हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ?
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देश, धर्म, समाज, राष्ट्र, मानवता और पूरी सृष्टि की सेवा में विषम से विषम परिस्थितियों में हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ? यह प्रश्न सदा मेरे चैतन्य में रहा है| इसके समाधान हेतु अध्ययन भी खूब किया, अनेक ऐसी संस्थाओं से भी जुडा रहा जो समाज-सेवा का कार्य करती हैं| अनेक धार्मिक संस्थाओं से भी जुड़ा पर कहीं भी संतुष्टि नहीं मिली| कई तरह की साधनाएँ भी कीं, अनेक तथाकथित धार्मिक लोगों से भी मिला पर निराशा ही हाथ लगी| धर्म और राष्ट्र से स्वाभाविक रूप से खूब प्रेम रहा है| धर्म के ह्रास और राष्ट्र के पतन से भी बहुत व्यथा हुई है| सदा यही जानने का प्रयास किया कि जो हो गया सो तो हो गया उसे तों बदल नहीं सकते पर इसी क्षण से क्या किया जा सकता है जो जीवन मे सर्वश्रेष्ठ हो और सबके हित में हो|
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ध्यान-साधना में विस्तार की अनुभूतियों ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि मैं यह शरीर नहीं हूँ| ईश्वर के दिव्य प्रेम, आनंद और उसकी झलक अनेक बार मिली| यह अनुभूति भी होती रहती है कि स्वयं के अस्तित्व की एक उच्चतर प्रकृति तो एक विराट ज्योतिर्मय चैतन्य को पाने के लिए अभीप्सित है पर एक निम्न प्रकृति बापस नीचे कि भौतिक, प्राणिक और मानसिक चेतना की ओर खींच रही है| आत्मा की अभीप्सा तो इतनी तीब्र है वह परमात्मा के बिना नहीं रह सकती पर निम्न प्रकृति उस ओर एक कदम भी नहीं बढ़ने देती|
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यह भी जीवन मे स्पष्ट हो गया कि उस परम तत्व को पाना ही सबसे बड़ी सेवा हो सकती है जो की जा सकती है| गहन ध्यान में मैं यह शरीर नहीं रहता बल्कि मेरी चेतना समस्त अस्तित्व से जुड़ जाती है| यह स्पष्ट अनुभूत होता रहता है कि हर श्वाश के साथ मैं उस चेतना से एकाकार हो रहा हूँ और हर निःश्वाश के साथ वह चेतना अवतरित होकर समस्त सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रही है| उसी स्थिति मे बना रहना चाहता हूँ पर निम्न प्रकृति फिर नीचे खींच लाती है| ईश्वर से प्रार्थनाओं के उत्तर मे जो अनुभूतियाँ मुझे हुई उन्हें व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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सबसे पहिले तों यह स्पष्ट किया गया गया है कि जो भी साधना हम करते हैं वह स्वयं के लिए नहीं बल्कि भगवान के लिए है| उसका उद्देश्य सिर्फ उनकी इच्छा को कार्यान्वित करना है| मोक्ष की कामना सबसे बड़ा बंधन है| उसकी कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तों नित्य मुक्त है| बंधन केवल भ्रम हैं| ईश्वर को पूर्ण समर्पण करणा होगा| सारी कामना, वासना, माँगें, राय और विचार सब उसे समर्पित करने होंगे तभी वह स्वयं सारी जिम्मेदारी ले लेगा| कर्म-फल ही नहीं कर्म भी उसे समर्पित करने होंगे| समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ स्वयं को उसके हाथों मे सौंप देना होगा| कर्ता ही नहीं दृष्टा भी उसे ही बनाना होगा, तभी वह सारी कठिनाइयों और संकटों से पार करेगा| सारे कर्म तो स्वयं उनकी शक्ति ही करती है और उन्हें ही अर्पित करती हैं| किसी भी तरह का सात्विक अहंकार नहीं रखना है| इससे अधिक व्यक्त करने की मेरी क्षमता नहीं है|
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सार की बात जिससे अधिक व्यक्त करना मेरी क्षमता से परे है वह यह कि स्वयं को ईश्वर का एक उपकरण मात्र बनाकर उसके हाथ मे सौंप देना है| फिर वो जो भी करेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सबसे बड़ा कर्तव्य और सबसे बड़ी सेवा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१२
