Sunday, 23 February 2025

शीघ्र ही आने वाले पर्व -- महाशिवरात्रि व होली की अग्रिम शुभ कामनाएँ ---

 शीघ्र ही आने वाले पर्व -- महाशिवरात्रि व होली की अग्रिम शुभ कामनाएँ ---

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आध्यात्मिक साधना और मंत्र सिद्धि के लिए चार रात्रियों का बड़ा महत्त्व है --
(१) कालरात्रि (दीपावली), (२) महारात्रि (महाशिवरात्रि), (३) मोहरात्रि (जन्माष्टमी). और (४) दारुण रात्रि (होली)। इन रात्रियों को किया गया ध्यान, जप-तप, भजन -- कई गुणा अधिक फलदायी होता है।
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भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठने की साधना तो नित्य ही करनी चाहिये। आत्म-विस्मृति सब दुःखों का कारण है। इन रात्रियों को अपने आत्म-स्वरुप यानि सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान यथासंभव अधिकाधिक करें। इन रात्रियों में सुषुम्ना नाड़ी में प्राण-प्रवाह अति प्रबल रहता है अतः निष्ठा और भक्ति से की गई साधना निश्चित रूप से सफल होती है।
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समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें। धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एक विराट आध्यात्मिक ब्रह्मशक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है, जो हमारी साधना के बल से ही जागृत होगी।
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भगवान परमशिव को ही कर्ता बनाकर समर्पण भाव से हम सब उनकी आराधना के निमित्त बनेंगे, गीता आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय भी करेंगे। भगवान कहते हैं --
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ||६:२५||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे।
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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ||६:२६||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
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सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः||६:२९||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है।
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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है।
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कूटस्थ सूर्यमण्डल में व उससे भी परे परमशिव/पुरुषोत्तम का गहनतम ध्यान करें। मैं आप सब के साथ एक हूँ। महाशिवरात्रि व होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०२५

हम क्या उपासना करें? किस देवता की आराधना करें? कौन सा मार्ग सर्वश्रेष्ठ है?

 प्रश्न) :--- हम क्या उपासना करें? किस देवता की आराधना करें? कौन सा मार्ग सर्वश्रेष्ठ है?

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(उत्तर) :--- जिस उपासना से मन की चंचलता शांत हो, परमात्मा से प्रेम और समर्पण का भाव बढ़े, वही उपासना सार्थक है, अन्य सब निरर्थक हैं।
स्वभाविक रूप से भगवान का जो भी रूप हमें सब से अधिक प्रिय है, उसी की आराधना करें।
जो हमें इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति करा दे, वही पंथ/सिद्धांत/मत सर्वश्रेष्ठ है।
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ध्यान या तो हम भगवान शिव का करते हैं, या भगवान विष्णु या उनके अवतारों का। अधिकांश योगी ज्योतिर्मय ब्रह्म के साथ साथ प्रणव का भी ध्यान करते हैं। यह भगवान का निराकार रूप है। निराकार का अर्थ है -- सारे आकार जिसके हों।
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उपदेश हम किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों का ज्ञान हो) आचार्य से ही ग्रहण करें। अंत में एक बात याद रखें कि बिना भक्ति (परमप्रेम) व सत्यनिष्ठा के कोई साधना सफल नहीं होती।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
४अक्टूबर २०२४

अपने दिन का आरंभ और समापन, परमात्मा के गहनतम ध्यान से करें, और हर समय परमात्मा का स्मरण करते रहें :---

अपने दिन का आरंभ और समापन, परमात्मा के गहनतम ध्यान से करें, और हर समय परमात्मा का स्मरण करते रहें :---

