Wednesday 9 May 2018

इस विमान का चालक कौन है ? .....



इस विमान का चालक कौन है ? (Who is the pilot of this aircraft?) .....
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यह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ विमान है| इससे श्रेष्ठ अन्य किसी रचना का मुझे ज्ञान नहीं है| इसके तीन आवरण हैं --- स्थूल, सूक्ष्म और कारण; पंच कोष हैं -- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय| मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार सब इसी से जुड़े हुए हैं|
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हर मनुष्य की आत्मा का इसी में निवास है| इसी विमान में क्षमता है कि वह आत्मा को परमात्मा से मिला सकता है, जीव को परमशिव बना सकता है|
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मनुष्य जब स्वयं को यह विमान समझ लेता है तब माया के आवरण में घिर जाता है और दुःख, कष्ट और व्याधियों से व्याकुल हो उठता है| पर जब वह इस विमान के असली चालक को समझ कर उसको समर्पित हो जाता है तब उसकी मुक्ति का मार्ग खुल जाता है|

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विमान का एक अर्थ है ---- विगत मान ---- जिससे मान-अभिमान निकल चुका हो ---- "सबहिं मानप्रद आपु अमानी" --- मानस़ |
अमानी मानदो मान्य --- विष्णुसहस्रनाम |
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विमान तो भगवान ही हैं और चालक भी वे ही हैं| यह विमान मनुष्य देह रूपी है| He is the pilot of this aircraft, and He is the aircraft Himself.
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१५

सावधानी हटी और दुर्घटना घटी .....

सावधानी हटी और दुर्घटना घटी .....
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प्रिय मित्रो, सदा याद रखो ------ "सावधानी हटी और दुर्घटना घटी" |

काम, क्रोध, मद, मोह और मत्सर्य ---- ये शत्रु आपको अपना उपकरण बनाने को निरंतर तैयार हैं| विश्वामित्र और जड़ भरत जैसे तपस्वी भी नहीं बच पाए तो आप कौन से खेत की मूली हैं ?
भगवान की माया बड़ी प्रचंड है| अतः सदैव सजग रहो|

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कुछ ना कुछ ऐसी घटनाएँ अवश्य होती हैं जिनसे उसे जीवन भर लज्जित होना पड़ सकता है| हर मनुष्य कुछ ना कुछ भूल अवश्य करता है| अतः भूतकाल को भूलकर जब भी याद आये उसी क्षण से अपने आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर हो जाना चाहिए|| भविष्य में होने वाला हर कार्य सर्वश्रेष्ठ होगा यदि हम इसी क्षण से अपने जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा को बना लें|

शुभ कामनाएँ और आप में हृदयस्थ प्रभु को प्रणाम | ॐ शिव ||
१० मई २०१४

हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ? ....

हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ?
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देश, धर्म, समाज, राष्ट्र, मानवता और पूरी सृष्टि की सेवा में विषम से विषम परिस्थितियों में हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ? यह प्रश्न सदा मेरे चैतन्य में रहा है| इसके समाधान हेतु अध्ययन भी खूब किया, अनेक ऐसी संस्थाओं से भी जुडा रहा जो समाज-सेवा का कार्य करती हैं| अनेक धार्मिक संस्थाओं से भी जुड़ा पर कहीं भी संतुष्टि नहीं मिली| कई तरह की साधनाएँ भी कीं, अनेक तथाकथित धार्मिक लोगों से भी मिला पर निराशा ही हाथ लगी| धर्म और राष्ट्र से स्वाभाविक रूप से खूब प्रेम रहा है| धर्म के ह्रास और राष्ट्र के पतन से भी बहुत व्यथा हुई है| सदा यही जानने का प्रयास किया कि जो हो गया सो तो हो गया उसे तों बदल नहीं सकते पर इसी क्षण से क्या किया जा सकता है जो जीवन मे सर्वश्रेष्ठ हो और सबके हित में हो|
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ध्यान-साधना में विस्तार की अनुभूतियों ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि मैं यह शरीर नहीं हूँ| ईश्वर के दिव्य प्रेम, आनंद और उसकी झलक अनेक बार मिली| यह अनुभूति भी होती रहती है कि स्वयं के अस्तित्व की एक उच्चतर प्रकृति तो एक विराट ज्योतिर्मय चैतन्य को पाने के लिए अभीप्सित है पर एक निम्न प्रकृति बापस नीचे कि भौतिक, प्राणिक और मानसिक चेतना की ओर खींच रही है| आत्मा की अभीप्सा तो इतनी तीब्र है वह परमात्मा के बिना नहीं रह सकती पर निम्न प्रकृति उस ओर एक कदम भी नहीं बढ़ने देती|
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यह भी जीवन मे स्पष्ट हो गया कि उस परम तत्व को पाना ही सबसे बड़ी सेवा हो सकती है जो की जा सकती है| गहन ध्यान में मैं यह शरीर नहीं रहता बल्कि मेरी चेतना समस्त अस्तित्व से जुड़ जाती है| यह स्पष्ट अनुभूत होता रहता है कि हर श्वाश के साथ मैं उस चेतना से एकाकार हो रहा हूँ और हर निःश्वाश के साथ वह चेतना अवतरित होकर समस्त सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रही है| उसी स्थिति मे बना रहना चाहता हूँ पर निम्न प्रकृति फिर नीचे खींच लाती है| ईश्वर से प्रार्थनाओं के उत्तर मे जो अनुभूतियाँ मुझे हुई उन्हें व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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सबसे पहिले तों यह स्पष्ट किया गया गया है कि जो भी साधना हम करते हैं वह स्वयं के लिए नहीं बल्कि भगवान के लिए है| उसका उद्देश्य सिर्फ उनकी इच्छा को कार्यान्वित करना है| मोक्ष की कामना सबसे बड़ा बंधन है| उसकी कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तों नित्य मुक्त है| बंधन केवल भ्रम हैं| ईश्वर को पूर्ण समर्पण करणा होगा| सारी कामना, वासना, माँगें, राय और विचार सब उसे समर्पित करने होंगे तभी वह स्वयं सारी जिम्मेदारी ले लेगा| कर्म-फल ही नहीं कर्म भी उसे समर्पित करने होंगे| समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ स्वयं को उसके हाथों मे सौंप देना होगा| कर्ता ही नहीं दृष्टा भी उसे ही बनाना होगा, तभी वह सारी कठिनाइयों और संकटों से पार करेगा| सारे कर्म तो स्वयं उनकी शक्ति ही करती है और उन्हें ही अर्पित करती हैं| किसी भी तरह का सात्विक अहंकार नहीं रखना है| इससे अधिक व्यक्त करने की मेरी क्षमता नहीं है|
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सार की बात जिससे अधिक व्यक्त करना मेरी क्षमता से परे है वह यह कि स्वयं को ईश्वर का एक उपकरण मात्र बनाकर उसके हाथ मे सौंप देना है| फिर वो जो भी करेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सबसे बड़ा कर्तव्य और सबसे बड़ी सेवा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१२

श्रद्धेय स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के आज के अति दिव्य सत्संग से संकलित .....

