Saturday, 19 October 2019

जगन्माता को हम नामरूप में कैसे बांध सकते हैं? ....

दीपावली की शुभ कामना .....
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इस समय जो मैं लिख रहा हूँ, यह कोई लेख नहीं है| अभी कोई पोस्ट नहीं कर रहा हूँ, यह सिर्फ एक संवाद है जो मैं अपने फेसबुक व अन्य संपर्कों से करना चाहता हूँ| फेसबुक व सोशियल मीडिया पर सिर्फ राष्ट्रवादी और आध्यात्मिक व्यक्ति ही मेरे संपर्क में रहें| शेष मुझे छोड़ दीजिये क्योंकि मैं उन के किसी काम का नहीं हूँ|
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एक प्रश्न है जिस पर मनीषियों के विचार जानना चाहता हूँ| परमात्मा की उपासना मातृ रूप में क्यों व कैसे करें? जगन्माता तो असीम और अनंत है, दसों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं, फिर उन्हें हम नामरूप में कैसे बांध सकते हैं?
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उन्हें हम सीमित नहीं कर सकते तो क्या परमात्मा की अनंतता, अनंत विस्तार की ही हम जगन्माता के रूप में आराधना नहीं कर सकते? मेरी चेतना में तो परमशिव और पराशक्ति में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं| शिव और विष्णु भी वे ही है, उनमें भी कहीं कोई भेद नहीं है| वैसे ही महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती में भी कोई भेद नहीं है, ये और दसों महाविद्याएँ व परमशिव भी एक ही हैं|
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जहाँ तक मैं समझता हूँ परमात्मा की पूर्णता ही जगन्माता है और अपनी परिछिन्नता को त्याग कर, उस पूर्णता को हम उपलब्ध हों, यही जगन्माता की उपासना है| हमारे अंतर का अंधकार दूर हो, और ज्योतिर्मय कूटस्थ परमब्रह्म परमात्मा के साथ हम एक हों, यही दीपावली की शुभ कामना और अभिनंदन है|
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आप सब को नमन ! हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अक्तूबर २०१९

परमात्मा भी एक अनुभूति हैं .....

"जगन्माता" एक अनुभूति है, "परमशिव" भी एक अनुभूति है, "गुरु-तत्व" भी एक अनुभूति है, ये सब परमात्मा की परम कृपा से ही समझ में आते हैं, अन्यथा नहीं| परमात्मा भी एक अनुभूति हैं, अन्यथा शास्त्र ही प्रमाण हैं|
"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई।"
"धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् |
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भगवान से परमप्रेम करें| गीता का स्वाध्याय करें| अपनी चेतना को उत्तरा-सुषुम्ना में रखें| कुसंग का सदा त्याग करें, और परमात्मा का निरंतर सत्संग करें| यही सन्मार्ग है|
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अपनी श्रद्धा, विश्वास और आस्था को विचलित न होने दें, क्योंकि श्रद्धावान को ही शांति मिलती है| भगवान कहते हैं .....
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः| ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति||४:३९||
अर्थात श्रद्धावान् तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है||
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ अक्टूबर २०१९

जगन्माता सदा हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें, हम स्थितप्रज्ञ हों .....

जगन्माता सदा हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें, हम स्थितप्रज्ञ हों .....
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"स्थितप्रज्ञता" ..... साधना की उच्चतम अवस्था है जहाँ हम परमात्मा से साक्षात्कार करने लगते हैं| स्थितप्रज्ञ होने के लिए वीतराग होना आवश्यक है| जो राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त है वह वीतराग है| कुछ मतों का उच्चतम ध्येय ही वीतरागता है| वीतराग होने के साथ साथ जब हम अनुद्विग्नमन और विगतस्पृह होकर भय व क्रोध से भी मुक्त हो जाते हैं, तब हम स्थितप्रज्ञ हैं| स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही वास्तविक "मुनि" और "सन्यासी" है| गीता में भगवान कहते हैं....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||"
अर्थात दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है||
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स्थितप्रज्ञता ही माया के प्रभाव से मुक्त करती है| हमें ऐसे स्थितप्रज्ञ महात्माओं की सेवा करनी चाहिए, इसका बड़ा पुण्य है| ऐसे महात्माओं की सेवा करते करते हम स्वयं भी वीतराग बन जाते हैं| योगदर्शन का एक सूत्र इस बात की पुष्टि करता है| वह सूत्र है ..... "वीतराग विषयम् वा चित्तम् ||१:३७||"
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रामचरितमानस के अरण्य कांड में सबरी को भगवान श्रीराम कहते हैं .....
"मम दरसन फल परम अनूपा | जीव पाव निज सहज सरूपा ||"
यह बहुत ही सुंदर प्रसंग है जिसे मैं विषय से भटक नहीं जाऊँ इसलिए नहीं लिख रहा|
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जगन्माता कुछ भी बनाए, कहीं भी रखे, कोई फर्क नहीं पड़ता| पर वे सदा निरंतर हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें| बस यही अभीप्सित है| उनकी चेतना में हम स्वयं भी परमशिव हैं| जगन्माता के प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ चाहिए भी नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ अक्टूबर २०१९

वीर सावरकर अमर हैं और अमर रहेंगे ....

वीर सावरकर अमर हैं और अमर रहेंगे| भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान सबसे अधिक है| भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को प्रकाश में वे ही लाए जो क्रांतिकारियों का प्रेरणा स्त्रोत बना| उन्हीं की प्रेरणा से नेताजी सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन किया| जेल से वे एक विशेष उद्देश्य के लिए बाहर आए थे| उन्होनें देखा कि भारतीयों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र हैं, और न ही उन्हें चलाना आता है| उन्होंने हजारों राष्ट्रवादी युवकों को सेना में भर्ती कराया ताकि वे अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखें और समय आने पर उन अस्त्रों का मुँह अंग्रेजों की ओर ही कर दें| द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ऐसा ही हुआ| इस युद्ध ने अंग्रेज सेना की कमर तोड़ दी थी| भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेज अधिकारियों का आदेश मानने से मना कर दिया, और नौसेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ| इस से डर कर ही अंग्रेज भारत छोड़कर गए| जाते जाते वे भारत की सत्ता अपने एक मानसपुत्र को सौंप गए जिसने नेताजी सुभाष बोस, आजाद हिन्द फौज, और वीर सावरकर व भारतवर्ष का जितना अधिक अहित कर सकता था उतना किया| वीर सावरकर एक युगपुरुष जीवनमुक्त महान आत्मा थे जिन्होनें भारत माता को स्वतंत्र कराने के लिए अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही इस धरा पर जन्म लिया|
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वीर सावरकर ने खुद के लिए नहीं, बल्कि सारे बंदियों के लिए क्षमा-याचना की थी| इस समय देश में वीर सावरकर पर बहस चल रही है| झुठ की फैक्ट्री चलाने वालें अपनी आदत के अनुसार झूठ फैला रहे हैं| बार-बार एक साजिश के तहत यह झुठ फैलाया जाता है कि कालापानी जैसे सजा काटने वाले महान स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने अंग्रेजों से माफी थी| सच्चाई यह है वीर सावरकर ने अपने लिए नही ब्लकि अंडमान जेल में बंद सारे कैदियों के लिए माफी मांगी थी| अपनी पुस्तक "My Transporation Life" की पृष्ठ संख्या ६९, २१९, व २२० पर उन्होनें लिखा है कि वे इंदु भूषण नामक कैदी की आत्महत्या से इतने दुखी हो गये थें कि उन्होनें सारे कैदियों के लिए माफी याचिका लिख डाली थी|
 
भारत माता की जय ! वंदे मातरं !
१८ अक्तूबर २०१९

ॐ जय जगदीश हरे .....

