हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में भगवान स्वयं हैं। वे कभी हमसे दूर हो ही नहीं सकते। हमारा लोभ और अहंकार ही हमें भगवान से दूर करता है। अहंकार के भी दो रूप होते हैं। एक हमें भगवान से दूर करता है, दूसरा हमें भगवान से जोड़ता है।
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ईश्वर की कृपा सभी पर हर समय समान रूप से है। हमारे कर्म यानि हमारी सोच ही हमें ईश्वर से दूर करती है। हम यदि सोचते हैं कि भगवान दूर हैं, तो वास्तव में भगवान दूर होते हैं। जब हम सोचते हैं कि भगवान बिल्कुल पास में हैं, तो भगवान सचमुच ही हमारे पास होते हैं। कहने को तो बहुत सारी बातें विद्वान मनीषियों द्वारा लिखी हुई हैं, लेकिन जो स्वयं के अनुभव हैं, स्वयं की अनुभूतियाँ हैं वे ही सत्य होती हैं।
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मनुष्य की प्राकृतिक मृत्यु अपनी स्वयं की इच्छा से होती है, किन्हीं अन्य कारणों से नहीं। जब मनुष्य अपनी वृद्धावस्था, बीमारी, दरिद्रता, या कष्टों से दुखी होकर स्वयं से कहता है कि बस बहुत हो गया, अब और जीने की इच्छा नहीं है, तब वह अपनी मृत्यु को स्वयं निमंत्रण दे रहा होता है। उसी समय से उसकी मृत्यु की प्रक्रिया भी आरंभ हो जाती है। जब वह स्वयं को भगवान से जोड़कर सोचता है कि मृत्यु इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती तो वास्तव में मृत्यु उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।
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जो हमारे हाथ में है वह ही विधि के हाथ में है। भगवान हमारे से पृथक नहीं, हमारे साथ एक हैं। भगवान वही सोचते हैं, जो हम सोचते हैं। हमारा लोभ और अहंकार ही हमें भगवान से दूर करता है, अन्यथा हम भगवान के साथ एक हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२३
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