श्रद्धेय स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के आज के अति दिव्य सत्संग से संकलित .....
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संसार की समस्त विभूतियाँ एक मात्र मन को जीतने से ही प्राप्त होती हैं| चित्त जिसकी भावना में तन्मय होता है, उसे निःसंदेह प्राप्त कर लेता है अर्थात् चंचल हुआ मन जिस-जिस वस्तु की भावना करता है तथा जिस-जिस वासना से युक्त होकर भाव को अपनाता है, उसी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है| मन जिस-जिस भाव को अपनाता है, उसी-उसी को वस्तु रूप में पाता है।
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जिसके चित्त की वृत्तियाँ ब्रह्म में लीन होती जा रही है, जो ज्ञान प्राप्त करके संकल्पों का त्याग कर रहा है, जिसका मन ब्रह्म स्वरूप में परिणित हो गया है, जो नाशवान जड़ दृश्य का त्याग कर रहा है तथा ब्रह्म का ध्यान कर रहा है, दृश्य जगत् का अनुभव नहीं करता है, वह परम् तत्त्व में जाग रहा है। मन और अहङ्कार इन दोनों में से किसी एक का विनाश हो जाने पर मन और अहङ्कार दोनों का विनाश हो जाता है। इसलिए इच्छाओं का परित्याग करके अपने वैराग्य और आत्मा-अनात्मा के विवेक से केवल मन का विनाश कर देना चाहिए। जैसे वायु के शान्त होने से समुद्र शान्त हो जाता है, वैसे ही प्रसन्न , गम्भीरता से युक्त, क्षोभ शून्य तथा राग-द्वेष आदि दोषों से रहित, वश में किया हुआ मन सम हो जाता है।
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मन ही कर्म रूप वृक्ष का अंकुर है। मन के नष्ट हो जाने पर संसार रूपी वृक्ष भी नष्ट हो जाता है तथा सम्पूर्ण दुःखों का अन्त हो जाता है। निर्मल सत्त्व-स्वरूप मन जिस पदार्थ के विषय में जैसी भावना करता है, वह वस्तु वैसी ही हो जाती है। संसार के सभी पदार्थ संकल्प रूप ही हैं, इसलिए विवेकी पुरुष उनकी कभी कामना नहीं करता है।
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ईश्वर प्राप्ति में मन की भूमिका मूख्य रूप से होती है। मन ही इसकी प्राप्ति में बाधक है। इसका जिसमें अनुराग हो जाता है , वही भाव ग्रहण कर लेता है। संसारी मनुष्यों का मन बर्हिमुखी होकर इन्द्रियों के विषयों में आसक्त बना रहता है। अज्ञान के कारण उन्हीं को सुख प्राप्ति का साधन समझ रहा होता है, जबकि ये विषय भोग वास्तव में परिणाम में दुःखदायी ही हैं। पदार्थों को भोगने के लिए हिंसा, असत्य तथा शास्त्र विरूद्ध कार्य करने की चेष्टा की जाती है, जिससे मन मलिन हो जाता है। इसके लिए ज्ञान के अतिरिक्त वैराग्य और अभ्यास की भी आवश्यकता है ।
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इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना , छोटी - छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ जाना पतन का कारण होता है। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की इच्छा ही हमें छोटा बना देती है। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है, मनुष्य उतना ही अन्दर से छोटा होता जाता है। जितना इच्छाओं का त्याग करता है उतना ही वह महान् होता जाता है।
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अन्तःकरण में जितनी अधिक वासनाएँ होगी , उतना ही वह अन्दर से कमजोर होगा। जो मनुष्य अन्दर से कमजोर होगा वह अवश्य ही बाहर से भी कमजोर होगा। चित्त से इच्छाओं की जितनी निवृत्ति होती जाएगी उतना ही वह महान् बनता जाएगा।
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नारायण ! इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं । एक - शुद्ध इच्छा और दूसरी - मलिन इच्छा। मलिन इच्छा जन्म का कारण है। इसके द्वारा जीव जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ता है, अज्ञान ही घनीभूत आकृति है। जो इच्छा शुद्ध होती है वह भुने हुए बीज के समान पुनर्जन्म रूपी अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति को त्याग कर केवल शरीर धारण मात्र के लिए स्थित रहती है, वह अज्ञान और अहङ्कार से रहित होती है। जो महापुरुष शुद्ध इच्छाओं से युक्त हैं, वे जन्म रूप अऩर्थ में नहीं पड़ते हैं। ऐसे परम् बुद्धिमान् पुरुष परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले जीवन्मुक्त कहलाते हैं।
संसार का संकल्प ही सबसे बड़ा बन्धन है तथा संकल्प का अभाव ही मोक्ष है।
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श्रद्धेय स्वामी जी को दण्डवत् प्रणाम ! ॐ नमो नारायण !
९ मई २०१८

(1) द्वितीय विश्व युद्ध में मरे ज्ञात-अज्ञात लाखों भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजली..... (2) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों से भारत स्वतंत्र हुआ .....

(संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख) (९ मई २०१६)
(1) द्वितीय विश्व युद्ध में मरे ज्ञात-अज्ञात लाखों भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजली.....
(2) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों से भारत स्वतंत्र हुआ .....
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आज से ७१ वर्ष पूर्व ९ मई १९४५ को द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति रूसी सेना द्वारा जर्मनी को पूर्ण रूप से पराजित कर बर्लिन पर किये अधिकार के पश्चात हुई थी| इससे पूर्व इटली और जापान भी परास्त कर दिए गए थे| मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ बर्लिन की ओर बढ़ रही थीं और रूस की सेना दो टुकड़ियों में अलग अलग दिशाओं से युद्ध करती हुई आगे बढ़ रही थीं| रुसी फील्ड मार्शल जुकोव की सैन्य टुकड़ी ने सबसे पहिले पहुँच कर मर्मान्तक और अंतिम निर्णायक प्रहार कर युद्ध को समाप्त कर दिया| पूरे युद्ध में सभी मोर्चों पर जर्मन सेनाएँ बहुत अधिक वीरता और साहस के साथ लड़ीं, युद्ध में वीरता के अनेक कीर्तिमान उन्होंने स्थापित किये पर उनके भाग्य में पराजय ही लिखी थी|
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इस युद्ध में अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों का युद्ध के चारे (War fodder) के रूप में प्रयोग किया| जैसे आग में ईंधन डालते हैं वैसे ही युद्ध की आग में मरने के लिए भारतीय सैनिकों को झोंक दिया जाता था| अंग्रेजों ने लाखों भारतीय सैनिको को किस किस तरह से मरवाया इसके बारे में अनुसंधान किया जाए और लिखा जाय तो अनेक ग्रन्थ लिखे जायेंगे| अंग्रेजों ने भारत छोड़ने से पूर्व अपने द्वारा किये हुए नरसंहारों और अत्याचारों के सारे अभिलेख नष्ट कर दिए थे और विवश होकर भारत छोड़ते समय सता का हस्तान्तरण भी अपने ही मानसपुत्रों को कर गए| अगस्त १९४७ से सन १९५२ तक अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं का राज था| अब प्रमाण मिल रहे हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय बर्मा में अंग्रेजों ने लाखों भारतीय सैनिकों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया था| उनका राशन योरोप में भेज दिया गया| लाखों भारतीय सैनिक तो भूख से मरने के लिए ही विवश कर दिए गए थे|
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द्वितीय विश्वयुद्ध से भारत को हुआ लाभ .....
इस युद्ध ने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी| अँगरेज़ सेनाएँ हताश और बुरी तरह थक चुकी थीं| उनमें इतना सामर्थ्य नहीं बचा था कि वे अपने उपनिवेशों को अपने आधीन रख सकें| नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से अँगरेज़ बहुत बुरी तरह डर गये थे| उन्हें डर था कि यदि भारतीयों के ह्रदय सम्राट नेताजी सुभाष बोस भारत में जीवित बापस आ गए तो सता उन्हीं को मिलेगी और अन्ग्रेज भारत का विभाजन भी नहीं कर पायेंगे| साथ साथ उनके मानस में भारतीय क्रांतिकारियों का भी भय था|
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युद्ध से पूर्व और युद्ध के समय वीर सावरकर ने पूरे भारत में घूम घूम कर हज़ारों राष्ट्रवादी युवकों को सेना में भर्ती करवाया| उनका विचार था कि भारतीयों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र हैं और न ही उन्हें उनका प्रयोग करना आता है| उनकी योजना थी कि भारतीय युवक सेना में भर्ती होकर अस्त्र चलाना सीखेंगे और फिर अंग्रेजों के उन अस्त्रों का मुँह अंग्रेजों की ओर ही कर देंगे| उनकी योजना सफल रही| युद्ध के पश्चात् भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अफसरों के आदेश मानने बंद कर दिए और उन्हें सलाम करना भी बंद कर दिया| सन १९४६ में नौसेना ने विद्रोह कर दिया| अँगरेज़ अधिकारियों को कोलाबा में बंद कर उनके चारों ओर बारूद लगा दी| पूरे बंबई के नागरिक भारतीय नौसैनिकों के समर्थन में सडकों पर आ गए|
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अँगरेज़ समझ गए कि हिन्दुस्तानी भाड़े की फौज (वे हिन्दुस्तानी सैनिकों को भाड़े के सिपाही यानि mercenary ही मानते थे) तो अब उनका आदेश नहीं मानती और अँगरेज़ सेना में इतना दम नहीं है कि उन पर नियंत्रण कर सके, तब अंग्रेजों ने भारत का जितना विनाश और कर सकते थे उतना अधिकतम विनाश कर के भारत छोड़ने का निर्णय कर लिया और भारत को तथाकथित आज़ादी यानि सत्ता हस्तांतरण अपने मानस पुत्रों को कर के चले गए| कभी भारत का स्वतंत्र सत्य इतिहास फिर लिखा जाएगा तो वास्तविक राष्ट्रनायकों का सम्मान होगा|
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द्वितीय विश्व युद्ध में जापान, इटली, और जर्मनी के विरुद्ध सभी मोर्चों पर लड़ते हुए मारे गए और मरवाए गए, तत्कालीन पराधीन भारत के सभी सैनिको को श्रद्धांजली देता हूँ| भगवान उन सबका और उनके परिवारों का कल्याण करे|
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वे तो बेचारे तो अपनी आजीविका के लिए सैनिक बने थे पर उन्हें क्या पता था कि उनकी मृत्यु विदेशी धरती पर विदेशियों के द्वारा होगी| उनके बलिदान के कारण ही हम आज स्वतंत्र होकर सम्मान से सिर ऊँचा कर के बैठे है|
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भारत माता की जय ! वन्दे मातरं ! जय जननी जय भारत ! जय श्री राम !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मई २०१६
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पुनश्चः : -----

वीर सावरकर, नेताजी सुभाष बोस और श्रीअरविन्द के योगदान को जान बूझ कर छिपाया गया है| भारत की स्वतन्त्रता में निर्णायक योगदान इन्हीं महात्माओं का था|

