Thursday 27 April 2017

परमात्मा की सिर्फ चर्चा करें या ध्यान करें ? ....

परमात्मा की सिर्फ चर्चा करें या ध्यान करें ? .....
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हम भगवान की आराधना और ध्यान कितने समय तक करते हैं ? महत्व इसी का है, मात्र उसकी चर्चा या प्रशंसा का नहीं | भगवान को प्रेम करना सबसे अधिक बुद्धिमानी का कार्य है, और भगवान को समर्पित हो जाना सबसे बड़ी सफलता है | यदि किसी के सामने मिठाई रखी हो तो बुद्धिमानी उसकी विवेचना करने में है या उसको खाने में ? मैं सोचता हूँ कि बुद्धिमान उसे खा कर प्रसन्न होगा और विवेचक उसकी विवेचना ही करता रह जाएगा कि इसमें कितनी चीनी है, कितना दूध है, कितना मेवा है, किस विधि से बनाया और इसके क्या हानि लाभ हैं -- आदि आदि| वैसे ही भगवान भी एक रस है| उसे चखो, उसका स्वाद लो, और उसके रस में डूब जाओ| इसी में सार्थकता और आनंद है| उसकी विवेचना मात्र से शायद ही कोई लाभ हो|
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हम कितनी देर तक प्रार्थना करते हैं या ध्यान करते हैं ? अंततः महत्व इसी का है| ध्यान और प्रार्थना के समय मन कहाँ रहता है ? यदि मन चारों दिशाओं में सर्वत्र घूमता रहता है तो ऐसी प्रार्थना किसी काम की नहीं है| हमें ध्यान की गहराई में जाना ही पड़ेगा और हर समय भगवान का स्मरण भी करना ही पड़ेगा| हम छोटी मोटी गपशप में, अखवार पढने में और मनोरंजन में घंटों तक का समय नष्ट कर देते हैं, पर भगवान का नाम पाँच मिनट भी भारी लगने लगता है| चौबीस घंटे का दसवाँ भाग यानि कम से कम लगभग अढाई तीन घंटे तो नित्य हमें ध्यान करना ही चाहिए|
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति होती ही है वैसे ही परमात्मा के समक्ष बैठने से उनका अनुग्रह भी मिलता ही है| प्रभु के समक्ष हमारे सारे दोष भस्म हो जाते हैं| ध्यान साधना से सम्पूर्ण परिवर्तन आ सकता है| जब एक बार निश्चय कर लिया कि मुझे परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए तो भगवान आ ही जाते है ---- यह आश्वासन शास्त्रों में भगवान ने स्वयं ही दिया है| जब ह्रदय में अहैतुकी परम प्रेम और निष्ठा होती है तब भगवान मार्गदर्शन भी स्वयं ही करते हैं| पात्रता होने पर सद्गुरु का आविर्भाव भी स्वतः ही होता है|
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अपने प्रेमास्पद का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए| प्रेम हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं| इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! आप सब की जय हो |

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२८ अप्रेल, २०१५

वृक्षारोपण ....

वृक्षारोपण ....
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अभी भीषण ग्रीष्म ऋतू चल रही है| दो माह पश्चात् वर्षा ऋतू का आगमन होगा| उस समय तरह तरह के वृक्षों का रोपण होगा| पर आजकल एक रुझान चल पडा है .... गुलमोहर, सफेदा (युकलिप्टिस) जैसे सजावटी वृक्ष ही लगाने का| सफेदा तो वहीँ लगाना चाहिए जहाँ भूमि पर बहुत अधिक दलदल है, अन्यथा नहीं| कुछ वृक्ष हैं जो पर्यावरण के लिए बहुत अधिक लाभदायक है जैसे बड़ (वट), पीपल, खेजड़ी, रोहिड़ा व नीम आदि, जिनकी उपेक्षा की जा रही है|
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मरुभूमि में खेजड़ी का वृक्ष अमृत वृक्ष है| इसे प्राचीन काल में शमी वृक्ष कहते थे| इसकी लकड़ियों से ही यज्ञादि होते थे इसलिए इसकी लकड़ी को समिधा कहते थे| इसकी छाया में भी भूमि उर्बरा रहती है और इसकी पत्तियाँ तो जानवरों के लिए सर्वश्रेष्ठ चारा है| जहाँ ये वृक्ष प्रचुर मात्रा में होते थे वहाँ कृष्णमृग (काले हिरन) निर्भय होकर खूब घूमते थे| जहाँ कृष्णमृग निर्भय घुमते हैं वह पवित्र यज्ञभूमि होती है| ग्रामीण क्षेत्र में खेजड़ी को बहुत पवित्र वृक्ष मानते हैं|
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पीपल, बड़, नीम और खेजड़ी के वृक्ष व तुलसी के पौधे लगाना तो पुण्य का काम माना जाता था| ये पर्यावरण के लिए सर्वश्रेष्ठ वृक्ष हैं, पर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इनकी उपेक्षा की जा रही है| क्या ये सांप्रदायिक पेड़-पौधे हैं? और सजावटी वृक्ष सेकुलर हैं?

