(१) आध्यात्मिक उपदेश और ज्ञान वहीं देना चाहिए जहाँ उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास-निष्ठा और वास्तव में आवश्यकता हो। श्रोता की भी पात्रता होती है।
जब उपस्थित समूह अपने दुराग्रह या अज्ञान से किसी मत विशेष या उसके प्रणेता को ही अंतिम मानते हैं, तब उनके मध्य अपनी विचारधारा की बात कहना एक मूर्खता मात्र है। अपनी बात वहीं कहनी चाहिए जहाँ श्रोताओं में सत्य को जानने की एक गूढ़ जिज्ञासा हो, न कि एक बौद्धिक अभिरुचि मात्र।
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(२) दूसरी बात यह कहना चाहूँगा कि समाज में कुछ लोग सिर्फ भड़काने का ही कार्य करते हैं। इस काम में मार्क्सवादियों/नक्सलियों की बराबरी कोई नहीं कर सकता। उनका काम ही एक समुदाय को दूसरों के विरुद्ध भड़काना है। उनसे दूर रहें और उन्हें अपने आसपास भी न आने दें। इस भड़काने वाले काम को वे वर्ग-संघर्ष कहते हैं। उनकी आसुरी विचारधारा का आधार ही यह वर्ग-संघर्ष है।
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(३) हमारे स्वयं में भी एक आत्म-बल हो। अगर हमारे में तपस्या का बल होगा तो हमारे संकल्प-मात्र से ही वह कार्य अति अल्प समय में हो जाएगा, जिसे हजारो व्यक्ति एक दीर्घ काल में कर पाते हैं। वास्तव में एक ब्रह्मशक्ति के जागरण की आवश्यकता है। वह ब्रह्मशक्ति ही विश्व का कल्याण कर सकती है। इधर-उधर की फालतू बातों में समय नष्ट करने का कोई लाभ नहीं है। हम स्वयं परमशिव में प्रतिष्ठित हों, व उस परमशिव भाव को व्यक्त करें॥ इति॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२२
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