ॐ जय जगदीश हरे .....
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आजकल घर-घर में और हर मंदिर में गाई जाने वाली प्रसिद्ध कालजयी आरती .... "ओम जय जगदीश हरे" के रचयिता पं. श्रद्धाराम शर्मा फिल्लौरी थे जिन्होंने सन १८७० ई. में इस आरती की रचना की| अगले ग्यारह वर्षों में यह आरती पूरे भारत में प्रचलित हो गई| सन १८६५ ई.में अंग्रेज़ सरकार ने उन पर एक पाबंदी लगाकर उन्हें उनके जिले से निष्काषित कर दिया था जिसके बाद वे पूरे भारत में घूम-घूम कर कथावाचन का कार्य करने लगे| हर कथा के अंत में वे यह आरती अवश्य गाते| इस तरह उनकी यह आरती पूरे भारत में प्रचलित हो गई|
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उनका जन्म पंजाब के जालंधर जिले के फिल्लौर नगर में हुआ था| पं. श्रद्धाराम शर्मा फिल्लौरी एक धर्म-प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे| वे संस्कृत, हिन्दी, पंजाबी और फ़ारसी भाषाओं के विद्वान तथा ज्योतिष में पारंगत थे| उन्होने पंजाबी में "सिक्खां दे राज दी विथियाँ" और "पंजाबी बातचीत" नाम की पुस्तकें लिखी थीं जो पंजाब में अत्यधिक लोकप्रिय हुईं| हिन्दी भाषा में उन्होने "भाग्यवती" नामक एक उपन्यास सन १८७७ ई. में लिखा जिसे कई समीक्षक हिन्दी भाषा का प्रथम उपन्यास बताते हैं| २४ जून सन १८८१ ई.को लाहौर में उनका निधन हो गया| उनके निधन के बाद ही उनकी धर्मपत्नी ने यह उपन्यास छपवाया था| वे आत्म-प्रशंसा और प्रचार से दूर रहे थे, शायद इसीलिए लोग उनके बारे में कम जानते हैं| ऐसे संत को नमन!

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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे |
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे | ॐ जय जगदीश हरे ||
जो ध्यावे फल पावे, दुःखबिन से मन का,
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का | ॐ जय जगदीश हरे ||
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी,
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी | ॐ जय जगदीश हरे ||
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी,
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी | ॐ जय जगदीश हरे ||
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता,
मैं मूरख फलकामी, कृपा करो भर्ता | ॐ जय जगदीश हरे ||
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति,
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति | ॐ जय जगदीश हरे ||
दीन-बन्धु दुःख-हर्ता, ठाकुर तुम मेरे,
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे | ॐ जय जगदीश हरे ||
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा,
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, सन्तन की सेवा | ॐ जय जगदीश हरे ||

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं; पूर्णता शिव में ढूंढें, जीव में नहीं .....

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं; पूर्णता शिव में ढूंढें, जीव में नहीं .....
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सदा हृदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं| हर व्यक्ति में परमात्मा का अंश तो होता ही है, पर साथ साथ पशुता भी होती है| अति अल्प मात्रा में ही सही जब तक व्यक्ति में अहंकार है, पशुता का अंश भी उसमें है| व्यक्ति का कभी भी पतन हो सकता है, उसे पता भी नहीं चलता|
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हमारी यह बहुत बड़ी भूल है कि हम अपने राष्ट्रनायकों, महात्माओं और धर्मगुरुओं को पूर्ण समझते हैं; उनकी हर बात को आदर्श और परम सत्य मानते है, जो एक भटकाव है| उनके कहे हुए असत्य को भी सत्य मान लेते हैं| पर वे भी भूल कर सकते हैं और उनका भी आंशिक या गहन पतन हो सकता है| पूर्णता और सत्य को परमात्मा में ढूंढें , मनुष्य में नहीं, चाहे उसका व्यक्तित्व कितना भी महान क्यों ना हो| पर हमें दूसरों के उज्जवल पक्ष से ही प्रेरणा लेनी चाहिए, ना कि उनके अंधकारमय पक्ष से|
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हमारा निरंतर प्रयास हो कि हम उतरोत्तर प्रगति करते रहें| किसी गेंद को सीढियों पर गिरा दें तो वह नीचे की ओर ही जायेगी| किसी बर्तन को नियमित न माँजें तो उसकी चमक भी कम होती जायेगी| जीवन में स्थिरता नहीं है| या तो उत्थान है या पतन| निरतर उत्थान का प्रयत्न न करते रहेंगे तो पतन निश्चित है| हमारे भीतर एक देवता भी है और एक असुर भी| हमारा लक्ष्य इन दोनों से ऊपर उठ कर शिवत्व को उपलब्ध होना है| शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अक्तूबर २०१९

जगन्माता की उपासना किस रूप में करें? ....

जगन्माता की उपासना किस रूप में करें?
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सारे नाम-रूप, सम्पूर्ण अस्तित्व, साकार और निराकार वे ही हैं| वे ही दसों दिशायें हैं, वे ही प्राण और आकाश तत्व हैं| वे ही सोम हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही कूटस्थ स्वरूपा गुरु-तत्व और परमेश्वरी हैं| शब्द-ब्रह्म व वाक् भी वे ही हैं, वे ही बैखरी, मध्यमा, पश्यंती और परा हैं| वे ही ज्योतिषांज्योति और समस्त ज्ञान हैं| वे ही पूर्णत्व हैं, प्रणव रूप में वे ही इस अकिंचन के माध्यम से स्वयं का ध्यान कर रही हैं| यह अकिंचन भी वे ही हैं जिसका चित्त ही जगन्माता के अति कोमल चरण-युगलों की चरण-पादुका है; जिसे पहिन कर ही वे अपनी इस अनंत सृष्टि में विहार कर रही हैं| हमें अपना "निमित्त" बना कर जगन्माता ने हम सब पर बड़ी कृपा की है| जिस ने हमें आलोकित कर रखा है, वह जगन्माता का सौन्दर्य ही वास्तविक सौंदर्य है, जिसके आलोक में कोई भी असत्य रूपी अन्धकार नहीं टिक सकता| प्रेम ही उनका स्वभाव है, जो हमें आनंदमय बनाता है| हमारा जीवन मंगलमय हो, हम सत्यनिष्ठ, स्वस्थ, वीर व अकुटिल हों| हम जीव से शिव बनें, हमारा कल्याण हो|
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः|| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अक्तूबर २०१९

एक वृक्ष में "धर्म" और "मोक्ष" नाम के दो पुष्प और फल ....

