Saturday 28 August 2021

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा ---

 

मेरा लिखना छूट जाये, उस से पूर्व मैं तीन महत्वपूर्ण बातें और लिखना चाहता हूँ, जिसके पश्चात मेरे द्वारा लिखने को अन्य कुछ भी नहीं है। मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वह अपनी स्वयं की अनुभूतियों से लिख रहा हूँ, अतः उसकी न तो कहीं कोई कड़ी (Link) है, न कोई स्त्रोत (Source), और न कोई संदर्भ (Reference)। एकमात्र स्त्रोत, संदर्भ और कड़ी - मेरी निजात्मा है।
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कल मैंने लिखा था कि हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है। हमारे मन में छिपी कामनाएँ ही हमारे पूनर्जन्म का कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा। यह शत-प्रतिशत सत्य है। आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों की प्राप्ति, और पुनर्जन्म -- ये तीनों ही शाश्वत सत्य हैं -- जिन पर हमारा सनातन धर्म आधारित है। चूंकि हमारा सनातन धर्म -- सत्य पर आधारित है, इसीलिए वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। संसार मे यदि सभी हिंदुओं की हत्या कर भी दी जाये तो भी सनातन धर्म नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जिन अपरिवर्तनीय सत्य शाश्वत सिद्धांतों पर यह खड़ा है उनको फिर कोई मनीषी अनावृत कर देगा। संसार में यदि कहीं कोई सुख-शांति है तो वह इन मूलभूत सत्य सिद्धांतों के कारण ही है। जहाँ पर इन सत्य सिद्धांतों की मान्यता नहीं है, वहाँ अशांति ही अशांति है। राग-द्वेष व अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता कहलाती है। यह वीतरागता और सत्यनिष्ठा ही मोक्ष का हेतु है। एकमात्र सत्य -- भगवान हैं। भगवान से परमप्रेम और समर्पण -- सत्यनिष्ठा कहलाते है।
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सत्य की खोज -- मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है, वह शाश्वत जिज्ञासा ही इन सत्य सनातन सिद्धांतों को पुनः अनावृत कर देगी। भौतिक देह की मृत्यु के समय जैसे विचार हमारे अवचेतन मन में होते हैं, वैसा ही हमारा पुनर्जन्म होता है। हमारे पुनर्जन्म का कारण हमारे अवचेतन में छिपी हुई सुप्त कामनाएँ हैं, न कि भगवान की इच्छा।
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हम अपनी भक्ति के कारण ही कहते हैं कि यह सृष्टि भगवान की है, अन्य कोई कारण नहीं है। हम भगवान के अंश हैं अतः भगवान ने हमें भी अपनी सृष्टि रचित करने की छूट दी है। भगवान की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी यदि कहीं है तो वह अपनी स्वयं की सृष्टि में है। ये चाँद-तारे, ग्रह-नक्षत्र, और प्रकृति -- भगवान की सृष्टि है, और हमारे चारों ओर का घटनाक्रम -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(१) हमारे सामूहिक विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर सृष्ट हो रहे हैं। जिन व्यक्तियों की चेतना जितनी अधिक उन्नत है, उनके विचार उतने ही अधिक प्रभावी होते हैं। अतः हमारे चारों ओर की सृष्टि -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(२) हम जो कुछ भी हैं, वह अपने स्वयं के ही अनेक पूर्व जन्मों के विचारों और भावों के कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा से। हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल निश्चित रूप से मिलता है। इन कर्मफलों से हम मुक्त भी हो सकते हैं, जिसकी एकमात्र विधि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताई है। अन्य कोई विधि नहीं है।
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(३) प्रकृति के नियमों के अनसार कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत चुकाये मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता। कुछ भी प्राप्त करने के लिए निष्ठा पूर्वक परिश्रम करना पड़ता है। हमारी निष्ठा और परिश्रम ही वह कीमत है। भगवान को प्राप्त करने के लिए भी भक्ति, समर्पण, श्रद्धा-विश्वास, लगन, और निष्ठा रूपी कीमत चुकानी होती है। मुफ्त में भगवान भी नहीं मिलते।
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कभी मैं भिखारियों की भीड़ देखता हूँ तो उनमें मुझे कई तो पूर्व जन्मों के बड़े-बड़े हाकिम (प्रशासक) दिखाई देते हैं, जिनसे कभी दुनियाँ डरती थी। उनकी मांगने की आदत नहीं गई तो भगवान ने इस जन्म में उनकी नियुक्ति (duty) यहाँ लगा दी। जो जितने बड़े घूसखोर, कामचोर, ठग, छल-कपट करने वाले, दूसरों का अधिकार छीनने वाले, और पाप-कर्म में रत रहने वाले अत्याचारी हैं -- उन को ब्याज सहित सब कुछ बापस चुकाना पड़ेगा। प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। नर्क की भयानक यातनाओं के रूप में उनसे उनके पापकर्म की कीमत बसूली जाएगी।
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आप सब के हृदय में प्रतिष्ठित परमात्मा को मैं नमन करता हूँ। वे ही मेरे प्राण और अस्तित्व हैं। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२१
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पुनश्च :--- "कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।"
इसमें ईश्वर मात्र दृष्टा हैं। करुणानिधान होने के कारण मनुष्य को सही मार्ग दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन हस्तक्षेप नहीं करते। कर्मफल में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है।

हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है ---

 

हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है ---
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हम पहले से ही नित्यमुक्त और मोक्ष को प्राप्त हैं। यह हमारा अंतिम जन्म है, लेकिन इसे हम नहीं जानते। इसे हम जान सकते हैं, यदि उपासना द्वारा यह समझ लें --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् "बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥"
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भगवान की ओर से तो यह अंतिम जन्म है, लेकिन हम अनेक कामनाओं को पाल कर कर्मानुसार पुनर्जन्म को बाध्य हो जाते हैं। भगवान की कृपा कोई साधारण नहीं होती। भगवान ने हमें निष्काम होने का उपदेश देकर मुक्ति का अवसर दिया, लेकिन हम उसका लाभ नहीं उठा पाते। गीता का स्वाध्याय करें, सब समझ में आ जायेगा। ॐ तत्सत् !!
२७ अगस्त २०२१
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पुनश्च: --- हमारे हृदय की बात वे ही समझ सकते हैं, क्योंकि उनका निवास हमारे हृदय में है। हमारा हृदय सर्वत्र और सर्वव्यापी है जिसका केंद्र सर्वत्र है, लेकिन परिधि कहीं भी नहीं।

साधना ---

 

साधना ---
शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को भ्रूमध्य के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐकार से लिपटी हुई दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करते-करते, एक दिन ध्यान में विद्युत् आभा सदृश्य देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। यह ब्रहमज्योति -- इस सृष्टि का बीज, और परमात्मा का द्वार है। इसे 'कूटस्थ' कहते हैं। इस अविनाशी ब्रह्मज्योति और उसके साथ सुनाई देने वाले प्रणवनाद में लय रहना 'कूटस्थ चैतन्य' है। यह सर्वव्यापी, निरंतर गतिशील, ज्योति और नाद - 'कूटस्थ ब्रह्म' हैं।
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इस की स्थिति भी परिवर्तनशील ऊर्ध्वगामी है। कूटस्थ चैतन्य में प्रयासपूर्वक निरंतर स्थिति 'योग-साधना' है। शनैः शनैः बड़ी शान से एक राजकुमारी की भाँति भगवती कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होती है जो स्वयं जागृत होकर हमें भी जगाती है। साधना करते करते सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी में स्थित सभी चक्रों को भेदते हुये, सभी अनंत आकाशों से परे 'परमशिव' में इसका विलीन होना परमसिद्धि है। यही योगसाधना का लक्ष्य है। फिर हम परमशिव के साथ एक होकर स्वयं परमशिव हो जाते हैं। कहीं कोई भेद नहीं रहता।
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परमात्मा की कृपा ही हमें पार लगाती है। परमात्मा अपरिछिन्न हैं। परिछिन्नता का बोध हमें चंचल मन के कारण होता है। मन के शांत होने पर अपरिछिन्नता का पता चलता है। कूटस्थ में ध्यान -श्रीगुरु चरणों का ध्यान है। कूटस्थ में स्थिति - श्रीगुरु चरणों में आश्रय है। कूटस्थ ही पारब्रह्म परमात्मा है। कूटस्थ ज्योति - साक्षात सद्गुरु है। कूटस्थ प्रणव-नाद -- गुरु-वाक्य है। शिव शिव शिव शिव शिव॥
ॐ तत्सत् !! गुरु ॐ !! जय गुरु !!
कृपा शंकर
२७ अगस्त २०२१

समय बड़ा बलवान होता है ---

 