राजीव दीक्षित जैसे मनीषयों ने गहन अध्ययन और व्यापक खोज द्वारा इन्हें अनावृत किया है| अब तो विदेशी इतिहासकार भी इस सत्य को लिख रहे हैं| अमेरिकन शोधकर्ताओं ने तो शोध कर के यहाँ तक लिखा है कि अमेरिका और ब्रिटेन के सारे पुराने विश्वविद्यालय भारत से लूटे हुए धन से बनाए गए थे|

प्रकृति किसी को क्षमा नहीं करती| हर बुरे कार्य का दंड मिलता है, और हर अच्छे कार्य का पुरष्कार | कालचक्र की गति को समझना बड़ा कठिन है| प्रकृति अपने हिसाब से सारा कार्य करती है|

द्वितीय विश्व युद्ध में जयपुर राज्य के चालीस हज़ार से अधिक ज्ञात सैनिक मारे गए थे, जिनमें से अधिकाँश तत्कालीन शेखावाटी क्षेत्र के थे|  

माया से पार .....

माया से पार .....
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यह जन्म लेने से पूर्व ही इस जन्म के लिए भगवान ने मुझे दो काम सौंपे थे, पर उन दोनों में ही अब तक तो fail यानि अनुतीर्ण ही रहा हूँ| अब कैसे भी हाथ-पैर मारकर pass यानि उतीर्ण होना है| अन्यथा सामने ८४ नंबर वाला घूम-चक्कर दिखाई दे रहा है जो वास्तव में बड़ा ही भयंकर है| दूसरा कोई विकल्प नहीं है|
पहला काम था... अहङ्कार का विनाश | दूसरा काम था... सांसारिक विषय वासना का विनाश |
ये दोनों काम ही एक-दूसरे के पूरक हैं| इनको पूरा कर के निज स्वरुप में स्थित होना ही है, अन्यथा भगवान को क्या मुँह दिखाएँगे?
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भगवान ने विवेक और बुद्धि आदि सब कुछ दिया पर सामने "विक्षेप" और "आवरण" नाम की दो हथियारबंद राक्षसियाँ भी बैठा दीं| इनके पीछे इनके खतरनाक सशस्त्र भाई लोग "राग-द्वेष" व "प्रमाद" आदि महा असुर भी बैठा दिए हैं| इन सब को चकमा देकर आगे जाना है तभी ये काम सिद्ध हो सकते हैं, अन्यथा नहीं|
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अब जाना तो है ही| जाना ही पड़ेगा| कोई किन्तु-परन्तु नहीं चलेगी| चलो, इसी क्षण से पूरा प्रयास करेंगे| हे गुरु महाराज रक्षा करना| त्राहिमाम् त्राहिमाम् ||
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मई २०१८

भारत की भौगोलिक स्थिति और तूफ़ान ......

भारत की भौगोलिक स्थिति और तूफ़ान ......
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विश्व में भारत की भौगोलोक स्थिति और जलवायु सर्वश्रेष्ठ है| यहाँ सब से कम तूफ़ान आते हैं| अंग्रेजी में तीन शब्द हैं .... टाइफून, हरिकेन व साइक्लोन| इनमें अंतर बताता हूँ| जब प्रशांत महासागर में व उसके तटीय क्षेत्रों में तूफ़ान आता है तो उसे टाइफून कहते हैं, अटलांटिक महासागर में हरिकेन, व हिन्द महासागर में साइक्लोन|
भारत में सबसे कम तूफ़ान आते हैं ....साल में अधिक से अधिक तीन-चार बार और वे भी इतने शक्तिशाली नहीं होते|
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तूफ़ान ही देखने हैं तो सर्दियों में प्रशांत महासागर में फिलिपाईन्स के लुज़ॉन द्वीप के उत्तर-पूर्व में, ताइवान के दक्षिण-पूर्व में, और जापान के पूर्वी तट पर देखिये| एक के बाद एक तूफानों की श्रुंखला आती है और वे तूफ़ान भारत में आने वाले तूफानों से चार-पाँच गुना अधिक शक्तिशाली और भयंकर होते हैं|

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सर्दियों में अटलांटिक महासागर में भी फ्लोरिडा से सान-जुआन और बरमूड़ा के बीच का क्षेत्र बहुत अशांत रहता है| और भी अनेक क्षेत्र हैं जहाँ बहुत तूफ़ान आते हैं| भूमध्य रेखा से नीचे की तो मैंने अभी तक बात ही नहीं की है| इन सब क्षेत्रों में प्रकृति के विकरालतम रूपों का थोड़ा थोड़ा दर्शन मैनें भी प्रत्यक्ष रूप से किया है|