प्राणायाम ......

प्राणायाम ......
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प्राणायाम एक आध्यात्मिक साधना है जो हमारी चेतना को परमात्मा से जोड़ता है| यह कोई श्वास-प्रश्वास का व्यायाम नहीं है, यह योग-साधना का भाग है जो हमारी प्राण चेतना को जागृत कर उसे नीचे के चक्रों से ऊपर उठाता है|
मैं यहाँ प्राणायाम की दो अति प्राचीन और विशेष विधियों का उल्लेख कर रहा हूँ| ये निरापद हैं| ध्यान साधना से पूर्व खाली पेट इन्हें करना चाहिए| इनसे ध्यान में गहराई आयेगी|
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(1)
(a) खुली हवा में पवित्र वातावरण में पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह कर के कम्बल पर बैठ जाइए| यदि भूमि पर नहीं बैठ सकते तो भूमि पर कम्बल बिछाकर, उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर कमर सीधी कर के बैठ जाइए| कमर सीधी रहनी चाहिए अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा| कमर सीधी रखने में कठिनाई हो तो नितंबों के नीचे पतली गद्दी रख लीजिये| दृष्टी भ्रूमध्य को निरंतर भेदती रहे, और ठुड्डी भूमि के समानांतर रहे|
(b) बिना किसी तनाब के फेफड़ों की पूरी वायू नाक द्वारा बाहर निकाल दीजिये, गुदा का संकुचन कीजिये, पेट को अन्दर की ओर खींचिए और ठुड्डी को नीचे की ओर कंठमूल तक झुका लीजिये| दृष्टी भ्रूमध्य में ही रहे|
(c) मेरु दंड में नाभी के पीछे के भाग मणिपुर चक्र पर मानसिक रूप से ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जितनी देर तक बिना तनाव के जप कर सकें कीजिये| इस जप के समय हम मणिपुर चक्र पर प्रहार कर रहे हैं|
(d) आवश्यक होते ही सांस लीजिये| सांस लेते समय शरीर को तनावमुक्त कर a वाली स्थिति में आइये और कुछ देर अन्दर सांस रोक कर नाभि पर प्रहार करते हुए ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जप करें|
(e) उपरोक्त क्रिया को दस बारह बार दिन में दो समय कीजिये| इस के बाद ध्यान कीजिये|
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(2)
एक दूसरी विधि है :------ उपरोक्त प्रक्रिया में a और b के बाद धीरे धीरे नाक से सांस लेते हुए निम्न मन्त्रों को सभी चक्रों पर क्रमश: मानसिक रूप से एक एक बार जपते हुए ऊपर जाएँ|
मूलाधारचक्र ........ ॐ भू:,
स्वाधिष्ठानचक्र ..... ॐ भुव:,
मणिपुरचक्र ........ ॐ स्व:,
अनाहतचक्र ........ ॐ मह:,
विशुद्धिचक्र ......... ॐ जन:,
आज्ञाचक्र ........... ॐ तप:,
सहस्त्रार.............. ॐ सत्यम् |
इसके बाद सांस स्वाभाविक रूप से चलने दें लेते हुए अपनी चेतना को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विस्तृत कर दीजिये| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं हैं| आप यह देह नहीं हैं| जैसे ईश्वर सर्वव्यापक है वैसे ही आप भी सर्वव्यापक हैं| पूरे समय तनावमुक्त रहिये|
कई अनुष्ठानों में प्राणायाम करना पड़ता है वहां यह प्राणायाम कीजिये| संध्या और ध्यान से पूर्व भी यह प्राणायाम कर सकते हैं| धन्यवाद| ॐ शिव|

Wednesday 26 April 2017

बल हीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती .....

