Saturday 28 August 2021

समय बड़ा बलवान होता है ---

 

"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान | 
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण ||"
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महाभारत के युद्ध में अर्जुन के प्रहार से कर्ण का रथ झटका खाकर बहुत पीछे चला जाता था, पर कर्ण के प्रहार से अर्जुन का रथ झटका खाकर वहीं स्थिर रहता था| अर्जुन को कुछ अभिमान हो गया जिसे दूर करने के लिए भगवान ने ध्वज पर बैठे हनुमान जी को संकेत किया जिससे वे वहाँ से चले गए| अब की बार कर्ण ने प्रहार किया तो अर्जुन का रथ युद्धभूमि से ही बाहर हो गया|
युद्ध की समाप्ति के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ से नीचे उतरने का आदेश दिया और तत्पश्चात वे स्वयं उतरे| उनके उतरते ही रथ जलकर भस्म हो गया| भगवान ने कहा कि इस रथ पर इतने दिव्यास्त्रों का प्रहार हुआ था जिनसे इस रथ को बहुत पहिले ही जल जाना चाहिए था, पर यह मेरे योगबल से ही चलता रहा|
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द्वारका डूबने के पश्चात अर्जुन वहाँ की स्त्रियों को बापस सुरक्षित इंद्रप्रस्थ ला रहे थे| रास्ते में वर्तमान राजस्थान में अजमेर के पास जहाँ भीलवाड़ा नगर है, उस स्थान पर भीलों ने अर्जुन को लूट लिया| अर्जुन का न तो गाँडीव धनुष काम आया और न ही उसके दिव्य बाण| उनको चलाने के सारे मंत्र अर्जुन की स्मृति में ही नहीं आए क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इस धरा को छोड़कर अपने दिव्य धाम चले गए थे| वे अर्जुन के साथ नहीं थे|
"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान| भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण||"
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हमारे इस देह रूपी रथ के सारथी ही नहीं, रथी भी स्वयं पार्थसारथी भगवान श्रीकृष्ण ही हैं| कठोपनिषद में जीवात्मा को रथी, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, और मन को लगाम बताया गया है --
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु|
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च||"
"इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्|
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः||"
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३ व ४)
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इस बुद्धि रूपी सारथी की पीठ हमारी ओर व मुँह दूसरी ओर होता है| हम उसके चेहरे के भावों को नहीं देख सकते| यह बुद्धि रूपी सारथी कुबुद्धि भी हो सकता है| अतः पार्थसारथी वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना रथी बना कर उन्हीं को पूरी तरह समर्पित हो जाना ही श्रेयस्कर है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति|
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६१||
अर्थात, हे अर्जुन, (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है||
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रामचरितमानस में भी कहा गया है .....
"उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत रामु गोसाईं |"
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अर्जुन का अर्थ है जो शुक्ल, स्वच्छ, शुद्ध, और पवित्र अन्तःकरण से युक्त हो| भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से संवाद करते हैं क्योंकि अर्जुन का अंतःकरण पूरी तरह पवित्र है| हमारा अन्तःकरण भी जब पवित्र होगा तब भगवान हमसे भी संवाद करेंगे| जब भी कर्तापन का अभिमान आता है, बुद्धि काम करना बंद कर देती है|
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आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२०

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