Friday, 20 January 2023

भगवान से भूल कर भी कभी कुछ मांगों मत ---

 सभी को धन्यवाद !! मेरी हरेक साँस के साथ, और बिना साँस के भी समष्टि का निरंतर कल्याण हो रहा है। अपनी चेतना को हर समय भ्रूमध्य पर रखो। चेतना को वहीं पर रखते हुए संसार में अपने सारे कर्तव्यों का निर्वहन होने दो। हमारा सारा काम भगवान स्वयं कर रहे हैं, हम तो उनके एक उपकरण यानि निमित्त मात्र हैं। भगवान एक प्रवाह हैं, जिन्हें अपने माध्यम से प्रवाहित होने दो। कर्ताभाव सबसे बड़ी बाधा है। सारी आध्यात्मिक साधना भी भगवान स्वयं ही कर रहे हैं, हम नहीं।

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भगवान से भूल कर भी कभी कुछ मांगों मत। मांगने के स्थान पर अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हें समर्पित कर दो। जो कुछ भी भगवान का है, वह हम स्वयं हैं। इस सृष्टि की अनंतता में जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है, और जहाँ तक भी हमारी कल्पना जाती है, वह सब हम स्वयं हैं, यह नश्वर शरीर महाराज नहीं। यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यह शरीर महाराज तो एक मोटर-साइकिल है जो भगवान ने हमें इस लोकयात्रा के लिए दी है। हमारी पहिचान इस मोटर-साइकिल से है, लेकिन हम यह मोटर साइकिल नहीं है। इस मोटर-साइकिल यानि इस शरीर महाराज की देखरेख भी आवश्यक है। इसके बिना इस लोकयात्रा को हम पूर्ण नहीं कर सकेंगे।
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अंततः हमें धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना पड़ेगा। निरंतर परमात्मा में रमण ही धर्म है, निरंतर परमात्मा में रमण ही सदाचार है। इस संसार की नीरवता में प्रणव की एक ध्वनी गूंज रही है, उसे सुनते रहो, उसमें अपना विलय कर दो, उस के साथ एक हो जाओ। विष्णु-सहस्त्रनाम के अनुसार यह विश्व वे ही हैं। जो वे हैं, उनके साथ वही हम है --
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥"
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०२३

रामनाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहिरऊ, जो चाहसि उजियार॥

 रामनाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहिरऊ, जो चाहसि उजियार॥

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जो लोग संत गोस्वामी तुलसीदास जी की निंदा कर रहे हैं, वे आसमान की ओर मुँह कर के स्वयं पर ही थूक रहे हैं। उन्हें पता नहीं है कि सत्य-सनातन-धर्म की रक्षा हेतु संत तुलसीदास जी का कितना बड़ा योगदान था। उनका ग्रंथ "रामचरितमानस" आध्यात्मिक जगत में सूर्य के समान देदीप्यमान है। पश्चिम के लोगों ने भी माना है कि ईसाई जगत में उनकी बाइबल कभी भी उतनी लोकप्रिय नहीं थी, जितना लोकप्रिय भारत में रामचरितमानस का पठन था। हिन्दी भाषा में यह ग्रंथ "भक्ति" का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ, और लोकवेद है।
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वर्षों पहिले की बात है, मैं एक बार मॉरिशस गया था। वहाँ के लोगों को भोजपुरी बोलते देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। लगभग सभी लोग हिन्दू धर्मावलम्बी थे। एक गाँव में अनेक लोग मेरे से मिलने आये। उन्होंने मुझे अपने पूर्वजों के बारे में बताया कि कैसे अँगरेज़ लोग धोखे से गिरमिटिया मजदूर बना कर उन्हें भारत के पूर्वाञ्चल से यहाँ ले आये और बापस जाने के सब मार्ग बंद कर दिए।
उनकी सबसे बड़ी संपत्ति और एकमात्र आश्रय राम का नाम और रामचरितमानस ग्रंथ था। सिर्फ राम नाम के भरोसे उन्होंने हाड़-तोड़ मेहनत की, और उस पथरीली धरा को कृषियोग्य और स्वर्ग बना दिया। राम का नाम और रामचरितमानस का पाठ ही उनका मनोरंजन था। इसी के सहारे वे स्वयं के अस्तित्व की रक्षा कर सके।
यही हाल फिजी और वेस्ट इंडीज़ में गए भारतीयों का हुआ। राम का नाम और रामचरितमानस -- प्रवासी भारतीयों का सबसे बड़ा सहारा था, और अभी भी है।
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संत तुलसीदास जी के समय भारत पर क्रूरतम आक्रमण और मर्मांतक प्रहार हो रहे थे। उस काल में उन्होंने रामचरितमानस व अन्य ग्रंथों की रचना की। अन्य भी अनेक भक्त उस काल में हुए। पूरा भक्ति-आंदोलन ही विदेशी आक्रमणों की प्रतिक्रिया में था। रामचरितमानस से लोगों में यह आस्था दृढ़ हुई कि हमारी रक्षा भगवान श्रीराम और श्रीहनुमानजी करेंगे। सत्यनिष्ठ श्रद्धालुओं की रक्षा हुई भी है।
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तुलसीदास जी व उनकी रचनाओं की निन्दा करने वाले दुष्ट प्रकृति के लोग हैं। उनका हर कदम पर प्रतिकार करना चाहिए।
जय सियाराम !!
कृपा शंकर
१७ जनवरी २०२३

