Sunday, 23 February 2025

साधना, स्वाध्याय, सत्संग, और आध्यात्म का सार जो मुझे समझ में आया है ---

 साधना, स्वाध्याय, सत्संग, और आध्यात्म का सार जो मुझे समझ में आया है ---

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सारी साधनाओं, स्वाध्याय, सत्संग, और आध्यात्म का सार जो मुझे समझ में आया है, वह यह है कि -- "हमारा उच्चतम दायित्व -- परमात्मा के प्रकाश की निरंतर वृद्धि करते रहना है। यही हमारा स्वधर्म है।"
जब हम शांत वातावरण में शांत होकर, मेरुदंड को उन्नत रखते हुए ध्यान के आसन पर बैठते हैं, तो भ्रूमध्य में बंद आंखो के अंधकार के पीछे (कुछ कालखंड की साधना के पश्चात) एक अति उज्ज्वल शाश्वत श्वेत ब्रह्मज्योति के दर्शन होते हैं। वह ब्रह्मज्योति हम स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं। उसी का ध्यान करें, उसमें से निकल रही ध्वनि को सुनते रहें, और उसके प्रकाश का अपनी चेतना में निरंतर विस्तार करें।
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हमारे सौर मण्डल का स्वामी हमारा सूर्य है, जिसकी ऊर्जा से हम जीवित हैं। इस तरह के लाखों-करोड़ों सूर्य हैं, लाखों-करोड़ों अनगिनत पृथ्वियाँ हैं। यह सृष्टि अनंत है। अपनी आकाश-गंगा के एक छोर से दूसरे छोर तक यदि प्रकाश की गति से यात्रा की जाये तो उस यात्रा को पूर्ण करने में लगभग एक लाख वर्ष लग जाएँगे। इस तरह की अनगिनत लाखों आकाश गंगाएँ हैं।
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किसी स्वच्छ अंधेरी रात में अपने घर की छत पर जाकर ध्रुव तारे को देखिये। वह ध्रुव तारा साढ़े चार सौ से भी अधिक वर्षों पूर्व था। उसके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में साढ़े चार सौ वर्षों से भी अधिक का समय लगा है। आकाश के कई नक्षत्र जो अब दिखाई दे रहे हैं, वे सैंकड़ों वर्ष पूर्व थे।
अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर भी अनंत सृष्टियाँ हैं, जिन्हें समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है। वहाँ से प्रकाश की किरणें जब चली थीं तब पृथ्वी ग्रह का कोई अस्तित्व नहीं था। जब तक वे किरणें पृथ्वी तक पहुँचेंगी, तब तक पृथ्वी भी नष्ट हो गई होगी।
यह तो रही स्थूल जगत की बात। सूक्ष्म जगत तो और भी अधिक विराट है। ध्यान साधना करते करते समाधि की अवस्था में सूक्ष्म जगत की अनुभूतियाँ प्रत्येक साधक को होती है। सूक्ष्म जगत इस भौतिक जगत से बहुत अधिक बड़ा है। उस से परे की तो मैं कल्पना करने में भी असमर्थ हूँ।
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इस पृथ्वी पर भी विभिन्न आयामों में अनेक सृष्टियाँ हैं। हमारी तो भौतिक सृष्टि है, इसके अतिरिक्त प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनंदमय सृष्टियाँ हैं। ये स्वर्ग-नर्क आदि सब मनोमय सृष्टियाँ हैं। जो चीज समझ में आती है वही लिख रहा हूँ। जो अज्ञात है वह कोरी कल्पना है। कल्पना में रहना स्वयं को धोखा देना है।
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एक बात तो अनुभूत सत्य है कि हम यह शरीर नहीं हैं। यह शरीर एक दुपहिया वाहन है जो इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ है। यह नष्ट हो जाएगा तो अंत समय की मति के अनुसार तुरंत दूसरा शरीर मिल जाएगा। पुनर्जन्म का सिद्धान्त शत-प्रतिशत सत्य है।
हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका परिणाम निश्चित रूप से मिलता है। कर्मफलों का सिद्धान्त -- शत-प्रतिशत सत्य है। यह सृष्टि परमात्मा के मन का एक विचार है।
हम यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। सारे देवी-देवता हमारे साथ एक हैं। कोई भी या कुछ भी हमारे से पृथक नहीं है।
आगे की बात समझने के लिए हमें वीतराग और त्रिगुणातीत होना पड़ेगा। तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। गीता के अनुसार --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥"
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आत्मवान होकर ही सत्य को समझ सकेंगे। अभी भी अनेक कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करनी हैं। परमात्मा ही परम सत्य है, जिनको मैं नमन करता हूँ --
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ अगस्त २०२२

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