSहं शिवोSहं अहं ब्रह्मास्मि"|
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इस हिन्दू राष्ट्र में धर्म रूपी बैल पर बैठकर भगवान शिव ही विचरण करेंगे, और नवचेतना को जागृत करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी ही बजेगी| यहाँ के राजा सदा राम ही रहेंगे| सनातन हिन्दू धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा होगी व असत्य और अन्धकार की राक्षसी शक्तियों का निश्चित रूप से दमन होगा| भारत माँ अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान होंगी| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

= कृपा शंकर =

प्राचीन भारत की वैदिक राष्ट्र प्रार्थना ......

प्राचीन भारत की वैदिक राष्ट्र प्रार्थना ......
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"आ ब्रह्मण ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योतिव्याधि महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानडवानाशुः सप्ति पुरन्धिर्योषाः जिष्णु रथेष्ठा सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यतां योगक्षेमो न कल्पतां"
- यजुर्वेद 22, 22
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||ॐ|| इस राष्ट्र में ब्रह्मतेजयुक्त ब्राह्मण उत्पन्न हों| धनुर्धर, शूर और बाण आदि का उपयोग करने वाले कुशल क्षत्रिय पैदा हों| अधिक दूध देने वाली गायें हों| अधिक बोझ ढो सकें ऐसे बैल हों| ऐसे घोड़े हों जिनकी गति देखकर पवन भी शर्मा जाये| राष्ट्र को धारण करने वाली बुद्धिमान तथा रूपशील स्त्रियां पैदा हों| विजय संपन्न करने वाले महारथी हों| समय समय पर अच्छी वर्षा हो, वनस्पति, वृक्ष और उत्तम फल हों| हमारा योगक्षेम सुखमय बने| ||ॐ ॐ ॐ ||


Monday 9 October 2017

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है .....

सुना और पढ़ा है कि प्राचीन भारत में घर घर में यज्ञशालाएँ होती थीं| आजकल शायद ही किसी घर में यज्ञशाला मिले|

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है .....

गाँवों में शौचालय तो अपने जीवन में कहीं भी मैनें नहीं देखे| यह नगरों की आवश्यकता थी| गाँवों में लोग खेत में ही मल-मूत्र त्याग कर उस पर मिट्टी डाल दिया करते थे| इससे खाद बनती थी| अब जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ गयी है और भूमि भी कम पड़ने लगी है इसलिए गाँवों में भी शौचालय आवश्यक हो गए हैं|

आजकल गाँवों में लोग खेती से विमुख होने होने लगे हैं| नरेगा जैसी योजनाओं से लोगों में परिश्रम करने की भावना समाप्त होने लगी है| कृषि मजदूर नहीं मिलते है| अनेक लोग ताश खेल खेल कर समय काटते हैं| खेती के लिए बैंक से ऋण लेते हैं पर खेती करते नहीं हैं| फिर फसल नहीं हुई कहकर आन्दोलन कर के ऋण माफ़ करा लेते हैं| पहले बिचौलिए आधा पैसा खा जाते थे, अब खाते में पैसा सीधा आ जाता है| कहते हैं कि खूब प्रगति हो रही है|

आज से चालीस-पचास वर्षों पूर्व तक चाय की आदत लोगों में नहीं थी| अब चाय के बिना काम ही नहीं चलता|

पानी की बिक्री पहले कभी नहीं होती थी| लोग प्यासे को पानी पिलाना अपना धर्म मानते थे|

सुना और पढ़ा है कि प्राचीन भारत में दूध इतना अधिक होता था कि लोग दूध बेचना अपना अपमान समझते थे| अब दुग्ध उद्योग सबसे अधिक लाभकारी है|

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है| बीता हुआ युग कभी बापस नहीं आता| जो हो रहा है वह समय के अनुसार अच्छा ही हो रहा है, क्योंकि हम मूक साक्षीमात्र ही हैं| कोई शिकायत नहीं है| साक्षी मात्र बनकर ही देखते रहो|

क्या मनुष्य के दूषित विचारों से प्रदूषण नहीं फैलता ?
क्या निर्दोष पशुओं की क्रूर ह्त्या से प्रदूषण नहीं फैलता ?
क्या एयर कंडीशनर चलाने से प्रदूषण नहीं फैलता ?
क्या कारखानों के धुएँ से प्रदूषण नहीं फैलता ?
क्या सडकों पर चल रहे इतने सारे वाहन प्रदूषण नहीं फैलाते?

ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!