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भारत में बवंडर यानी टोर्नेडो भी हल्का-फुल्का सा कई वर्षों में एक बार आता है, जब की उत्तरी अमेरिका के उत्तर में तो हर साल कई महाविनाशाकारी टोर्नेडो आते हैं| बवंडर को हाथीसूंड भी कहते हैं|
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भूमध्य रेखा से ऊपर यानि उत्तरी गोलार्ध में ये तूफ़ान वामावर्त यानि counter-clockwise व भूमध्य रेखा से नीचे यानि दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिणावर्त यानि clockwise रूप से घूमते हैं|
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हम भाग्यशाली हैं की हमने ऐसे देश में जन्म लिया है जहाँ की जलवायु और मौसम विश्व में सर्वश्रेष्ठ है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मई २०१८

भगवान से जो प्रेरणा मिले उस का आचरण ही एकमात्र विकल्प है....

यह सृष्टि हम सब के विचारों, भावों और संकल्पों की ही सामूहिक अभिव्यक्ति है| हमारे विचार, भाव और संकल्प ही साकार होकर चारों ओर व्यक्त हो रहे हैं| जब पतन की अति हो जाती है तब विनाश भी होता है| अब जो स्थिति है उसमें यदि वर्तमान सभ्यता का विनाश भी हो जाए तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा| जो नई सृष्टि बसेगी वह इस वर्तमान की सृष्टि से तो अच्छी ही होगी| मुझे तो किसी रूपांतरण की भी कोई संभावना नहीं दिखाई देती| महाभारत के युद्ध से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने भी शांति और सुलह के प्रयास किये थे जो असफल रहे| मेरी सोच और विचार मेरे मन में स्पष्ट हैं, कहीं कोई भ्रम और संशय नहीं है| मुझे बाहर के विश्व से अब कोई अपेक्षा या उम्मीद नहीं है| बाहर जो दिखाई दे रहा है वह एक महा ढोंग और पाखंड मात्र है| इसका आकर्षण समाप्त ही हो जाए तो अच्छा है|
भगवान से जो प्रेरणा मिले उस का आचरण ही एकमात्र विकल्प है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मई २०१८

कभी मेरी भी हज़ारों महत्वाकांक्षाएँ थीं .....

कभी मेरी भी हज़ारों महत्वाकांक्षाएँ थीं, हज़ारों अरमान थे, पता नहीं कितने स्वप्न थे, कितनी शिकायतें थीं, कितना असंतोष था, पर एक तुम्हें पाने की अभीप्सा में वे सब तिरोहित हो गये| अब कोई शिकायत नहीं है, कोई अरमान, कोई आकांक्षा, कोई स्वप्न, कोई कामना व कोई असंतोष नहीं है| जब तुम स्वयं ही प्रत्यक्ष हो तो मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, तुम ही तुम हो, अन्य कुछ भी नहीं है| जो तुम हो वह ही मैं हूँ|

फिर भी एक तड़फ है पर कोई शिकायत नहीं है, उस तड़फ का भी एक आनंद है|

तत् त्वं असि ! तत् सत् ! सो हम् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ मई २०१८

अपने बच्चों को साहसी बनाएँ, कायर व दब्बू नहीं .....

अपने बच्चों को साहसी बनाएँ, कायर व दब्बू नहीं .....
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समाज में अधिकाँश माँ-बाप अपने बच्चों को डरा-धमका कर रखते हैं, ऐसे बच्चे डरपोक और दब्बू निकलते हैं| बच्चों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि उन्हें अपने माँ-बाप से सत्य बोलने में किसी भी तरह का कोई भी भय न हो| बच्चों में पूरा आत्म-विश्वास जागृत हो इसका और साथ साथ समाज में दुष्टों से आत्म-रक्षा करने का प्रशिक्षण भी उन्हें दिलाएँ|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मई २०१८

विद्या और अविद्या पर एक चर्चा ....

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह| अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते|| (ईशोपनिषद्)
अर्थात जो विद्या और अविद्या, को जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व प्राप्त कर लेता है|
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क्या इच्छाएँ/कामनाएँ ही अविद्या का लक्षण हैं? अविद्या के बिना तो काम ही नहीं चलता| सांसारिक ज्ञान भी तो अविद्या है| क्या अविद्या ही माया है?
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भोग की इच्छा ही तो सबसे बड़ी बाधा है| हे प्रभु, कृपा कर के इस पिशाचिनी से मुक्त करो|
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ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या होता होगा| विद्या और अविद्या का भेद अति अति सूक्ष्म है| कुछ कुछ तो समझ में आता है, पर पूरी तरह नहीं| हे प्रभु, कृपा करो|

