Saturday 28 May 2022

संसार के सारे बंधनों का कारण -- हमारी चित्त की वृत्तियाँ ही हैं ---

 संसार के सारे बंधनों का कारण -- हमारी चित्त की वृत्तियाँ ही हैं। ये चित्त की वृत्तियाँ क्या होती हैं? इनसे मुक्त कैसे हों? ---

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हमारी वासनाएँ (आकांक्षाएँ/कामनाएँ/इच्छाएँ/अभिलाषाएँ) और तरह तरह के विचार ही चित्त की वृत्तियाँ हैं। हमारी साँसें भी चित्त की ही एक वृत्ति है।
ऋषि पतंजलि ने इन चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है -- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥१.२॥
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने समत्व को योग बताया है और वे निस्त्रेगुण्य होने का उपदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
"यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२:४६॥"
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२:४७॥"
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
"दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२:४९॥"
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२:५०॥"
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भगवान श्रीकृष्ण ने तो गागर में सागर भर दिया है। कहने को कोई बात छोड़ी ही नहीं है। अभी समस्या एक ही बची हुई है कि हम करें क्या? क्योंकि घूम-फिर कर वहीं आ जाते हैं जहां से चले थे। भगवान ने इसका उपाय भी गीता में बताया है लेकिन लेख का विस्तार न हो, इसलिए संक्षेप में मैं ही कुछ कहकर इस लेख को समाप्त करता हूँ।
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दिन-रात निरंतर भगवान का चिंतन करो। अपना पूरा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) उन्हें बापस सौंप दो। यही वासनाओं पर वास्तविक विजय है, बाकी सब भटकाव है। चित्त जिस भावना में तन्मय होता है, उसी स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। चित्त की वृत्तियाँ जब परमात्मा में लीन होने लगती हैं तब सारे संकल्प तिरोहित होने लगते हैं। यही चित्तवृत्ति निरोध है।
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परमात्मा के लिए अभीप्सा और परमप्रेम जागृत करें। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की इच्छा ही हमें बंधनों में डालती हैं। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है, मनुष्य उतना ही अन्दर से तुच्छ होता जाता है। और जितना इच्छाओं का त्याग करता है उतना ही वह महान् होता जाता है। हमारे पतन का कारण इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना, छोटी-छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना, तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ जाना है। अन्तःकरण में जितनी अधिक वासनाएँ होंगी, उतना ही वह भीतर से कमजोर होगा। भीतर की कमजोरी ही बाहर की कमजोरी है। चित्त से इच्छाओं की निवृत्ति ही हमें महान बनाती हैं। यही चित्त-वृत्तियों का निरोध है और यही योगमार्ग का आरंभ है। यह संभव है। गीता में भगवान कहते हैं --
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
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परमात्मा का निरंतर चिंतन करें। तत्पश्चात् सारा बोझ वे स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं। पुराण-पुरुष श्रीकृष्ण पद्मासन में स्वयं का ध्यान कर रहे हैं। उनसे अन्य इस पूरी सृष्टि में कुछ है ही नहीं। उन्हीं का निरंतर ध्यान करें।
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
ॐ तत्सत् !! 🙏🌹🕉🕉🕉🌹🙏
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनू (राजस्थान)
१० मई २०२२