"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान | 
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण ||"
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महाभारत के युद्ध में अर्जुन के प्रहार से कर्ण का रथ झटका खाकर बहुत पीछे चला जाता था, पर कर्ण के प्रहार से अर्जुन का रथ झटका खाकर वहीं स्थिर रहता था| अर्जुन को कुछ अभिमान हो गया जिसे दूर करने के लिए भगवान ने ध्वज पर बैठे हनुमान जी को संकेत किया जिससे वे वहाँ से चले गए| अब की बार कर्ण ने प्रहार किया तो अर्जुन का रथ युद्धभूमि से ही बाहर हो गया|
युद्ध की समाप्ति के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ से नीचे उतरने का आदेश दिया और तत्पश्चात वे स्वयं उतरे| उनके उतरते ही रथ जलकर भस्म हो गया| भगवान ने कहा कि इस रथ पर इतने दिव्यास्त्रों का प्रहार हुआ था जिनसे इस रथ को बहुत पहिले ही जल जाना चाहिए था, पर यह मेरे योगबल से ही चलता रहा|
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द्वारका डूबने के पश्चात अर्जुन वहाँ की स्त्रियों को बापस सुरक्षित इंद्रप्रस्थ ला रहे थे| रास्ते में वर्तमान राजस्थान में अजमेर के पास जहाँ भीलवाड़ा नगर है, उस स्थान पर भीलों ने अर्जुन को लूट लिया| अर्जुन का न तो गाँडीव धनुष काम आया और न ही उसके दिव्य बाण| उनको चलाने के सारे मंत्र अर्जुन की स्मृति में ही नहीं आए क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इस धरा को छोड़कर अपने दिव्य धाम चले गए थे| वे अर्जुन के साथ नहीं थे|
"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान| भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण||"
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हमारे इस देह रूपी रथ के सारथी ही नहीं, रथी भी स्वयं पार्थसारथी भगवान श्रीकृष्ण ही हैं| कठोपनिषद में जीवात्मा को रथी, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, और मन को लगाम बताया गया है --
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु|
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च||"
"इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्|
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः||"
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३ व ४)
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इस बुद्धि रूपी सारथी की पीठ हमारी ओर व मुँह दूसरी ओर होता है| हम उसके चेहरे के भावों को नहीं देख सकते| यह बुद्धि रूपी सारथी कुबुद्धि भी हो सकता है| अतः पार्थसारथी वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना रथी बना कर उन्हीं को पूरी तरह समर्पित हो जाना ही श्रेयस्कर है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति|
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६१||
अर्थात, हे अर्जुन, (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है||
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रामचरितमानस में भी कहा गया है .....
"उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत रामु गोसाईं |"
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अर्जुन का अर्थ है जो शुक्ल, स्वच्छ, शुद्ध, और पवित्र अन्तःकरण से युक्त हो| भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से संवाद करते हैं क्योंकि अर्जुन का अंतःकरण पूरी तरह पवित्र है| हमारा अन्तःकरण भी जब पवित्र होगा तब भगवान हमसे भी संवाद करेंगे| जब भी कर्तापन का अभिमान आता है, बुद्धि काम करना बंद कर देती है|
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आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२०

मेरी हर साँस परमात्मा की साँस है ---

 

मेरी हर साँस परमात्मा की साँस है। मेरे माध्यम से पूरा ब्रह्मांड, समस्त सृष्टि, और स्वयं परमात्मा साँसें ले रहे हैं। मेरा अस्तित्व सम्पूर्ण सृष्टि का, और स्वयं परमात्मा का अस्तित्व है। जिनके संकल्प मात्र से इस समस्त सृष्टि की रचना हुई है, मैं उन परमशिव के साथ एक हूँ।
"ॐ नमः शम्भवाय च, मयोभवाय च, नमः शंकराय च, मयस्कराय च, नमः शिवाय च, शिवतराय च॥"
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभि र्व्यशेम देवहितं यदायुः
स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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भगवान की भक्ति वीरों का काम है। जो वीर नहीं, उससे भक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह प्रेम से नहीं, डर से बंधा है। श्रुति भगवती तो कहती है --
"अहं इन्द्रो न पराजिग्ये" अर्थात मैं इंद्र हूँ, मेरा पराभव नहीं हो सकता।
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श्रुति भगवती के अनुसार बलहीन व प्रमादी को भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती --
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।"
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शौनक ऋषि ने महर्षि अंगिरस से जाकर पूछा कि वह कौन है, जिसके जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है? महर्षि अंगिरस ने शौनक को 'परा-अपरा' विद्या के बारे में बताया जिन्हें जानने के पश्चात किसी अन्य को जानने की आवश्यकता नहीं रहती है।
अपरा - यौगिक साधना है, और परा - अध्यात्मिक ज्ञान है।
 