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जहाँ तक भगवान के ध्यान का प्रश्न है, इस विषय पर मैं किसी से भी किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं कर सकता। यही मेरा जीवन है, और मेरा समय नष्ट करने वालों को मैं विष (Poison) की तरह इसी क्षण से दूर कर रहा हूँ। तमाशवीन और केवल जिज्ञासु लोगों के लिए भी मेरे पास जरा सा भी समय नहीं है।
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मैंने वे सारी साधनाएँ भी छोड़ दी हैं जो किसी भी तरह के भोग का आश्वासन, या बदले में कुछ देती हैं। किसी भी तरह का कणमात्र भी भोग नहीं, पूर्ण सत्यनिष्ठा से परमात्मा से केवल योग (पूर्ण समर्पण और जुड़ाव) ही चाहिये। साधना भी वह ही करें जो हमें भगवान से पूरी तरह जोड़ती हैं। किसी भी तरह की कामना न होकर, केवल समर्पण और भक्ति होनी चाहिये।
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उन सब लोगों से भी इसी क्षण से संपर्क तोड़ रहा हूँ, जो निष्ठावान नहीं हैं, और जिनके हृदय में भक्ति व सत्य-निष्ठा नहीं है। जो सिर्फ बातें करते हैं, उनकी ओर मुंह उठाकर देखने की भी मेरी इच्छा नहीं है। स्वयं की कमियों का भी मुझे पता है, वे भी भगवान की कृपा से दूर हो रही हैं।
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प्रातः काल उठते ही लघुशंकादि से निवृत होकर, मुंह धोकर, अपने ध्यान के आसन पर बैठ जाएँ, और कम से कम एक घंटे तक परमात्मा का ध्यान करें। ध्यान के समय ऊनी कंबल या कुशा घास के आसन पर बैठें, मेरुदंड उन्नत, ठुड्डी भूमि के समानान्तर, मुख पूर्व या उत्तर दिशा में, दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर, व चेतना सर्वव्यापी हो। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही, और रात्रि में शयन से पूर्व भी, परमात्मा का गहनतम ध्यान करें।
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प्रश्न : -- ध्यान किस का करें ?
उत्तर :-- ध्यान सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का करें।
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥११:१२॥" (श्रीमदभगवद्गीता)
आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा॥ (वही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसी का ध्यान करें)
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(प्रश्न) : ध्यान कैसे करें?
(उत्तर) : ध्यान का आरंभ अनन्य-योग द्वारा अजपा-जप (हंसःयोग) और ओंकार साधना से करें। आगे का मार्ग जगन्माता स्वयं दिखायेंगी। किसी भी तरह का कोई भी संशय हो तो किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय (जिन्हें श्रुतियों का ज्ञान हों) आचार्य से मार्गदर्शन लें। इधर-उधर न भटकें।
परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी तरह की कामना को गीता में भगवान ने व्यभिचार की संज्ञा दी है। हमारी भक्ति अव्यभिचारिणी हो।
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मंगलमय शुभ कामनाएँ। आपका जीवन कृतार्थ हो, और आप कृतकृत्य हों।
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ सितंबर २०२४
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पुनश्च: --- कृपा कर के वे सब सज्जन भी मेरे से संपर्क तोड़ दें, जिनके हृदय में भगवान की भक्ति नहीं है। मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है। वे मेरी मित्रता सूची से भी हट जाएँ।

ईश्वर की प्राप्ति के लिए --

 ईश्वर की प्राप्ति के लिए --

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(१) एक श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान है), ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन लेना परम आवश्यक है। यह श्रुति भगवती का आदेश है।
(२) गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति, अनन्य योग, वीतरागता, स्थितप्रज्ञता, और पूर्ण समर्पण भी आवश्यक है।
(३) जब तक कोई मार्गदर्शक आचार्य न मिलें तब तक भगवान श्रीकृष्ण से ही मार्गदर्शन लें। वे सभी गुरुओं के गुरु यानि जगद्गुरू हैं -- "कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम्॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२४

हम प्रेममय हो जायें, यही भगवान की भक्ति है। अन्य है ही कौन?

 हम प्रेममय हो जायें, यही भगवान की भक्ति है। अन्य है ही कौन?

(भक्ति कोई क्रिया नहीं है, यह एक अवस्था यानि स्थिति है)
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मैं किसे पाने के लिए तड़प रहा हूँ? यह अतृप्त प्यास और असीम वेदना किसके लिए है? मेरे से अन्य तो कोई है भी नहीं। भक्ति-सूत्रों के अनुसार परमप्रेम ही भक्ति है। हम जब परमप्रेममय हो जाते हैं, यही भगवान की भक्ति करना होता है। भक्ति कोई क्रिया नहीं है, यह एक अवस्था यानि स्थिति है।
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यह एक मिथ्या भ्रम है कि हम किसी की भक्ति कर रहे हैं। हम भक्त हो सकते हैं, लेकिन किसी की भक्ति कर नहीं सकते। परमात्मा कोई वस्तु या कोई व्यक्ति नहीं है जो आकाश से उतर कर आयेगा, और कहेगा कि भक्त, वर माँग। वह कोई सिंहासन पर बैठा हुआ, दयालू या क्रोधी व्यक्ति भी नहीं है जो दंडित या पुरस्कृत करता है। परमात्मा हमारी अपनी स्वयं की ही एक उच्चतम चेतना है। यह एक अनुभूति का विषय है, जिसका मैंने अनुभव किया है।
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हम निमित्त मात्र ही नहीं, इतने अधिक प्रेममय हो जायें कि स्वयं में ही परमात्मा की अनुभूति हो। परमात्मा और स्वयं में कोई भेद न रहे। हमारा अस्तित्व ही परमात्मा का अस्तित्व हो जाए। यही परमात्मा की प्राप्ति है, यही आत्म-साक्षात्कार है। भगवान कोई ऊपर से उतर कर आने वाले नहीं, हमें स्वयं को ही परमात्मा बनना पड़ेगा। सदा शिवभाव में रहो। हम परमशिव हैं, यह नश्वर मनुष्य देह नहीं।
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लौकिक रूप से ही हम कह सकते हैं कि भगवान को अपना पूर्ण प्रेम दो। यथार्थ में वह लौकिक प्रेम हम स्वयं हैं। हमें स्वयं को ही सत्यनिष्ठ और परमप्रेममय बनना होगा। सत्यनिष्ठा कभी व्यर्थ नहीं जाती। सदा वर्तमान में रहें। परमात्मा हम स्वयं हैं। हमारा परमात्मा के रूप में जागृत होना ही परमात्मा की प्राप्ति है।
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"मिलें न रघुपति बिन अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥" रां रामाय नमः॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥ जय जय श्रीसीताराम॥
शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं !! अहं ब्रह्मास्मि !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२५

 (प्रश्न) : भगवान के ध्यान और भक्ति से हमें क्या मिलेगा?