एक वृक्ष है जिसमें "धर्म" और "मोक्ष" नाम के दो पुष्प और फल हैं| महाभारत के अनुसार वह वृक्ष भारतवर्ष है| भारत का प्राण "धर्म" है| इस "धर्म" पर आघात इस मानवता का नाश कर देगा| यह "धर्म" नहीं रहा तो सभी मनुष्य आपस में लड़कर ही समाप्त हो जायेंगे|
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संसार में कुछ भी नि:शुल्क नहीं है| हर चीज का मुल्य चुकाना होता है| एक दीपक पहले स्वयं जलता है तब जाकर उसका प्रकाश औरों को मिलता है| दीपक पहले अपने आप को जलाता है, उसके बाद ही पतंगे उस की लौ से प्रेम करते हैं|
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लोगों से मित्रता की कामना ..... निजात्मा की परमात्मा को पाने की अभीप्सा की एक अभिव्यक्ति है| सांसारिक लोगों से अत्यधिक घनिष्ठता अंततः वितृष्णा यानि घृणा को जन्म देती है| अत्यधिक घनिष्ठता से अंततः निराशा ही मिलती है| मित्रता वहीं सफल होती है जहाँ मित्रता का आधार परमात्मा के प्रति प्रेम होता है| अन्य आधार बेचैनी और असंतोष को जन्म देते हैं| वास्तव में हमारा सच्चा और एकमात्र मित्र परमात्मा ही है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ अक्तूबर २०१९

सामूहिक घृणा का परिणाम युद्ध होता है ....

सामूहिक घृणा का परिणाम युद्ध होता है| प्रथम और द्वितीय दोनों विश्वयुद्धों का एकमात्र कारण था ..... "घृणा और लोभ"| जहाँ भी घृणा और लोभ होगा, वहाँ युद्ध अवश्यंभावी है, उसे कोई नहीं टाल सकता| भगवान श्रीकृष्ण ने भी महाभारत के युद्ध को टालने के बहुत प्रयास किए पर नहीं टाल सके, हमारी तो औकात ही क्या है?
वर्तमान में विश्व में घृणा और लोभ इतने अधिक बढ़ गए हैं कि उनका कोई अंत नहीं दिखाई देता| भारत की तो सबसे बड़ी समस्या ही भ्रष्टाचार है| मनुष्य सिर्फ अपनी मृत्यु से ही डरता है अन्य किसी से नहीं| भारत में दुर्भाग्य से स्थिति ऐसी बन गयी है कि बिना रिश्वत लिए कोई भी सरकारी कर्मचारी काम नहीं करता, कोई काम करना ही नहीं चाहता, सब को अधर्म का धन चाहिए| लोग नौकरी करते हैं सिर्फ वेतन के लिए, काम करने के लिए नहीं| काम करने के लिए रिश्वत चाहिए| सबकी दृष्टि पराये धन पर ही रहती है| ऐसे समाज और सभ्यता का पूरा विनाश ही हो जाना चाहिए| धर्म तो रहा ही नहीं है, अधर्म ही अधर्म है| चाहे आप किसी न्यायालय में जा कर देख लो, वहाँ भी सबकी गिद्ध-दृष्टि दिखाई देती है, सब की दृष्टि पराये धन पर रहती है| अतः यह समाज भी नष्ट होगा और नए सिरे से बसेगा तभी धर्म की पुनर्स्थापना होगी| वर्तमान परिस्थितियों में मुझे लगता है कि विनाश का प्रारम्भ पश्चिमी एशिया से ही होगा, जो आरंभ हो चुका है|
ॐ तत्सत् !
१५ अक्तूबर २०१९

परमात्मा की प्रेममय अनंतता ही हमारा अस्तित्व हो सकती है ....

परमात्मा की प्रेममय अनंतता ही हमारा अस्तित्व हो सकती है ....
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जन्म और मृत्यु की चेतना से परे परमात्मा की प्रेममय अनंतता ही हमारा अस्तित्व हो सकती है, उससे कम तो कुछ भी नहीं| संत-महात्माओं के मुख से सुना है कि हमारी सूक्ष्म देह में अज्ञान रुपी तीन ग्रंथियाँ होती हैं ..... ब्रह्मग्रंथि (मूलाधार में), विष्णुग्रंथि (अनाहत में) और रूद्रग्रंथि (आज्ञाचक्र में) जिनका भेदन किए बिना अज्ञान नष्ट नहीं होता| इसका वर्णन देव्याथर्वशीर्ष में भी बताते है|
यह विषय एक गोपनीय विषय है क्योंकि इसमें ऐसी योग साधना है जहाँ यम-नियमों का पालन अनिवार्य है| यहाँ गुरुमुखी (गुरुमुख से बताई हुई) साधना ही काम आती है| आचार्य गुरु भी वही हो सकता है जो श्रौत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ हो| अतः किसी श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ सिद्ध सद्गुरु से ही मार्गदर्शन प्राप्त करें, हर किसी से नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१२ अक्तूबर २०१९

साधना का संहार-क्रम और विस्तार-क्रम व इन से भी परे जो कुछ भी है :---

साधना का संहार-क्रम और विस्तार-क्रम व इन से भी परे जो कुछ भी है :---
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यह संसार हमारे विचारों से ही निर्मित है| जैसे हमारे विचार होते हैं, वैसा ही संसार हमारे लिए सृजित हो जाता है| हमारी कामनायें ही इस सृष्टि को सृजित कर रही हैं| इस विषय का ज्ञान सभी साधकों को होना चाहिए कि हम चाहते क्या हैं| हम संसार को चाहते हैं, या भगवान को चाहते हैं, या दोनों को चाहते हैं| अन्यथा स्थिति बड़ी विकट हो जाती है|
(१) संहार-क्रम की साधना परिधि से केंद्र की ओर जाने की साधना यानि मोक्ष की साधना है| इसमें संसार से प्रेम कम होते होते सिर्फ भगवान से ही रह जाता है| ऐसे लोगों को वैराग्य हो जाता है और वे घर-गृहस्थी के योग्य नहीं रहते| गृहस्थी में उनके घर के सदस्य उनसे बहुत अधिक दुःखी हो जाते हैं| ऐसे लोगों के लिए सन्यास की व्यवस्था है, उनको घर-गृहस्थी में नहीं रहना चाहिए|
(२) विस्तार-क्रम की साधना सांसारिक लाभ यानि भौतिक समृद्धि की साधना है, जिस में हम केंद्र से परिधि की ओर जाते हैं| इस से सारे सांसारिक लाभ मिलते हैं, लेकिन मोक्ष नहीं|
(३) एक है दोनों की यानि समग्रता की साधना जिसके बारे में साधक की मानसिक स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए कि वह क्या चाहता है| कोई झूठ-पाखंड नहीं होना चाहिए क्योंकि भगवान कहते हैं .... "मोहि कपट छल छिद्र न भावा"| हम जब कहते हैं .... "तेरा तुझको अर्पण", तो जो कुछ भी है वह बापस भगवान को ही चला जाएगा| यदि हम कहते हैं .... "धऩं देहि,बलं देहि, रूपं देहि" तो धन, बल और रूप तो मिलेगा पर मोक्ष नहीं|
यदि हम अपनी चेतना का विस्तार कर के परमात्मा की समग्रता का ध्यान करेंगे तो परमात्मा की समग्रता मिलेगी, कोई क्षुद्रता नहीं रहेगी| यही सर्वश्रेष्ठ साधना है| जो कुछ भी भगवान का है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, क्योंकि हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं| भगवान भी हमारे हैं, उन पर भी हमारा पूर्ण अधिकार है| हम उन को समर्पित हों| हम उनके साथ एक हैं|
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ज्ञान से भी परे की निश्चित रूप से एक अवस्था है, जो हमें प्राप्त हो| हमारा एक सच्चिदानंदमय परमशिव रूप है जो हमें प्राप्त हो| शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि ||
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जीसस क्राइस्ट का एक बहुत ही शानदार उपदेश है .....
"Whoever has will be given more, and he will have an abundance. Whoever does not have, even what he has will be taken away from him." (Matthew 13:12)
अर्थात जिसके पास है, उसे और भी अधिक दिया जाएगा, उसके पास सब कुछ होगा| पर जिसके पास नहीं है, उस से वह सब भी छीन लिया जाएगा जो कुछ भी उसके पास है|
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इस लेख में मैंने अपने विचार व्यक्त किए हैं| जिनसे मेरे विचार नहीं मिलते वे मुझ अज्ञानी को क्षमा करें| मैं जिस की खोज में हूँ वह ज्ञान और अज्ञान से परे की अवस्था है| मैं अपने विचारों पर दृढ़ हूँ जो बदल नहीं सकते|
ॐ तत्सत् ! शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ अक्टूबर २०१९

