इस संसार ने मुझे आनंद का प्रलोभन दिया था, लेकिन मिला सिर्फ छल-कपट और झूठ। सारी आस्थाएँ अब सब ओर से हटकर केवल ईश्वर में ही प्रतिष्ठित हो गई हैं। किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं रही है। किसी से किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं है।
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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग?
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान। (साभार: कामायनी)
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२२
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