'नायमात्माबलहीनेनलभ्यः'
(बल हीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती) ........
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जितेन्द्रिय व्यक्ति ही महावीर होते हैं, वे ही परमात्मा को प्राप्त करते हैं|
परमात्मा के प्रति परम प्रेम और गहन अभीप्सा के पश्चात इन्द्रियों पर विजय पाना आध्यात्म की दिशा में अगला क़दम है | बिना इन्द्रियों पर विजय पाए कोई एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकता | इन्द्रियों पर विजय न पाने पर आगे सिर्फ पतन ही पतन है |
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मैं जो लिख रहा हूँ अपने अनुभव से लिख रहा हूँ| मैं बहुत सारे बहुत ही अच्छे अच्छे और निष्ठावान सज्जन लोगों को जानता हूँ जिनकी आध्यात्मिक प्रगति इसीलिए रुकी हुई है कि वे इन्द्रियों पर नियंत्रण करने में असफल रहे है| मैंने जो कुछ भी सीखा है वह अत्यधिक कठिन और कठोरतम परिस्थितियों से निकल कर सीखा है| अतः इस विषय पर मेरा भी निजी अनुभव है|
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कुछ लोग अपनी असफलता को छिपाने के लिए बहाने बनाते हैं और कहते हैं कि 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'| पर वे नहीं समझते कि बिना इन्द्रियों पर नियंत्रण पाये मन पर नियन्त्रण असम्भव है|
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इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण का न होना आध्यात्म मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध है| इन्द्रिय सुखों को विष के सामान त्यागना ही होगा| चाहे वह शराब पीने का या नशे का शौक हो, या अच्छे स्वादिष्ट खाने का, या नाटक सिनेमा देखने का, या यौन सुख पाने का| इन सब शौकों के साथ आप एक अच्छे सफल सांसारिक व्यक्ति तो बन सकते हो पर आध्यात्मिक नहीं| जितेन्द्रिय व्यक्ति ही महावीर होते हैं, वे ही भगवान को उपलब्ध होते हैं| यदि आपको महावीर बनना है तो जितेन्द्रिय होना ही होगा|
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इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण एक परम तप है| इससे बड़ा तप दूसरा कोई नहीं है| इसके लिए तपस्या करनी होगी| दो बातों का निरंतर ध्यान रखना होगा .....

(1) सारे कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करो, ना कि इन्द्रियों की माँग पर .....
भगवान ने आपको विवेक दिया है उसका प्रयोग करो| इन्द्रियों की माँग मत मानो| इन्द्रियाँ जब जो मांगती हैं वह उन्हें दृढ़ निश्चय पूर्वक मत दो| उन्हें उनकी माँग से वंचित करो| यह सबसे बड़ी तपस्या है| इन्द्रियों का निरोध करना ही होगा|
(2) दृढ़ निश्चय कर के निरंतर प्रयास से मन को परमेश्वर के चिंतन में लगाओ|
विषय-वासनाओं से मन को हटाकर भगवान के ध्यान में लगाओ| जब भी विषय वासनाओं के विचार आयें, अपने इष्ट देवता/देवी से प्रार्थना करें, गायत्री मन्त्र का जाप करें आदि आदि|
सात्विक भोजन लें, कुसंग का त्याग करें, सत्संग करें और सात्विक वातावरण में रहें| निश्चित रूप से आप महावीर बनेंगे|
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श्रुति भगवती कहती है .... 'नायमात्माबलहीनेनलभ्यः'| अर्थात बल हीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती| और यह बल उसी को प्राप्त होता है जो जितेन्द्रिय है और जिसने अपनी इन्द्रियों के साथ साथ मन पर भी नियंत्रण पाया है|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
26April2016

अनेक महान आत्माएँ दिन-रात एक कर के भारत के सकारात्मक उत्थान में लगी हुई हैं .....