"संसार में जिसे हम ढूंढ रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं".....

"संसार में जिसे हम ढूंढ रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं".....
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यह मेरा अपना निजी अनुभव है कोई कपोल-कल्पना नहीं| मेरा सारा जीवन एक अंतहीन भागदौड़ था, जिस में मैंने दिन-रात एक किए, खूब खून-पसीना बहाया, आकाश-पाताल एक किए, और पूरी दुनियाँ की खाक छानी, पर मिला क्या? कुछ भी नहीं| बाहर के कामों को सलटाते सलटाते मैं स्वयं ही सलट गया| कहीं भी तृप्ति और संतुष्टि नहीं मिली| पूर्व जन्मों के कुछ अच्छे कर्मफलों से हृदय में एक अभीप्सा जागृत हुई जिसने जीवन की चिंतनधारा को एक नई दिशा दी, पर हृदय अशांत ही रहा|
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अंत में भगवान से प्रार्थना की तो उनकी परम कृपा से पता चला कि जिस सुख और आनंद को मैं बाहर ढूंढ रहा था वह तो मैं स्वयं ही हूँ| वह आनंद न तो भीतर है और न बाहर, वह तो मैं स्वयं हूँ| बाहर और भीतर की खोज एक पराधीनता है, और पराधीन को स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता| अपने सच्चिदानंद आत्म-तत्व रूपी सत्य को व्यक्त करना ही अब इस जीवन का ध्येय है| उस सच्चिदानंद के अतिरिक्त अन्य सब असत्य/मिथ्या है, यह मेरा अपना निजी अनुभव है|
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जो कुछ भी मैंने लिखा है यह अपने हृदय की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है, कोई अपनी महता नहीं| यह स्वयं से स्वयं का एक सत्संग मात्र है, किसी से कोई अपेक्षा नहीं|
"ॐ सच्चिदानंदरूपाय नमोस्तु परमात्मने| ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमांगल्यमूर्तये||
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अक्तूबर २०१९

माया के "आवरण" और "विक्षेप" को हम भक्ति द्वारा पार करें .....

माया के "आवरण" और "विक्षेप" को हम भक्ति द्वारा पार करें .....
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माया के "आवरण" और "विक्षेप' को मैं सबसे बड़ी बाधा और शत्रु मानता था पर अब स्पष्ट हो गया है कि ये हमारे शत्रु नहीं बल्कि मित्र हैं जो चुनौतियों के रूप में सामने आते हैं| हर आध्यात्मिक साधक को ये चुनौतियाँ जगन्माता की कृपा से पार करनी ही पड़ती हैं| ये माया की शक्तियाँ हैं जो हमें परमात्मा से दूर रखती हैं| इनसे कोई लड़ नहीं सकता| इन्हें स्वीकार कर इनको पार ही करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है| इनको पार करना हमारा पुरुषार्थ है| भक्ति के द्वारा इन्हें पार किया जा सकता है, और इन्हें पार करना ही पड़ेगा| परिस्थितियों को दोष न दें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अक्टूबर २०१९

"भगवती भद्रकाली शक्ति पीठ" का भ्रमण और एक विलक्षण सिद्ध महात्मा से सत्संग ......

"भगवती भद्रकाली शक्ति पीठ" का भ्रमण और एक विलक्षण सिद्ध महात्मा से सत्संग ......
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कल मंगलवार ८ अक्तूबर २०१९ को विजयदशमी के दिन माँ भगवती से प्रेरणा हुई राजस्थान के चुरू जिले के राजलदेसर नगर में स्थित "भगवती भद्रकाली शक्ति पीठ" में भगवती के दर्शन और वहाँ के पीठाधीश्वर श्रीमद् दंडीस्वामी जोगेन्द्राश्रम जी महाराज से सत्संग करने की| मैं रात्रि में काम आने वाले कपड़ों की एक जोड़ी और कुछ अन्य आवश्यक सामान ब्रीफ़ केस में डालकर दोपहर साढ़े बारह बजे झुञ्झुणु से बीकानेर जाने वाली बस से चलकर ढाई घंटों की बस यात्रा के पश्चात राजलदेसर लगभग तीन बजे पहुँच गया| वहाँ आने की सूचना किसी माध्यम से भिजवा दी थी| एक ऑटो कर के सिमसिमिया रोड़ पर स्थित शक्ति पीठ पर गया| वहाँ स्वामीजी बाहर एक हॉल में बैठे हुए पाँच-छः जिज्ञासुओं से चर्चा कर रहे थे| मेरे वहाँ आगमन से वे बड़े प्रसन्न हुए| कुछ देर बाद जब सारे जिज्ञासु चले गए तब वे मुझे भीतर अपनी बैठक में ले गये|
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अपनी अंतर्प्रज्ञा से मुझे अहसास हो गया कि इस प्रथम भेंट में ही स्वामीजी मेरे बारे में सब कुछ जानते हैं, उन्हें किसी औपचारिक परिचय की या मुझ से कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं है| मैं भी सतर्क हो गया कि बातों ही बातों में कोई भी झूठी और अनावश्यक बात भूल से भी मेरे मुंह से नहीं निकल जाये|
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स्वामीजी सब समझ रहे थे कि मेरे अन्तर्मन में क्या चल रहा है और मैं क्या सोच रहा हूँ| दो घंटों तक उन्होनें वेदान्त के दृष्टिकोण से मुझे समझाकर मेरे हृदय को शांत किया| मुझे भी लगा कि मैं सही स्थान पर और सही सिद्ध संत से सत्संग लाभ ले रहा हूँ| रात्री को नौ बजे से हमारा सत्संग उनकी बैठक में दुबारा प्रारम्भ हुआ| उनके चार और भक्त हनुमानगढ़ से आए हुए थे| स्वामी जी ने हमें आदेश दिया कुछ भी पूछने का| मैंने अपनी कुछ जिज्ञासाएँ उनके समक्ष रखीं जिन का सटीक शास्त्रोक्त उत्तर उन्होने अपने अनुभव से दिया| फिर स्वयं उन्होने अपनी ओर से कई गूढ तत्व की बातें समझाईं जिनकी सार्वजनिक चर्चा नहीं की जाती| यह सत्संग बहुत लंबा आठ-नौ घंटों तक चला जिसमें समय की चेतना ही नहीं रही|
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बहुत अच्छा और लंबा सत्संग चल रहा था| समय की चेतना ही नहीं रही| जब घड़ी में समय देखा तो प्रातः के पाँच बज रहे थे| बड़ा ही लंबा, रहस्यमय और गूढ सत्संग हुआ| मैंने अनुभूत किया कि स्वामी जी में ज्ञान, भक्ति और वैराग्य .... तीनों कूट कूट कर भरे हुए हैं| यह भी अनुभूत किया कि उन पर माँ भगवती की पूर्ण कृपा है|
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आज प्रातःकाल मुझे लगने लगा कि यदि मैं आधे घंटे और इस आश्रम में रह लिया तो फिर कभी भी इस जीवन में बापस संसार में नहीं जा पाऊँगा, और विरक्त होकर यहीं सन्यासी बन जाऊँगा| जब मैं चलने लगा तो स्वामी जी ने तो आज्ञा नहीं दी, उनका आदेश तो था कि मैं वहीं रहूँ| पर घर पर कुछ आवश्यक कार्य सलटाने थे इसलिए क्षमा निवेदन कर के जबर्दस्ती बापस लौट आया| मुझे लगता है मैंने गलत ही किया, मुझे वहीं रहना चाहिए था| अपनी मूर्खता और गलत निर्णय के लिए श्रद्धेय स्वामीजी से क्षमा याचना करता हूँ| ऋषिकेश के ब्रह्मचारी शिवेंद्र स्वरूप जी भी वहीं मिल गये| वे बापस ऋषिकेश जा रहे थे| कुछ वर्षों से उनसे मेरी अच्छी मित्रता है| अपनी गाड़ी से उन्होने मुझे चुरू तक छोड़ दिया जहाँ से मैं बस द्वारा घर झुञ्झुणु आ गया|
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घोर आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब घर वालों ने कहा कि इतनी जल्दी बापस क्यों आ गये? सब ने कहा कि जब सत्संग के उद्देश्य से गये थे तो चार-पाँच दिन तो कम से कम वहीं रहना था| अब निकट भविष्य मैं स्वामी जी के सत्संग में बापस अवश्य जाऊंगा| अबकी बार ये महात्मा मुझे वैराग्य और सन्यास का आदेश देंगे, तो तत्क्षण स्वीकार लूँगा|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अक्तूबर २०१९

