Tuesday, 7 October 2025

सनातन हिन्दू धर्म के बिना ..... भारत, भारत नहीं है| भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है ..... .

 सनातन हिन्दू धर्म के बिना ..... भारत, भारत नहीं है| भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है .....

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भारत आज भी यदि जीवित है तु उन महापुरुषों, साधू-संतों के कारण जीवित हैं जिन्होंने निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त किया, न कि धर्मनिरपेक्ष नेताओं, मार्क्सवादियों, अल्पसंख्यकवादियों, समाजवादियों और तथाकथित राजनीतिक सुधारवादियों के कारण|
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भारत में एक से एक बड़े बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए, महाराजा पृथु जैसे राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया और जिनके कारण यह ग्रह "पृथ्वी" कहलाता है| एक से एक बड़े बड़े सेठ साहूकार हुए| भारत में इतना अन्न होता था कि सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों का भरण पोषण हो सकता था, इसलिए यह राष्ट्र भारतवर्ष कहलाता था| एक छोटा मोटा गाँव भी हज़ारों लोगो को भोजन करा सकता था| लोग सोने कि थालियों में भोजन कर थालियों को फेंक दिया करते थे| राजा लोग हज़ारों गायों के सींगों में सोना मंढा कर ब्राह्मणों को दान में दे दिया करते थे| पर हम अपनी संस्कृति में उन चक्रवर्ती राजाओं और सेठ-साहूकारों को आदर्श नहीं मानते और ना ही उनसे कोई प्रेरणा लेते हैं| हम आदर्श मानते हैं और प्रेरणा लेते हैं तो भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण से, क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा अवतरित थे| हमारे आदर्श और प्रेरणास्त्रोत सदा ही भगवान के भक्त और प्रभु को पूर्णतः समर्पित संतजन रहे हैं| और उन्होंने ही हमारी रक्षा की है, और वे ही हमारी रक्षा करेंगे|
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इस पृथ्वी पर चंगेज़, तैमूर, माओ, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, अँगरेज़ शासकों, व मुग़ल शासकों जैसे क्रूर अत्याचारी, और कुबलई जैसे बड़े बड़े सम्राट हुए पर वे मानवता को क्या दे पाए? अनेकों बड़े बड़े अधर्म फैले और फैले हुए हैं, वे क्या दे पाए हैं या भला कर पाए हैं? कुछ भी नहीं| पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है|
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ॐ तत्सत् |ॐ ॐ ॐ ||
०८ अक्टूबर २०१७

जीवन का उद्देश्य अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित होना है |

 जीवन का उद्देश्य अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित होना है |

माता-पिता को चाहिए कि वे अपने छोटे बच्चों में अपने सदाचरण से अच्छे संस्कार दें, उनमें परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत करें, और उन्हें ध्यान करना सिखाएँ | इससे बालक नर्सरी की कविताएँ और वर्णमाला सीखने से पहिले ही ध्यान करना सीख जायेंगे, उनमें अति मानवीय गुणों का विकास होगा और किशोरावस्था में वे कामुकता और क्रोध से मुक्त होंगे | ऐसे बालक अति कुशाग्र और प्रतिभाशाली होंगे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०८ अक्टूबर २०१६

ऐसी क्या मजबूरी थी जो मुझे इस संसार में जन्म लेना पड़ा? ---

 ऐसी क्या मजबूरी थी जो मुझे इस संसार में जन्म लेना पड़ा? (संशोधित)

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पुनश्च: -- (बाद में जोड़ा हुआ) आत्मा नित्य मुक्त है। सारे बंधन मिथ्या हैं। जिनका कभी जन्म ही नहीं हुआ, जो जन्म और मृत्यु से परे हैं, उन परमशिव की मैं आराधना करता हूँ। उनका ध्यान करते करते ही यह अवशिष्ट जीवन व्यतीत हो जायेगा। इस मनुष्य का जन्म अज्ञानवश हुआ, लेकिन अब मृत्यु सचेतन होगी।
"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२:२०॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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इस शरीर में मेरा जन्म होना परमशिव की वास्तव में एक परमकृपा थी, अन्यथा जीवन के उद्देश्य का पता ही नहीं चलता। इस संसार में बहुत अधिक कष्ट सहे, यह भी परमशिव की परमकृपा थी, अन्यथा संसार की निःसारता का बोध ही नहीं होता। अब उन से प्रेम हुआ है, यह भी उनकी परमकृपा है। मैं यह शरीर नहीं, दुर्विज्ञेय शाश्वत आत्मा हूँ। एक प्रत्यगात्मा का परमात्मा में विलय सुनिश्चित है। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
५ अक्तूबर २०२५

