Wednesday, 9 May 2018

कभी मेरी भी हज़ारों महत्वाकांक्षाएँ थीं .....

कभी मेरी भी हज़ारों महत्वाकांक्षाएँ थीं, हज़ारों अरमान थे, पता नहीं कितने स्वप्न थे, कितनी शिकायतें थीं, कितना असंतोष था, पर एक तुम्हें पाने की अभीप्सा में वे सब तिरोहित हो गये| अब कोई शिकायत नहीं है, कोई अरमान, कोई आकांक्षा, कोई स्वप्न, कोई कामना व कोई असंतोष नहीं है| जब तुम स्वयं ही प्रत्यक्ष हो तो मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, तुम ही तुम हो, अन्य कुछ भी नहीं है| जो तुम हो वह ही मैं हूँ|

फिर भी एक तड़फ है पर कोई शिकायत नहीं है, उस तड़फ का भी एक आनंद है|

तत् त्वं असि ! तत् सत् ! सो हम् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ मई २०१८

1 comment:

  1. हमारी आकांक्षाएँ और अपेक्षाएँ ही हमारे सारे दुखों का कारण हैं| हम सब अपनी अपनी कल्पनाओं में अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों की उपेक्षा कर बड़े बड़े अरमान पाल लेते हैं जो कभी पूरे नहीं हो सकते| अपनी भावनाओं में बह कर कई गलत क़दम उठा लेते हैं जिनके परिणाम बहुत बुरे होते हैं| अपने जाल में हम स्वयं ही फंस जाते हैं| अपनी क्षमताओं, संसाधनों और परिस्थितियों को भी कभी नहीं भूलना चाहिए| इसीलिए संत लोग कहते हैं कि अपेक्षाएं सब दुखों की जननी है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

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