 
चारों और चाहे कितना भी गहन अन्धकार हो, अनेक महान आत्माएँ दिन-रात एक कर के भारत के सकारात्मक उत्थान में लगी हुई हैं|
जन अपेक्षाओं और किसी भी तरह के यश और कीर्ति की कामनाओं से दूर अनेक दिव्य आत्माएँ भारत माँ के उत्थान कार्य में लगी हुई हैं|
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अनेक धर्म-प्रचारक पूरे विश्व में सनातन धर्म और आध्यात्म के प्रचार-प्रसार में निःस्वार्थ भाव से लगे हुए हैं| संघ के सैंकड़ों अज्ञात प्रचारक शांत भाव से अपने निज जीवन की आहुति देकर माँ भारती की सेवा में राष्ट्र साधना कर रहे हैं| अनेक वास्तविक साधू-संत अपनी साधना से राष्ट्र को एक सकारात्मक ऊर्जा प्रदान कर रहे हैं| अनेक पूरी तरह से निष्ठावान व ईमानदार अधिकारी और कर्मचारी अपनी सेवाएँ राष्ट्र को प्रदान कर रहे हैं|
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सभी बुरे नहीं हैं, अच्छे लोग भी हैं जो किसी भी तरह के प्रचार से दूर हैं|
जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ हम क्या कर सकते हैं यह स्वयं के हृदय से पूछें और अपना सर्वश्रेष्ठ भारत माँ को और परमात्मा को समर्पित करें|
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आप सब परमात्मा के साकार रूप हैं| स्वयं में अव्यक्त परम ब्रह्म को व्यक्त करें| जीवन में इसी क्षण से अपना सर्वश्रेष्ठ करें| भगवान हमारे साथ है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

"कड़ी निंदा" कायरों का हथियार है ......

"कड़ी निंदा" कायरों का हथियार है ......
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> आतताइयों, देशद्रोहियों व ठगों को चारों और से घेरकर मारा जाए और फिर उन्हें कचरे में जला दिया जाए| >कुछ दिनों के लिए मानवाधिकार कार्यालयों को और बिकी हुई प्रेस की काँव काँव और बकवास को प्रतिबंधित कर देना चाहिए|
>भाड़े के भांड ठग आन्दोलनकारियों का संचालन करने वाले NGOs की पहिचान कर उन्हें बंद किया जाए|
>किसी भी कीमत पर आतताइयों को जीवित न रहने दिया जाए|
>सेना पर पत्थरबाजी करने वालों पर सीधे गोली चलाई जाए|
>कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा कर पूरा प्रशासन सेना के हवाले कर दिया जाए, और कश्मीर को ठगों से मुक्त कराया जाए|
 

वन्दे मातरं ! भारत माता की जय | ॐ ॐ ॐ ||
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जहाँ जहाँ देश के सैनिकों की हत्याएँ हो रही हैं, उन क्षेत्रों में आपत्काल घोषित कर सर्वप्रथम तो प्रेस-पत्रकारों के लिए वह क्षेत्र प्रतिबंधित कर देना चाहिए| नागरिकों को भी चाहिए कि उनके चैनलों पर उनकी राष्ट्रविरोधी काँव काँव और बकवास न सुने| उन क्षेत्रों की कवरेज भी प्रतिबंधित कर दी जाए| फिर अर्धसैनिक बालों को पूरी छूट देकर राष्ट्रद्रोहियों को चारों और से घेरकर समाप्त कर दिया जाए|

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता ही मनुष्य की समस्त पीड़ाओं का कारण है ..