सारी इच्छायें भगवान को समर्पित कर दें, और अपने आत्म-स्वरूप में रहें ---

 सारी इच्छायें भगवान को समर्पित कर दें, और अपने आत्म-स्वरूप में रहें ---

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भगवान एक प्रवाह हैं, जो निरंतर हमारे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हैं। सबसे बड़ी और सबसे महान सेवा जो हम इस जन्म में कर सकते हैं वह है "ईश्वर की प्राप्ति"। ईश्वर को समर्पण किया जाता है, न की उनसे कुछ मांग। स्वयं के अस्तित्व का ईश्वर में पूर्ण समर्पण तभी होता है जब हम कामनाओं से पूर्णतः मुक्त होते हैं। हमारे अन्तःकरण में जितनी इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं, उतने ही हमारे दुःख बढ़ जाते हैं। जैसे-जैसे इच्छाएँ शान्त होने लगती हैं, वैसे-वैसे दुःख की मात्रा भी कम होने लगती हैं।
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परमात्मा को पाने की अभीप्सा आत्मा द्वारा होती है। अभीप्सा हमें मुक्त करती है। कामना का जन्म मन में होता है, यह हमें बंधन में डालती है। यह भाव हर समय बना रहना चाहिए कि परमात्मा निरंतर मेरे साथ एक हैं। वे एक पल के लिए भी मेरे से पृथक नहीं हो सकते। भगवान हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, वे ही सब कुछ हैं, और सब कुछ वे ही हैं। वे ही मेरे हृदय में धडक रहे हैं, वे ही इन नासिकाओं से सांसें ले रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, इन हाथों से वे ही हर कार्य कर रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इस मन और बुद्धि से वे ही सोच रहे हैं, मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि वे ही हैं। वे परम विराट और अनंत हैं। मैं तो निमित्त मात्र, उन का एक उपकरण, और उनके साथ एक हूँं। भगवान स्वयं ही मुझे माध्यम बना कर सारा कार्य कर रहे हैं| कर्ता मैं नहीं, स्वयं भगवान हैं। सारी महिमा भगवान की है। भगवान ने जहाँ भी रखा है और जो भी दायित्व दिया है उसे मैं नहीं, स्वयं भगवान ही निभा रहे हैं। वे ही जगन्माता हैं, वे ही परमपुरुष हैं। मैं उन के साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है।
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“शिवो भूत्वा शिवं यजेत्”– अर्थात् शिव होकर ही शिव की आराधना कीजिये।
आत्मा नित्य मुक्त है, सारे बंधन हमने ही अपने ऊपर अपने अंतःकरण द्वारा थोप रखे हैं। चित्त की वृत्तियाँ क्या हैं, यह मैंने कल लिखा था। चित्त की वृत्तियों का स्पंदन ही संसार का स्वरूप धारण करता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध (नियंत्रण) प्राण-तत्व द्वारा होता है। चित्त के स्पन्दन से ही सांसारिक पदार्थों की अनुभूतियाँ होती हैं। चित्त का स्पंदन प्राण-तत्व के आधीन है। घनीभूत प्राण-तत्व (कुंडलिनी महाशक्ति) को साधते हुए आकाश-तत्व (सूक्ष्म जगत की अनंतता और विस्तार) से भी परे परमशिव का ध्यान करते हैं। कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही "योग" है।
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जहाँ भी भगवान ने हमें रखा है, वहीं उनको आना ही पड़ेगा। अतः सदा आनंदमय रहें। परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ आप सब को मैं नमन करता हूँ॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०२२

हमारे हर विचार, हर सोच, और हर भाव का स्त्रोत केवल परमात्मा है ---

 >>> अपने हर विचार, हर सोच, और हर भाव के पीछे यह अनुभूत करो कि इन सब का स्त्रोत केवल परमात्मा है। न तो मैं कुछ सोच रहा हूँ, और न कुछ चिंतन कर रहा हूँ। परमात्मा ही एकमात्र कर्ता हैं, उन्हीं का एकमात्र अस्तित्व है। वे ही एकमात्र चिंतक हैं।

अपने साक्षी या निमित्त मात्र होने के भाव को भी तिरोहित कर दो, निमित्त भी वे स्वयं ही हैं। "मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। स्वयं परमात्मा ही यह "मैं" बन गए हैं। <<<
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यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात जो मैंने पहले कभी भी नहीं कही थी, आज अपनी अंतर्रात्मा से कह रहा हूँ। इसकी सिद्धि में समय लग सकता है, लेकिन इसमें यदि सिद्धि मिल गई तो आप इस पृथ्वी पर चलते-फिरते देवता बन जाओगे। जिस पर आपकी दृष्टि पड़ेगी, और जो आपके दर्शन करेगा, वे निहाल हो जाएँगे। जहाँ भी आपके चरण पड़ेंगे, वह भूमि पवित्र हो जाएगी। देवता भी आपको देखकर आनंदित होंगे, और नृत्य करेंगे। आप की सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाएगा। जिस कुल/ परिवार में आपने जन्म लिया है, वह आपको पाकर धन्य हो जाएगा।
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इसके लिए परमात्मा का ध्यान/उपासना/सत्संग करना होगा। सात्विक भोजन करना होगा। कुसंग का त्याग करना होगा। यह भूल जाइए कि आप एक जीव है। आप जीव नहीं शिव हो। उस परमशिवभाव को व्यक्त करना ही इस जीवन का उद्देश्य है।
ॐ तत्सत् !! जय हिन्दू राष्ट्र !!
कृपा शंकर
११ मई २०२२