ये कयामत का दिन कैसा होगा?

 ये कयामत का दिन कैसा होगा?

बड़ा कोलाहल और बड़ी भयंकर भीड़ होगी। जितने भी लोग पिछले हजारों वर्षों में मरे हैं, सब जीवित होकर पंक्तिबद्ध हो जाएंगे। सबसे हिसाब मांगा जाएगा। अपना तो क्रम आते आते ही सैंकड़ों वर्ष बीत जाएँगे। तब तक कुछ याद भी नहीं रहेगा। अभी भी याद नहीं है कि परसों प्रातः अल्पाहार में क्या खाया था। जन्नत का ख्वाब देखते देखते, जाना तो जहन्नुम में ही पड़ेगा, यह पता नहीं कब?
इसलिए स्वप्न देखना बंद करो, जन्नत और जहन्नुम की फालतू बातों को छोड़कर वर्तमान में जीओ। वर्तमान क्षण ही सब कुछ है। न तो कोई भूत है और न कोई भविष्य। वर्तमान क्षण ही आनंद और प्रेम है। हर वर्तमान क्षण में ही परमात्मा है। भविष्य अपनी चिंता स्वयं करेगा। इसलिए हर वर्तमान क्षण में ही परमात्मा की चेतना में रहो। एक दिन पायेंगे कि हम स्वयं परमात्मा के साथ एक हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१८ जनवरी २०२३
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कयामत पर मीर तकी मीर का एक बहुत प्रसिद्ध शेर है --
"हम सोते ही न रह जायें ऐ शोर-ए-क़यामत
इस राह से निकलो तो हम को भी जगा देना"
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एक और शेर है मोहम्मद रफी सौदा का लिखा हुआ --
"'सौदा' की जो बालीं पे गया शोर-ए-क़यामत
ख़ुद्दाम-ए-अदब बोले अभी आँख लगी है "