(उत्तर) : जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब कुछ छीन लिया जाएगा।
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बाकी रह जायेगी केवल एक अनंत सर्वव्यापी सच्चिदानंद परमात्मा की अनुभूति कि वे ही कर्ता और भोक्ता हैं। उनके श्रीचरणों में आश्रय मिल जायेगा, आगे के सारे द्वार अपने आप ही खुलने लगेंगे, सारे दीप भी अपने आप ही प्रज्ज्वलित हो उठेंगे, और सारा अंधकार दूर हो जाएगा। आप परमात्मा की वह ज्योति बन जाओगे, जो कभी बुझाई नहीं जा सकती। वह ज्योति, उसका अनंत विस्तार, और उसमें से निःसृत हो रहे नाद की ध्वनि आप स्वयं हो जाओगे।
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परमप्रेममय होकर परमात्मा का ध्यान कीजिये। आपका मौन और एकाग्रता -- परमात्मा का सिंहासन बन जायेगा। आप यह मनुष्य देह नहीं, स्वयं साक्षात सर्वव्यापी परमब्रह्म के साथ एक हो जाओगे। यही परमात्मा के ध्यान से मिलेगा, और कुछ भी नहीं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२४

पता नहीं, मेरा कल्याण कब होगा ---

 भगवान ने सुपात्रों की जो पात्रता बताई है, उनमें से एक भी मुझ में नहीं है। पता नहीं, मेरा कल्याण कब होगा। भगवान कहते हैं --

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"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
अर्थात् --
"विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित॥"
"अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है॥
"ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है॥"
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ जून २०२४

जिन के हृदय में इन्द्रीय सुखों की कामना भरी पडी है वे आध्यात्म के क्षेत्र में न आयें ---

जिन के हृदय में इन्द्रीय सुखों की कामना भरी पडी है वे आध्यात्म के क्षेत्र में न आयें, उन्हें लाभ की बजाय हानि ही होगी| साधना में विक्षेप ही सब से बड़ी बाधा है| विक्षेप उन्हीं को होता है जिनके विचार वासनात्मक होते हैं| जिनके हृदय में वासनात्मक विचार भरे पड़े हैं उन्हें किसी भी तरह की ध्यान साधना नहीं करनी चाहिए अन्यथा लाभ की बजाय हानि ही होगी| वासनात्मक विचारों से भरा ध्यान साधक निश्चित रूप से आसुरी शक्तियों का उपकरण बन जाता है| इसीलिए पतंजलि ने यम-नियमों पर इतना जोर दिया है| गुरु गोरखनाथ तो अपने शिष्यों के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य की पात्रता अनिवार्य रखते थे| स्वामी विवेकानंद ने भी ध्यान साधना से पूर्व ब्रह्मचर्य को अनिवार्य बताया है| जिन लोगों का मन वासनाओं से भरा पडा है वे बाहर ही रहें, उन्हें भीतर आने की आवश्यकता नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

१८ फरवरी २०१९ 

आध्यात्म की गूढ बातें, गुरुकृपा से अनुभूतियों द्वारा ही समझ में आती हैं ---

पिछले कई वर्षों से मैं फेसबुक पर आध्यात्म और हिन्दू राष्ट्रवाद के छोटे-मोटे लेख लिखता आया हूँ। स्वयं के भावों को व्यक्त करने की अदम्य उत्कंठा ही लिखने को बाध्य करती थी। अब हृदय पूरी तरह तृप्त है। अवशिष्ट जीवन परमात्मा को समर्पित है। किसी भी तरह की कोई चाहत नहीं है, पूरा मार्गदर्शन भगवान से प्राप्त है, और किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है।
आध्यात्म की गूढ बातें -- गुरुकृपा से अनुभूतियों द्वारा ही समझ में आती हैं, अतः सार्वजनिक मंच पर उन की चर्चा करना व्यर्थ है।
एक सामान्य व्यक्ति के लिए तो धीरे-धीरे मानसिक रूप से निरंतर राम नाम का जप ही सर्वश्रेष्ठ साधना है।
जहाँ तक आध्यात्म की बात है, कोई ऐसा प्रश्न, संशय, शंका या जिज्ञासा मेरे समक्ष नहीं है, जिसका समाधान अभी तक मुझे नहीं हुआ हो। सारा मार्ग पूर्णतः स्पष्ट है। अतः अब और कुछ लिखने को कुछ बचा ही नहीं है। भगवान स्वयं सामने आकर बैठ गए हैं, और इधर-उधर कहीं भी नहीं देखने दे रहे हैं। उनको छोड़कर अन्यत्र कहीं दृष्टि कर भी नहीं सकता। आप सब महान आत्माओं को नमन !! ॐ तत्सत् !!