विश्व बड़ी तेजी से संकट की ओर बढ़ रहा है ---

 विश्व बड़ी तेजी से संकट की ओर बढ़ रहा है। जिस तरह से अमेरिका व इंग्लैंड द्वारा NATO के माध्यम से यूक्रेन को भड़का कर और उसे शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति कर के रूस पर युद्ध थोपा जा रहा है, उसमें निकट भविष्य में एक ऐसी स्थिति आ सकती है कि रूस बाध्य होकर अपनी दुर्धर्ष हाइपरसोनिक मिसाइलों से इंग्लैंड और अमेरिका पर हाइड्रोजन बमों की वर्षा कर सकता है। इसमें रूस को भी बहुत अधिक हानि होगी लेकिन इंग्लैंड और अमेरिका तो राख के ढेर में बदल जाएंगे। अमेरिका पर प्रहार करने को उत्तरी कोरिया और चीन भी अपनी कमर कस के बैठे हैं। युद्ध की स्थिति में उत्तरी कोरिया स्वयं के अस्तित्व को दांव पर लगाकर प्रशांत महासागर में अमेरिका के पश्चिमी तट, हवाई और गुआम द्वीप समूह का तो पूरा ही विनाश कर देगा। चीन भी ताइवान पर अधिकार करने के लिए युद्ध आरंभ कर देगा। इधर पश्चिम-एशिया में या तो ईरान ही रहेगा या इज़राइल। दोनों में से एक का नष्ट होना तो तय है। अरब देश इज़राइल का साथ देंगे। पाकिस्तान भी भारत के साथ बदमाशी कर सकता है। पाकिस्तान पर भरोसा करना गिरगिट पर भरोसा करना है। इस वर्ष के अंत तक यूरोप व एशिया के एक बहुत बड़े भूभाग और अमेरिका के विनाश के संभावना है। जापान और चीन के मध्य भी निकट भविष्य में युद्ध हो सकता है। महादेव की कृपा ने ही पहले भी कई बार बचाया है, और आगे भी वह ही बचा सकती है। अंततः भारत का पुनरोदय होगा। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!

कृपा शंकर
१२ मई २०२२

व्यवहार में कोई भक्ति, साधना/उपासना नहीं, तो सारा शास्त्रीय ज्ञान बेकार है ---

 बड़ा उच्च कोटि का व अति गहन अध्ययन/स्वाध्याय, शास्त्रों का पुस्तकीय ज्ञान, बड़ी ऊँची-ऊँची कल्पनायें, दूसरों को प्रभावित करने के लिए बहुत आकर्षक/प्रभावशाली लिखने व बोलने की कला, --- पर व्यवहार में कोई भक्ति, साधना/उपासना नहीं, तो सारा शास्त्रीय ज्ञान बेकार है।

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अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) परमात्मा को कैसे समर्पित करें?
यही हम सब की सबसे बड़ी समस्या है, अन्य सब गौण हैं। जब परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगे, तब सब नियमों से स्वयं को मुक्त कर परमात्मा का ही ध्यान करना चाहिए। हम नित्यमुक्त हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ मई २०२२

हम अपने दिन का प्रारंभ और समापन भगवान के ध्यान से ही करें ---

हम अपने दिन का प्रारंभ और समापन भगवान के ध्यान से ही करें। हमारा मन सत्य को ही हृदय में रखे, और असत्य विषयों की कामना का परित्याग करे। परमात्मा ही एक मात्र सत्य है। केवल परमात्मा की ही अभीप्सा हो, अन्य किसी भी तरह की कामना न हो। गीता में भगवान कहते हैं -

"काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३:३७॥"
अर्थात् - श्रीभगवान् ने कहा - रजोगुण में उत्पन्न हुई यह 'कामना' है, यही क्रोध है; यह महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो॥
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भगवान तो नित्य प्राप्त है, वे हमारा स्वरूप हैं। यह प्रतीति नहीं होनी चाहिए कि हमें कुछ मिला है। हमारे पास तीनों लोकों का राज्य और सारी सिद्धियाँ भी हों, तो भी किसी तरह का हर्ष न हो। मृत्यु के समय किसी भी तरह की शोक की भावना न आए। निन्दा और प्रसन्नता से कोई अंतर नहीं पड़ता। निन्दा शरीर की की जाती है, हमारे वास्तविक स्वरूप की नहीं। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ मई २०२२

गुरु की कृपा और आध्यात्मिक प्रगति हो रही है या नहीं ? ---

 गुरु की कृपा और आध्यात्मिक प्रगति हो रही है या नहीं ?

यदि गुरु के उपदेश हमारे जीवन में चरितार्थ हो रहे हैं, तो गुरुकृपा है, अन्यथा नहीं। यही एकमात्र मापदंड है।
सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठा आध्यात्मिक प्रगति का एकमात्र मापदंड है.
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यश की कामना और उस कामना की पूर्ती का प्रयास निश्चित रूप से हमें भगवान से दूर करता है। यश की कामना होनी ही नहीं चाहिए। यदि कहीं कोई महिमा है तो सिर्फ भगवान की है, हमारी नहीं, क्योंकि हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं जिसे हम स्वयं भूला बैठे हैं। स्वयं की इस देह रूपी नश्वर दुपहिया वाहन के नाम, रूप और अहंकार को महिमामंडित करने और इस का यश फैलाने के चक्कर में हम अनायास ही अत्यधिक अनर्थ कर बैठते हैं। अपने नाम के साथ तरह तरह की उपाधियों को जोड़ना भी एक अहंकार और यश का लोभ है। हर बात का श्रेय लेकर और आत्म-प्रशंसा कर के हम स्वयं के अहंकार को तो तृप्त कर सकते हैं, पर भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकते। इस विषय पर अपने विवेक से सोचिये और सदा सतर्क रहिये। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ मई २०२२

उपदेश और ज्ञान वहीं देना चाहिए जहाँ उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास-निष्ठा हो ---