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता ही मनुष्य की समस्त पीड़ाओं का कारण है ..
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सब दू:खों, कष्टों और पीडाओं का स्थाई समाधान है --- शरणागति, यानि पूर्ण समर्पण| प्रभु को इतना प्रेम करो, इतना प्रेम करो कि निरंतर उनका ही चिंतन रहे| फिर आपकी समस्त चिंताओं का भार वे स्वयं अपने ऊपर ले लेंगे|
जो भगवान का सदैव ध्यान करता है उसका काम स्वयं भगवान ही करते हैं|
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संसार में सबसे बड़ी और सबसे अच्छी सेवा जो आप किसी के लिए कर सकते हो वह है -- परमात्मा की प्राप्ति| तब आपका अस्तित्व ही दूसरों के लिए वरदान बन जाता है| तब आप इस धरा को पवित्र करते हैं, पृथ्वी पर चलते फिरते भगवान बन जाते हैं, आपके पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है|
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परमात्मा एक प्रवाह की तरह हैं जिसे शांत होकर अपने भीतर बहने दो| कोई अवरोध मत खड़ा करो| उनकी उपस्थिति के सूर्य को अपने भीतर चमकने दो|
जब उनकी उपस्थिति के प्रकाश से ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उसकी महक अपने ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेगी|
हे प्रभु, यह मेरापन, सारी वासनाएँ, और सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हें समर्पित है|
जल की यह बूँद तेरे महासागर में समर्पित है जो तेरे साथ एक है, अब कोई भेद ना रहे|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

खेचरी मुद्रा ......

April 25, 2014 ·
खेचरी मुद्रा .....
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यह सदा एक गोपनीय विषय रहा है जिसकी चर्चा सिर्फ निष्ठावान एवम् गंभीर रूप से समर्पित साधकों में ही की जाती रही है| पर रूचि जागृत करने हेतु इसकी सार्वजनिक चर्चा भी आवश्यक है| ध्यानस्थ होकर योगी महात्मा गण अति दीर्घ काल तक बिना कुछ खाए-पीये कैसे जीवित रहते हैं? इसका रहस्य है ....'खेचरी मुद्रा'|
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ध्यान साधना में तीब्र गति लाने के लिए भी खेचरी मुद्रा बहुत महत्वपूर्ण है| 'खेचरी' का अर्थ है ..... ख = आकाश, चर = विचरण| अर्थात आकाश तत्व यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण| जो बह्म में विचरण करता है वही साधक खेचरी सिद्ध है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः उपलब्ध हो जाता है पर प्रगाढ़ ध्यानावस्था में देखा गया है की साधक की जीभ स्वतः उलट जाती है और खेचरी व शाम्भवी मुद्रा अनायास ही लग जाती है|
वेदों में 'खेचरी शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है| वैदिक ऋषियों ने इस प्रक्रिया का नाम दिया -- 'विश्वमित्'|
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दत्तात्रेय संहिता और शिव संहिता में खेचरी मुद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है|
शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है .....
"करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम् |
लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम् ||"
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतागामी करता है, अर्थात जीभ को तालुका में बैठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
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जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
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आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
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योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे| वे खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे 'तालब्य क्रिया' कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं| इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों में जिव्हा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरु कृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे| तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
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हमारे महान पूर्वज स्थूल भौतिक सूर्य की नहीं बल्कि स्थूल सूर्य की ओट में जो सूक्ष्म भर्गःज्योति: है उसकी उपासना करते थे| उसी ज्योति के दर्शन ध्यान में कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्रार के मध्य) में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में, और साथ साथ श्रवण यानि अनाहत नाद (प्रणव) के रूप में सर्वदा होते हैं|
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ध्यान साधना में सफलता के लिए हमें इन का होना आवश्यक है:-----
(1) भक्ति यानि परम प्रेम|
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा|
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग|
(4) शरणागति और समर्पण|
(5) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान|
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन|
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खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि के बारे में पढ़ा है पर मुझे उसका अभी तक ज्ञान नहीं है| सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर, पद्मासन में बैठ कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
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भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य के नीचे) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
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जो योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की गुरु परम्परा में क्रिया योग साधना में दीक्षित हैं उनके लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास अनिवार्य है| क्रिया योग की साधना खेचरी मुद्रा में होती है| जो खेचरी मुद्रा नहीं कर सकते उनको जीभ ऊपर को ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखनी पडती है| खेचरी मुद्रा में क्रिया योग साधना अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है|

ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
April 25, 2014.

नक्सलवादी आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास .....