कृपा शंकर
११ अप्रेल २०२२



जीवन में परमात्मा की निरंतर अभिव्यक्ति ही धर्म है ---

जीवन में हम धर्म और आध्यात्म की जो बड़ी बड़ी बातें और चर्चा करते हैं, वे सब मन को बहलाने का एक मनोरंजन मात्र ही है| उस से कुछ क्षणों के लिए मन में पवित्रता तो आती है पर उस से अधिक कुछ भी नहीं| धर्म की अभिव्यक्ति तो मनोनिग्रह से होती है, मनोरंजन से नहीं| धर्म तो अपनी चेतना में जीया जाता है, वह निज जीवन में निरंतर अभिव्यक्त हो|

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मेरी प्रत्यक्ष साधनाजन्य अनुभूति तो यह है कि निज "जीवन में परमात्मा की निरंतर अभिव्यक्ति ही धर्म है"| यह मेरी साधनाजन्य प्रत्यक्ष अनुभूति है अतः मेरे लिए यही सत्य है|
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किसी भी तरह के मायावी शब्दजाल रूपी घोर अरण्य में मैं अब और खोना नहीं चाहता| "परमात्मा एक अनुभूत सत्य है"| वास्तव में परमात्मा ही सत्य है और परमात्मा ही प्रकाश है| जहाँ परमात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं है, वह असत्य, अंधकार और अधर्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ नवंबर २०१९

सर्वाधिक दुर्लभ है परमात्मा के प्रति परमप्रेम, उन्हें पाने की अभीप्सा, सदगुरू, सत्संगति और ब्रह्मविचार --

जहाँ तक आध्यात्म का संबंध है, परमात्मा की परम कृपा से स्वयं के लिए किसी भी प्रकार का कण मात्र भी कोई संशय नहीं है, सारा परिदृश्य और मार्ग स्पष्ट है| मार्ग में कहीं भी अंधकार नहीं है|

"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्‌| यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्‌||"
"मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ै गिरिवर गहन| जासु कृपा सु दयाल, द्रवहु सकल कलिमल दहन||"
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वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण, गुरु महाराज और सूक्ष्म जगत के उन सभी महात्माओं को मैं नमन करता हूँ, जिन्होनें समय समय पर मेरी रक्षा और मार्गदर्शन किया है| उनका मैं सदैव ऋणी हूँ| सारा जीवन उन्हीं को समर्पित है|
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
"ब्रह्मानन्दं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरूं तं नमामि ||"
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दुर्लभ क्या है? सर्वाधिक दुर्लभ है परमात्मा के प्रति परमप्रेम, उन्हें पाने की अभीप्सा, सदगुरू, सत्संगति और ब्रह्मविचार| ये मिल गए तो भवसागर पार है, फिर और कुछ नहीं चाहिए|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ नवम्बर २०१९

यह संपूर्णता व विराटता -- भूमा-वासना है, जो सदा बनी रहे

 जिन की अनुकंपा से हम चैतन्य हैं, और जिन के प्रकाश से हमें स्वयं के होने का बोध है, वे ही हमारे परमप्रिय परमात्मा हैं, जिन का प्रेम हमें निरंतर मिल रहा है। हम उन को अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ प्रेम दें, और उन की चेतना में आनंदमय रहें। परमप्रेम हमारा स्वभाव है, और आनंद उसकी परिणिती। मानसिक भावुकता से ऊपर उठें, और जब भी समय मिले, कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते हुए आध्यात्म की परावस्था में रहें। हमारी हर सांस उनके प्रति समर्पित हो।

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परमात्मा की अनंतता हमारी देह है, और समस्त सृष्टि हमारा परिवार। यह संपूर्णता व विराटता -- भूमा-वासना है, जो सदा बनी रहे।
जो हम ढूँढ़ रहे हैं या जो हम पाना चाहते हैं, वह तो हम स्वयं हैं, -- यह वेदान्त-वासना है।
हम अनन्य हैं, हमारे से अन्य कोई नहीं है। यह -- अनन्य-योग है।
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गहराई में जाने के लिए वेदान्त के दृष्टिकोण से विचार कीजिए। भगवान कहते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
अर्थात् अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता||
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ मई २०२१

किसी पर दोषारोपण मत करो। हम जो कुछ भी हैं, वह अपने कर्मों से हैं ---

आध्यात्म में किसी पर दोषारोपण मत करो। हम जो कुछ भी हैं, अपने कर्मों से हैं। अपने कर्मफलों को भोगने के लिए ही हमें यह जन्म मिला है। अपने विगत के कर्मफलों से मुक्त होने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बहुत अच्छा और सरल मार्ग बताया है| स्वाध्याय और साधना तो स्वयं को ही करनी होगी|

यदि पर्वत का पानी तालाब में आता है तो पर्वत का क्या दोष? तालाब को स्वयं ही पर्वत से भी अधिक ऊँचा बनना होगा|
एड़ियाँ ऊँची कर के पंजों पर खड़े होने, या दूसरों के सिर काट कर हम बड़े नहीं हो सकते|
आध्यात्म में कुछ पाने या प्राप्ति की कामना एक मरीचिका है। जो कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है, वह तो हम स्वयं हैं।
कृपा शंकर १८ जनवरी २०१८

