श्रद्धेय स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के आज के अति दिव्य सत्संग से संकलित .....
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संसार की समस्त विभूतियाँ एक मात्र मन को जीतने से ही प्राप्त होती हैं|
चित्त जिसकी भावना में तन्मय होता है, उसे निःसंदेह प्राप्त कर लेता है
अर्थात् चंचल हुआ मन जिस-जिस वस्तु की भावना करता है तथा जिस-जिस वासना से
युक्त होकर भाव को अपनाता है, उसी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है| मन
जिस-जिस भाव को अपनाता है, उसी-उसी को वस्तु रूप में पाता है।
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जिसके चित्त की वृत्तियाँ ब्रह्म में लीन होती जा रही है, जो ज्ञान प्राप्त
करके संकल्पों का त्याग कर रहा है, जिसका मन ब्रह्म स्वरूप में परिणित हो
गया है, जो नाशवान जड़ दृश्य का त्याग कर रहा है तथा ब्रह्म का ध्यान कर रहा
है, दृश्य जगत् का अनुभव नहीं करता है, वह परम् तत्त्व में जाग रहा है। मन
और अहङ्कार इन दोनों में से किसी एक का विनाश हो जाने पर मन और अहङ्कार
दोनों का विनाश हो जाता है। इसलिए इच्छाओं का परित्याग करके अपने वैराग्य
और आत्मा-अनात्मा के विवेक से केवल मन का विनाश कर देना चाहिए। जैसे वायु
के शान्त होने से समुद्र शान्त हो जाता है, वैसे ही प्रसन्न , गम्भीरता से
युक्त, क्षोभ शून्य तथा राग-द्वेष आदि दोषों से रहित, वश में किया हुआ मन
सम हो जाता है।
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मन ही कर्म रूप वृक्ष का अंकुर है। मन के नष्ट हो
जाने पर संसार रूपी वृक्ष भी नष्ट हो जाता है तथा सम्पूर्ण दुःखों का अन्त
हो जाता है। निर्मल सत्त्व-स्वरूप मन जिस पदार्थ के विषय में जैसी भावना
करता है, वह वस्तु वैसी ही हो जाती है। संसार के सभी पदार्थ संकल्प रूप ही
हैं, इसलिए विवेकी पुरुष उनकी कभी कामना नहीं करता है।
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ईश्वर
प्राप्ति में मन की भूमिका मूख्य रूप से होती है। मन ही इसकी प्राप्ति में
बाधक है। इसका जिसमें अनुराग हो जाता है , वही भाव ग्रहण कर लेता है।
संसारी मनुष्यों का मन बर्हिमुखी होकर इन्द्रियों के विषयों में आसक्त बना
रहता है। अज्ञान के कारण उन्हीं को सुख प्राप्ति का साधन समझ रहा होता है,
जबकि ये विषय भोग वास्तव में परिणाम में दुःखदायी ही हैं। पदार्थों को
भोगने के लिए हिंसा, असत्य तथा शास्त्र विरूद्ध कार्य करने की चेष्टा की
जाती है, जिससे मन मलिन हो जाता है। इसके लिए ज्ञान के अतिरिक्त वैराग्य और
अभ्यास की भी आवश्यकता है ।
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इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना ,
छोटी - छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ
जाना पतन का कारण होता है। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की
इच्छा ही हमें छोटा बना देती है। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है,
मनुष्य उतना ही अन्दर से छोटा होता जाता है। जितना इच्छाओं का त्याग करता
है उतना ही वह महान् होता जाता है।
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अन्तःकरण में जितनी अधिक
वासनाएँ होगी , उतना ही वह अन्दर से कमजोर होगा। जो मनुष्य अन्दर से कमजोर
होगा वह अवश्य ही बाहर से भी कमजोर होगा। चित्त से इच्छाओं की जितनी
निवृत्ति होती जाएगी उतना ही वह महान् बनता जाएगा।
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नारायण !
इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं । एक - शुद्ध इच्छा और दूसरी - मलिन इच्छा।
मलिन इच्छा जन्म का कारण है। इसके द्वारा जीव जन्म-मृत्यु के चक्कर में
पड़ता है, अज्ञान ही घनीभूत आकृति है। जो इच्छा शुद्ध होती है वह भुने हुए
बीज के समान पुनर्जन्म रूपी अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति को त्याग कर
केवल शरीर धारण मात्र के लिए स्थित रहती है, वह अज्ञान और अहङ्कार से रहित
होती है। जो महापुरुष शुद्ध इच्छाओं से युक्त हैं, वे जन्म रूप अऩर्थ में
नहीं पड़ते हैं। ऐसे परम् बुद्धिमान् पुरुष परमात्मा के तत्त्व को जानने
वाले जीवन्मुक्त कहलाते हैं।
संसार का संकल्प ही सबसे बड़ा बन्धन है तथा संकल्प का अभाव ही मोक्ष है।
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श्रद्धेय स्वामी जी को दण्डवत् प्रणाम ! ॐ नमो नारायण !
९ मई २०१८