Sunday, 2 December 2018

हमारा कार्य सिर्फ प्रकाश का विस्तार करना है .....

हमारा कार्य सिर्फ प्रकाश का विस्तार करना है, अँधकार का नहीं .....
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अन्धेरा पूरी तरह कभी दूर नहीं हो सकता| अन्धेरे का अस्तित्व बना रहेगा, चाहे वह भीतर का हो या बाहर का| एक भक्त ने भगवान से प्रार्थना की कि चारों और छाये इस अज्ञान के अन्धकार को दूर करें| भगवान ने उत्तर दिया कि सृष्टि के आरम्भ से ही अन्धकार का महत्व है, यह सृष्टि अन्धकार और प्रकाश के द्वैत का ही एक खेल है| भक्तों का कार्य परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना है| अन्धकार के बिना यह सृष्टि नहीं चल सकती|
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हम अपनी चेतना में परमात्मा के प्रकाश (ब्रह्मज्योति) का ही ध्यान करें| किसी तरह की हीन भावना न लायें| अपनी चेतना में प्रकाश का विस्तार करेंगे तो निज जीवन में अन्धकार स्वतः ही दूर होगा | जीवन के अन्धकार की स्मृतियों को विस्मृत कर दें| परमात्मा की निरंतर उपस्थिति का सतत अभ्यास करें |
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परमात्मा का प्रकाश ही हमारी दिशा है| दिशाहीन होना ही हमारी दुर्गति का कारण है| महासागर में जलयान, आकाश में वायुयान और अरण्य में कोई पथिक अपनी दिशा से भटक जाए तो उसका विनाश निश्चित है| वैसे ही दिशाहीन समाज, राष्ट्र और व्यक्ति का विनाश निश्चित है| हम सदा परमात्मा की ओर उन्मुख रहें तो कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०१ दिसंबर २०१८

संसार में हम अपने कर्मफलों को भोगने के लिए आये हैं .....

इस संसार में हम अपने कर्मफलों को भोगने के लिए आये हैं, साथ साथ नए कर्मों की सृष्टि भी कर रहे हैं| पूर्वजन्मों में मुक्ति के उपाय नहीं किये इसलिए यह जन्म मिला| अपनी कमियों के लिए किसी अन्य पर दोषारोपण न करें| हम जो कुछ भी हैं और जैसी भी परिस्थिति में हैं वह हमारे प्रारब्ध कर्मों का फल यानि भोग है, इसमें किसी अन्य का कोई दोष नहीं है| ये प्रारब्ध कर्म तो भोगने ही पड़ेंगे, इन्हें टाल नहीं सकते| हाँ, भक्ति से पीड़ा कम अवश्य हो जाती है, पर टलती नहीं है| प्रकृति अपना कार्य पूरी ईमानदारी से अपने नियमानुसार करती है जिसमें कोई भेदभाव नहीं है| नियमों को हम नहीं समझते तो इसमें दोष अपना ही है, प्रकृति का नहीं|
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अपने असंतोष और अप्रसन्नता के लिए हम यदि ....
(१) अपने माँ-बाप को दोष देते हैं तो हम गलत हैं| कई लोग कहते हैं कि हम गलत माँ-बाप के घर या गलत परिवार/समाज में पैदा हो गए, इसलिए जीवन में प्रगति नहीं कर पाए|
(२) कई लोग स्वयं को परिस्थितियों का शिकार बताते हैं और कहते हैं गलत परिस्थितियों के कारण जीवन में जो मिलना चाहिए था वह नहीं मिला| यह सोच गलत है|
(३) कई लोग अपनी विफलताओं के लिए दूसरों को दोष देते हैं, यह भी गलत है|
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अपने कर्मफलों को प्रेम से, आनन्द से और भक्ति से भगवान का नाम लेते हुए काटें और अपनी सोच बदल कर अच्छे कर्म करें| हमारी सोच और विचार ही हमारे कर्म हैं| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०१८

सम्राट का बेटा .....