स्वयं में आत्म-ज्योति प्रज्ज्वलित होते ही असत्य का अंधकार तुरंत दूर होगा ---

सनातन-धर्म -- जिन सत्य सनातन सिद्धांतों पर टिका है, जैसे - आत्मा की शाश्वतता, माया, कर्मफल, पुनर्जन्म, आध्यात्म और भगवत्-प्राप्ति, -- इन्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता। ये सनातन सत्य हैं, और इस सृष्टि और प्रकृति के धर्म हैं। रामायण और महाभारत में इसे बहुत अच्छी तरह समझाया गया है। धर्म-शिक्षा के अभाव में हम इसे नहीं जानते।

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सूर्योदय होते ही भगवान भुवन-भास्कर के समझ कोई अंधकार नहीं टिकता। वैसे ही हम स्वयं में आत्म-ज्योति को प्रज्ज्वलित करेंगे तो हमारे अंतर में व्याप्त असत्य का अंधकार तत्क्षण दूर हो जायेगा।
आध्यात्म में इधर-उधर की मन बहलाने वाली बातों से काम नहीं बनेगा, उन में भटकाव ही भटकाव है। सीधी सी बात है --
(१) जब तक हम अपने --- मन, बुद्धि और अहंकार पर विजय नहीं पाते तब तक कोई प्रगति नहीं हो सकती।
(२) इन पर विजय के बाद --- जीव भाव से ऊपर उठ कर स्वयं को परमात्मा में दृढ़ता से स्थित करना पड़ेगा।
जहाँ तक मैं जानता हूँ, अन्य कोई मार्ग नहीं है। भटकाव में कुछ नहीं रखा है। आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ अप्रेल २०२१

धर्म और आध्यात्म -- बलशाली और समर्थवान व्यक्तियों के लिए हैं, शक्तिहीनों के लिए नहीं ---

 धर्म और आध्यात्म -- बलशाली और समर्थवान व्यक्तियों के लिए हैं, शक्तिहीनों के लिए नहीं ---

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श्रुति भगवति (वेद) स्पष्ट कहती है कि बलहीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती -- "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।"
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/४)
अर्थात् -- यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है, न ही प्रमादपूर्ण प्रयास से, और न ही लक्षणहीन तपस्या के द्वारा प्राप्य है|
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एक बलशाली व्यक्ति और समाज ही ईश्वर को उपलब्ध हो सकता है। पहले हम स्वयं की रक्षा करने में समर्थ हों तभी आध्यात्मिक बन सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया था जो सबसे बड़ा वीर, भक्त और शक्तिशाली था।
हमारी सबसे बड़ी समस्या है -- सनातन-धर्म और भारत की रक्षा कैसे करें?
धर्म की रक्षा -- धर्म के पालन से होती है। हम अपने धर्म व राष्ट्र की रक्षा करें। इस पर गहन विचार करें। यही हमारी एकमात्र समस्या इस समय है। बलशाली और पराक्रमी होकर ही हम परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं।
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आध्यात्म में जितना भी मुझे समझ में आया, और जो भी संभव हुआ, वह मेरे माध्यम से खूब लिखा गया है। भगवान श्रीकृष्ण की कुछ विशेष कृपा ही मुझ पर रही है, इसलिए उनके उपदेशों को समझने में मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।
अब तो प्रत्यक्ष रूप से पूरा अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ही उनका हो गया है, अतः शेष लौकिक जीवन उन्हीं के ध्यान, भजन, स्मरण आदि में ही व्यतीत हो जाएगा। सोशियल मीडिया पर बना रहूँगा। इसे नहीं छोड़ूँगा।
आप सब में परमात्मा को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२२ . पुनश्च: -- धर्म और आध्यात्म की बातें बलशाली और समर्थवान व्यक्तियों के लिए होती हैं, शक्तिहीनों के लिए नहीं। श्रुति भगवति (वेद) स्पष्ट कहती है कि बलहीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती ---
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।"
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/४)
अर्थात् -- यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है, न ही प्रमादपूर्ण प्रयास से, और न ही लक्षणहीन तपस्या के द्वारा प्राप्य है|
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एक बलशाली व्यक्ति और समाज ही ईश्वर को उपलब्ध हो सकता है। पहले हम स्वयं की रक्षा करने में समर्थ हों तभी आध्यात्मिक बन सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया था जो सबसे बड़ा वीर, भक्त और शक्तिशाली था।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!

आध्यात्म में किसी भी तरह की आकांक्षा और अपेक्षा ... पतन का कारण हैं, और अभीप्सा व परमप्रेम ... उन्नति का आरंभ है .....

 आध्यात्म में किसी भी तरह की आकांक्षा और अपेक्षा ... पतन का कारण हैं, और अभीप्सा व परमप्रेम ... उन्नति का आरंभ है .....