मुझे मेरे मार्ग से नहीं भटकना है ---

 मुझे मेरे मार्ग से नहीं भटकना है ---

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विश्व में इस समय अनेक कूटनीतिक गतिविधियाँ चल रही हैं और पर्दे के पीछे बहुत कुछ हो रहा है, व होने वाला है। इसमें मुझे अपने मार्ग से नहीं भटकना है। मुझसे बहुत बड़ी बड़ी अनेक भूलें हुई हैं। मैं नहीं चाहता कि वे भूलें मुझसे दुबारा हों। यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं। वे अपनी सृष्टि को चलाने में सक्षम हैं। उन्हें मेरी सलाह की आवश्यकता नहीं है।
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मैं सब तरफ से अपना ध्यान हटाकर बापस परमात्मा के मार्ग में अग्रसर हो रहा हूँ। मुझे पूरा मार्गदर्शन प्राप्त है। बाहर का आकर्षण बड़ा प्रबल है। लेकिन मैं इसे अपने ध्यान से हटा रहा हूँ। चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, लेकिन मेरी चेतना परमात्मा में ही रहेगी।
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यह भगवान का आदेश है जिसका अक्षरसः पालन करूंगा ---
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
"सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥"
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् -- जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।।
संकल्प से उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके।।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे।।
यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे।।
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मेरी चेतना केवल परमात्मा में ही रहेगी।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ अक्तूबर २०२५

शरद पूर्णिमा मंगलमय हो॥

 शरद पूर्णिमा मंगलमय हो॥

८ और ९ वर्ष की आयु में बालक भगवान श्रीकृष्ण ने सारी लीलाएँ कीं। उसके बाद तो वे गुरुकुल में चले गये थे। इस रात्रि को उन्होंने महारास किया था जिसमें सभी गोपिकाओं को लगा कि वे उन्हीं के साथ हैं। यह उनकी अंतिम लीला थी।
इस समय मेरे चैतन्य में केवल श्रीकृष्ण हैं। बड़ी कठिनता से ये पंक्तियाँ लिखी हैं।
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पुनश्च: --- भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सारी लीलाएं आठ और नौ वर्ष की आयु में की थीं। नौ वर्ष पूरे होते ही तो उन्हें संदीपनी गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेज दिया गया था। एक आठ और नौ वर्ष के बालक में कोई कामुकता नहीं होती। उनके बारे में अधर्मियों द्वारा फैलाई गयी सारी बातें प्रलाप मात्र हैं।
६ अक्तूबर २०२५

हमारा मेरुदण्ड जगन्माता का मंदिर है ---

 हमारा मेरुदण्ड जगन्माता का मंदिर है ---

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हमारा मेरुदण्ड -- जगन्माता का मंदिर है, जिसकी सूक्ष्मदेहस्थ सुषुम्ना की ब्राह्मी-उपनाड़ी में (मूलाधारचक्र से सहस्त्रारचक्र के मध्य) वे घनीभूत प्राण-तत्व (कुंडलिनी महाशक्ति) के रूप में निरंतर विचरण कर रही हैं। उनकी इसी गतिविधि से हमारी देह जीवंत है। उनकी इस गतिविधि के प्रति निरंतर सजग रहें। उनका ध्यान और आराधना सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति के रूप में होता है। वह ज्योति उनके चरण कमल है। जब वह ज्योति सहस्त्रारचक्र से बाहर निकल कर सृष्टि की अनंतता से भी परे इस देह से बहुत ऊपर स्थित हो जाती है तब वहीं ध्यान करें। वह ज्योतिर्मय लोक -- क्षीरसागर है जहाँ भगवान विष्णु का निवास है। वही शिवलोक है। उस ऊर्ध्वस्थ विराट ज्योति का ध्यान भगवान विष्णु के पुरुषोत्तम रूप का ध्यान है। यही परमशिव का ध्यान है। उसी के बारे में गीता के पुरुषोत्तम योग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥"
अर्थात् -- उस परम-धाम को न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा प्रकाशित करता है और न ही अग्नि प्रकाशित करती है, जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस संसार में वापस नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है।
इस बारे में श्रुति भगवती कहती हैं --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥"
(मुण्डकोपनिषद २/२/११)
अर्थात् -- तत्र सूर्यः न भाति चन्द्रतारकम् च न इमाः विद्युतः न भान्ति अयं अग्निः कुतः तत् प्रकाशयेत् तं भान्तम् एव सर्वम् अनुभाति। तस्य भासा इदं सर्वम् विभाति॥
वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।
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इसी को सरलतम शब्दों में हम कहते हैं -- कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करो। इसका आरंभ पूर्ण भक्तिभाव से भ्रूमध्य में ध्यान से कीजिये। जगतगुरु भगवान श्रीकृष्ण स्वयं आपका मार्गदर्शन करेंगे। वे ही शिवरूप में भगवान दक्षिणामूर्ति हैं। ब्रह्म में विचरण को ब्रह्मचर्य कहते हैं। ब्रह्मचर्य, तप और समर्पण तो स्वयं को ही करना होगा। कोई दूसरा आपके लिए नहीं करेगा। आरंभ में किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सदगुरु से मार्गदर्शन लेना होगा।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ अक्तूबर २०२५