> वर्तमान नक्सलवादियों का मूल नक्सलवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है| मूल नक्सलवाद और नक्सलवादियों का अब कोई अस्तित्व नहीं है| वर्तमान नक्सलवादी और उनके समर्थक "ठग" है, और "ठग" के अलावा कुछ और नहीं हैं|
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> जिस समय नक्सलबाड़ी में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने नक्सलवादी आन्दोलन का आरम्भ किया था, तब से अब तक का सारा घटनाक्रम मुझे याद है| उस समय की घटनाओं का सेकंड हैण्ड नहीं, फर्स्ट हैण्ड ज्ञान मुझे है| उस आन्दोलन से जुड़े अनेक लोग मेरे परिचित और तत्कालीन मित्र थे|
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> जो मूल नक्सलवादी थे उनकी तीन गतियाँ हुईं .......
* (१) उनमें से आधे तो पुलिस की गोली का शिकार हो गए| किसी को पता ही नहीं चलने दिया गया था कि उनका क्या हुआ, कहाँ उनकी लाशों को ठिकाने लगाया गया आदि आदि| वे अस्तित्वहीन ही हो गए|
* (२) जो जीवित बचे थे उन में से आधों ने तत्कालीन सरकार से समझौता कर लिया और नक्सलवादी विचारधारा छोड़कर राष्ट्र की मुख्य धारा में बापस आ कर सरकारी नौकरियाँ ग्रहण कर लीं|
* (३) बाकी बचे हुओं ने इस विचारधारा से तौबा कर ली और इस विचारधारा के घोर विरोधी हो गए|
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> अब नक्सलवाद के नाम पर जो यह ठगी और लूट का काम कर रहे हैं, वे बौद्धिक आतंकवादी, ठग, डाकू और तस्कर हैं|
उनका एक ही इलाज है, और वह है ...... "बन्दूक की गोली"|
इसी की भाषा को वे समझते हैं| वे कोई भटके हुए नौजवान नहीं है, वे कुटिल राष्ट्रद्रोही तस्कर हैं, जिनको बिकी हुई प्रेस, वामपंथियों और राष्ट्र्विरोधियों का समर्थन प्राप्त है|
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नक्सलवादी आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास .......
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नक्सलवादी आन्दोलन का विचार कानू सान्याल के दिमाग की उपज थी| यह एक रहस्य है कि कानू सान्याल इतना खुराफाती कैसे हुआ| वह एक साधू आदमी था जिसका जीवन बड़ा सात्विक था| उसका जन्म एक सात्विक ब्राह्मण परिवार में हुआ था| उसकी दिनचर्या बड़ी सुव्यवस्थित थी और भगवान ने उसे बहुत अच्छा स्वास्थ्य दिया था| सन १९६२ में वह बंगाल के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री वी.सी.रॉय को काला झंडा दिखा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जहाँ उसकी भेट चारु मजुमदार से हुई|
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चारु मजूमदार एक कायस्थ परिवार से था और हृदय रोगी था, जो तेलंगाना के किसान आन्दोलन से जुड़ा हुआ था और जेल में बंदी था| दोनों की भेंट सन १९६२ में जेल में हुई और दोनों मित्र बने|
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सन १९६७ में दोनों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध एक घोर मार्क्सवादी आन्दोलन आरम्भ किया जो नक्सलवाद कहलाया| इस आन्दोलन में छोटे-मोटे तो अनेक नेता थे पर इनको दो और प्रभावशाली कर्मठ नेता मिल गए ........ एक तो था नागभूषण पटनायक, और दूसरा था टी.रणदिवे| इन्होनें आँध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम के जंगलों से इस आन्दोलन का विस्तार किया|
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यह आन्दोलन पथभ्रष्ट हो गया जिससे कानु सान्याल और चारु मजूमदार में मतभेद हो गए और दोनों अलग अलग हो गए| चारु मजुमदार की मृत्यु सन १९७२ में हृदय रोग से हो गयी, और कानु सान्याल को इस आन्दोलन का सूत्रपात करने की इतनी अधिक मानसिक ग्लानी और पश्चाताप हुआ कि २३ मार्च २०१० को उसने आत्महत्या कर ली|
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अब आप नक्सलवादी आन्दोलन का अति संक्षिप्त इतिहास समझ गए होंगे|
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वन्दे मातरं | भारत माता की जय | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :-----
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>>> माओवाद यानि नक्सलवाद को एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से समाप्त किया जा सकता है| इसमें राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठना पडेगा| सभी शासकों को पता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं| इस कार्य के लिए विशेषज्ञ भी हैं और अनुभवी व्यक्ति भी| पर राजनीतिक स्वार्थ आड़े आ जाते हैं|
(१) सबसे पहले तो स्वयं को माओवादी क्रांतिकारी बताने वाले ठगों से वनवासियों को बचाना होगा| इन ठगों का निश्चित विनाश तो करना ही होगा|
(२) फिर प्राकृतिक संसाधनों .... जल, जंगल, जमीन, खनिज और पहाड़ को बचाने के लिए वनवासियों का सहयोग लेना ही होगा और उन्हें ही इसकी जिम्मेदारी भी देनी होगी|
(३) वनवासियों को साहूकारों, सरकारी कर्मचारियों और पूंजीपतियों के शोषण से बचाना होगा|
(४) वनवासियों के लिए एक पुलिस का सिपाही और एक कनिष्ठ से कनिष्ठ सरकारी कर्मचारी ही सरकार होता है| सरकारी कर्मचारियों को भी प्रशिक्षित करना होगा की वे वनवासियों को सताएँ नहीं|
(५) वनवासी क्षेत्रों में निःशुल्क शिक्षा और इलाज की व्यवस्था करनी होगी|
(६) वनवासी कल्याण परिषद् जैसी संस्थाओं को सहयोग देना भी होगा और उनसे सहयोग लेना भी होगा| उन्हें इस क्षेत्र का बहुत अनुभव है|
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>>> नक्सलवाद एक विफल विचारधारा है| इसके संस्थापक कानू सान्याल ने इसके भटकाव और विफलता से दुःखी होकर आत्म ह्त्या कर ली थी| उनके सहयोगी चारू मजूमदार भी निराश होकर ह्रदय रोग से मर गए थे| इस पर मैं एक लेख पोस्ट कर चुका हूँ| इस आसुरी विचारधारा का कोई भविष्य नहीं है|