 (१) आध्यात्मिक उपदेश और ज्ञान वहीं देना चाहिए जहाँ उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास-निष्ठा और वास्तव में आवश्यकता हो। श्रोता की भी पात्रता होती है।

जब उपस्थित समूह अपने दुराग्रह या अज्ञान से किसी मत विशेष या उसके प्रणेता को ही अंतिम मानते हैं, तब उनके मध्य अपनी विचारधारा की बात कहना एक मूर्खता मात्र है। अपनी बात वहीं कहनी चाहिए जहाँ श्रोताओं में सत्य को जानने की एक गूढ़ जिज्ञासा हो, न कि एक बौद्धिक अभिरुचि मात्र।
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(२) दूसरी बात यह कहना चाहूँगा कि समाज में कुछ लोग सिर्फ भड़काने का ही कार्य करते हैं। इस काम में मार्क्सवादियों/नक्सलियों की बराबरी कोई नहीं कर सकता। उनका काम ही एक समुदाय को दूसरों के विरुद्ध भड़काना है। उनसे दूर रहें और उन्हें अपने आसपास भी न आने दें। इस भड़काने वाले काम को वे वर्ग-संघर्ष कहते हैं। उनकी आसुरी विचारधारा का आधार ही यह वर्ग-संघर्ष है।
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(३) हमारे स्वयं में भी एक आत्म-बल हो। अगर हमारे में तपस्या का बल होगा तो हमारे संकल्प-मात्र से ही वह कार्य अति अल्प समय में हो जाएगा, जिसे हजारो व्यक्ति एक दीर्घ काल में कर पाते हैं। वास्तव में एक ब्रह्मशक्ति के जागरण की आवश्यकता है। वह ब्रह्मशक्ति ही विश्व का कल्याण कर सकती है। इधर-उधर की फालतू बातों में समय नष्ट करने का कोई लाभ नहीं है। हम स्वयं परमशिव में प्रतिष्ठित हों, व उस परमशिव भाव को व्यक्त करें॥ इति॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२२

इस संसार ने मुझे आनंद का प्रलोभन दिया था, लेकिन मिला सिर्फ छल-कपट और झूठ ---

इस संसार ने मुझे आनंद का प्रलोभन दिया था, लेकिन मिला सिर्फ छल-कपट और झूठ। सारी आस्थाएँ अब सब ओर से हटकर केवल ईश्वर में ही प्रतिष्ठित हो गई हैं। किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं रही है। किसी से किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं है।

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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग?
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान। (साभार: कामायनी)
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२२

धर्म और आध्यात्म -- बलशाली और समर्थवान व्यक्तियों के लिए हैं, शक्तिहीनों के लिए नहीं ---

 धर्म और आध्यात्म -- बलशाली और समर्थवान व्यक्तियों के लिए हैं, शक्तिहीनों के लिए नहीं ---

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श्रुति भगवति (वेद) स्पष्ट कहती है कि बलहीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती -- "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।"
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/४)
अर्थात् -- यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है, न ही प्रमादपूर्ण प्रयास से, और न ही लक्षणहीन तपस्या के द्वारा प्राप्य है|
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एक बलशाली व्यक्ति और समाज ही ईश्वर को उपलब्ध हो सकता है। पहले हम स्वयं की रक्षा करने में समर्थ हों तभी आध्यात्मिक बन सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया था जो सबसे बड़ा वीर, भक्त और शक्तिशाली था।
हमारी सबसे बड़ी समस्या है -- सनातन-धर्म और भारत की रक्षा कैसे करें?
धर्म की रक्षा -- धर्म के पालन से होती है। हम अपने धर्म व राष्ट्र की रक्षा करें। इस पर गहन विचार करें। यही हमारी एकमात्र समस्या इस समय है। बलशाली और पराक्रमी होकर ही हम परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२२

हम यह देह नहीं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और अनंत परमात्मा को अनुभूत करने का एक साधन मात्र है --

 हम यह देह नहीं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और अनंत परमात्मा को अनुभूत करने का एक साधन मात्र है ---

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विराट पुरुष की जो परिकल्पना मेरे मानस में है, उसके अनुसार परमात्मा को हम केवल समर्पित हो सकते हैं, कोई अन्य विकल्प नहीं है। आज्ञाचक्र हमारा आध्यात्मिक हृदय है, और सहस्त्रारचक्र परमात्मा के चरण कमल हैं। ब्रह्मरंध्र से ऊपर ब्रह्मांड की अनंतता, और उससे भी परे हमारा वास्तविक अस्तित्व है। यह देह उसी का एक भाग है। हम यह देह नहीं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और और स्वयं की अनंतता को अनुभूत करने का एक साधन मात्र है।
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जिस क्षण में हम जी रहे हैं, वह क्षण हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक महत्वपूर्ण व चुनौतीपूर्ण समय है। इस काल में हम अपना सर्वश्रेष्ठ करें। कोई भी संकल्प करने से पूर्व यह आंकलन कर लें कि हमारी स्वयं की क्षमता व योग्यता क्या है, और हमारे पास क्या क्या उपलब्ध साधन हैं। अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम, परमात्मा की परमज्योतिर्मय विराट अनंतता को समर्पित करें। यह विराट अनंतता और उससे परे भगवान स्वयं हैं। वे ही परमशिव है, वे ही विष्णु हैं, और वे ही पारब्रह्म परमात्मा हैं। परमात्मा को पूर्ण समर्पण -- यही एकमात्र विकल्प है। अन्य कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।
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हे प्रभु, अपनी परम कृपा करो, और आत्मज्ञान, पूर्णभक्ति व परम-वैराग्य प्रदान करो।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२२