भगवान एक कल्पवृक्ष हैं, जिसके नीचे हम जैसा भी सोचते हैं, वैसा ही हो जाता है ---

 भगवान एक कल्पवृक्ष हैं, जिसके नीचे हम जैसा भी सोचते हैं, वैसा ही हो जाता है

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चिंताओं की सोचेंगे तो चिंताएँ आ जायेंगी, अभाव की सोचेंगे तो अभाव आ जाएगा, प्रचूरता की सोचेंगे तो प्रचूरता मिलेगी, दरिद्रता की सोचेंगे तो दरिद्रता मिलेगी, संपन्नता की सोचेंगे तो संपन्नता मिलेगी, दुःख की सोचेंगे तो दुःख ही दुःख मिलेगा, और सुख की सोचेंगे तो सुख ही सुख मिलेगा।
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सुखी और दुःखी कौन है? ---
श्रुति भगवती कहती है - "ॐ खं ब्रह्म इति॥" "ख" शब्द का अर्थ परमात्मा भी होता है और आकाश भी होता है। परमात्मा का ध्यान हम आकाश-तत्व से ही आरंभ करते हैं। जो परमात्मा से समीप है, वह सुखी ही सुखी है, और जो परमात्मा से दूर है, वह दुःखी ही दुःखी है। निरंतर आकाश-तत्व में परमात्मा का अनुसंधान करते रहो, कोई दुःख नहीं होगा।
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हमारी समस्या क्या है? --
हमारी प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या -- परमात्मा की प्राप्ति है। इससे भिन्न कोई अन्य समस्या हमारी नहीं है। अन्य सब समस्याएँ परमात्मा की हैं। अपनी सब समस्याएँ परमात्मा को बापस कर दो। अपनी चेतना कूटस्थ में रखो और निरंतर परमात्मा का ध्यान करो। ध्यान से मेरा अभिप्राय है -- निजात्मा में रमण। कोई समस्या नहीं रहेगी।
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और कोई बात नहीं है। मेरे से फोन पर अधिक बात करने का प्रयास मत करो। अधिक बात करने से मुझे पीड़ा होती है। ७६ वर्ष की आयु का यह शरीर महाराज एक धोखेबाज मित्र है। इसने आजकल धोखा देना आरंभ कर दिया है।
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लोग पूछते हैं कि भगवान कहाँ हैं? उनसे मैं पूछता हूँ कि भगवान कहाँ नहीं है?
भगवान हैं, अभी इसी समय यहीं पर, हर समय और सर्वत्र हैं। फर्क इतना ही है कि मैं उन्हें इसी समय अनुभूत कर रहा हूँ, हो सकता है आप भी कर रहे हों।
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आप सब को नमन !! ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जनवरी २०२३

बिना सत्यनिष्ठा और वैदिक धर्माचरण के

 बिना सत्यनिष्ठा और वैदिक धर्माचरण के कितने भी साधन कर लो, ब्रह्म लाभ (आत्म-साक्षात्कार) किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकता। अपने आराध्य देव का हर समय सर्वत्र सब में दर्शन करें। कहीं कुछ भी कमी हो तो उसे दूर करने के लिए अपने आराध्य देव से प्रार्थना करें। प्रार्थना में बड़ी शक्ति होती है। हमारा एकमात्र लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है, और कुछ भी नहीं। जो भी इसमें बाधक है उसका तत्क्षण त्याग कर दो।

ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१८ जनवरी २०२३

धन्य हैं वे ब्रह्मस्वरूप भजनानन्दी ---

 धन्य हैं वे ब्रह्मस्वरूप भजनानन्दी, जो भगवान का अनन्य भाव से दिन-रात निरंतर भजन करते हैं। मैं उन्हें कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ। वे धन्य हैं। वे धन्य हैं। वे धन्य हैं।

वे मुझे भी अपना बना लें।
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सारी साधनाएँ - एक बहाना मात्र हैं, वैसे ही जैसे किसी बच्चे के हाथ में कोई खिलौना पकड़ा देते हैं। शरणागति भी एक खिलौना है। भगवान की कृपा ही मेरा कल्याण कर सकती है।
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हे प्रभु, मैं अपने अच्युत स्वरूप को भूल कर च्युत हो चुका हूँ और मरे हुये के समान हूँ। मुझ अकिंचन पर कृपा कर के अपना पूर्ण प्रेम दो, श्रद्धा और विश्वास दो; अपने साथ एक करो। मेरी कमियों को दूर करो, मेरा कल्याण आपकी कृपा पर ही निर्भर है; न कि किसी साधना पर।
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भगवान गीता में कहते हैं --
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् - हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
(अनन्यचित्त अर्थात् नित्य-समाधिस्थ जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा का स्मरण करता है। सततम् का अर्थ है निरंतरता। नित्यशः का अर्थ है नित्य जीवन पर्यंत। ऐसे व्यक्ति को भगवान की प्राप्ति अनायास ही हो जाती है)
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मेरे पास अब कोई शब्द नहीं हैं। भगवान तो हृदय में बैठे हैं, और सब कुछ जानते हैं। मेरा कल्याण करो। मुझे अपना बना लो।
ॐ तत्सत् !!
१८ जनवरी २०२३