६ मई २०१८ 
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श्री अरुण उपाध्याय जी की टिप्पणी :--
अविद्या का अर्थ विद्या का अभाव नहीं है। विद्या-अविद्या की तरह ज्ञान-विज्ञान भी हैं।
विद्या = समन्वय या एकीकरण। अविद्या = अपरा विद्या या वर्गीकरण। आज इसे ही विज्ञान कहते हैं।
विद्या का पूर्ण अभाव नहीं होता, उसका एक ही वर्ग देखने से मोह, राग आदि दोष आते
हैं। उनके समन्वय से पूर्ण ज्ञान होता है। अविद्या या विज्ञान पद्धति से अध्ययन के ५ स्तर हैं-
पातञ्जल योग सूत्र (२/३)- अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेषाः।
१. अविद्या-विषयों या तथ्यों का विभाजन।
२. अस्मिता-प्रति तत्त्व की अलग-अलग परिभाषा तथा व्याख्या।
३. राग-अलग अलग तथ्यों में समानता खोज कर उनको एक वर्ग में करना (Generalization)। इसका अन्तिम रूप पराविद्या या विद्या होगी, जैसे स्वार्थ का परम रूप परमार्थ।
४. द्वेष-अन्य वर्ग के तथ्यों से भेद दिखाना।
५. अभिनिवेश-सिद्धान्त स्थिर करना जिसके अनुसार नये तथ्यों को प्रमाणित या अप्रमाणित किया जा सकता है।
सांख्ययोग में इनके तमस आदि अर्थ हैं-
तमो मोहो महामोहस्तमिस्रो ह्यन्धसंज्ञकः। अविद्या पञ्चपर्वैषा सांख्ययोगेषु कीर्तिता॥
मुण्डकोपनिषद् (१/१/४-५)-द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैव अपरा च॥४॥ तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषं इति। अथ परा यया तदक्षरं अधिगम्यते।
= ब्रह्मविद् २ प्रकार की विद्या कहते हैं। उसमें परा का विभाजन ४ वेदों तथा ६ अंगों में हुआ। परा वह है जिससे अक्षर (अविनाशी ब्रह्म) की प्राप्ति हो अर्थात् सबमें एकत्व का दर्शन हो।
अर्थात् मूल शिक्षा अपरा विद्या ही है जिसका वर्गीकरण वेद और वेदांगों से आरम्भ होता है। बाद में इनका समन्वय करते हैं। वाद-विवाद के लिये विद्या के विभिन्न भागों में विरोध नहीं होना चाहिये। भौतिक विज्ञान पढ़ने वाला बाकी सभी विषय नहीं पढ़ सकता है पर उसका गणित या जीव विज्ञान से विरोध नहीं हो सकता है।
विज्ञान या विजानतः = अलग अलग जानना। अनुपश्यति = देखने के बाद का अनुभव। पहले अलग दीखता है, विचार करने पर एकत्व दीखता है। मनुष्य अलग अलग दीखते हैं, पर शरीर विज्ञान के लिये सभी मनुष्य एक ही हैं।
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येव अनुपश्यति। सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वं अनुपश्यतः॥७॥
(ईशावास्योपनिषद्, ६-७)
अतः जीवन-यापन के लिये या मृत्यु को पार करने के लिये अविद्या जरूरी है। अक्षर (ब्रह्म) को पाने के लिये सबमें एकत्व का अनुभव होना चाहिये-
विद्यां च अविद्यां च यस्तद् वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥ (ईशावास्योपनिषद्, ११)
इसी प्रकार सम्भूति (निर्माण) तथा असम्भूति (विनाश) का क्रम है। हमारे जीवन के लिये निर्माण जरूरी है, पर उसके लिये कई चीजों का विनाश करना पड़ता है। जितने पदार्थ का प्रयोग करते हैं उसमें कुछ नष्ट ही होता है, एक भाग उपयोगी निर्माण होता है।
ज्ञान-विज्ञान की भी ऐसी ही परिभाषा है। अमरकोष (१/५/६)=-मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः।
गीता में भी दोनों को जानना जरूरी कहा गया है-
ज्ञानं ते ह सविज्ञानं इदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ (७/२)
इदं ते गुप्ततमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञान सहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ (९/१)

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त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ..... पर एक जिज्ञासा ....

