(ओशो की बताई हुई यह कहानी बड़ी शानदार है अवश्य पढ़ें, इसके पीछे एक सत्य भी छिपा है).
“सम्राट का बेटा”
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एक सम्राट का बेटा बिगड़ गया। गलत संग–साथ में पड़ गया। बाप नाराज़ हो गया। बाप ने सिर्फ़ धमकी के लिए कहा कि, “तुझे निकाल बाहर कर दूँगा... या तो अपने को ठीक कर ले या मेरा महल छोड़ दे।” सोचा नहीं था बाप ने कि लड़का महल छोड़ देगा। छोटा ही लड़का था। लेकिन लड़के ने महल छोड़ दिया। बाप का ही तो बेटा था, सम्राट का बेटा था, ज़िद्दी था। फिर तो बाप ने बहुत खोजा, उसका कुछ पता न चले। वर्षों बीत गए। बाप बूढ़ा... रोते–रोते उसकी आँखें धुँधिया गईं। एक ही बेटा था। उसका ही ये सारा साम्राज्य था। पछताता था बहुत कि मैंने किस दुर्दिन में, किस दुर्भाग्य के क्षण में ये वचन बोल दिया कि तुझे निकाल बाहर कर दूँगा!
“सम्राट का बेटा”
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एक सम्राट का बेटा बिगड़ गया। गलत संग–साथ में पड़ गया। बाप नाराज़ हो गया। बाप ने सिर्फ़ धमकी के लिए कहा कि, “तुझे निकाल बाहर कर दूँगा... या तो अपने को ठीक कर ले या मेरा महल छोड़ दे।” सोचा नहीं था बाप ने कि लड़का महल छोड़ देगा। छोटा ही लड़का था। लेकिन लड़के ने महल छोड़ दिया। बाप का ही तो बेटा था, सम्राट का बेटा था, ज़िद्दी था। फिर तो बाप ने बहुत खोजा, उसका कुछ पता न चले। वर्षों बीत गए। बाप बूढ़ा... रोते–रोते उसकी आँखें धुँधिया गईं। एक ही बेटा था। उसका ही ये सारा साम्राज्य था। पछताता था बहुत कि मैंने किस दुर्दिन में, किस दुर्भाग्य के क्षण में ये वचन बोल दिया कि तुझे निकाल बाहर कर दूँगा!
ऐसे कोई बीस साल बीत गए और एक दिन उसने देखा कि महल के सामने एक भिखारी खड़ा है। और बाप एकदम पहचान गया। उसकी आँखों में जैसे फिर से ज्योति आ गई। ये तो उसका ही बेटा है। लेकिन बीस साल! बेटा तो बिलकुल भूल चुका कि वो सम्राट का बेटा है। बीस साल का भिखमंगापन किसको न भुला देगा! बीस साल द्वार–द्वार, गाँव-गाँव, रोटी के टुकड़े माँगता फिरा।
बीस साल का भिखमंगापन पर्त-पर्त जमता गया, भूल ही गई ये बात कि कभी मैं सम्राट था। किसको याद रहेगी! भुलानी भी पड़ती है, नहीं तो भिखमंगापन बड़ा कठिन हो जाएगा, भारी हो जाएगा। सम्राट होके भीख माँगना बहुत कठिन हो जाएगा। जगह–जगह दुतकारे जाना; कुत्ते की तरह लोग व्यवहार करें; द्वार-द्वार कहा जाए, आगे हट जाओ... भीतर का सम्राट होगा तो वो तलवार निकाल लेगा। तो भीतर के सम्राट को तो धुँधला करना ही पड़ा था, उसे भूल ही जाना पड़ा था। यही उचित था, यही व्यवहारिक था कि ये बात भूल जाओ।
और कैसे याद रखोगे? जब चौबीस घण्टे याद एक ही बात की दिलवाई जा रही हो चारों तरफ़ से कि भिखमंगे हो, लफंगे हो, आवारा हो, चोर हो, बेईमान हो... कोई द्वार पर टिकने नहीं देता, कोई वृक्ष के नीचे बैठने नहीं देता, कोई ठहरने नहीं देता... लो रोटी, आगे बढ़ जाओ... मुश्किल से रोटी मिलती है। टूटा-फूटा पात्र! फटे–पुराने वस्त्र! नये वस्त्र भी बीस वर्षो में नहीं ख़रीद पाया। दुर्गन्ध से भरा हुआ शरीर। भूल ही गए वे दिन... सुगन्ध के, महल के, शान के, सुविधा के, गौरव-गरिमा के। वे सब भूल गए। बीस साल की धूल इतनी जम गई दर्पण पर कि अब दर्पण में कोई प्रतिबिंब नहीं बने।