स्वयं की आध्यात्मिक प्रगति का मापदंड ......

स्वयं की आध्यात्मिक प्रगति का मापदंड ......
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हमने चाहे खूब जप-तप किया हो, खूब ध्यान किया हो, और खूब भक्ति की हो, पर यदि अहंकार और काम वासना कम न हुई है तो हमारी आध्यात्मिक साधना और भक्ति से हमें अभी तक कोई लाभ नहीं हुआ है| मन की शान्ति, अहंकार का नाश, और काम-वासना से निवृति .... ये मील के पत्थर हैं जो हमारी आध्यात्मिक प्रगति को दर्शाते हैं|
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हम अपनी प्रगति का आंकलन अपने विचारों और व्यवहार को देखकर भी कर सकते हैं| हम अपने बुरे विचारों और बुरे भावों से मुक्त होने के लिए परमात्मा के सदगुणों का ध्यान करते हैं ताकि वे सदगुण हम में आयें और हमें अपने बुरे संस्कारों से मुक्ति मिले| अच्छे और बुरे विचार पूर्व जन्मों से अब तक के संस्कारों से आते हैं|
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किसी सिद्ध गुरु का सान्निध्य अत्यंत आवश्यक है जो हमें दिशा निर्देश तो देता ही है साथ साथ हमारी रक्षा भी करता है| पांडित्य प्रदर्शन, तर्क-वितर्क और वाक् पटुता से बचें, ये अहंकार को जन्म देते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
१० अक्टूबर २०१७

अहंकार पतन का मार्ग है .....

अहंकार पतन का मार्ग है .....
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मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैं जो बहुत अधिक धनी व्यक्ति थे| धन के नशे में अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं थे| हालाँकि उनमें सदगुण भी बहुत अधिक थे| बड़े परोपकारी, दानवीर, विद्वान् और राष्ट्रभक्त थे| पर अहंकार उनका बड़ा प्रबल था| पूर्वजन्म के कुछ संस्कारों के कारण ही मेरी उनसे मित्रता थी जिसे आप उनकी एक विवशता भी समझ सकते हैं| जिससे भी उन्होंने मित्रता की वे सब उनसे कुछ न कुछ अपेक्षा ही रखते थे, लोगों ने उन्हें बहुत अधिक ठगा| पर मेरी उनसे कभी भी कोई अपेक्षा नहीं रही, इस कारण वे मेरा अब भी बहुत अधिक सम्मान करते हैं| अपने अहंकार के कारण उन्होंने जीवन में अनेक श्रेष्ठों का अनादर किया, इस कारण उनके परिवार के लोग भी उनसे दूर हो गए| कई बार कर्मों का फल बहुत शीघ्र मिल जाता है| एक दिन ऐसी भी स्थिति आई कि लक्ष्मी जी उनसे रूठ कर उनसे बहुत दूर चली गयी और वे पराश्रित हो गए| अत्यधिक अभिमान भी व्यक्ति को खाई-खड्डे में डाल सकता है, यह सीख मैनें उनके जीवन से ली| उनकी सहन शक्ति असामान्य रूप से बड़ी प्रबल थी इसीलिए वे जीवित बचे, अन्यथा एक सामान्य व्यक्ति ऐसे आघात नहीं सह सकता और शीघ्र ही यमलोक पहुँच जाता है| मित्रता धर्म निभाने के लिए उनके कष्ट भरे जीवन में भी मैनें उनका कभी साथ नहीं छोड़ा| अब जीवन के संध्याकाल में वे अपनी भूलें मान रहे हैं|
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जब मनुष्य का अहंकार प्रबल हो जाता है तब क्रोध और घृणा भी उसके जीवन में आ जाती है| मेरा अनुभवजन्य विचार तो यही है कि हम स्वयं को यह देह मान लेते हैं और इसके सुख के लिए जीवन को दाँव पर लगा देते हैं, यह हमारे पतन का एक सबसे बड़ा कारण है| इस देह से परे भी जीवन है, यह बात बुद्धि से समझ में नहीं आती| इसके लिए भगवान से प्रेम और ध्यान साधना करनी पड़ती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०९ अक्टूबर २०१७

परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है .....

परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है .....
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जब निज चेतना में भगवान स्वयं ही समक्ष हों तब क्या करना चाहिए ? इधर उधर हाथ मारने की बजाए स्वयं को ही पूर्ण रूप से उन्हें समर्पित कर देना चाहिए | कूटस्थ में एक प्रचंड अग्नि सदा प्रज्ज्वलित है जिसकी चेतना भ्रूमध्य में सदा बनी रहनी चाहिए | हर साँस एक यज्ञ है | स्वाभाविक रूप से साँस लेते समय अपनी सारी चेतना को सुषुम्ना मार्ग से मूलाधार चक्र से उठाते हुए आज्ञाचक्र तक लाकर कूटस्थ में उसकी आहुति दे देनी चाहिए | हर चक्र पर ओंकार का मानसिक जाप हो | इस तरह सुषुम्ना में ही विचरण करना चाहिए, पर दृष्टी भ्रूमध्य में ही स्थिर रहे | धीरे धीरे सारी चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही स्थिर हो जाती है | यह एक आदर्श स्थिति है |
कूटस्थ में दिखने वाली ब्रह्मज्योति का सदा ध्यान करें और वहीं सुनाई दे रहे प्रणव नाद को सुनते रहें| प्रणव नाद को निरंतर सुनना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है |
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सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण कमल हैं जिसमें अपनी चेतना का समर्पण ही गुरु चरणों में समर्पण है | सहस्त्रार में स्थिति ही गुरु की परम कृपा है, यही गुरु चरणों का ध्यान है | फिर चेतना विस्तृत होते होते सारी समष्टि में और उससे भी परे व्याप्त हो जाती है, यह शिवभाव है | इस पूरी सृष्टि में और उससे भी परे तत्वरूप में जो व्याप्त हैं वे भगवान परमशिव हैं | उनकी अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है | जब उस अनंतता का बोध हो जाए तब उस अनंतता की चेतना में ही रहना चाहिए | परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है |
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०९ अक्टूबर २०१७

किस को शुभ कामनाएँ दूँ और किस को नमन करूँ ? .....

किस को शुभ कामनाएँ दूँ और किस को नमन करूँ ? .....
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विगत जीवन का जब सिंहावलोकन करता हूँ तो पाता हूँ कि इस लोकयात्रा में परमात्मा अधिकांशतः सदा मित्रों के रूप में मेरे समक्ष आए | मैं अति भाग्यशाली हूँ कि जीवन में मुझे बहुत अच्छे अच्छे मित्र मिले | वे सब मित्र परमात्मा की ही साक्षात साकार अभिव्यक्तियाँ थीं | मुझे उन सब में साक्षात परमात्मा के दर्शन होते हैं |
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देश विदेश में अनजान देशों और अपरिचित स्थानों पर भी परमात्मा सदा मित्र के रूप में मिले | उन्होंने कहीं पर भी कभी कोई असुविधा या कष्ट नहीं होने दिया | आज पता ही नहीं है कि उनमें से अधिकाँश आत्माएँ कहाँ और कैसे हैं | अनेक तो इस लोक को छोड़कर अज्ञात में चली गयी हैं|
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मुझे किसी का भी अभाव नहीं अनुभूत होता, क्योंकि स्वयं परमात्मा ही माता-पिता, भाई-बंधू, सगे-सम्बन्धियों और सभी मित्रों के रूप में आये | इस जन्म से पहिले भी वे मेरे साथ थे और आगे भी सदा रहेंगे | उनका साथ शाश्वत है | अन्य सारे साथ मिथ्या भ्रम मात्र हैं |
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माता-पिता, सभी सम्बन्धियों और मित्रों से जो प्रेम मिला वह परमात्मा का ही प्रेम था जो परमात्मा ने उनके माध्यम से दिया | यह सारा खेल, यह सारी लीला स्वयं परमात्मा के मन की एक कल्पना मात्र है | वे ही यह मैं बन गए हैं | उनके सिवाय अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है |
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एक विराट अथाह महासागर एक जल की बूँद को क्या दे सकता है ? एक जल की बूँद एक महासागर से क्या प्राप्त कर सकती हैं ? हम सब महासागर से छिटक कर बिखरी हुई जल की बूँदें हैं जिन्हें बापस महासागर में विलीन होना है |
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सभी को मंगल कामनाएँ और सप्रेम नमन !
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किस को शुभ कामनाएँ दूँ और किस को नमन करूँ ? अस्तित्व तो एकमात्र परमात्मा का ही है | मेरा भी पृथकता का बोध एक भ्रम मात्र ही है |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

०७ अक्टूबर २०१७

Friday 6 October 2017

सृष्टिकर्ता परमात्मा कहीं दूर नहीं है .......

सृष्टिकर्ता परमात्मा कहीं दूर नहीं है .......