(ओशो की बताई हुई यह कहानी बड़ी शानदार है अवश्य पढ़ें, इसके पीछे एक सत्य भी छिपा है).
“सम्राट का बेटा”
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एक सम्राट का बेटा बिगड़ गया। गलत संग–साथ में पड़ गया। बाप नाराज़ हो गया। बाप ने सिर्फ़ धमकी के लिए कहा कि, “तुझे निकाल बाहर कर दूँगा... या तो अपने को ठीक कर ले या मेरा महल छोड़ दे।” सोचा नहीं था बाप ने कि लड़का महल छोड़ देगा। छोटा ही लड़का था। लेकिन लड़के ने महल छोड़ दिया। बाप का ही तो बेटा था, सम्राट का बेटा था, ज़िद्दी था। फिर तो बाप ने बहुत खोजा, उसका कुछ पता न चले। वर्षों बीत गए। बाप बूढ़ा... रोते–रोते उसकी आँखें धुँधिया गईं। एक ही बेटा था। उसका ही ये सारा साम्राज्य था। पछताता था बहुत कि मैंने किस दुर्दिन में, किस दुर्भाग्य के क्षण में ये वचन बोल दिया कि तुझे निकाल बाहर कर दूँगा!

ऐसे कोई बीस साल बीत गए और एक दिन उसने देखा कि महल के सामने एक भिखारी खड़ा है। और बाप एकदम पहचान गया। उसकी आँखों में जैसे फिर से ज्योति आ गई। ये तो उसका ही बेटा है। लेकिन बीस साल! बेटा तो बिलकुल भूल चुका कि वो सम्राट का बेटा है। बीस साल का भिखमंगापन किसको न भुला देगा! बीस साल द्वार–द्वार, गाँव-गाँव, रोटी के टुकड़े माँगता फिरा।

बीस साल का भिखमंगापन पर्त-पर्त जमता गया, भूल ही गई ये बात कि कभी मैं सम्राट था। किसको याद रहेगी! भुलानी भी पड़ती है, नहीं तो भिखमंगापन बड़ा कठिन हो जाएगा, भारी हो जाएगा। सम्राट होके भीख माँगना बहुत कठिन हो जाएगा। जगह–जगह दुतकारे जाना; कुत्‍ते की तरह लोग व्यवहार करें; द्वार-द्वार कहा जाए, आगे हट जाओ... भीतर का सम्राट होगा तो वो तलवार निकाल लेगा। तो भीतर के सम्राट को तो धुँधला करना ही पड़ा था, उसे भूल ही जाना पड़ा था। यही उचित था, यही व्यवहारिक था कि ये बात भूल जाओ।

और कैसे याद रखोगे? जब चौबीस घण्टे याद एक ही बात की दिलवाई जा रही हो चारों तरफ़ से कि भिखमंगे हो, लफंगे हो, आवारा हो, चोर हो, बेईमान हो... कोई द्वार पर टिकने नहीं देता, कोई वृक्ष के नीचे बैठने नहीं देता, कोई ठहरने नहीं देता... लो रोटी, आगे बढ़ जाओ... मुश्किल से रोटी मिलती है। टूटा-फूटा पात्र! फटे–पुराने वस्‍त्र! नये वस्‍त्र भी बीस वर्षो में नहीं ख़रीद पाया। दुर्गन्ध से भरा हुआ शरीर। भूल ही गए वे दिन... सुगन्ध के, महल के, शान के, सुविधा के, गौरव-गरिमा के। वे सब भूल गए। बीस साल की धूल इतनी जम गई दर्पण पर कि अब दर्पण में कोई प्रतिबिंब नहीं बने।