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देश, धर्म, समाज, राष्ट्र, मानवता और पूरी सृष्टि की सेवा में विषम से विषम परिस्थितियों में हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ? यह प्रश्न सदा मेरे चैतन्य में रहा है| इसके समाधान हेतु अध्ययन भी खूब किया, अनेक ऐसी संस्थाओं से भी जुडा रहा जो समाज-सेवा का कार्य करती हैं| अनेक धार्मिक संस्थाओं से भी जुड़ा पर कहीं भी संतुष्टि नहीं मिली| कई तरह की साधनाएँ भी कीं, अनेक तथाकथित धार्मिक लोगों से भी मिला पर निराशा ही हाथ लगी| धर्म और राष्ट्र से स्वाभाविक रूप से खूब प्रेम रहा है| धर्म के ह्रास और राष्ट्र के पतन से भी बहुत व्यथा हुई है| सदा यही जानने का प्रयास किया कि जो हो गया सो तो हो गया उसे तों बदल नहीं सकते पर इसी क्षण से क्या किया जा सकता है जो जीवन मे सर्वश्रेष्ठ हो और सबके हित में हो|
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ध्यान-साधना में विस्तार की अनुभूतियों ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि मैं यह शरीर नहीं हूँ| ईश्वर के दिव्य प्रेम, आनंद और उसकी झलक अनेक बार मिली| यह अनुभूति भी होती रहती है कि स्वयं के अस्तित्व की एक उच्चतर प्रकृति तो एक विराट ज्योतिर्मय चैतन्य को पाने के लिए अभीप्सित है पर एक निम्न प्रकृति बापस नीचे कि भौतिक, प्राणिक और मानसिक चेतना की ओर खींच रही है| आत्मा की अभीप्सा तो इतनी तीब्र है वह परमात्मा के बिना नहीं रह सकती पर निम्न प्रकृति उस ओर एक कदम भी नहीं बढ़ने देती|
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यह भी जीवन मे स्पष्ट हो गया कि उस परम तत्व को पाना ही सबसे बड़ी सेवा हो सकती है जो की जा सकती है| गहन ध्यान में मैं यह शरीर नहीं रहता बल्कि मेरी चेतना समस्त अस्तित्व से जुड़ जाती है| यह स्पष्ट अनुभूत होता रहता है कि हर श्वाश के साथ मैं उस चेतना से एकाकार हो रहा हूँ और हर निःश्वाश के साथ वह चेतना अवतरित होकर समस्त सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रही है| उसी स्थिति मे बना रहना चाहता हूँ पर निम्न प्रकृति फिर नीचे खींच लाती है| ईश्वर से प्रार्थनाओं के उत्तर मे जो अनुभूतियाँ मुझे हुई उन्हें व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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सबसे पहिले तों यह स्पष्ट किया गया गया है कि जो भी साधना हम करते हैं वह स्वयं के लिए नहीं बल्कि भगवान के लिए है| उसका उद्देश्य सिर्फ उनकी इच्छा को कार्यान्वित करना है| मोक्ष की कामना सबसे बड़ा बंधन है| उसकी कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तों नित्य मुक्त है| बंधन केवल भ्रम हैं| ईश्वर को पूर्ण समर्पण करणा होगा| सारी कामना, वासना, माँगें, राय और विचार सब उसे समर्पित करने होंगे तभी वह स्वयं सारी जिम्मेदारी ले लेगा| कर्म-फल ही नहीं कर्म भी उसे समर्पित करने होंगे| समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ स्वयं को उसके हाथों मे सौंप देना होगा| कर्ता ही नहीं दृष्टा भी उसे ही बनाना होगा, तभी वह सारी कठिनाइयों और संकटों से पार करेगा| सारे कर्म तो स्वयं उनकी शक्ति ही करती है और उन्हें ही अर्पित करती हैं| किसी भी तरह का सात्विक अहंकार नहीं रखना है| इससे अधिक व्यक्त करने की मेरी क्षमता नहीं है|
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सार की बात जिससे अधिक व्यक्त करना मेरी क्षमता से परे है वह यह कि स्वयं को ईश्वर का एक उपकरण मात्र बनाकर उसके हाथ मे सौंप देना है| फिर वो जो भी करेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सबसे बड़ा कर्तव्य और सबसे बड़ी सेवा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१२
भगवान ने जितनी क्षमता, समझ और कार्यकुशलता हमें दी है, उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग हम अपने विवेकानुसार राष्ट्रहित में करें.
ReplyDeleteॐ ॐ ॐ
मेरी सर्वव्यापी अनंत चेतना मेरा राष्ट्र है. अपने पूर्ण विवेक व क्षमता से इसकी रक्षा आतताइयों से करते हुए रामकाज पूर्ण करना है.
ReplyDeleteॐ