ये पंक्तियाँ मैं मेरे निज अनुभव से लिख रहा हूँ | संसार को मैंने खूब अच्छी तरह देखा है | बाहरी जीवन में विषमताएँ, और अन्याय ही दिखाई देता है, जिसका कोई समाधान समझ में ही नहीं आता | यह सृष्टि हमारी नहीं, परमात्मा की है | परमात्मा अन्यायी और क्रूर नहीं हो सकता | सृष्टि अपने नियमों के अनुसार चल रही है, उन नियमों को न समझना या न जानना हमारी कमी है | वास्तव में परमात्मा की सृष्टि में कुछ भी गलत नहीं है, सब अन्धकार और प्रकाश का खेल है | इस खेल में अपना भाग ठीक से निभाएँ | 

हर घटना के पीछे कुछ न कुछ कारण अवश्य है | जहाँ बुद्धि कार्य नहीं करती वहाँ शास्त्र प्रमाण हैं | उपनिषदों में, गीता में और रामचरितमानस जैसे ग्रंथों में सब कुछ बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है| ये ग्रन्थ भी समझ में नहीं आते तो पूर्ण श्रद्धा से भगवान से प्रार्थना करें, जिसका उत्तर अवश्य मिलता है |

भगवान ने विवेक दिया है उसका उपयोग करें | जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ हम कर सकते हैं वह करना चाहिए और उसे परमात्मा को समर्पित कर दें | जब माया का आवरण हटेगा तो सृष्टिकर्ता परमात्मा को हम अपने साथ ही पायेंगे | वह कहीं दूर नहीं है |

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

समस्याएँ मन में हैं या परिस्थितियों में ......

समस्याएँ मन में हैं या परिस्थितियों में ......

इस विषय पर बड़े बड़े मनीषियों और मनोवैज्ञानिकों ने बहुत अधिक लेख लिखे हैं पर उनका कोई प्रभाव सामान्य व्यक्ति पर आज तक नहीं पड़ा है|

जब भी कोई समस्या आती है तब हम सब परिस्थितियों को ही दोष देते हैं| हजारों में से कोई एक व्यक्ति ऐसा होता है जो परिस्थितियों से ऊपर उठ पाता है| बाकी सब तो परिस्थितियों के ही शिकार हो जाते हैं|

आदर्श तो यह है कि हम परमात्मा में आस्था रखते हुए हर परिस्थिति का सामना करें| जो होना है सो तो होगा ही, पर भगवान ने जो साहस और मनोबल दिया है, उसका प्रयोग तो कर के देखें|
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दुखी व्यक्ति को सब ठगने का प्रयास करते हैं| धर्म के नाम पर भी सदा से ही बहुत अधिक ठगी होती आई है| यह प्राचीन काल में भी थी और अब भी है| भगवान ने हमें विवेक दिया है, उस विवेक का उपयोग करें| जहाँ भी समझ में आये कि सामने वाला व्यक्ति झूठा है तो उसे विष की तरह त्याग दें|

अपनी पीड़ा सिर्फ भगवान को अकेले में कहें, दुनियाँ के आगे रोने से कोई लाभ नहीं है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

पंचप्राण, दशमहाविद्या और भगवती माँ छिन्नमस्ता ......