मेरे अवचेतन मन में छिपे घोर तमोगुण का नाश भगवती महाकाली करें ---

 मेरे अवचेतन मन में छिपे घोर तमोगुण का नाश भगवती महाकाली करें ---

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सारी आध्यात्मिक साधना/उपासना तो भगवती महाकाली कर रही हैं, और उनके कर्मफल भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित कर रही हैं। पारब्रह्म परमात्मा के साकार रूप भगवान श्रीकृष्ण हैं। वे ही परमशिव हैं, और वे ही नारायण हैं। जिनमें पात्रता है, वे ही इसे समझ सकते हैं। अपने पात्र को तिरोहित कर दो, सारी सीमाओं को तोड़ दो। हम किसी पात्र में बंधे नहीं रह सकते। हमारी मुक्तता परमात्मा में है। जगन्माता का सौम्यतम रूप भगवती सीता जी और राधा जी हैं। दस महाविद्याओं में सौम्य रूप हैं -- त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी, और कमला। उग्र रूप है -- काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, और बगलामुखी। तारा और त्रिपुर भैरवी -- सौम्य भी हैं और उग्र भी।
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मेरे अवचेतन मन में बहुत अधिक घोर तमोगुण भरा हुआ है, यही मेरे पतन और विनाश का कारण है। सारे असुर राक्षस मेरे अवचेतन मन में छिपे हैं। उसका नाश भगवती अपने उग्र रूप में ही कर सकती है। इसी लिए मैं भगवती छिन्नमस्ता और काली को याद करता हूँ। वे तमोगुण से मेरी रक्षा करें।
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जगन्माता की अनुभूति मुझे प्राणतत्व के रूप में होती है और परमशिव की आकाश तत्व के रूप में। और भी गहरी बात है कि एकमात्र कर्ता तो भगवान श्रीकृष्ण हैं, उनसे अन्य कोई नहीं है। सब कुछ उन्हीं में समाहित है। मैं जो लिख रहा हूँ, ये सब बुद्धि के विषय नहीं, साधना में होने वाले अनुभव हैं।
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कुछ दिनों पूर्व मैंने एक लेख भगवती छिन्नमस्ता पर पुनर्प्रेषित किया था, अब भगवती काली पर एक पुराने लेख को संशोधित कर पुनर्प्रेषित कर रहा हूँ।
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जिन माँ के प्रकाश से समस्त नक्षत्रमंडल और ब्रह्मांड प्रकाशित हैं, उन माँ की महिमा के बारे में इस अकिंचन का कुछ भी लिखना, सूर्य को दीपक दिखाने का प्रयास मात्र सा है, जिसके लिए यह अकिंचन बालक क्षमा याचना करता है।
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जिनकी देह से समस्त सृष्टि प्रकाशित है, पता नहीं उनका नाम "काली" क्यों रख दिया? सृष्टि की रचना के पीछे जो आद्यशक्ति है, जो स्वयं अदृश्य रहकर अपने लीला विलास से समस्त सृष्टि का संचालन करती हैं, समस्त अस्तित्व जो कभी था, है, और आगे भी होगा वह शक्ति माँ महाकाली ही है। सृष्टि, स्थिति और संहार उन की एक अभिव्यक्ति मात्र है। यह संहार नकारात्मक नहीं है। यह वैसे ही है जैसे एक बीज स्वयं अपना अस्तित्व खोकर एक वृक्ष को जन्म देता है। सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता, मात्र रूपांतरित होता है। यह रूपांतरण ही माँ का विवेक, सौन्दर्य और करुणा है। माँ प्रेम और करुणामयी है। माँ के वास्तविक सौन्दर्य को तो गहन ध्यान में तुरीय चेतना में ही अनुभूत किया जा सकता है। उनकी साधना जिस साकार विग्रह रूप में की जाती है, वह प्रतीकात्मक है ---
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"माँ के विग्रह में चार हाथ है। अपने दो दायें हाथों में से एक से माँ सृष्टि का निर्माण कर रही है, और एक से अपने भक्तों को आशीर्वाद दे रही है। माँ के दो बाएँ हाथों में से एक में कटार है, और एक में कटा हुआ नरमुंड है जो संहार और स्थिति के प्रतीक हैं। ये प्रकृति के द्वंद्व और द्वैत का बोध कराते हैं। माँ के गले में पचास नरमुंडों कि माला है जो वर्णमाला के पचास अक्षर हैं। यह उनके ज्ञान और विवेक के प्रतीक हैं। माँ के लहराते हुए काले बाल माया के प्रतीक हैं। माँ के विग्रह में उनकी देह का रंग काला है, क्योंकि यह प्रकाशहीन प्रकाश और अन्धकारविहीन अन्धकार का प्रतीक हैं, जो उनका स्वाभाविक काला रंग है। किसी भी रंग का ना होना काला होना है जिसमें कोई विविधता नहीं है। माँ की दिगंबरता दशों दिशाओं और अनंतता की प्रतीक है। उनकी कमर में मनुष्य के हाथ बंधे हुए हैं वे मनुष्य की अंतहीन वासनाओं और अंतहीन जन्मों के प्रतीक हैं। माँ के तीन आँखें हैं जो सूर्य चन्द्र और अग्नि यानि भूत भविष्य और वर्तमान की प्रतीक हैं। माँ के स्तन समस्त सृष्टि का पालन करते हैं। उनकी लाल जिह्वा रजोगुण की प्रतीक है जो सफ़ेद दाँतों यानि सतोगुण से नियंत्रित हैं। उनकी लीला में एक पैर भगवान शिव के वक्षस्थल को छू रहा है जो दिखाता है कि माँ अपने प्रकृति रूप में स्वतंत्र है पर शिव यानि पुरुष को छूते ही नियंत्रित हो जाती है। माँ का रूप डरावना है क्योंकि वह किसी भी बुराई से समझौता नहीं करती, पर उसकी हँसी करुणा की प्रतीक है।"
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माँ इतनी करुणामयी है कि उन के प्रेमसिन्धु में मेरी हिमालय सी भूलें भी कंकड़ पत्थर से अधिक नहीं है। माँ से मैंने उनके चरणों में आश्रय माँगा था तो उन्होनें अपने ह्रदय में ही स्थान दे दिया है। माँ कि यह करुणा और अनुकम्पा सब पर बनी रहे। जब तक मैं उनकी गोद में हूँ, तब तक ही जीवित हूँ। मेरी समस्त गतिविधियाँ उनकी गोद में ही हो। उनकी गोद से परे जो कुछ भी है वह मृत्यु यानि आत्म-विस्मृति है। माँ, मुझे अपनी गोद में ही रखो, आत्म-विस्मृति रूपी मृत्यु में मत जाने दो। मुझे अन्य कुछ भी मुझे नहीं चाहिए।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१८ मई २०२२