एक जिज्ञासा .....
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||
अर्थात् वेद त्रैगुण्यविषयक हैं परंतु हे अर्जुन तू निस्त्रैगुण्य हो| नित्य सत्त्वस्थ निर्योगक्षेम व आत्मवान हो||
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यहाँ एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है| मनुष्य त्रिगुणों में बंधा होता है इसलिये जन्म लेता है| निस्त्रेगुण्य यानी त्रिगुणातीत होने पर तो इस देह में जीवित रहने का कोई कारण ही नहीं रहता| निस्त्रेगुण्यता ही मेरी समझ से जीवन्मुक्ति है| मेरी समझ से ऐसे व्यक्ति अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही देह में जीवित रहते होंगे| वे किसी भी प्रकार के कर्मफल में तो बंध ही नहीं सकते|
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जो मनीषी इस विषय को समझते हैं वे कृपया थोड़ी टिप्पणी करने की कृपा करें|
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सप्रेम धन्यवाद| ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर 
६ मई २०१८ 
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स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी की टिप्पणी :--
नारायण । श्री मद्भगवद्गीताजी वाले कृष्ण कहते है " त्रैगुण्यविषया वेदाः " । अर्थात् त्रिगुणात्मक संसार । यह संसार है विषय जिसका वह वेद है । आप गणित की कोई पुस्तक लेकर बैठे हैं , हम पूछते हैं कि ' इस पुस्तक का विषय क्या है ? ' तो आप यही कहेंगे न कि इसका विषय गणित है । इसी प्रकार संसार के सारे ही कार्यकारण - भावों को , साधन - साध्य भावों को बताने वाला होने से संसार ही वेद का विषय है। वेद .संसार की सारी चीजों को बताता है । संसार को बताते हुए भी वह परमात्मा का साधक भी है । जो परमात्मा का साधक है वह परमात्मा को चाहता है । विषय को वह नहीं चाहता अर्थात् विषय की कामना वाला नहीं है इसलिए वह परमात्मा का साधक है ।

भगवान् भाष्यकार कहते हैं कि संसार जिस वेद से प्रकाशित होता है उसके अन्दर तो वे अव्यवसायी बुद्धि वाले भोगैश्वर्य की प्रसक्ति से लगे रहते हैं । परन्तु जो निष्काम हैं अथवा कामना से रहित हैं उसके लिये वेद परमात्मा का बोध करा देता है । परमात्मा की कामना ही कामना से रहित होना है । जैसे चिकित्सक कहता है ' तीन दिन की दवाई ले जाओ , और कुछ मत खाना ' , अर्थात् दवाई के अतिरिक्त कुछ मत खाना ; इसी प्रकार कामना को छोड़ो ' अर्थात् आत्मा को छोड़कर दूसरी अनात्म पदार्थ की कामना मत करो । ऐसा नहीं कि आत्मा की कामना मत करो ! जो निष्काम है उसे वेद सांसारिक फल नहीं दे सकता है । इसलिए गीता वाले कृष्ण कहते हैं कि - हे अर्जुन तुम त्रिगुण से रहित हो जाओ । भाष्यकार भगवान् शंकराचार्य महाभाग इसका अर्थ करते हुए कहते हैं " निष्कामो भव इत्यर्थः " कामना से रहित हो जाओ ।

नारायण ! कुछ आधुनिक लोग अपनी बुद्धि लगाते हैं और गीताजी के " त्रैगुण्यविषया वेदाः .... " श्लोक का उल्टा अर्थ करते है । वे कहते हैं कि वेद तीन गुणों की बात बताता है । भगवान् श्री कृष्ण इससे ऊपर की बात बताते हैं । " त्रैगुण्यविषया वेदाः " के पहले भगवान् नें यह नहीं कहा कि " तुम इनसे रहित हो जाओ " । भगवान् ने तो यह कहा कि - अर्जुन तुम निस्त्रैगुण्य हो जाओ । अगर वैसा कहना होता तो भगवान् यह कहते कि " निर्वेदो भव " वेद के झंझट को छोड़ या वेद को छोड़ । उल्टा भगवान् ने तो यह बताया है कि " निस्त्रैगुण्य " वेद के विषय को बतलाया है कि जो अव्यवसायी बुद्धि वाले हैं , जिनका मन भोगैश्वर्य से अपहृत हुआ है ; वे वेद का वास्तविक ऊद्देश्य नहीं समझ पाते ।

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स्वामी आत्मशिव शिव की टिप्पणी :--
इस लौकिक जगत की एक भी वस्तु के साथ राग या द्वेष से हमे पुनर्जन्म को बाध्य होना पड़ेगा तीनों गुणों से पार तभी हो सकता है जब वह अपने स्वरूप को अनुभव निरंतरता मे करे यह तभी संभव है जब वह निर्विकल्प समाधि को अनुभव करे क्योंकि सविकल्प मे ध्यान के समय ही अपने स्वरूप को अनुभव करता है जीवन मुक्त होने पर महापुरुष धरती पे रहने कुछ वासना रखते है जैसे रामकृष्ण परमहंस का खाने के मामले मे दृष्टांत है
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