विजयदशमी की शुभ कामनाएँ, बधाई और अभिनंदन ....

विजयदशमी की शुभ कामनाएँ, बधाई और अभिनंदन ....
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हमारे भीतर का रावण अभी तक मरा नहीं है| वह भीतर का रावण ही अनेक सद्गुण-विकृतियों के रूप में जीवित है| स्वयं राममय होकर ही हम इस रावण को मार सकते हैं| हमारे अंतर में असत्य और अन्धकार की शक्तियों से एक युद्ध निरंतर चल रहा है, इस युद्ध में हमें विजयी बनना है| ये अंधकार और असत्य की शक्तियाँ ही रावण हैं| जब से सृष्टि बनी है तब से आज तक बाहरी युद्धों को भी कोई नहीं रोक पाया है| लगता है कि जीवन में युद्ध अपरिहार्य है|
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भारत में युद्ध करने के लिए एक पृथक क्षत्रिय वर्ण का निर्माण कर दिया गया जिनका कार्य ही दूसरों को क्षति से त्राण दिलाना, यानी समाज और राष्ट्र की रक्षा हेतु युद्ध करना था| धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए सभी युद्ध करते थे सिर्फ क्षत्रिय ही नहीं| कालान्तर में एक "सद्गुण विकृति" आ गयी और यह मान लिया गया कि युद्ध करना सिर्फ क्षत्रिय का ही कार्य है, अन्य वर्णों का नहीं| यह सद्गुण विकृति ही भारत के पराभव और दासता का कारण बनी| भारत पर जितने आक्रमण हुए हैं उनका दस-लाखवाँ प्रहार भी किसी अन्य संस्कृति पर हुआ तो वह संस्कृति नष्ट हो गई| भारतवर्ष इन प्रहारों को सहन करता हुआ आज भी जीवित है| समाज के सभी वर्ण यदि एकजूट होकर आतताइयों का सामना क्षत्रियों के साथ मिल कर करते तो भारत कभी पराभूत नहीं होता|
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युद्धभूमि में ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ प्रकट होता है| युद्धभूमि में ही गीता का ब्रह्मज्ञान व्यक्त हुआ| वह युद्ध जो हमारे अंतर में निरंतर चल रहा है .... असत्य और अन्धकार की शक्तियों से, उस युद्ध में हमें विजयी बनना है| यही विजयदशमी का संदेश है| ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ अक्तूबर २०१९

पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है .....

पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके हृदय में परमात्मा है| बड़ी से बड़ी और ऊँची से ऊँची सेवा जो हम अपने जीवन में कर सकते हैं वह है "निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त करना"| यही सनातन धर्म है| यही भारत की अस्मिता और पहिचान है| बिना सनातन धर्म के भारत, भारत नहीं है| भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है| भारत आज भी यदि जीवित है तो उन महापुरुषों के कारण जीवित हैं जिन्होंने निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त किया, न कि धर्मनिरपेक्ष नेताओं, मार्क्सवादियों, अल्पसंख्यकवादियों, समाजवादियों और तथाकथित राजनीतिक सुधारवादियों के कारण|
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भारत में एक से एक बड़े बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए, महाराजा पृथु जैसे राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया, जिनके कारण यह ग्रह "पृथ्वी" कहलाता है| एक से एक बड़े बड़े सेठ-साहूकार हुए| भारत में इतना अन्न होता था कि सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों का भरण पोषण हो सकता था, इसलिए यह राष्ट्र भारतवर्ष कहलाता था| एक छोटा-मोटा गाँव भी हज़ारों लोगो को भोजन करा सकता था| लोग सोने कि थालियों में भोजन कर थालियों को फेंक दिया करते थे| राजा लोग हज़ारों गायों के सींगों में सोना मंढा कर ब्राह्मणों को दान में दे दिया करते थे| पर हम अपनी संस्कृति में उन चक्रवर्ती राजाओं और सेठ-साहूकारों को आदर्श नहीं मानते और ना ही उनसे कोई प्रेरणा लेते हैं| हम आदर्श मानते हैं और प्रेरणा लेते हैं तो राम और कृष्ण जैसों से क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा अवतरित थे| हमारे आदर्श और प्रेरणास्त्रोत सदा ही भगवान के भक्त और प्रभु को पूर्णतः समर्पित संतजन रहे हैं| और उन्होंने ही हमारी रक्षा की है, और वे ही हमारी रक्षा करेंगे|
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इस पृथ्वी पर चंगेज़, तैमूर, माओ, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, अँगरेज़ शासकों, व मुग़ल शासकों जैसे क्रूर अत्याचारी और कुबलई जैसे बड़े बड़े सम्राट हुए पर वे मानवता को क्या दे पाए? अनेकों बड़े बड़े अधर्म फैले और फैले हुए हैं, वे क्या दे पाए हैं, या क्या भला कर पाए हैं? कुछ भी नहीं! पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ अक्तुबर २०१४

हम ध्यान कहाँ किस बिन्दु से आरंभ करें ? ....