हमारे पतन का एकमात्र कारण -- हमारे जीवन में तमोगुण की प्रधानता है ---

 मैं अपने जीवन के पूरे अनुभव के साथ कह सकता हूँ कि हमारे पतन का एकमात्र कारण -- हमारे जीवन में तमोगुण की प्रधानता है। बिना सतोगुण के रजोगुण भी पतनोन्मुखी होता है। जीवन में सतोगुण श्रेष्ठ होता है, लेकिन इन सब गुणों से ऊपर उठना यानि त्रिगुणातीत होना ही सर्वश्रेष्ठ है, जो हमारे परमात्मा को पाने के मार्ग को प्रशस्त करता है।

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तमोगुण ही मानसिक व्यभिचार को जन्म देता है। मन में बुरी बुरी कल्पनाओं का आना, और उन कल्पनाओं में मन का लगना मानसिक व्यभिचार है। यह मानसिक व्यभिचार ही भौतिक व्यभिचार में बदल जाता है। समाज में जो भ्रष्टाचार फैला हुआ है, उसका कारण यह मानसिक व्यभिचार ही है। चारों ओर जो भी बुराइयाँ हम देख रहे हैं, उनके स्त्रोत में हमारा स्वयं का मानसिक व्यभिचार है।
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आजकल किसी को कुछ कहना -- अपना अपमान करवाना है। समाज का वातावरण बहुत अधिक खराब है। बड़े बड़े धर्मगुरु भी अपनी बात कहते हुए संकोच करते हैं। किसी को भलाई की बात कहने का अर्थ है -- गालियाँ, तिरस्कार और अनेक अपमानजनक शब्दों को निमंत्रित करना। आज के युग में हम स्वयं को बचाकर रखेँ। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० मई २०२२