पंचप्राण, दशमहाविद्या और भगवती माँ छिन्नमस्ता ......
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बहुत वर्षों पहिले की बात है, अंग्रेजी में "छिन्नमस्ता" नामक एक पुस्तक संयोग से पढने को मिली जिसे भारत में मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन ने छापा था| उस पुस्तक की लेखिका एक अमेरिकी विदुषी महिला थी जिसने कई वर्षों तक भगवती छिन्नमस्ता पर खूब शोध कार्य कर के वह पुस्तक लिखी थी| वह पुस्तक उस समय मुझे बहुत अच्छी लगी और मुझ में भी माँ छिन्नमस्ता की भक्ति और लगन जग उठी| मैनें ढूंढ ढूंढ कर पूरे भारत में माँ छिन्नमस्ता पर जितना भी साहित्य मिल सकता था उस का संकलन और अध्ययन किया| पर उस से संतुष्टि नहीं मिली और भगवती छिन्नमस्ता के किसी सिद्ध साधक की खोज आरम्भ की, पर कहीं भी कोई सिद्ध साधक नहीं मिला| एक सिद्ध तंत्र साधक मिले, उन्होंने बड़ी ईमानदारी से स्पष्ट बता दिया कि उनका माँ छिन्नमस्ता की महाविद्या में कोई अधिकार नहीं है| फिर मैं माँ छिन्नमस्ता का विग्रह सामने रखकर प्रातःकाल उठते ही कमलगट्टे की माला से गुरुमंत्र के साथ साथ भगवती छिन्नमस्ता के मन्त्र का भी जाप करने लगा| यह क्रम लम्बे समय तक चला|
फिर सब तरह के नाम-रूपों से परे वेदान्त की साधना में रूचि जागृत होने पर सब नाम-रूप छूट गए|
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मुझे भगवती छिन्नमस्ता का विग्रह बहुत ही अच्छा लगता है| उन्होंने अपने पैरों के नीचे कामदेव और उनकी पत्नी रति को पटक रखा है और उन पर खड़ी होकर नृत्य कर रही हैं| यह एक स्पष्ट सन्देश है कि जो काम वासनाओं पर विजय प्राप्त न कर सके वह मेरी साधना का अधिकारी नहीं है| फिर अपना ही मस्तक काट कर अपने ही धड़ से निकलती हुई रक्त की मुख्य धारा का पान कर रही हैं| यह अहंकार का नाश, पूर्ण समर्पण, वैराग्य और योगमार्ग की परम सिद्धि का प्रतीक है| रक्त की दो धाराओं का पान उनके साथ खड़ी उनकी दो सखियाँ कर रही हैं| वे भी अपने आप में महाशक्तियाँ हैं| रक्त की तीन धाराएँ इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की प्रतीक हैं| भगवती के इस रूप की विधिवत् साधना से परम वैराग्य और योग की उच्चतम सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं|
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पंचप्राणों के पांच सौम्य और पाँच उग्र रूप दशमहाविद्याएँ हैं|
भगवान गणेश को हम गणेश, गणपति और गणनायक आदि कहते हैं| पर वे गण कौन से हैं जिन के वे नायक हैं? पंचप्राण (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) ही गणेश जी के गण है|
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अभी इतना ही बहुत अधिक है| आप सब को शुभ कामनाएँ| जिन्हें वैराग्य और योगमार्ग की परम सिद्धियाँ चाहियें उन्हें भगवती माँ छिन्नमस्ता की उपासना करनी चाहिए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


३ अक्तूबर २०१७

Monday 2 October 2017

जगन्माता .....

