परमात्मा की अनंतता में परमात्मा से एकाकार होकर ही हम समष्टि की वास्तविक सेवा कर सकते हैं ---
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हरिःकृपा से बीते हुये कल को बहुत लंबे समय के पश्चात मुझे एक ऐसे महात्मा का सत्संग लाभ हुआ जिनके पास बैठने मात्र से ही भगवान की भक्ति जागृत/चैतन्य हो जाती है, अन्य कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हरिःकृपा से ही ऐसे संतों से मिलना होता है। ऐसे संतों से ही यह पृथ्वी सनाथ है। जहाँ भी उनके चरण पड़ते हैं, वह भूमि धन्य हो जाती है। जिन पर उनकी दृष्टि पड़ जाती है, वे भी धन्य हो जाते हैं। उनके सत्संग से मैं भी धन्य हुआ।
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इस समय मैं निजानुभूतियों के आधार पर ही यह लेख लिख रहा हूँ जो प्रचलित मान्यताओं के अनुसार नहीं है, अतः मेरी बात को ठीक से वे ही समझ पायेंगे जिन्हें अपनी उपासना में परमात्मा की अनंतता की अनुभूतियाँ होती हैं। अन्य जिज्ञासु मुझे क्षमा करें।
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हमारा केंद्रबिन्दु तो परमात्मा ही है जो अक्षय और अनंत है। परमात्मा को समझने के लिए हमें अपनी चेतना में स्वयं को भी अक्षय और अनंत बनना होगा। परमात्मा को हम अपनी अक्षय अनंतता में ही समझ सकते हैं, सीमितता में नहीं।
"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।" यह श्रुतिवाक्य है। “The Real, the Conscious, the Infinite is Brahman.
वे सब महान आत्माएँ धन्य हैं जो वेदों में निहित गूढ़ परम व्योम में परमात्मा को अनुभूत करती हैं। "यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्।"
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समग्रता के नाम पर हम स्वयं को किसी भी तरह की सीमितता में नहीं बांध सकते। स्वयं में अपने ब्रह्मत्व/शिवत्व को प्रकट करने तक हमारा पुनर्जन्म होता रहेगा।
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चारों ओर हो रही नकारात्मक घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में आसुरी/राक्षसी/पैशाचिक शक्तियाँ हैं, जिनसे हम अपने बल पर नहीं लड़ सकते। सिर्फ ईश्वर ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिये हमें स्वयं में देवत्व को प्रकट करना ही होगा, अन्यथा विनाश निश्चित है। यह संसार हमारे विचारों से ही निर्मित है। जैसे हमारे विचार होते हैं, वैसा ही संसार हमारे लिए सृजित हो जाता है। हमारी कामनायें ही इस सृष्टि को सृजित कर रही हैं।
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हमारे जीवन में किसी भी तरह का कोई झूठ-पाखंड नहीं होना चाहिए। भगवान कहते हैं -- "मोहि कपट छल छिद्र न भावा।"
सब कुछ हमारे पास हो, लेकिन यह भी पता हो कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है, और सब कुछ परमात्मा का है। हम यहाँ एक ट्रस्टी की तरह है। श्रुति भगवती कहती है
"ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥"
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हम अपनी चेतना का विस्तार कर के परमात्मा की अनंतता व उससे भी परे का ध्यान अपने कूटस्थ सूर्यमंडल में करेंगे तो कोई क्षुद्रता नहीं रहेगी। कूटस्थ ही परमात्मा का द्वार है, जो हमें परमात्मा का बोध कराता है। हमारी भौतिक आँखेंं परमात्मा को नहीं देख सकतीं। श्रुति भगवती कहती है --
"हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥"
उन परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है, यानि परमब्रह्म परमात्मा सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उन की अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हम उन्हें नहीं देख पाते। जो परमात्मा वहाँ स्थित हैं, वे ही मेरे भीतर भी विद्यमान है। मैं ध्यान में उन्हें देख पाता हूँ।
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कूटस्थ का बोध गुरुरूप ब्रह्म की कृपा से होता है, और उनकी आज्ञा से ही हम कूटस्थ में ध्यान करते हैं। परमात्मा की कृपा ही हमें पाप कर्मों से बचा सकती हैं। यही सर्वश्रेष्ठ साधना है। जो कुछ भी परमात्मा का है, उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। अमृतस्य पुत्रा वयं। हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, हमारे में अमृतत्व भरा हुआ है। श्रुति भगवती भी कहती है -- "शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा।"
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ज्ञान से भी परे की निश्चित रूप से एक अवस्था है, जो हमें प्राप्त हो। हमारा एक सच्चिदानंदमय परमशिव रूप है जो हमें प्राप्त हो। हम शिव है, हम ब्रह्म हैं, यह नश्वर देह नहीं।
"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"
ॐ तत्सत् ! शिवोहम् शिवोहम् ॥ अहं ब्रह्मास्मि ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० जनवरी २०२३
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