तो बेटे को तो कुछ पता नहीं, वो तो ऐसे ही भीख माँगता हुआ इस गाँव में भी आ गया है, जैसे और गावों में गया था। ये भी और गाँवों जैसा गाँव है। लेकिन बाप ने देखा खिड़की से ये तो उसका बेटा है। नाक-नक़्श सब पहचान में आता है। धूल कितनी ही जम गई हो, बाप की आँखों को धोखा नहीं दिया जा सका। बेटा भूल जाए, बाप नहीं भूल पाता है। मूल स्रोत नहीं भूल पाता है। उदगम नहीं भूल पाता है। उसने अपने वज़ीर को बुलाया कि, “क्या करूँ?” वज़ीर ने कहा, “ज़रा सम्हल के काम करना। अगर एकदम से कहा तो ये बात इतनी बड़ी हो जाएगी कि इसे भरोसा नहीं आएगा। ये बिलकुल भूल गया है, नहीं तो इस द्वार पे आता ही नहीं। इसे याद नहीं है। ये भीख माँगने खड़ा है। थोड़े सोच-समझ के क़दम उठाना। अगर एकदम से कहा कि तू मेरा बेटा है, तो ये भरोसा नहीं करेगा, ये तुम पर संदेह करेगा। थोड़े धीरे–धीरे क़दम, क्रमश:।

तो बाप ने पूछा, “क्या किया जाए?” उसने कहा, “ऐसा करो कि उसे बुलाओ।” उसे बुलाने की कोशिश की तो वो भागने लगा। उसे महल के भीतर बुलाया तो वो महल के बाहर भागने लगा। नौकर उसके पीछे दौड़ाए तो उसने कहा कि, “ना भाई, मुझे भीतर नहीं जाना। मैं ग़रीब आदमी, मुझे छोड़ो। मैं ग़लती हो गई कि महल में आ गया, राजा के दरबार में आ गया। मैं तो भीख माँगता हूँ। मुझे भीतर जाने की कोई ज़रूरत नहीं।”

वो तो बहुत डरा, सज़ा मिले कि कारागृह में डाल दिया जाए कि पता नहीं क्या अड़चन आ जाए! लेकिन नौकरों ने समझाया कि, “मालिक तुम्हें नौकरी देना चाहता है, उसे दया आ गई है।” तो वो आया। लेकिन वो महल के भीतर क़दम न रखता था। वो महल के बाहर ही झाड़ू-बुहारी लगाने का उसे काम दे दिया गया। फिर धीरे- धीरे जब वो झाड़ू-बुहारी लगाने लगा और महल से थोड़ा परिचित होने लगा, और थोड़ी पदोन्नति की गई, फिर और थोड़ी पदोन्नति की गई। फिर वो महल के भीतर भी आने लगा। फिर उसके कपड़े भी बदलवाए गए। फिर उसको नहलवाया भी गया। और वो धीरे –धीरे राज़ी होने लगा। ऐसे बढ़ते–बढ़ते वर्षों में उसे वज़ीर के पद पर लाया गया। और जब वो वज़ीर के पद पर आ गया तब सम्राट ने एक दिन बुलाके उसने कहा कि, “तू मेरा बेटा है।”

तब वो राज़ी हो गया। तब उसे भरोसा आ गया। इतनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ी। ये बात पहले दिन ही कही जा सकती थी।

तुमसे मैं कहता हूँ, तुम परमात्मा हो। तुम्हें भरोसा नहीं आता। तुम कहते हो कि सिद्धान्त की बात होगी... मगर मैं और परमात्मा! मैं तुमसे रोज़ कहता हूँ, तुम्हें भरोसा नहीं आता। इसलिए तुमसे कहता हूँ... ध्यान करो, भक्‍ति करो। चलो झाड़ा-बुहारी से शुरू करो। ऐसे तो अभी हो सकती है बात, मगर तुम राज़ी नहीं। ऐसे तो एक क्षण खोने की ज़रूरत नहीं है, ऐसे तो क्रमिक विकास की कोई आवश्कता नहीं है। एक छलांग में हो सकती है। मगर तुम्हें भरोसा नहीं आता, तो मैं कहता हूँ चलो झाड़ू-बुहारी लगाओ। फिर धीरे–धीरे पदोन्नति होगी। फिर धीरे–धीरे, धीरे–धीरे बढ़ना। फिर एक दिन जब आख़िरी घड़ी आ जाएगी, वज़ीर की जगह आ जाओगे, जब समाधि की थोड़ी सी झलक पास आने लगेगी, ध्यान की स्फुरणा होने लगेगी, तब यही बात एक क्षण में तुम स्वीकार कर लोगे। तब इस बात में श्रद्धा आ जाएगी।

- ओशो (अजहुँ चेत गँवार)

नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः .....

नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः, अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्  |
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उपरोक्त श्लोक बड़ा ही विलक्षण श्लोक है| यह श्लोक स्कन्दपुराण के दूसरे खण्ड (वैष्णवखण्ड, पुरुषोत्तमजगन्नाथमाहात्म्य) के सताइसवें अध्याय का पंद्रहवाँ श्लोक है| इस से कुछ कुछ मिलता जुलता एक श्लोक विष्णु पुराण में भी देखा है| जब दृष्टा, दृश्य और दृष्टी .... सभी परमात्ममय हो जाते हैं तभी ऐसे भावों की सृष्टि होती है| यहाँ वेदान्त की भी पराकाष्ठा है| यह बड़ी ही दिव्य स्तुति है|
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ब्रह्माजी यहाँ भगवान विष्णु की स्तुति कर रहे हैं| विष्णु के साथ साथ स्वयं को भी नमन कर रहे हैं, और यह भी कह रहे है कि जो आप हैं वह ही मैं हूँ, अतः दोनों को नमन| इस तरह की ऐसे भावों की एक ही स्तुति मैनें देखी है|यह बहुत सरल संस्कृत भाषा में है पर इसके भावार्थ का मैं अनुवाद करने में असमर्थ हूँ| यदि समझ में न आये तो किसी संस्कृत के विद्वान् से इसका अर्थ समझ लीजिये|
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|| ब्रह्मोवाच ||
नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः |
अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम् ||१५||
महदादि जगत्सर्वं मायाविलसितं तव |
अध्यस्तं त्वयि विश्वात्मंस्त्वयैव परिणामितम् ||१६||
यदेतदखिलाभासं तत्त्वदज्ञानसंभवम् |
ज्ञाते त्वयि विलीयेत रज्जुसर्पादिबोधवत् ||१७||
अनिर्वक्तव्यमेवेदं सत्त्वात्सत्त्वविवेकतः |
अद्वितीय जगद्भास स्वप्रकाश नमोऽस्तु ते ||१८||
विषयानंदमखिलं सहजानंदरूपिणः |
अंशं तवोपजीवंति येन जीवंति जंतवः ||१९||
निष्प्रपंच निराकार निर्विकार निराश्रय |
स्थूलसूक्ष्माणुमहिमन्स्थौल्यसूक्ष्मविवर्जित ||२०||
गुणातीत गुणाधार त्रिगुणात्मन्नमोऽस्तु ते |
त्वन्मायया मोहितोऽहं सृष्टिमात्रपरायणः ||२१||
अद्यापि न लभे शर्म अंतर्य्यामिन्नमोस्तु ते |
त्वन्नाभिपंकजाज्जातो नित्यं तत्रैव संस्तुवन् ||२२||
नातिक्रमितुमीशोऽस्मि मायां ते कोऽन्य ईश्वरः |
अहं यथांडमध्येऽस्मिन्रचितः सृष्टिकर्मणि ||२३||
तथानुलोमकलिता ब्रह्मांडे ब्रह्मकोटयः |
सार्द्धत्रिकोटिसंख्यानां विरिंचीनामपि प्रभो ||२४||
नैकोऽपि तत्त्वतो वेत्ति यथाहं त्वत्पुरः स्थितः |
नमोचिंत्यमहिम्ने ते चिद्रूपाय नमोनमः ||२५||
नमो देवाधिदेवाय देवदेवाय ते नमः |
दिव्यादिव्यस्वरूपाय दिव्यरूपाय ते नमः ||२६||
जरामृत्युविहीनाय मृत्युरूपाय ते नमः |
ज्वलदग्निस्वरूपाय मृत्योरपि च मृत्यवे ||२७||
प्रपन्नमृत्युनाशाय सहजानंदरूपिणे |
भक्तिप्रियाय जगतां मात्रे पित्रे नमो नमः ||२८||
प्रणतार्तिविनाशाय नित्योद्योगिन्नमोऽस्तु ते |
नमोनमस्ते दीनानां कृपासहजसिंधवे ||२९||
पराय पररूपाय परंपाराय ते नमः |
अपारपारभूताय ब्रह्मरूपाय ते नमः ||स्कन्दपुराण:२:२:२७:३०||
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ॐ परमात्मने नमः ||