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मैं भगवान की प्रेरणा से पिछले आठ वर्षों से फेसबुक पर हिन्दू-राष्ट्रवाद और भगवान से प्रेम पर आध्यात्मिक लेख लिखता आ रहा हूँ| यह मेरा प्रयास या कणमात्र भी मेरी कोई महिमा नहीं थी| सारी प्रेरणा और कृपा, भगवान की ही थी| अच्छा या बुरा जो कुछ भी लिखा गया वह भगवान की प्रेरणा से ही लिखा गया| वे ही लिखने वाले थे, और वे ही लिखाने वाले थे, सारी महिमा उन्हीं की थी| अब इस शरीर का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है| अतः कभी-कभी ही जब भी वे चाहेंगे तभी कुछ न कुछ लिखवा लेंगे, अपनी स्वतंत्र इच्छा से कुछ भी नहीं लिख पाऊँगा|
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मेरा फेसबुक पर बस यही एक ही खाता है, दूसरा कोई खाता नहीं है, दूसरा खाता कभी खोलूँगा भी नहीं| एक ब्लॉग भी है| मुझे धर्म के नाम पर, और लोक-व्यवहार में सामाजिक और आर्थिक रूप से कुछ लोगों ने ठगा भी बहुत ही अधिक और बहुत ही बुरी तरह है| उनके प्रति भी मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं है| भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि कोई भी अन्य व्यक्ति, किसी भी तरह की ठगी का शिकार न हो|
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अब बचा-खुचा जो भी जीवन है, वह भगवान के ध्यान में ही व्यतीत होगा| आध्यात्मिक दृष्टि से मुझे किसी भी तरह का कण मात्र भी कोई संशय, शंका, संदेह या भ्रम नहीं है| भगवान की पूर्ण कृपा है| आध्यात्म में कोई भी रहस्य अब रहस्य नहीं रहा है| पूर्व जन्मों के गुरु, सूक्ष्म जगत से मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं| सब से बड़ी बात तो यह है की मुझे आध्यात्मिक रूप से स्वयं भगवान का आशीर्वाद प्राप्त है|
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आप सब निजात्मगण, भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, और महान आत्मायें हैं| आप सब को मेरा विनम्र नमन| अंतिम बात यही कहना चाहूँगा कि भगवान से प्रेम करें, और जितना अधिक हो सके उतना पूर्ण प्रेम करें| किसी भी तरह की आकांक्षा न हो| आकांक्षा और अपेक्षा ... पतन का कारण हैं, और अभीप्सा व परमप्रेम ... उन्नति का आरंभ है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अक्तूबर २०२०

आओ, अब विशुद्ध आध्यात्म की बातें करेंगे ---

 आओ, अब विशुद्ध आध्यात्म की बातें करेंगे ---

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मैं विश्व के कारण नहीं, विश्व मेरे कारण है। मैं ही समस्त जीवन हूँ। जीवन मेरा नहीं, मैं जीवन का निर्माण कर रहा हूँ। मैं भगवान के साथ एक हूँ, और भगवान मेरे साथ एक है। सृष्टि मेरे से है, मैं सृष्टि से नहीं।
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जीवन में आज तक भगवान के रूप में मैं सिर्फ स्वयं से यानि भगवान से ही मिला हूँ, और भगवान में ही विचरण किया है। अन्य कोई है ही नहीं। भगवान ही यह "मैं" बन गए हैं। भगवान से पृथक होने का बोध एक भ्रम मात्र है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
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I am happening to Life. Life is not happening to me. Every thought I think, impacts the physical world around me. and magnetizes a reality that matches my thoughts and feelings. The power to change things is within me, not without me. Om Om Om !! १९ फरवरी २०२२

"कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान" और "ऊर्ध्वमूल" का रहस्य --- .

 "कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान" और "ऊर्ध्वमूल" का रहस्य ---