ओशो ......

ओशो ......
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सन १९६० व १९७० के दशकों में जितना साहित्य आचार्य रजनीश उर्फ़ भगवान श्री रजनीश उर्फ़ ओशो का पढ़ा गया उतना शायद ही अन्य किसी मनीषी का पढ़ा गया था| सन १९८५ तक उनका स्वर्ण काल था जब अमेरिका से प्रताड़ित और अपमानित कर के उनको देश-निकाला दिया गया| उनके कुछ वफादार शिष्य तो अंत तक उनके वफादार रहे पर अनेकों ने उनके साथ विश्वासघात भी किया|
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ओशो का हिंदी में उपलब्ध साहित्य मैनें उस समय से पढ़ा है जब वे आचार्य रजनीश के नाम से जाने जाते थे| अमेरिका जाने से पूर्व जब वे पुणे में थे तब मैंने उनको एक पत्र लिखा था जिसके उत्तर में उनकी संस्था ने मुझे पुणे में उनके कोरेगाँव स्थित आश्रम में आने का निमंत्रण भी दिया था| उनके जैसा प्रतिभाशाली विद्वान् वर्तमान काल में मेरी दृष्टी में तो किसी अन्य को पाना अत्यंत कठिन है| उनके शब्दों की नक़ल भी बहुत अधिक हुई है|
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ओशो की सबसे बड़ी खूबी तो यह थी कि उन्होंने ईसाईयत के साथ कभी भी किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया|
ओशो से पूर्व जितने भी भारतीय सन्यासी अमेरिका गए थे ...... स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी योगानंद (परमहंस योगानंद) ..... प्रायः सभी ने ईसा मसीह को भगवान श्रीकृष्ण के समकक्ष रखा ताकि वहाँ के लोग उनकी बात सुनें| यदि वे ऐसा नहीं करते तो उस ईसाई देश में उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक प्रकार की आध्यात्मिक मार्केटिंग थी|
पर ओशो ने ऐसा कोई समझौता नहीं किया| उन्होंने ईसाईयत पर निरंतर मर्मान्तक प्रहार किये और लाखों लोगों को ईसाईयत के भ्रमजाल से बाहर निकाला| ईसाईयत पर किये गए उनके प्रहारों से आहत होकर ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रीगन ने उनको प्रताड़ित और यंत्रणा दे कर के अपने देश से बाहर निकाला| उनको धीमा जहर भी अमेरिका में दिया गया जिससे वे रुग्न होकर शीघ्र ही काल-कवलित हो गए|
ओशो से पूर्व भक्तिवेदांत प्रभुपाद स्वामी अमेरिका गए थे, उन्होंने भी ईसाईयत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया||
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ओशो की कमियों को देखें तो उनकी सबसे बड़ी कमी थी उनके शब्दों में अंतर्विरोध जो स्वयं उन्होंने स्वीकार भी किया था| उनका "सम्भोग से समाधी" वाला सिद्धांत पश्चिम ने तो स्वीकार किया, पर प्रायः सभी प्रचलित भारतीय परम्पराओं के विरुद्ध होने के कारण भारत में उनकी सर्वाधिक आलोचना भी इसी कारण हुई|
वे जैन समाज में जन्में थे पर जैन धर्म से बंधे हुए नहीं थे|| उन्होंने महावीर के सिद्धांतों के अतिरिक्त, अन्य किसी जैन आचार्य की जहाँ तक मुझे ज्ञात है कोई चर्चा नहीं की है|
उनके "सम्भोग से समाधी" वाले सिद्धांत ने लोगों को बहुत अधिक भ्रमित किया और इसी के चलते वे भारतीय जनमानस में स्वीकृत नहीं हुए|
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मैं उनका न तो अनुयायी हूँ और न विरोधी, पर निष्पक्ष रूप से उनके साहित्य के लिए उनका प्रशंसक अवश्य हूँ| उन्हें नकार नहीं सकता| उनके व्यक्तिगत जीवन में मेरी कोई रूचि नहीं है| अपने साहित्य के कारण ही वे मरे नहीं हैं, आज भी जीवित हैं| उनका साहित्य उन्हें सदा जीवित रखेगा|
इति||
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पुनश्चः : --- ओशो के कारण ही मैंने "विज्ञान भैरव तंत्र" और "नारद भक्ति सूत्रों" का कई बार गहन अध्ययन किया| ओशो के कारण ही मेरी रूचि वेदान्त दर्शन में जागृत हुई| भारत के अनेक संतों पर लिखे उनके लेख बहुत अधिक प्रेरणादायक हैं|

