हम अपने दिन का प्रारंभ और समापन भगवान के ध्यान से ही करें। हमारा मन सत्य को ही हृदय में रखे, और असत्य विषयों की कामना का परित्याग करे। परमात्मा ही एक मात्र सत्य है। केवल परमात्मा की ही अभीप्सा हो, अन्य किसी भी तरह की कामना न हो। गीता में भगवान कहते हैं -
"काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३:३७॥"
अर्थात् - श्रीभगवान् ने कहा - रजोगुण में उत्पन्न हुई यह 'कामना' है, यही क्रोध है; यह महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो॥
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भगवान तो नित्य प्राप्त है, वे हमारा स्वरूप हैं। यह प्रतीति नहीं होनी चाहिए कि हमें कुछ मिला है। हमारे पास तीनों लोकों का राज्य और सारी सिद्धियाँ भी हों, तो भी किसी तरह का हर्ष न हो। मृत्यु के समय किसी भी तरह की शोक की भावना न आए। निन्दा और प्रसन्नता से कोई अंतर नहीं पड़ता। निन्दा शरीर की की जाती है, हमारे वास्तविक स्वरूप की नहीं। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ मई २०२२
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