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यह मेरा सबसे प्रिय विषय है, जिससे आगे की मैं सोच भी नहीं सकता। आध्यात्म में पुरुष शब्द का प्रयोग भगवान विष्णु के लिए होता है जो पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही परमशिव हैं। पुरुषोत्तम शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण या भगवान श्रीराम के लिए होता है। लौकिक और आध्यात्मिक दृष्टि से वे ही पुरुषोत्तम हैं। कूटस्थ शब्द भगवान श्रीकृष्ण का है जो स्वयं कूटस्थ हैं। वे सर्वत्र हैं पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते, इसलिए वे कूटस्थ हैं।
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योगी महात्मा "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग उस ब्रह्मज्योति के लिए करते हैं जो गुरुकृपा से उनके समक्ष भ्रूमध्य में ध्यान करते करते सूक्ष्म जगत में प्रकट होती है। इसे वे ज्योतिर्मयब्रह्म भी कहते हैं, और शब्दब्रह्म भी, क्योंकि उस ब्रह्मज्योति से प्रणव की ध्वनि निःसृत होती रहती है, जिसके दर्शन और श्रवण करते करते वे स्वयं ब्रह्ममय हो जाते हैं।
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जब श्रीगुरुचरणों में आश्रय मिल जाता है, तब उस कूटस्थ ज्योति का केंद्र सहस्त्रार में हो जाता है। सहस्त्रार में कूटस्थ ज्योति के दर्शन का अर्थ है -- श्रीगुरुचरणों में आश्रय मिल गया है। सहस्त्रार में श्रीगुरुचरणों का ज्योतिर्मय रूप में ध्यान करते करते आगे के द्वार अपने आप खुल जाते हैं, और कहीं पर भी कोई अंधकार नहीं रहता।
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सिद्ध गुरु और परमात्मा की कृपा से साधक को जब विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगें, तब मान लीजिए कि उस की पदोन्नति हो गई है और वह स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर के कॉलेज में आ गया है। उस समय से उस विस्तार का ही ध्यान कीजिए कि आप स्वयं वह अनंत विस्तार हैं, यह नश्वर देह नहीं। आपको कूटस्थ ज्योति के दर्शन, और नाद का श्रवण स्वतः ही हरिःकृपा से होता रहेगा। यह साधना की एक बहुत उन्नत अवस्था है। यह अवस्था साधक को भगवान से मिला देती है। विस्तार की अनुभूति से वैराग्य जागृत होता है।
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एक दिन साधक पाता है कि वह अनंत विस्तार से भी परे चला गया है और उस ब्रह्मज्योति के साथ एक है। उस ब्रह्मज्योति में भगवान परमशिव का, या भगवान विष्णु का या उनके अवतार भगवान श्रीराम या भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कीजिए। यह भाव रखिए कि आप स्वयं सर्वव्यापक ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं, यह नश्वर देह नहीं। हर साँस के साथ इस भावना को दृढ़ करते रहें। यह साधना -- अजपाजप, हंसःयोग, व हंसवतिऋक कहलाती है। नाद का श्रवण करते करते स्वयं की पृथकता के बोध का उसमें विलय कर देना लययोग कहलाता है।
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ध्यान में शिवलिंग के दर्शन भी ज्योतिर्मय रूप में होते हैं। उसका रहस्य यहाँ बता देता हूँ। शिव का अर्थ है -- परम मंगल और परम कल्याणकारी। लिंग का अर्थ है जिसमें सब का विलय हो जाता है। शिवलिंग का अर्थ है वह परम मंगल और परम कल्याणकारी परम चैतन्य जिसमें सब का विलय हो जाता है। सारा अस्तित्व, सारा ब्रह्मांड ही शिव लिंग है। स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में, और कारण जगत का सभी आयामों से परे "तुरीय चेतना" में विलय हो जाता है। उस तुरीय चेतना का प्रतीक है -- शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ यानि ब्रह्मज्योति में निरंतर जागृत रहता है। सर्वव्यापी ज्योतिर्मय शिव को परमशिव भी कहते हैं जिन के ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है। अनंतता से भी ऊपर के ध्यान में दिखाई देने वाले पञ्चकोणीय विराट श्वेत नक्षत्र को मैं परमशिव कहता हूँ। मेरे लिए वे ही पंचमुखी महादेव हैं।
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जो कुछ भी मैंने यहाँ लिखा है उससे यदि कोई दोष, पाप, या अधर्म हुआ है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी मेरी है। उसके लिए मैं कोई भी दंड भुगतने को तैयार हूँ। मेरी आप सब से इतनी ही प्रार्थना है कि आप अपने मेरुदंड को सदा उन्नत, और भ्रूमध्य में एक ज्योति का बोध सदा बनाए रखें। वह ज्योति ही कूटस्थ सूर्यमंडल है, जिसमें आप सदा पुरुषोत्तम का ध्यान करें। यह कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान है। यह मेरा सबसे प्रिय विषय है जिस पर मैं लिख रहा हूँ। इसी की चेतना में मुझे आनंद मिलता है, अन्यत्र कहीं भी नहीं। यही मेरी साधना है और यही मेरा जीवन है।
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यह ज्योतिर्मय ब्रह्म ही आप स्वयं हैं। इस का ध्यान करते करते आप हजारों करोड़ किलोमीटर ऊपर अनंत में इस सृष्टि से भी ऊपर उठ जाइए, और भी ऊपर उठ जाइए जहाँ तक आपकी कल्पना जाती है। इस अनंत ब्रह्मांड से भी ऊपर उच्चतम स्थान पर ऊर्ध्वमूल है वहीं पर स्थित होकर आप भगवान का ध्यान कीजिए। इसी के बारे में गीता में भगवान कहते हैं --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल सङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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जितना लिखने की प्रेरणा और आदेश मुझे मेरी अन्तर्रात्मा से मिला उतना लिख दिया। और लिखने का आदेश नहीं है। आप सब में भगवान वासुदेव को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मई २०२३

भारत की आत्मा ही आध्यात्म है, और सनातन-धर्म ही भारत का प्राण है ---

 भारत की आत्मा ही आध्यात्म है, और सनातन-धर्म ही भारत का प्राण है। यह भारत भूमि धन्य है। यहाँ धर्म, भक्ति, और ज्ञान पर जितना चिंतन और विचार हुआ है, उतना पूरे विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है। भगवान की भक्ति पर कितना भी लिखो, कोई अंत नहीं है। गंधर्वराज पुष्पदंत विरचित "शिव महिम्न स्तोत्र" का ३२वाँ श्लोक कहता है --

"असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी॥
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥३२॥"
अर्थात् -- यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड़ की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।
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कबीर जी का भी एक दोहा है --
"सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥"
अर्थात् - यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।
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रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत तो भक्ति के ही ग्रंथ हैं।
"मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥" (रामचरितमानस)
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नारद भक्तिसूत्र और शांडिल्य भक्तिसूत्रों का स्वाध्याय एक बार अवश्य कर लेना चाहिए। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२५ मार्च २०२२

साधना, स्वाध्याय, सत्संग, और आध्यात्म का सार जो मुझे समझ में आया है ---

 साधना, स्वाध्याय, सत्संग, और आध्यात्म का सार जो मुझे समझ में आया है ---

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सारी साधनाओं, स्वाध्याय, सत्संग, और आध्यात्म का सार जो मुझे समझ में आया है, वह यह है कि -- "हमारा उच्चतम दायित्व -- परमात्मा के प्रकाश की निरंतर वृद्धि करते रहना है। यही हमारा स्वधर्म है।"
जब हम शांत वातावरण में शांत होकर, मेरुदंड को उन्नत रखते हुए ध्यान के आसन पर बैठते हैं, तो भ्रूमध्य में बंद आंखो के अंधकार के पीछे (कुछ कालखंड की साधना के पश्चात) एक अति उज्ज्वल शाश्वत श्वेत ब्रह्मज्योति के दर्शन होते हैं। वह ब्रह्मज्योति हम स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं। उसी का ध्यान करें, उसमें से निकल रही ध्वनि को सुनते रहें, और उसके प्रकाश का अपनी चेतना में निरंतर विस्तार करें।
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हमारे सौर मण्डल का स्वामी हमारा सूर्य है, जिसकी ऊर्जा से हम जीवित हैं। इस तरह के लाखों-करोड़ों सूर्य हैं, लाखों-करोड़ों अनगिनत पृथ्वियाँ हैं। यह सृष्टि अनंत है। अपनी आकाश-गंगा के एक छोर से दूसरे छोर तक यदि प्रकाश की गति से यात्रा की जाये तो उस यात्रा को पूर्ण करने में लगभग एक लाख वर्ष लग जाएँगे। इस तरह की अनगिनत लाखों आकाश गंगाएँ हैं।
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किसी स्वच्छ अंधेरी रात में अपने घर की छत पर जाकर ध्रुव तारे को देखिये। वह ध्रुव तारा साढ़े चार सौ से भी अधिक वर्षों पूर्व था। उसके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में साढ़े चार सौ वर्षों से भी अधिक का समय लगा है। आकाश के कई नक्षत्र जो अब दिखाई दे रहे हैं, वे सैंकड़ों वर्ष पूर्व थे।
अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर भी अनंत सृष्टियाँ हैं, जिन्हें समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है। वहाँ से प्रकाश की किरणें जब चली थीं तब पृथ्वी ग्रह का कोई अस्तित्व नहीं था। जब तक वे किरणें पृथ्वी तक पहुँचेंगी, तब तक पृथ्वी भी नष्ट हो गई होगी।
यह तो रही स्थूल जगत की बात। सूक्ष्म जगत तो और भी अधिक विराट है। ध्यान साधना करते करते समाधि की अवस्था में सूक्ष्म जगत की अनुभूतियाँ प्रत्येक साधक को होती है। सूक्ष्म जगत इस भौतिक जगत से बहुत अधिक बड़ा है। उस से परे की तो मैं कल्पना करने में भी असमर्थ हूँ।
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इस पृथ्वी पर भी विभिन्न आयामों में अनेक सृष्टियाँ हैं। हमारी तो भौतिक सृष्टि है, इसके अतिरिक्त प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनंदमय सृष्टियाँ हैं। ये स्वर्ग-नर्क आदि सब मनोमय सृष्टियाँ हैं। जो चीज समझ में आती है वही लिख रहा हूँ। जो अज्ञात है वह कोरी कल्पना है। कल्पना में रहना स्वयं को धोखा देना है।
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एक बात तो अनुभूत सत्य है कि हम यह शरीर नहीं हैं। यह शरीर एक दुपहिया वाहन है जो इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ है। यह नष्ट हो जाएगा तो अंत समय की मति के अनुसार तुरंत दूसरा शरीर मिल जाएगा। पुनर्जन्म का सिद्धान्त शत-प्रतिशत सत्य है।
हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका परिणाम निश्चित रूप से मिलता है। कर्मफलों का सिद्धान्त -- शत-प्रतिशत सत्य है। यह सृष्टि परमात्मा के मन का एक विचार है।
हम यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। सारे देवी-देवता हमारे साथ एक हैं। कोई भी या कुछ भी हमारे से पृथक नहीं है।
आगे की बात समझने के लिए हमें वीतराग और त्रिगुणातीत होना पड़ेगा। तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। गीता के अनुसार --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥"
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आत्मवान होकर ही सत्य को समझ सकेंगे। अभी भी अनेक कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करनी हैं। परमात्मा ही परम सत्य है, जिनको मैं नमन करता हूँ --
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ अगस्त २०२२