हमें भगवान नहीं मिलते, इसका मुख्य कारण है "सत्यनिष्ठा का अभाव" ---

  हमें भगवान नहीं मिलते, इसका मुख्य कारण है "सत्यनिष्ठा का अभाव" ---

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हम सत्यनिष्ठ नहीं हैं, इसीलिए भगवान से दूर हैं। हमारा लोभ और अहंकार हमें सत्यनिष्ठ होने से रोकता है। इसका निदान यही है कि हम बाल्यकाल से ही बालकों को अच्छे संस्कार दें, और किशोरावस्था से ही उन में भक्ति व ध्यान-साधना में रूचि जागृत करें। हमारे लोभ का एक सूक्ष्म कारण हमारा तामसी आहार भी है। गीता के अनुसार हम जो कुछ भी खाते हैं वह हम नहीं खाते हैं, बल्कि अपनी देह में वैश्वानर अग्नि देव के रूप में स्थित परमात्मा को समर्पित करते हैं। उस भोजन से पूरी सृष्टि की तृप्ति होती है। जहाँ हम अपने स्वयं के लिए ही खाते हैं, वहाँ हम पाप का भक्षण करते हैं। आजकल आसुरी खानपान का बहुत अधिक प्रचलन हो गया है। जिस खानपान से मन दूषित होता है, वह आसुरी आहार है। लोग जूठा भोजन खाने-खिलाने में भी परहेज नहीं करते। जूठा भोजन भी आसुरी हो जाता है। किसी का भी जूठा नहीं खाना चाहिए। मनु महाराज ने मनुस्मृति में उच्छिष्ट भोजन का निषेध किया है। भोजन पकाना एक पाकयज्ञ है जिसकी विधि का गृह्यसूत्रों में वर्णन है। रसोई के चूल्हे और बर्तनों की पवित्रता की हमें रक्षा करनी चाहिए। भोजन बनाने वाले के कैसे भाव हैं, इसका भी प्रभाव खाने वाले पर पड़ता है।
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सिर्फ भोजन ही हमारा आहार नहीं है| जो हम सोचते हैं, देखते हैं, सूंघते हैं, सुनते हैं, और स्पर्श करते हैं -- वह भी हमारी इन्द्रियों द्वारा किया गया आहार है। हम अश्लीलता को सोचते है, देखते हैं और सुनते हैं तो यह अश्लीलता का आहार है। इन्द्रियों द्वारा लिया गया आहार भी हमारे मन को बनाता है। अतः आहार शुद्धि का ध्यान रखना एक आध्यात्मिक साधक का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। आसुरी आहार के कारण ही हमारा मन दूषित हो जाता है। फिर हम पर देवताओं की कृपा नहीं होती, और हमारा पतन हो जाता है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मई २०२२

जीवन के अंतकाल में भगवत्-प्राप्ति कैसे हो? ---

जीवन के अंतकाल में भगवत्-प्राप्ति कैसे हो? ---

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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||१८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||१८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करो, मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के "ॐ" का जाप कर लो। भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित ही है|
पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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सिद्ध ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु के चरण कमलों में बैठकर उनके उपदेश और आदेश से ही इसका अभ्यास किया जा सकता है।
ॐ तत्सत् !!
२० मई २०२२

भारत में केवल महान पुण्यात्माओं का ही जन्म और निवास हो ---

 

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भारत में केवल महान पुण्यात्माओं का ही जन्म और निवास हो ---
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हमारे ग्रंथों के अध्ययन से एक बात स्पष्ट होती है कि द्वापर युग तक भारतवर्ष में ऐसी अनेक महान आत्माएँ थीं जो सूक्ष्म जगत के अन्य लोकों में सशरीर जाकर बापस भी आ सकती थीं। देव लोकों से देवता भी पृथ्वी पर आकर लोगों को दर्शन देते थे। सूक्ष्म जगत में कई लोकों के ऐसे भी प्राणी हैं जो पृथ्वी के मनुष्यों से बहुत अधिक उन्नत क्षमतावान, महान और धर्मनिष्ठ हैं। सूक्ष्म जगत से परे कारण जगत के भी अन्य अनेक अधिक विकसित लोक हैं, जहाँ उन्हीं का जन्म होता है जो पूर्वजन्म में निर्विकल्प समाधि में प्रवेश कर चुके हों।
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सूक्ष्म और कारण जगत की असंख्य महान देवात्माएँ भारत में अवतरित हों, और इस राष्ट्र का कल्याण करें। वे मनुष्य देह में जन्म लें या अपनी सूक्ष्म देह में रहते हुए ही जीवित मनुष्यों के माध्यम से कार्य करें। भारत को ऐसी अनेक महान आत्माओं की आवश्यकता है।
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भारत को असत्य और अंधकार की तमोगुणी आत्माओं यानि कचरा मनुष्यता से मुक्ति मिले। भारत में किसी भी तमोगुणी तामसी आत्मा का जन्म न हो, केवल महान आत्माओं का ही जन्म हो। भारत में कोई दुष्ट दुराचारी न हो, सनातन धर्म की पुनर्स्थापना हो, व भारत एक अखंड आध्यात्मिक राष्ट्र बने। सत्य-सनातन-धर्म यहाँ की राजनीति हो। महाराजा पृथु जैसे सत्यधर्मनिष्ठ क्षत्रिय राजाओं का ही राज्य भारत में हो। भारत में महाराजा पृथु जैसे महान चक्रवर्ती सम्राट भी हुए हैं जिनके कारण इस ग्रह का नाम पृथ्वी है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ शांति शांति शांति !!
कृपा शंकर
२० मई २०२२
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सत्य सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण का समय आ रहा है ---