वर्तमान हठयोग -- नाथ संप्रदाय की देन है ---

 वर्तमान हठयोग -- नाथ संप्रदाय की देन है। महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में कहीं भी हठयोग नहीं सिखाया है। आक्रामक रूप से इसे पतंजलि के नाम से प्रचारित करना असत्य और दुराग्रह है। पतंजलि के योगसूत्रों का सर्वश्रेष्ठ भाष्य - "व्यास भाष्य" है।

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हठयोग के सिर्फ तीन ही प्रामाणिक ग्रंथ हैं ---
(१) "शिव संहिता" -- नाथ संप्रदाय के आचार्यों के अनुसार इसके लेखक योगी मत्स्येन्द्रनाथ हैं, जो गुरु गोरखनाथ के गुरु थे।
(२) "हठयोग प्रदीपिका" -- इसके रचयिता गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम थे। हठयोग के ग्रन्थों में यह सर्वाधिक प्रभावशाली ग्रन्थ है।
(३) "घेरण्ड संहिता" -- इसके लेखक घेरण्ड मुनि हैं। उनके कालखंड के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन इनकी भाषा से लगता है कि या तो नाथ संप्रदाय इनसे प्रभावित है, या ये स्वयं ही नाथ संप्रदाय के थे। "कश्मीर शैव दर्शन" पर भी इनका प्रभाव लगता है। "घेरण्ड संहिता" -- हठयोगविद्या का सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रंथ है। घेरण्ड संहिता में सबसे पहले महर्षि घेरण्ड व चण्डकपालि राजा के बीच में संवाद है। राजा चण्डकपालि को महर्षि घेरण्ड योगविद्या का ज्ञान देते हैं।
अंग्रेज और मार्क्सवादी इतिहासकार दुर्भावनावश इनका कालखंड १७ वीं शताब्दी बताते हैं, जो गलत है।
इनके अनेक भाष्य हैं। "बिहार स्कूल ऑफ योग" मुंगेर (बिहार) के अध्यक्ष परमहंस स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती का भी लिखा हुआ साहित्य इस विषय पर उपलब्ध है।
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योग क्या है? --- कुंडलिनी महाशक्ति को जागृत कर परमशिव से उसका मिलन ही योग है। योगियों की यह अवधारणा ही मेरी अवधारणा है। यह एक गुरुमुखी ब्रह्मविद्या है जो किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध योगी आचार्य द्वारा अपने शिष्य को अपने सामने बैठाकर ही सिखलाई जा सकती है।
योग विद्या और सारी साधनाओं का मूल स्त्रोत कृष्ण यजुर्वेद है। श्वेताश्वतरोपनिषद का स्वाध्याय एक बार कर लेना चाहिए।
पुस्तकों और लेखों को पढ़कर यह समझ में नहीं आ सकती। फ़ेसबुक पर ब्रह्मज्ञान नहीं मिल सकता। इसके लिए किसी सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की शरण लेनी होगी।
ॐ तत्सत्
१९ जनवरी २०२३

परमात्मा की अनंतता में परमात्मा से एकाकार होकर ही हम समष्टि की वास्तविक सेवा कर सकते हैं ---

 परमात्मा की अनंतता में परमात्मा से एकाकार होकर ही हम समष्टि की वास्तविक सेवा कर सकते हैं ---