हम ध्यान कहाँ किस बिन्दु से आरंभ करें ? ....
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देवीभागवत के अनुसार हमें शिखास्थान से ऊपर सहस्त्रार में, शिव संहिता के अनुसार ब्रह्मरंध्र में, गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार भ्रूमध्य में, और तंत्रागमों के अनुसार उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में ध्यान करना चाहिए|
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मेरा अनुभव कहता है कि हमारा आध्यात्मिक हृदय आज्ञाचक्र है जो भ्रूमध्य के बिल्कुल सामने पीछे की ओर खोपड़ी में है, जहाँ मेरूशीर्ष (Medulla Oblongata) है| जीवात्मा का निवास भी यहीं है| भ्रूमध्य में ध्यान करते करते ध्यान स्वयमेव ही सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र में चला जाता है| सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण कमल हैं| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| सहस्त्रार में स्वतः ही ब्रह्मरंध्र में ध्यान होने लगता है| सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र में ध्यान करते करते चेतना विस्तृत होकर कई बार शरीर से परे अनंत में चली जाती है| वहाँ होने वाली अनुभूतियों का वर्णन सार्वजनिक रूप से करने का निषेध है| इसकी चर्चा सिर्फ गुरु परंपरा में ही की जाती है| गहन आध्यात्मिक साधना भी गुरु परंपरा में ही होनी चाहिए|
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भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई विधि से ही शरणागत होकर ध्यान साधना का आरंभ करना चाहिए| यह निरापद है| सब कुछ उन्हीं को समर्पित कर दें| सारे फल और कर्ताभाव भी उन्हें ही समर्पित कर दें| फिर जो करना है, वे भगवान श्रीकृष्ण ही करेंगे| हमारी उपस्थिति बस इतनी है जितनी किसी यज्ञ में एक यजमान की होती है, उससे अधिक नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ अक्टूबर २०१९

सब चिंता भगवान करेंगे, उनका काम ही चिंता करना है .....

सब चिंता भगवान करेंगे, उनका काम ही चिंता करना है .....
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जिन्होंने इस सृष्टि की रचना की है, उसकी चिंता वे अगम अगोचर अलख अनादि अनंत और अपार ही करेंगे, यह उन्हीं का काम है, हमारा नहीं| हम तो उन की रचना मात्र हैं जिसे वे जीवित रखें या मृत, दुःखी रखें या सुखी ... जैसी उनकी मर्जी| हमारे प्रेम के पात्र वे ही हैं, और उन अदृश्य से ही हमें प्रेम हो गया है| यह देह भी वे हैं, यह प्राण भी वे हैं और यह जीवात्मा भी वे ही हैं| उन्हीं का धर्म हमारा धर्म है| जैसे वे सब तरह के धर्म और अधर्म की रचना कर स्वयं उनसे ऊपर हैं, वैसे ही हम भी सब तरह के धर्म और अधर्म से ऊपर उनके साथ एक होकर साक्षात सच्चिदानंद हैं, यह नश्वर देह नहीं|
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देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है| यह देह जिससे हमारी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| भूख प्यास, सर्दी गर्मी और ज़रा-मृत्यु आदि इस देह का धर्म है| आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति ही है, अन्य कुछ भी नहीं| जब जीवन में परमात्मा की कृपा होती है तब सारे गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं| उनके लिए किसी पृथक प्रयास की आवश्यकता नहीं है| परमात्मा के प्रति प्रेम ही सबसे बड़ा गुण है जो सब गुणों की खान है|
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हम अपना ईश्वर प्रदत्त कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करें| जहाँ विवेक कार्य नहीं करता वहाँ श्रुतियाँ प्रमाण हैं| भगवान एक गुरु के रूप में मार्गदर्शन करते हैं पर अंततः गुरु एक तत्व बन जाता है जिसे किसी नाम रूप में नहीं बाँध सकते| हमारी जाति, सम्प्रदाय और धर्म वही है जो परमात्मा का है| हमारा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को सप्रेम नमन !
ॐ तत्सत् ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ अक्टूबर २०१९

समस्याएँ मन में हैं या परिस्थितियों में ? ...

समस्याएँ मन में हैं या परिस्थितियों में ? ...
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एकांत और मौन में ध्यानस्थ होकर हम अपनी सभी शाश्वत जिज्ञासाओं का उत्तर पा सकते हैं| बाहर कोई कमी दिखती है तो परमात्मा की पूर्णता पर ध्यान करें| आत्मा की पूर्णता पर ही बाहर की पूर्णता निर्भर है| परमात्मा को भूलने से बड़ी पीड़ा कोई दूसरी नहीं है| उनकी निरंतर स्मृति से बड़ा कोई आनंद दूसरा नहीं है| जो परिवर्तन हम बाहरी विश्व में चाहते हैं वह स्वयं से आरम्भ करें. आत्मनिंदा से हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ अक्टूबर २०१९

स्वयं को परमात्मा से जोड़ें, न कि इस नश्वर देह से .....

स्वयं को परमात्मा से जोड़ें, न कि इस नश्वर देह से .....
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दुखी व्यक्ति को सब ठगने का प्रयास करते हैं| धर्म के नाम पर बहुत अधिक ठगी हो रही है| हमें हर प्रकार के बंधनों, मत-मतान्तरों, यहाँ तक की धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना ही पड़ेगा| परमात्मा सब प्रकार के बंधनों से परे है| चूँकि हमारा लक्ष्य परमात्मा है तो हमें भी उसी की तरह स्वयं को मुक्त करना होगा, और साधना द्वारा अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित होना ही होगा|
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चिंता और भय ये दोनों ही मस्तिष्क के क्षय रोग हैं जो हमारी क्षमता का तो ह्रास करते ही हैं पर साथ साथ जीवित ही नर्क में भी डाल देते हैं| ये अकाल मृत्यु के कारण भी हैं| परमात्मा में श्रद्धा, विश्वास और निरंतर आतंरिक सत्संग ही हमें इस अकाल मृत्यु सम यन्त्रणा से मुक्त कर सकते हैं|
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अपनी पीड़ा सिर्फ भगवान को अकेले में कहें, दुनियाँ के आगे रोने से कोई लाभ नहीं है| हम दूसरों की दृष्टी में क्या हैं इसका महत्व नहीं है| महत्व तो इसी बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं| समष्टि के कल्याण की ही प्रार्थना करें| समष्टि के कल्याण में ही स्वयं का कल्याण है| बीता हुआ समय स्वप्न है जिसे सोचकर ग्लानि ग्रस्त नहीं होना चाहिए|
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भगवान हम सब की रक्षा करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ अक्तुबर २०१९

भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं .....

भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं .....
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भगवान की भक्ति में "सखा" शब्द बहुत ही विलक्षण है| यह "सखा" शब्द भगवान श्रीकृष्ण को अति प्रिय है, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं| गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को "मे सखा चेती" कहते हैं यानि तूँ मेरा "सखा" है ....
"स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः| भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्||४:३||"
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हिन्दी में सखा मित्र को कहते हैं पर तात्विक दृष्टि से इसका अर्थ भिन्न है| "ख" आकाश तत्व को कहते हैं| जहाँ आकाश तत्व में सारी सृष्टि समाहित हो जाती है, वहीं आकाश तत्व शून्य भी है| आकाश के साथ जो है वही सखा है, यानि जिसके साथ होने से यह सारा संसार शून्य हो जाए, और जिस के नहीं होने से भी सारा संसार शून्य हो जाए ..... यह सखा का लक्षण है| श्रुति भगवती बार बार कहती है .....