तो बेटे को तो कुछ पता नहीं, वो तो ऐसे ही भीख माँगता हुआ इस गाँव में भी आ गया है, जैसे और गावों में गया था। ये भी और गाँवों जैसा गाँव है। लेकिन बाप ने देखा खिड़की से ये तो उसका बेटा है। नाक-नक़्श सब पहचान में आता है। धूल कितनी ही जम गई हो, बाप की आँखों को धोखा नहीं दिया जा सका। बेटा भूल जाए, बाप नहीं भूल पाता है। मूल स्रोत नहीं भूल पाता है। उदगम नहीं भूल पाता है। उसने अपने वज़ीर को बुलाया कि, “क्या करूँ?” वज़ीर ने कहा, “ज़रा सम्हल के काम करना। अगर एकदम से कहा तो ये बात इतनी बड़ी हो जाएगी कि इसे भरोसा नहीं आएगा। ये बिलकुल भूल गया है, नहीं तो इस द्वार पे आता ही नहीं। इसे याद नहीं है। ये भीख माँगने खड़ा है। थोड़े सोच-समझ के क़दम उठाना। अगर एकदम से कहा कि तू मेरा बेटा है, तो ये भरोसा नहीं करेगा, ये तुम पर संदेह करेगा। थोड़े धीरे–धीरे क़दम, क्रमश:।
तो बाप ने पूछा, “क्या किया जाए?” उसने कहा, “ऐसा करो कि उसे बुलाओ।” उसे बुलाने की कोशिश की तो वो भागने लगा। उसे महल के भीतर बुलाया तो वो महल के बाहर भागने लगा। नौकर उसके पीछे दौड़ाए तो उसने कहा कि, “ना भाई, मुझे भीतर नहीं जाना। मैं ग़रीब आदमी, मुझे छोड़ो। मैं ग़लती हो गई कि महल में आ गया, राजा के दरबार में आ गया। मैं तो भीख माँगता हूँ। मुझे भीतर जाने की कोई ज़रूरत नहीं।”
वो तो बहुत डरा, सज़ा मिले कि कारागृह में डाल दिया जाए कि पता नहीं क्या अड़चन आ जाए! लेकिन नौकरों ने समझाया कि, “मालिक तुम्हें नौकरी देना चाहता है, उसे दया आ गई है।” तो वो आया। लेकिन वो महल के भीतर क़दम न रखता था। वो महल के बाहर ही झाड़ू-बुहारी लगाने का उसे काम दे दिया गया। फिर धीरे- धीरे जब वो झाड़ू-बुहारी लगाने लगा और महल से थोड़ा परिचित होने लगा, और थोड़ी पदोन्नति की गई, फिर और थोड़ी पदोन्नति की गई। फिर वो महल के भीतर भी आने लगा। फिर उसके कपड़े भी बदलवाए गए। फिर उसको नहलवाया भी गया। और वो धीरे –धीरे राज़ी होने लगा। ऐसे बढ़ते–बढ़ते वर्षों में उसे वज़ीर के पद पर लाया गया। और जब वो वज़ीर के पद पर आ गया तब सम्राट ने एक दिन बुलाके उसने कहा कि, “तू मेरा बेटा है।”
तब वो राज़ी हो गया। तब उसे भरोसा आ गया। इतनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ी। ये बात पहले दिन ही कही जा सकती थी।
तुमसे मैं कहता हूँ, तुम परमात्मा हो। तुम्हें भरोसा नहीं आता। तुम कहते हो कि सिद्धान्त की बात होगी... मगर मैं और परमात्मा! मैं तुमसे रोज़ कहता हूँ, तुम्हें भरोसा नहीं आता। इसलिए तुमसे कहता हूँ... ध्यान करो, भक्ति करो। चलो झाड़ा-बुहारी से शुरू करो। ऐसे तो अभी हो सकती है बात, मगर तुम राज़ी नहीं। ऐसे तो एक क्षण खोने की ज़रूरत नहीं है, ऐसे तो क्रमिक विकास की कोई आवश्कता नहीं है। एक छलांग में हो सकती है। मगर तुम्हें भरोसा नहीं आता, तो मैं कहता हूँ चलो झाड़ू-बुहारी लगाओ। फिर धीरे–धीरे पदोन्नति होगी। फिर धीरे–धीरे, धीरे–धीरे बढ़ना। फिर एक दिन जब आख़िरी घड़ी आ जाएगी, वज़ीर की जगह आ जाओगे, जब समाधि की थोड़ी सी झलक पास आने लगेगी, ध्यान की स्फुरणा होने लगेगी, तब यही बात एक क्षण में तुम स्वीकार कर लोगे। तब इस बात में श्रद्धा आ जाएगी।
- ओशो (अजहुँ चेत गँवार)
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