Saturday 28 May 2022

मेरे अवचेतन मन में छिपे घोर तमोगुण का नाश भगवती महाकाली करें ---

 मेरे अवचेतन मन में छिपे घोर तमोगुण का नाश भगवती महाकाली करें ---

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सारी आध्यात्मिक साधना/उपासना तो भगवती महाकाली कर रही हैं, और उनके कर्मफल भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित कर रही हैं। पारब्रह्म परमात्मा के साकार रूप भगवान श्रीकृष्ण हैं। वे ही परमशिव हैं, और वे ही नारायण हैं। जिनमें पात्रता है, वे ही इसे समझ सकते हैं। अपने पात्र को तिरोहित कर दो, सारी सीमाओं को तोड़ दो। हम किसी पात्र में बंधे नहीं रह सकते। हमारी मुक्तता परमात्मा में है। जगन्माता का सौम्यतम रूप भगवती सीता जी और राधा जी हैं। दस महाविद्याओं में सौम्य रूप हैं -- त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी, और कमला। उग्र रूप है -- काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, और बगलामुखी। तारा और त्रिपुर भैरवी -- सौम्य भी हैं और उग्र भी।
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मेरे अवचेतन मन में बहुत अधिक घोर तमोगुण भरा हुआ है, यही मेरे पतन और विनाश का कारण है। सारे असुर राक्षस मेरे अवचेतन मन में छिपे हैं। उसका नाश भगवती अपने उग्र रूप में ही कर सकती है। इसी लिए मैं भगवती छिन्नमस्ता और काली को याद करता हूँ। वे तमोगुण से मेरी रक्षा करें।
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जगन्माता की अनुभूति मुझे प्राणतत्व के रूप में होती है और परमशिव की आकाश तत्व के रूप में। और भी गहरी बात है कि एकमात्र कर्ता तो भगवान श्रीकृष्ण हैं, उनसे अन्य कोई नहीं है। सब कुछ उन्हीं में समाहित है। मैं जो लिख रहा हूँ, ये सब बुद्धि के विषय नहीं, साधना में होने वाले अनुभव हैं।
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कुछ दिनों पूर्व मैंने एक लेख भगवती छिन्नमस्ता पर पुनर्प्रेषित किया था, अब भगवती काली पर एक पुराने लेख को संशोधित कर पुनर्प्रेषित कर रहा हूँ।
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जिन माँ के प्रकाश से समस्त नक्षत्रमंडल और ब्रह्मांड प्रकाशित हैं, उन माँ की महिमा के बारे में इस अकिंचन का कुछ भी लिखना, सूर्य को दीपक दिखाने का प्रयास मात्र सा है, जिसके लिए यह अकिंचन बालक क्षमा याचना करता है।
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जिनकी देह से समस्त सृष्टि प्रकाशित है, पता नहीं उनका नाम "काली" क्यों रख दिया? सृष्टि की रचना के पीछे जो आद्यशक्ति है, जो स्वयं अदृश्य रहकर अपने लीला विलास से समस्त सृष्टि का संचालन करती हैं, समस्त अस्तित्व जो कभी था, है, और आगे भी होगा वह शक्ति माँ महाकाली ही है। सृष्टि, स्थिति और संहार उन की एक अभिव्यक्ति मात्र है। यह संहार नकारात्मक नहीं है। यह वैसे ही है जैसे एक बीज स्वयं अपना अस्तित्व खोकर एक वृक्ष को जन्म देता है। सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता, मात्र रूपांतरित होता है। यह रूपांतरण ही माँ का विवेक, सौन्दर्य और करुणा है। माँ प्रेम और करुणामयी है। माँ के वास्तविक सौन्दर्य को तो गहन ध्यान में तुरीय चेतना में ही अनुभूत किया जा सकता है। उनकी साधना जिस साकार विग्रह रूप में की जाती है, वह प्रतीकात्मक है ---
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"माँ के विग्रह में चार हाथ है। अपने दो दायें हाथों में से एक से माँ सृष्टि का निर्माण कर रही है, और एक से अपने भक्तों को आशीर्वाद दे रही है। माँ के दो बाएँ हाथों में से एक में कटार है, और एक में कटा हुआ नरमुंड है जो संहार और स्थिति के प्रतीक हैं। ये प्रकृति के द्वंद्व और द्वैत का बोध कराते हैं। माँ के गले में पचास नरमुंडों कि माला है जो वर्णमाला के पचास अक्षर हैं। यह उनके ज्ञान और विवेक के प्रतीक हैं। माँ के लहराते हुए काले बाल माया के प्रतीक हैं। माँ के विग्रह में उनकी देह का रंग काला है, क्योंकि यह प्रकाशहीन प्रकाश और अन्धकारविहीन अन्धकार का प्रतीक हैं, जो उनका स्वाभाविक काला रंग है। किसी भी रंग का ना होना काला होना है जिसमें कोई विविधता नहीं है। माँ की दिगंबरता दशों दिशाओं और अनंतता की प्रतीक है। उनकी कमर में मनुष्य के हाथ बंधे हुए हैं वे मनुष्य की अंतहीन वासनाओं और अंतहीन जन्मों के प्रतीक हैं। माँ के तीन आँखें हैं जो सूर्य चन्द्र और अग्नि यानि भूत भविष्य और वर्तमान की प्रतीक हैं। माँ के स्तन समस्त सृष्टि का पालन करते हैं। उनकी लाल जिह्वा रजोगुण की प्रतीक है जो सफ़ेद दाँतों यानि सतोगुण से नियंत्रित हैं। उनकी लीला में एक पैर भगवान शिव के वक्षस्थल को छू रहा है जो दिखाता है कि माँ अपने प्रकृति रूप में स्वतंत्र है पर शिव यानि पुरुष को छूते ही नियंत्रित हो जाती है। माँ का रूप डरावना है क्योंकि वह किसी भी बुराई से समझौता नहीं करती, पर उसकी हँसी करुणा की प्रतीक है।"
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माँ इतनी करुणामयी है कि उन के प्रेमसिन्धु में मेरी हिमालय सी भूलें भी कंकड़ पत्थर से अधिक नहीं है। माँ से मैंने उनके चरणों में आश्रय माँगा था तो उन्होनें अपने ह्रदय में ही स्थान दे दिया है। माँ कि यह करुणा और अनुकम्पा सब पर बनी रहे। जब तक मैं उनकी गोद में हूँ, तब तक ही जीवित हूँ। मेरी समस्त गतिविधियाँ उनकी गोद में ही हो। उनकी गोद से परे जो कुछ भी है वह मृत्यु यानि आत्म-विस्मृति है। माँ, मुझे अपनी गोद में ही रखो, आत्म-विस्मृति रूपी मृत्यु में मत जाने दो। मुझे अन्य कुछ भी मुझे नहीं चाहिए।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१८ मई २०२२

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