Wednesday, 9 May 2018

विद्या और अविद्या पर एक चर्चा ....

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह| अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते|| (ईशोपनिषद्)
अर्थात जो विद्या और अविद्या, को जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व प्राप्त कर लेता है|
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क्या इच्छाएँ/कामनाएँ ही अविद्या का लक्षण हैं? अविद्या के बिना तो काम ही नहीं चलता| सांसारिक ज्ञान भी तो अविद्या है| क्या अविद्या ही माया है?
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भोग की इच्छा ही तो सबसे बड़ी बाधा है| हे प्रभु, कृपा कर के इस पिशाचिनी से मुक्त करो|
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ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या होता होगा| विद्या और अविद्या का भेद अति अति सूक्ष्म है| कुछ कुछ तो समझ में आता है, पर पूरी तरह नहीं| हे प्रभु, कृपा करो|

६ मई २०१८ 
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श्री अरुण उपाध्याय जी की टिप्पणी :--
अविद्या का अर्थ विद्या का अभाव नहीं है। विद्या-अविद्या की तरह ज्ञान-विज्ञान भी हैं।
विद्या = समन्वय या एकीकरण। अविद्या = अपरा विद्या या वर्गीकरण। आज इसे ही विज्ञान कहते हैं।
विद्या का पूर्ण अभाव नहीं होता, उसका एक ही वर्ग देखने से मोह, राग आदि दोष आते
हैं। उनके समन्वय से पूर्ण ज्ञान होता है। अविद्या या विज्ञान पद्धति से अध्ययन के ५ स्तर हैं-
पातञ्जल योग सूत्र (२/३)- अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेषाः।
१. अविद्या-विषयों या तथ्यों का विभाजन।
२. अस्मिता-प्रति तत्त्व की अलग-अलग परिभाषा तथा व्याख्या।
३. राग-अलग अलग तथ्यों में समानता खोज कर उनको एक वर्ग में करना (Generalization)। इसका अन्तिम रूप पराविद्या या विद्या होगी, जैसे स्वार्थ का परम रूप परमार्थ।
४. द्वेष-अन्य वर्ग के तथ्यों से भेद दिखाना।
५. अभिनिवेश-सिद्धान्त स्थिर करना जिसके अनुसार नये तथ्यों को प्रमाणित या अप्रमाणित किया जा सकता है।
सांख्ययोग में इनके तमस आदि अर्थ हैं-
तमो मोहो महामोहस्तमिस्रो ह्यन्धसंज्ञकः। अविद्या पञ्चपर्वैषा सांख्ययोगेषु कीर्तिता॥
मुण्डकोपनिषद् (१/१/४-५)-द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैव अपरा च॥४॥ तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषं इति। अथ परा यया तदक्षरं अधिगम्यते।
= ब्रह्मविद् २ प्रकार की विद्या कहते हैं। उसमें परा का विभाजन ४ वेदों तथा ६ अंगों में हुआ। परा वह है जिससे अक्षर (अविनाशी ब्रह्म) की प्राप्ति हो अर्थात् सबमें एकत्व का दर्शन हो।
अर्थात् मूल शिक्षा अपरा विद्या ही है जिसका वर्गीकरण वेद और वेदांगों से आरम्भ होता है। बाद में इनका समन्वय करते हैं। वाद-विवाद के लिये विद्या के विभिन्न भागों में विरोध नहीं होना चाहिये। भौतिक विज्ञान पढ़ने वाला बाकी सभी विषय नहीं पढ़ सकता है पर उसका गणित या जीव विज्ञान से विरोध नहीं हो सकता है।
विज्ञान या विजानतः = अलग अलग जानना। अनुपश्यति = देखने के बाद का अनुभव। पहले अलग दीखता है, विचार करने पर एकत्व दीखता है। मनुष्य अलग अलग दीखते हैं, पर शरीर विज्ञान के लिये सभी मनुष्य एक ही हैं।
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येव अनुपश्यति। सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वं अनुपश्यतः॥७॥
(ईशावास्योपनिषद्, ६-७)
अतः जीवन-यापन के लिये या मृत्यु को पार करने के लिये अविद्या जरूरी है। अक्षर (ब्रह्म) को पाने के लिये सबमें एकत्व का अनुभव होना चाहिये-
विद्यां च अविद्यां च यस्तद् वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥ (ईशावास्योपनिषद्, ११)
इसी प्रकार सम्भूति (निर्माण) तथा असम्भूति (विनाश) का क्रम है। हमारे जीवन के लिये निर्माण जरूरी है, पर उसके लिये कई चीजों का विनाश करना पड़ता है। जितने पदार्थ का प्रयोग करते हैं उसमें कुछ नष्ट ही होता है, एक भाग उपयोगी निर्माण होता है।
ज्ञान-विज्ञान की भी ऐसी ही परिभाषा है। अमरकोष (१/५/६)=-मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः।
गीता में भी दोनों को जानना जरूरी कहा गया है-
ज्ञानं ते ह सविज्ञानं इदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ (७/२)
इदं ते गुप्ततमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञान सहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ (९/१)

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1 comment:

  1. मैं यह शरीर हूँ, यह सबसे बड़ा अज्ञान है| अज्ञानमय जीवन व्यर्थ है| हर सांसारिक कामना और अभिलाषा अज्ञान ही है| अज्ञान से मुक्ति भगवान की परम कृपा से ही होती है| इसके लिए अधिकृत श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के सान्निध्य में नियमित निरंतर उपासना करनी पड़ती है| ऐसे ही लोगों का संग करें जिनके ह्रदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर परमप्रेम भरा पड़ा है, और जो निज जीवन में परमात्मा को उपलब्ध होना चाहते हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
    कृपा शंकर
    ६ मई २०१८

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