३० नवम्बर २०१८ 

पूर्णता का ध्यान .....

पूर्णता का ध्यान .....
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ध्यान सदा पूर्णता का ही होता है| मेरे पास सही शब्दों की बहुत कमी है, अतः ठीक से स्वयं को व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ, फिर भी पूरा प्रयास कर रहा हूँ| परमात्मा का जो अखंड मंडलाकार रूप है, वह ही हमारा उपास्य है, जिस में सब कुछ समाहित है, कुछ भी जिस से पृथक नहीं है| पूर्णता का ध्यान करते करते पूर्णता को समर्पित होकर ही हम पूर्ण हो सकते हैं| जिन परब्रह्म परमशिव परमात्मा का कभी जन्म ही नहीं हुआ उन को समर्पित होकर ही हम अमर हो सकते हैं|
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इस संसार में जो कुछ भी हम ढूँढ रहे हैं ..... "सुख", "शांति", "सुरक्षा", "आनंद", "समृद्धि", "वैभव", "यश", और "कीर्ति" ...... वह सब तो हम स्वयं ही हैं| बाहर के विश्व में इन सब की खोज एक मृगतृष्णा मात्र ही है| यह पूर्णता ही परमात्मा है| अपनी अपूर्णता का उस पूर्णता में पूर्ण समर्पण ही उपासना है|
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इस विषय का अधिक ज्ञान किन्हीं श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध महात्मा के आशीर्वाद से ही हो सकता है| पात्रता होने पर भगवान स्वयं ही किसी सिद्ध गुरु के रूप में आते हैं|
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते |पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३० नवम्बर २०१८

श्रीवाराहपुराण में दिया गया ... "श्रीमद्भगवद्गीता महात्म्य" .....