"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते|
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति||" (मुंडकोपनिषद)
अर्थात एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी जीवात्मा एवं परमात्मा एक ही वृक्ष शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं| उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल .... कर्मफलों का स्वाद ले लेकर खाता है, किंतु दूसरा .... ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है||
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चैतन्य महाप्रभु कहते हैं .....
"युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् |
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द-विरहेण मे || (शिक्षाष्टकम्:७)
अर्थात् श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान लग रहा है|
"आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा|
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः||" (शिक्षाष्टकम्:८)
अर्थात् उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वे आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं||
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यह परम सखाभाव है| भगवान वैसे तो सर्वस्व हैं, पर सबसे अधिक प्रिय भाव "सखा" का ही है| वे हम सब के सखा ही हैं, उनके बिना तो जीवन असंभव है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ अक्टूबर २०१९

इस्लाम के नाम पर जिहाद की धमकी .....

इस्लाम के नाम पर जिहाद की धमकी ..... पाकिस्तान की नई रणनीति है जिसमें उसे तुर्की और मलेशिया का समर्थन प्राप्त है| अन्य किसी भी इस्लामी देश ने पाकिस्तान का साथ नहीं दिया है| पहले पाकिस्तान आणविक युद्ध की धमकी देकर भारत को डराता था जिस से काँग्रेस की सरकारें दब जाती थीं| पर वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को दबाना असंभव है| मैंने तुर्की की भूतकाल की सल्तनत-ए-उस्मानिया और खिलाफ़त का इतिहास पढ़ा है और तुर्की व मलेशिया दोनों देशों का भ्रमण भी किया है व उन्हें अच्छी तरह समझता हूँ|
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तुर्की के अपने पड़ोसी देशों .... ग्रीस व आर्मेनिया से तो बहुत अधिक कटु संबंध हैं ही, अज़रबेजान, बुल्गारिया, जॉर्जिया, ईरान, इराक, सीरिया व साइप्रस से भी संबंधों में कोई मधुरता नहीं है| भारत के प्रधाननमंत्री का आर्मेनिया के राष्ट्रपति से अमेरिका में मिलना तुर्की की दुखती नब्ज पर हाथ रखना और उसे अपनी औकात दिखाना था| तुर्की का महत्व उसकी महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति से ही है| वहाँ का बासफ़ोरस जलडमरूमध्य और दर्रादानिएल का समुद्री क्षेत्र बड़ा महत्वपूर्ण है| तुर्की में न तो खिलाफत कभी बापस आ सकती है और न वह मुस्लिम विश्व का प्रमुख अब बन सकता है| भारत का वह कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता|
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मलेशिया भी भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकता| उसे अपने व्यापार के लिए भारत की आवश्यकता बहुत अधिक है| मलेशिया में कट्टरपंथी इस्लामी सरकार है| वहाँ चीनी और भारतीय मूल के लोग बहुत हैं| चीन के साथ उसके सम्बन्धों में बहुत अधिक कटुता है|
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पाकिस्तान सोचता है कि इस्लामी देशों में सिर्फ वही अणुबम रखता है अतः इस्लामी देश उसे अपना नेता बना लेंगे, पर कोई भी देश उसे घास नहीं डाल रहा है| भारत की वर्तमान पाकिस्तान संबंधी नीति बहुत अच्छी है| पाकिस्तान को भारत ने एक भिखारी देश बना दिया है| अतः भारत को पाकिस्तान से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है|
कृपा शंकर
२ अक्टूबर २०१९

महामाया से पार हम अपनी शक्ति से नहीं जा सकते .....

महामाया से पार हम अपनी शक्ति से नहीं जा सकते, यह बड़ी दुरूह है| इस से परे भगवान की भक्ति ही ले जा सकती है| एक तो इस के अज्ञान रूपी आवरण को भेदना प्रायः असंभव ही है, दूसरा इसका मोहरूपी विक्षेप बड़ा भयंकर है जो अपनी ओर आकर्षित कर बड़े बड़े ज्ञानियों को भी पतित कर देता है| स्वयं दुर्गासप्तशती कहती है ...
"ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा| बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति||"

भक्त और भगवान के बीच में यह महामाया ही है जिसके आवरण ने भेद उत्पन्न कर रखा है, यह आवरण जब तक नहीं हटेगा तब तक परमात्मा का बोध नहीं हो सकता| अन्य कोई कारण नहीं है जिसने हमें परमात्मा से दूर कर रखा है| इसका समाधान परमात्मा की कृपा और अनुग्रह प्राप्त कर स्वयं को ही करना पड़ता है| दूसरा कोई कुछ नहीं कर सकता| श्रीमदभगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसका समाधान बताया है ....
"दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया| मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते||७:१४||"


भगवान से हमें कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि कामनाओं व लोभ का कोई अंत नहीं है| कोई भी प्राप्त वस्तु कभी संतुष्ट और तृप्त नहीं कर सकती| जो कुछ भी चाहिए वह तो भगवान दे चुके हैं| जो दें उस से भी संतुष्ट हैं और जो नहीं दें उस से भी संतुष्ट हैं| भगवान से हम प्रेम करते हैं, क्योंकि भगवान ने ऐसा हमारा स्वभाव बनाया है| वे स्वयं ही स्वयं को प्रेम कर रहे हैं, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| पृथकता का बोध एक भ्रम है| वे अपने इस मायावी आवरण और विक्षेप से मुक्त करें, और कुछ भी नहीं चाहिए|
 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१ अक्तूबर २०१९

श्रद्धा क्या है और श्रद्धावान कौन है ? .....

श्रद्धा क्या है और श्रद्धावान कौन है ?
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जैसी हमारी श्रद्धा होती है वैसे ही हम बन जाते हैं| हमारा निर्माण संस्कारों द्वारा होता है| संस्कार चिंतन से बनते हैं| जैसा हमारा चिंतन होता है वैसे ही हम बन जाते हैं, और वैसा ही हमारा स्वरूप हो जाता है| "श्रद" का अर्थ होता है हृदय, और "धा" का अर्थ है जो धारण किया है| जिस भाव को हमने हृदय में धारण किया है वही हमारी श्रद्धा है|
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है|
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जिस परमात्मा को हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं| बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है| जो हमारे हृदय में भाव हैं वह ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वह ही हम हैं| आप सब निजात्माओं को नमन !
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हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१९

सभी को शारदीय नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएँ ....