मेरा अंतिम घोष है --- "सत्य सनातन धर्म की जय हो। असत्य और अंधकार की शक्तियाँ पराभूत हों।"

सत्य सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण का समय आ रहा है। लाखों महान पराक्रमी पुण्यात्माओं का भारत में प्राकट्य होगा, भगवान भी इस धरा पर साकार रूप में अवतृत होंगे।
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जहां तक मेरा प्रश्न है, मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व, सारे पाप-पुण्य, सारे अच्छे-बुरे कर्मफल, और सब कुछ --"श्रीकृष्ण समर्पण"। कुछ भी उनसे पृथक नहीं है, सब कुछ उन्हें समर्पित है। वे ही सम्पूर्ण अस्तित्व हैं। यह पृथकता का बोध एक अज्ञान था।
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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पुनश्च: ---
(१) गुरु महाराज का आदेश है कि परमात्मा का अधिक से अधिक ध्यान करो, और अपनी सारी समस्याओं के समाधान के लिए गहरे से गहरे ध्यान में परमात्मा की सहायता लो। कितनी भी असहनीय चुनौतियों का पहाड़ खुद पर टूट पड़े, तब भी साहस और सूझबूझ को न खोओ। ईश्वर पर आस्था रखो, कोई न कोई मार्ग निश्चित रूप से निकल आयेगा।
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(२) कोई शिकायत, निंदा व आलोचना करने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। मेरे सारे कष्ट मेरे कर्मों के फल थे, किसी अन्य का कोई दोष नहीं है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२२
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पुनश्च :--- आवश्यकता व्यावहारिक उपासना की है, बौद्धिक चर्चा की नहीं। अतः अधिकाधिक समय भगवान को दें। आध्यात्म की गूढ बातें बुद्धि द्वारा नहीं, निज अनुभूतियों द्वारा ही समझ में आती हैं। जैसे शिक्षा में क्रम होते हैं -- एक बालक चौथी में पढ़ता है, एक बालक बारहवीं में, एक बालक कॉलेज में; वैसे ही साधना के भी क्रम होते हैं। एक सामान्य व्यक्ति के लिए तो भक्तिपूर्वक धीरे-धीरे मानसिक रूप से निरंतर राम नाम का जप ही सर्वश्रेष्ठ साधना है।
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सनातन-धर्म ही भारत राष्ट्र का सत्व, मर्म, मूलाधार और प्राण है। सनातन-धर्म के बिना भारत का कोई अस्तित्व नहीं है। सनातन-धर्म ही इस सम्पूर्ण सृष्टि का भविष्य है। सनातन-धर्म की निश्चित रूप से पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण होगा।
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हम सब जो भी आध्यात्मिक साधना करते हैं, उस से सनातन-धर्म की रक्षा होती है। जीवन की सत्य, सनातन और सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति धर्म है, और यह सनातन-धर्म ही हमारी रक्षा करेगा। हमें भी उसकी रक्षा करनी होगी।
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हम सनातन काल से ही सदा वीर, तेजस्वी और पराक्रमी रहे हैं। हमारा लक्ष्य - परमात्मा है। सनातन-धर्म की रक्षा हेतु भारत को एक हिन्दू-राष्ट्र बनाना अपरिहार्य है।
ॐ तत्सत् !! जय हिन्दू राष्ट्र !! 🙏🌹🕉🕉🕉🌹🙏
कृपा शंकर
११ मई २०२२

लययोग ---

 एक ध्वनि ऐसी भी है जो किसी शब्द का प्रयोग नहीं करती। परमात्मा की उस निःशब्द ध्वनि में तेलधारा की तरह तन्मय हो जाना -- एक बहुत बड़ी उपासना है, जिसे लययोग कहते हैं।

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हम मौज-मस्ती करते हैं सुख की चाह में। यह सुख की चाह अवचेतन मन में छिपी आनंद की ही खोज है। सांसारिक सुख की खोज कभी संतुष्टि नहीं देती, अपने पीछे एक पीड़ा की लकीर छोड़ जाती है। आनंद की अनुभूतियाँ होती हैं सिर्फ परमात्मा के ध्यान में। परमात्मा ही आनंद है, परमप्रेम जिसका द्वार है।
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गहन ध्यान में प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर ऊर्ध्वगमन, सुषुम्ना के सभी चक्रों की गुरु-प्रदत्त विधि से परिक्रमा, कूटस्थ में अप्रतिम ब्रह्मज्योति के दर्शन, ओंकार नाद का श्रवण, सहस्त्रार में व उससे भी आगे सर्वव्यापी भगवान परमशिव की अनुभूतियाँ -- जो शाश्वत आनंद देती हैं, वह भौतिक जगत में असम्भव है।
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सभी पर परमात्मा की अपार परम कृपा हो। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ मई २०२२