जगन्माता .....
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भारत में परमात्मा को पिता के रूप में और माता के रूप में भी माना जाता है| माँ में पिता की अपेक्षा प्रेम अति अधिक होता है| पिता का रूप विवेक प्रधान है तो माँ का रूप भाव प्रधान है| माँ की आराधना मुख्यतः राधा, सीता, उमा, दुर्गा, व दश महाविद्याओं के रूप में की जाती हैं|
यहाँ इस लेख में मैं दश महाविद्याओं में प्रथम महाविद्या काली के बारे में अति अति अति लघु चर्चा करूँगा|
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जिसको सूर्य, चन्द्र और तारागण भी प्रकाशित नहीं कर सकते, अति भयंकर रूप से कड़कड़ाती हुई तीब्र चमकती हुई बिजली की रोशनी भी नहीं, फिर अग्नि की तो बात ही क्या है? ये सब तो उसी के तेज से ही प्रकाशमान हैं| जिस माँ के प्रकाश से समस्त नक्षत्रमंडल और ब्रह्मांड प्रकाशित हैं, उस माँ की महिमा के बारे में मुझ जैसे किसी अकिंचन का कुछ भी लिखना, सूर्य को दीपक दिखाने का प्रयास मात्र सा है, जिसके लिए यह अकिंचन क्षमा याचना करता है| पता नहीं जिनकी देह से समस्त सृष्टि प्रकाशित है, उनका नाम "काली" क्यों रख दिया?
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सृष्टि की रचना के पीछे जो आद्यशक्ति है, जो स्वयं अदृश्य रहकर अपने लीला विलास से समस्त सृष्टि का संचालन करती हैं, समस्त अस्तित्व जो कभी था, है, और आगे भी होगा वह शक्ति माँ काली ही है| सृष्टि, स्थिति और संहार उनकी अभिव्यक्ति मात्र है| यह संहार नकारात्मक नहीं है, यह वैसे ही है जैसे एक बीज स्वयं अपना अस्तित्व खोकर एक वृक्ष को जन्म देता है| सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, मात्र रूपांतरित होता है| यह रूपांतरण ही माँ का विवेक, सौन्दर्य और करुणा है| माँ प्रेम और करुणामयी है|
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माँ के वास्तविक सौन्दर्य को तो गहन ध्यान में तुरीय चेतना में ही अनुभूत किया जा सकता है| उसकी साधना जिस साकार विग्रह रूप में की जाती है वह प्रतीकात्मक ही है|
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माँ के विग्रह में चार हाथ है| अपने दो दायें हाथों में से एक से माँ सृष्टि का निर्माण कर रही है और एक से अपने भक्तों को आशीर्वाद दे रही है| माँ के दो बाएँ हाथों में से एक में कटार है, और एक में कटा हुआ नरमुंड है जो संहार और स्थिति के प्रतीक है| ये प्रकृति के द्वंद्व और द्वैत का बोध कराते हैं|
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माँ के गले में पचास नरमुंडों कि माला है जो वर्णमाला के पचास अक्षर हैं| यह उनके ज्ञान और विवेक के प्रतीक हैं|
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माँ के लहराते हुए काले बाल माया के प्रतीक हैं| माँ के विग्रह में उनकी देह का रंग काला है क्योंकि यह प्रकाशहीन प्रकाश और अन्धकारविहीन अन्धकार का प्रतीक हैं, जो उनका स्वाभाविक काला रंग है| किसी भी रंग का ना होना काला होना है जिसमें कोई विविधता नहीं है|
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माँ की दिगंबरता दशों दिशाओं और अनंतता की प्रतीक है|
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उनकी कमर में मनुष्य के हाथ बंधे हुए हैं वे मनुष्य कि अंतहीन वासनाओं और अंतहीन जन्मों के प्रतीक हैं|
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माँ के तीन आँखें हैं जो सूर्य चन्द्र और अग्नि यानि भूत भविष्य और वर्तमान की प्रतीक हैं|
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माँ के नग्न स्तन समस्त सृष्टि का पालन करते हैं|
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उनकी लाल जिह्वा रजोगुण की प्रतीक है जो सफ़ेद दाँतों यानि सतोगुण से नियंत्रित हैं|
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उनकी लीला में एक पैर लेटे हुए भगवान शिव के वक्षस्थल को छू रहा है जो दिखाता है कि माँ अपने प्रकृति रूप में स्वतंत्र है पर शिव यानि पुरुष को छूते ही नियंत्रित हो जाती है|
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माँ का रूप डरावना है क्योंकि वह किसी भी बुराई से समझौता नहीं करती, पर उसकी हँसी करुणा की प्रतीक है|
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माँ इतनी करुणामयी है कि उनके प्रेमसिन्धु में हमारी हिमालय जैसी भूलें भी कंकड़ पत्थर से अधिक नहीं हो सकतीं| माँ से जब हम उनके चरणों में आश्रय माँगते हैं वे अपने हृदय में ही स्थान दे देती हैं| माँ कि यह करुणा और अनुकम्पा सब भक्तों पर सदा बनी रहती है|
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जब तक हम उनके आश्रय में हैं तब तक जीवित हैं, उनके आश्रय से परे जो कुछ भी है वह मृत्यु है| उनके प्रेम के अतिरिक्त हमें अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Sunday 1 October 2017

बिना पैंदे के लोटे की तरह हम न बनें .....

बिना पैंदे के लोटे की तरह हम न बनें .....
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बिना पैंदे के लोटे की तरह हम न बनें जिसे कोई भी चाहे जैसी दिशा में ही गुड़ा दे यानि झुका दे ... प्राचीन भारत में बालकों को उपदेश दिया जाता था ... "अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव"| यानि चट्टान की तरह अडिग और शक्तिशाली बन (समुद्र में खड़ी चट्टान पर सागर की प्रचंड लहरें बड़े वेग से टक्कर मारती हैं, पर चट्टान पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता|), परशु की तरह तीक्ष्ण बन (परशु पर कोई गिरे वह कट जाए और परशु जिस पर गिरे वह भी कट जाए), स्वर्ण की तरह पवित्र बन (जिसे कोई अपवित्र न कर सके)|
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पता नहीं भारत में क्लीव कायरता कहाँ से आ गयी? सत्य को समझने का हम प्रयास नहीं करते| स्वयं को झूठे आदर्शों और झूठे नारों, व दूसरे क्या सोचेंगे इस तरह के भ्रामक विचारों से बाँध रखा है|
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सत्य ही नारायण है, सत्य ही परमात्मा है और सत्य ही सबसे बड़ा गुण है|
दूसरों के कन्धों पर रख कर बन्दूक न चलाएँ| अपनी कमी को दूर करें, दूसरों को दोष न दें|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||