सभी को शारदीय नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएँ .....
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जगन्माता माँ दुर्गा हम सब को बल, बुद्धि, सुख, ऐश्वर्य, संपन्नता और आत्मज्ञान प्रदान करे, हमें जगन्माता का पूर्ण प्रेम मिले, अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति हमारे में व्यक्त हो, हमें आत्मज्ञान प्राप्त हो|
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नवरात्रों के बारे में विशेष ज्ञान तो मार्कंडेय-पुराण व देवी-भागवत जैसे ग्रंथों में मिलेगा, पर इनका थोड़ा-बहुत ज्ञान तो भारतीय संस्कृति में सभी को है| भगवान माता भी है और पिता भी| मातृरूप में मुख्यतः दुर्गा देवी की आराधना की जाती है, जिन का प्राकट्य तीन रूपों .... महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती के रूपों में है| नवरात्रों में हम माता के इन तीनों रूपों की आराधना उन की प्रीति के लिए करते हैं|
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महाकाली की आराधना से हमारे अंतर की विकृतियों और दुष्ट वृत्तियों का नाश होता है| माँ दुर्गा का एक नाम है महिषासुर-मर्दिनी है| महिष का अर्थ होता है ... भैंसा, जो तमोगुण का प्रतीक है| आलस्य, अज्ञान, जड़ता और अविवेक ये तमोगुण के प्रतीक हैं| महिषासुर वध हमारे भीतर के तमोगुण के विनाश का प्रतीक है|
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ध्यानस्थ होने के लिए अंतःकरण का शुद्ध होना आवश्यक होता है जो महालक्ष्मी की कृपा से होता है| सच्चा ऐश्वर्य है आतंरिक समृद्धि| हमारे में सद्गुण होंगे तभी हम भौतिक समृद्धि को सुरक्षित रख सकते हैं| हमारे में सभी सद्गुण आयें इसके लिए महालक्ष्मी की साधना की जाती है|
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आत्मा का ज्ञान ही ज्ञान है| इस आत्मज्ञान को महासरस्वती प्रदान करती हैं|
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महाविद्याओं के साधक नवरात्रों में महाविद्या की साधना करते हैं, और भगवान श्रीराम व हनुमान जी के उपासक इनमें भगवान श्रीराम व हनुमान जी की उपासना करते हैं|
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अपने स्वभाव के अनुकूल जैसी भी जो भी साधना आप करना चाहें वह करें, पर करें अवश्य |
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ सितंबर २०१९

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ......

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ......
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मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है, न कि स्वर्ग की प्राप्ति. यदि कोई अपने पुण्यों से स्वर्ग जाता भी है तो पुण्य समाप्त होने पर बापस वहाँ से निकाल दिया जाता है| शास्त्रों के अनुसार स्वर्ग भी और नर्क भी अनेक श्रेणियों के अनेक हैं| कोई बापस लौट कर तो बताता नहीं है कि वहाँ की वास्तविकता क्या है|
दो ही वृतांत मेरे पढ़ने में आए हैं कि किसी ने बापस आकर अपने अनुभव बताये हैं|
(१) "योगी कथामृत" (Autobiography of a Yogi) पुस्तक में स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी अपनी भौतिक मृत्यु के बाद अपने शिष्य स्वामी योगानन्द गिरी (परमहंस योगनन्द) के समक्ष सशरीर प्रकट होकर उन्हें सूक्ष्म जगत और नर्क/स्वर्ग आदि के बारे में विस्तार से बताते हैं|
(२) "चित्तशक्तिविलास" नामक पुस्तक में स्वामी मुक्तानन्द जी स्वयं जीवित रहते हुए भी अपने तपोबल से सशरीर नर्क और स्वर्ग में घूम कर आने और इन्द्र देवता से भी मिल कर आने का अपना अनुभव लिखते हैं|

और भी कई मनीषियों ने इस विषय पर लिखा है पर उपरोक्त दो पुस्तकें तो बहुत अधिक लोकप्रिय हुई हैं|
महाभारत में मुद्गल ऋषि कि कथा है जिन्हें लेने के लिए स्वर्ग से विमान आता है, पर वे स्पष्ट रूप से किसी भी ऐसे स्वर्ग में जाने से मना कर देते हैं जहाँ से पुण्यक्षय होने पर बापस लौट कर आना पड़ता है| महाभारत में ऐसे और भी अनेक वृतांत हैं|
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मृत्यु के बाद जाने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान कौन सा है जिसका प्रयास हमें करना चाहिए :----
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :--
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||"
अर्थात उस(परमपद) को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर (संसारमें) नहीं आते, वही मेरा परमधाम है|
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जहाँ हमारे इष्ट देव है वहीं हमें जाना है, उस से कम किसी भी अन्य स्थान पर नहीं| हमें तो सुख-शांति अपने इष्टदेव से जुड़कर ही मिलेगी जिनके हम अंश हैं| कोई स्वर्ग-नर्क हमें नहीं चाहिए| स्वर्ग तो एक घटिया स्थान है जहाँ जाकर हम अपने इष्ट देव को भूल जाते हैं| जहाँ हमारे भगवान वासुदेव हैं हम तो वहीं उनके साथ ही रहेंगे, अन्य कहीं भी नहीं, क्योंकि उनके बिना हम नहीं रह सकते|
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०१९

आपकी भक्ति करने में हम असमर्थ हैं, आप ही हमारा कल्याण करें .....

आपकी भक्ति करने में हम असमर्थ हैं, आप ही हमारा कल्याण करें .....
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वासनायें हमें अंदर ही अंदर इतना अधिक शक्तिहीन कर देती हैं कि हम परमात्मा को उपलब्ध होने की शक्ति खो देते हैं| शास्त्र कहते हैं कि अभ्यास, वैराग्य और सत्संग द्वारा हम वासनाओं से ऊपर उठें| यह सर्वाधिक कठिन कार्य है| कुछ समझ में ही नहीं आता कि वासनायें कहाँ से आती हैं, पर ये हमारे अंतर में बहुत अधिक विध्वंस कर जाती हैं, वैसे ही जैसे भयंकर तूफान आते हैं और सर्वनाश कर जाते हैं| महात्मा लोग कहते हैं कि भगवान में मन लगाओ| पर कैसे मन लगायें? मन लगाते ही यह वासनारूपी शैतान आकर सर्वनाश कर जाता है|
{इब्राहिमी मतों (ईसाईयत, इस्लाम और यहूदी मत) में जिसे शैतान कहा गया है, वह कोई व्यक्ति नहीं, ये वासनायें ही हैं|} शैतान चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, अंततः उसकी पराजय सुनिश्चित है|
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भगवान श्रीकृष्ण के ये वचन बड़ा आश्वासन देते हैं .....
(१)
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
(२)
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
अर्थात मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे||
(३)
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है||
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हे प्रभु, हमारे में तो इतनी शक्ति नहीं है कि आपकी इस दुस्तर माया को पार कर सकें| आप ही अनुग्रह कर के हमारी रक्षा करें और अपने श्रीचरणों में आश्रय दें| हमारे में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि अंत समय में आपका स्मरण कर सकें| यह देह तो भस्म हो जाएगी आप ही अनुग्रह कर के हमारा स्मरण कर लेना| आपकी कृपा हमें पार लगा देगी| हम आपकी कृपा और अनुग्रह पर ही निर्भर हैं|

"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌| ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर||"
(ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
मेरा प्राण सर्वात्मक वायु रूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो क्योकि वह शरीरों में आने जाने वाला जीव अमर है; और यह शरीर केवल भस्म पर्यन्त है इसलिये अन्त समय में हे मन ! ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किए हुये कर्मों का स्मरण कर, ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किये हुए कर्मों का स्मरण कर||
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ॐ तत्सत | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०१९