ब्रह्म यानि परमात्मा) निरंतर ब्रह्ममय आचरण को ब्रह्मचर्य कहते हैं। जिसका आचरण और चेतना निरंतर ब्रह्ममय है, वही ब्रह्मचारी है। ब्रह्मचर्य का व्रत देवताओं को भी दुर्लभ है। जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते, उन्हें अपने अगले जन्मों में इसका अवसर मिलेगा।
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जो साधक परमात्मा को प्राप्त होना चाहते हैं, उन्हें अपने विचारों और आचरण को शुद्ध रखना और नियमित गहन ध्यान-साधना करना आवश्यक है| लिखते लिखते बात जब - आत्मतत्व, आत्मज्ञान, वेदान्त, पारब्रह्म व परमशिव तक आ पहुँची है, तो अब लिखने को बचा ही क्या है? अब तो सिर्फ मौन ही मौन, एकांत ही एकांत, और ध्यान ही ध्यान-साधना बची है; अन्य कुछ भी नहीं।
जब लक्ष्य ही आत्मानुसंधान है तब सब कुछ हरिःइच्छानुसार ही होगा।
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सारी अभीप्साएँ तृप्त हों, सारे भटकाव समाप्त हों, सारी अपेक्षाओं व कामनाओं का अंत हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०२१
 


परमात्मा से विरह में भी एक आनंद है ---

 

परमात्मा से विरह में भी एक आनंद है ---
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परमात्मा से विरह में भी एक काल्पनिक आनंद है| विरह में मिलने की प्रसन्नता छिपी हुई है, और मिलने में बिछुड़ने का भय है| वास्तव में यह मिलना और बिछुड़ना एक भ्रम मात्र है| जिस से हम मिलना चाहते हैं, वह तो हम स्वयं हैं| बिछुड़ने का भय भी आधारहीन है, क्योंकि हमारे सिवाय अन्य कोई तो है ही नहीं| हम स्वयं ही यह पूरी समष्टि हैं, हमारे से अन्य कोई नहीं है| भौतिक जगत में जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है वह अनेक ऊर्जाखंडों का विभिन्न आवृतियों पर स्पंदन मात्र है| हर दृश्य के पीछे एक ऊर्जा (Energy), आवृति (Frequency), और स्पंदन (Vibration) है| इन सब के पीछे एक चेतना है, जिसके पीछे एक विचार है| वह विचार जिनका है, वे ही परमात्मा हैं, जो जानने योग्य हैं| उन परमात्मा से हम पृथक नहीं, उनके साथ एक हैं|
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इस माया-जगत में हम जो भी हैं, अपने अतीत के विचारों से हैं, भविष्य में भी हम वही होंगे जैसे वर्तमान में हमारे विचार हैं| विचारों के प्रति सजग रहें| आत्म-प्रशंसा एक बहुत बड़ा अवगुण है| कभी भूल से भी आत्म-प्रशंसा न करें| हम सब के भीतर एक आध्यात्मिक चुम्बकत्व होता है, जो बिना कुछ कहे ही हमारी महिमा का स्वतः ही बखान कर देता है| उस चुंबक को ही बोलने दें| ध्यान-साधना और भक्ति से उस आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास करें|
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हृदय की अभीप्सा (कभी न बुझने वाली प्यास), तड़प और परमप्रेम कभी कम न हों, निरंतर बढ़ते ही रहें| हर सोच-विचार और क्रिया में परमात्मा का बोध, अपना स्वभाविक आनंद होना चाहिए| वे ही हमारी साँसे व हृदय की हर एक धड़कन हैं| उनकी चेतना में हम जहाँ भी होंगे, वहाँ एक दिव्यता और आनंद का प्रकाश फैल जाएगा|
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भगवान कहीं दूर नहीं, निरंतर हमारे कूटस्थ में हैं| अपनी साँसों से हमारे मेरुदंडस्थ सप्तचक्रों की बांसुरी में सप्तसुरों की तान बजा रहें हैं| हमारे भीतर वे ही साँस ले रहे हैं| उनकी साँस से ही हमारी साँस चल रही है| उनके सप्त स्वरों से मिल कर प्रणव ध्वनि यानि अनाहत नाद, ध्यान में हमें निरतर सुनाई दे रही है| ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में वे ही हमारी दृष्टी में निरतर बने हुए हैं| उनका जन्म हमारे चित्त में निरंतर हो रहा है| उनकी चेतना से हमारा चित्त आनंदमय है|
हे प्रभु, यह मैं नहीं, तुम ही हो, और जो तुम हो, वह ही मैं हूँ|
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२०