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हरिःकृपा से बीते हुये कल को बहुत लंबे समय के पश्चात मुझे एक ऐसे महात्मा का सत्संग लाभ हुआ जिनके पास बैठने मात्र से ही भगवान की भक्ति जागृत/चैतन्य हो जाती है, अन्य कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हरिःकृपा से ही ऐसे संतों से मिलना होता है। ऐसे संतों से ही यह पृथ्वी सनाथ है। जहाँ भी उनके चरण पड़ते हैं, वह भूमि धन्य हो जाती है। जिन पर उनकी दृष्टि पड़ जाती है, वे भी धन्य हो जाते हैं। उनके सत्संग से मैं भी धन्य हुआ।
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इस समय मैं निजानुभूतियों के आधार पर ही यह लेख लिख रहा हूँ जो प्रचलित मान्यताओं के अनुसार नहीं है, अतः मेरी बात को ठीक से वे ही समझ पायेंगे जिन्हें अपनी उपासना में परमात्मा की अनंतता की अनुभूतियाँ होती हैं। अन्य जिज्ञासु मुझे क्षमा करें।
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हमारा केंद्रबिन्दु तो परमात्मा ही है जो अक्षय और अनंत है। परमात्मा को समझने के लिए हमें अपनी चेतना में स्वयं को भी अक्षय और अनंत बनना होगा। परमात्मा को हम अपनी अक्षय अनंतता में ही समझ सकते हैं, सीमितता में नहीं।
"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।" यह श्रुतिवाक्य है। “The Real, the Conscious, the Infinite is Brahman.
वे सब महान आत्माएँ धन्य हैं जो वेदों में निहित गूढ़ परम व्योम में परमात्मा को अनुभूत करती हैं। "यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्।"
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समग्रता के नाम पर हम स्वयं को किसी भी तरह की सीमितता में नहीं बांध सकते। स्वयं में अपने ब्रह्मत्व/शिवत्व को प्रकट करने तक हमारा पुनर्जन्म होता रहेगा।
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चारों ओर हो रही नकारात्मक घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में आसुरी/राक्षसी/पैशाचिक शक्तियाँ हैं, जिनसे हम अपने बल पर नहीं लड़ सकते। सिर्फ ईश्वर ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिये हमें स्वयं में देवत्व को प्रकट करना ही होगा, अन्यथा विनाश निश्चित है। यह संसार हमारे विचारों से ही निर्मित है। जैसे हमारे विचार होते हैं, वैसा ही संसार हमारे लिए सृजित हो जाता है। हमारी कामनायें ही इस सृष्टि को सृजित कर रही हैं।
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हमारे जीवन में किसी भी तरह का कोई झूठ-पाखंड नहीं होना चाहिए। भगवान कहते हैं -- "मोहि कपट छल छिद्र न भावा।"
सब कुछ हमारे पास हो, लेकिन यह भी पता हो कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है, और सब कुछ परमात्मा का है। हम यहाँ एक ट्रस्टी की तरह है। श्रुति भगवती कहती है
"ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥"
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हम अपनी चेतना का विस्तार कर के परमात्मा की अनंतता व उससे भी परे का ध्यान अपने कूटस्थ सूर्यमंडल में करेंगे तो कोई क्षुद्रता नहीं रहेगी। कूटस्थ ही परमात्मा का द्वार है, जो हमें परमात्मा का बोध कराता है। हमारी भौतिक आँखेंं परमात्मा को नहीं देख सकतीं। श्रुति भगवती कहती है --
"हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥"
उन परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है, यानि परमब्रह्म परमात्मा सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उन की अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हम उन्हें नहीं देख पाते। जो परमात्मा वहाँ स्थित हैं, वे ही मेरे भीतर भी विद्यमान है। मैं ध्यान में उन्हें देख पाता हूँ।
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कूटस्थ का बोध गुरुरूप ब्रह्म की कृपा से होता है, और उनकी आज्ञा से ही हम कूटस्थ में ध्यान करते हैं। परमात्मा की कृपा ही हमें पाप कर्मों से बचा सकती हैं। यही सर्वश्रेष्ठ साधना है। जो कुछ भी परमात्मा का है, उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। अमृतस्य पुत्रा वयं। हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, हमारे में अमृतत्व भरा हुआ है। श्रुति भगवती भी कहती है -- "शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा।"
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ज्ञान से भी परे की निश्चित रूप से एक अवस्था है, जो हमें प्राप्त हो। हमारा एक सच्चिदानंदमय परमशिव रूप है जो हमें प्राप्त हो। हम शिव है, हम ब्रह्म हैं, यह नश्वर देह नहीं।
"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"
ॐ तत्सत् ! शिवोहम् शिवोहम् ॥ अहं ब्रह्मास्मि ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० जनवरी २०२३