श्रीवाराहपुराण में दिया गया ... "श्रीमद्भगवद्गीता महात्म्य" .....
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श्री गणेशाय नमः
धरोवाच
भगवन्परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी
प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ।। 1 ।।
श्री पृथ्वी देवी ने पूछाः
हे भगवन ! हे परमेश्वर ! हे प्रभो ! प्रारब्धकर्म को भोगते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?(1)
श्रीविष्णुरुवाच
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा ।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ।। 2 ।।
श्री विष्णु भगवान बोलेः
प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्रीगीता के अभ्यास में आसक्त हो वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्म में लेपायमान नहीं होता । (2)
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् ।
क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत् ।। 3 ।।
जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्रीगीता का ध्यान करता है उसे महापापादि पाप कभी स्पर्श नहीं करते । (3)
गीतायाः पुस्तकं यत्र पाठः प्रवर्तते ।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै ।। 4 ।।
जहाँ श्रीगीता की पुस्तक होती है और जहाँ श्रीगीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं । (4)
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये ।
गोपालबालकृष्णोsपि नारदध्रुवपार्षदैः ।।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते ।। 5 ।।
जहाँ श्रीगीता प्रवर्तमान है वहाँ सभी देवों, ऋषियों, योगियों, नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव आदि सभी पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते हैं । (5)
यत्रगीताविचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम् ।
तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ।। 6 ।।
जहाँ श्री गीता का विचार, पठन, पाठन तथा श्रवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवश्य निवास करता हूँ । (6)
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम् ।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पालयाम्यहंम् ।। 7 ।।
मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्रीगीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ । (7)
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः ।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वनिर्वाच्यपदात्मिका ।। 8 ।।
श्रीगीता अति अवर्णनीय पदोंवाली, अविनाशी, अर्धमात्रा तथा अक्षरस्वरूप, नित्य, ब्रह्मरूपिणी और परम श्रेष्ठ मेरी विद्या है इसमें सन्देह नहीं है । (8)
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम् ।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ।। 9 ।।
वह श्रीगीता चिदानन्द श्रीकृष्ण ने अपने मुख से अर्जुन को कही हुई तथा तीनों वेदस्वरूप, परमानन्दस्वरूप तथा तत्त्वरूप पदार्थ के ज्ञान से युक्त है । (9)
योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः ।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम् ।। 10 ।।
जो मनुष्य स्थिर मन वाला होकर नित्य श्री गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानस्थ सिद्धि को प्राप्त होता है और फिर परम पद को पाता है । (10)
पाठेऽसमर्थः संपूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत् ।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशयः ।। 11 ।।
संपूर्ण पाठ करने में असमर्थ हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले पुण्य को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं । (11)
त्रिभागं पठमानस्तु गंगास्नानफलं लभेत् ।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत् ।। 12 ।।
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगास्नान का फल प्राप्त करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है । (12)
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः ।
रूद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम ।। 13 ।।
जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल तक निवास करता है । (13)
अध्याये श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः ।
स याति नरतां यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे ।। 14 ।।
हे पृथ्वी ! जो मनुष्य नित्य एक अध्याय एक श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का पाठ करता है वह मन्वंतर तक मनुष्यता को प्राप्त करता है । (14)
गीताया श्लोकदशकं सप्त पंच चतुष्टयम् ।
द्वौ त्रीनेकं तदर्धं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः ।। 15 ।।
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम् ।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत् ।। 16 ।।
जो मनुष्य गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का पाठ करता है वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है । गीता के पाठ में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न जाकर) पुनः मनुष्य जन्म पाता है । (15,16)
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम् ।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत् ।। 17 ।।
(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उत्तम मुक्ति को पाता है । 'गीता' ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है वह सदगति को पाता है ।
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा ।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते ।। 18 ।।
गीता का अर्थ तत्पर सुनने में तत्पर बना हुआ मनुष्य महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ को प्राप्त होता है और विष्णु के साथ आनन्द करता है । (18)
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः ।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहांते परमं पदम् ।। 19 ।।
अनेक कर्म करके नित्य श्री गीता के अर्थ का जो विचार करता है उसे जीवन्मुक्त जानो । मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है । (19)
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः ।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम् ।। 20 ।।
गीता का आश्रय करके जनक आदि कई राजा पाप रहित होकर लोक में यशस्वी बने हैं और परम पद को प्राप्त हुए हैं । (20)
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत् ।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृतः ।। 21 ।।
श्रीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ निष्फल होता है और ऐसे पाठ को श्रमरूप कहा है । (21)
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः ।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात् ।। 22 ।।
इस माहात्म्यसहित श्रीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दुर्लभ गति को प्राप्त होता है । (22)
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं सनातनम् ।
गीतान्ते पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत् ।। 23 ।।
सूत जी बोलेः
गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा । गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल प्राप्त करता है । (23)
इति श्रीवाराहपुराणे श्रीमद् गीतामाहात्म्यं संपूर्णम् ।
इति श्रीवाराहपुराण में श्रीमद् गीता माहात्म्य संपूर्ण ।।

आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफल .....

आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफल .....
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आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों का सिद्धांत ..... ये तीनों अटल सत्य हैं| मृत्यु देह की होती है, आत्मा की नहीं| मनुष्य देह की मृत्यु के समय के अंतिम क्षणों में आ रहे विचारों के अनुसार ही पुनर्जन्म होता है| पूर्व जन्म की स्मृतियाँ आने पर उनको विस्मृत कर देना ही उचित है, क्योंकि उनका कोई उपयोग नहीं है| ये आध्यात्मिक साधना में भी बाधक हैं| पूर्वजन्म के शत्रु और मित्र इस जीवन में निश्चित रूप से मिलते हैं| हम उन्हें पहिचान नहीं पाते पर वे अपना अपना उद्देश्य पूरा कर के चले जाते हैं| मुझे पूर्वजन्मों के अनेक शत्रु भी मिले हैं और अनेक मित्र भी| पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ भी आईं पर उन्हें सदा भुला दिया, कोई महत्त्व नहीं दिया|
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जीवन में डरने के लिए कुछ भी नहीं है, इसे समझने की आवश्यकता है| हम पूर्ण हैं, हमारी पूर्णता में कोई कमी नहीं है| हमारा अहंभाव ही हमें अपूर्ण बनाता है| पूर्णता चाहे न हो, पर कभी न कभी पूर्णता के कुछ क्षण सभी के जीवन में अवश्य आते हैं जिनमें पूर्णता की अनुभूतियाँ होती हैं| अपनी पूर्णता का ध्यान हर समय करें|
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यदि मनुष्य जन्म लेकर भी हम इस जन्म में परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो पाये तो निश्चित रूप से हमारा जन्म लेना ही विफल था, हम इस पृथ्वी पर भार ही थे| जीवन की सार्थकता उसी दिन होगी जिस दिन परमात्मा से कोई भेद नहीं रहेगा|
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ब्रह्ममुहूर्त में शीघ्र उठ कर शांत वातावरण में बैठिये| मन को सब प्रकार के नकारात्मक विचारों से मुक्त कर कुछ देर गुरु महाराज और भगवान का स्मरण करें| सीधे बैठकर तीन चार बार गहरे साँस लें| फिर तनाव मुक्त होकर भ्रूमध्य में दृष्टी रखें| अपने गुरु महाराज और भगवान की उपस्थिति का आभास करें और उन्हें प्रणाम करें| सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान करें| इस को अपनी आदत और स्वभाव बनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ गुरुभ्यो नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० नवम्बर २०१८

गुरु रूप ब्रह्म ही इस नौका के कर्णधार हैं .....

गुरु रूप ब्रह्म ही इस नौका के कर्णधार हैं .....
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जीवन के अंधेरे मार्गों पर वे ही मेरे मार्गदर्शक हैं| इस अज्ञानांधकार की निशा में वे ही मेरे चन्द्रमा हैं| वे ही मेरे ज्ञानरूपी दिवस के सूर्य हैं| मेरे बिखरे हुए भटकते विचारों के ध्रुव भी वे ही हैं| प्रबल चक्रवाती झंझावातों और भयावह अति उत्ताल तरंगों से त्रस्त दारुण दुःखदायी भवसागर की इस घोर तिमिराच्छन्न निशा में इस असंख्य छिद्रों वाली देहरूपी नौका के कर्णधार भी वे ही हैं| उनके आगमन से अंतर्चैतन्य में अब कोई अन्धकार रहा ही नहीं है| सम्पूर्ण अस्तित्व ज्योतिर्मय है व चारों ओर आनंद ही आनंद और अनुकूलता है| अब इस दिव्य चेतना में ही वे मुझे अवस्थित रखें जहाँ भवसागर का तो कोई आभास ही नहीं है| लगता है पार हो ही गया है| हे गुरु रूप ब्रह्म, आपको कोटि कोटि नमन|
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वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कःप्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वःपुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||गीता ११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||गीता ११:४०||
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति |
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ||गीता ११:४१||
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु |
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌ ||गीता ११:४२||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०१८

भगवान को प्रेम करने में कंजूसी क्यों ?.....

भगवान को प्रेम करने में कंजूसी क्यों ?.....
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हमारा पीड़ित और बेचैन होना हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं| "कामना" अपने आप में भगवान का दिया हुआ एक अनुग्रह है| मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं| संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है| "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से ही होती है|
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जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता| प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है| अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो| हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ| अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा|
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"प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है| भगवन के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०१८