हे श्रीकृष्ण, हे गोविंद, हे नारायण, हे वासुदेव, तुम्हीं मेरे जीवन हो ---
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"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्। पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्। कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥"
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से विश्व को जो संदेश दिया है, उससे लाखों करोड़ों व्यक्ति जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो चुके हैं। हमारे जीवन का लक्ष्य है आत्म-साक्षात्कार यानि भगवान पुरुषोत्तम जिन्हें हम परमब्रह्म, परमशिव, श्रीहरिः, व परमात्त्मा भी कहते हैं, के साथ साक्षात्कार/अभेद।
जो भी हमारे इस लक्ष्य में बाधक बने और हमारे अहंकार व लोभ को उद्दीप्त कर के हमें भटकाये, वह कभी हमारा मित्र नहीं हो सकता। हमें स्वयं को ही स्वयं का मित्र बनाना पड़ेगा क्योंकि हम स्वयं ही स्वयं के शत्रु भी हैं। भगवान कहते हैं --
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६:५॥"
अर्थात् -- मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध:पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है॥
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गीता में भगवान का एक बड़े से बड़ा आश्वासन है --
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
अर्थात् -- यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥
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एक बहुत बड़ी बात कही है भगवान ने --
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है।।
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इसी भाव में स्थित होकर हम अपने शत्रुओं का नाश करें। कोई पाप हमें छू भी नहीं सकता। भगवान कहते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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आज अभी इतना ही बहुत है। भगवान की वाणी पढ़कर और सुनकर मैं और मेरा जीवन धन्य हुआ। जिधर भी देखता हूँ, उधर ही मेरे उपास्य ही उपास्य देव है। सब ओर वे ही वे हैं। मन-मयूर प्रसन्न होकर नृत्य कर रहा है। हे सच्चिदानंद, आपकी जय हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२२