परमात्मा एक प्रवाह है .....

>>> "परमात्मा एक प्रवाह है, उसे स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दो| कोई अवरोध मत खड़ा करो| फिर पाएँगे कि वह प्रवाह हम स्वयं हैं|" <<<
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प्रिय निजात्मगण, आप सब में हृदयस्थ प्रभु को नमन !
आप सब से एक प्रश्न है ..... क्या इस संसार में कुछ पाने योग्य है ?
आध्यात्मिक दृष्टी से सर्वप्रथम तो कुछ पाने की अवधारणा ही गलत है|
कुछ पाने की कामना ही माया का सबसे बड़ा अस्त्र है|
>>> या तो सब कुछ मिलता है या कुछ भी नहीं मिलता, यह एक आध्यात्मिक नियम है| यह कुछ पाने की अभिलाषा एक मृगतृष्णा है| किसी को कुछ नहीं मिलता| <<<
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सब कुछ परमात्मा का है और सब कुछ "वह" ही है| हमें स्वयं को ही समर्पित होना पड़ता है| जो परमात्मा को समर्पित हो गया उसको सब कुछ मिल गया| बाकि अन्य सब को निराशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता|
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सब कुछ तो मिला हुआ ही है| पाने योग्य कुछ है तो "वह" ही है जिसे पाने के बाद कुछ भी प्राप्य नहीं है| "वह" मिलता नहीं है, उसमें स्वयं को समर्पित होना पड़ता है| कुछ करने से "वह" नहीं मिलता, कुछ होना पड़ता है| वह होने पर "वह" स्वयं ही कर्ता भी बन जाता है|
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हमें चाहिए बस सिर्फ एक प्रबल सतत अभीप्सा और परम प्रेम, अन्य कुछ भी नहीं|
>>> "परमात्मा एक प्रवाह है, उसे स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दो| कोई अवरोध मत खड़ा करो| फिर पाएँगे कि वह प्रवाह हम स्वयं हैं|" <<<
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ॐ तत्सत् | शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
24 April 2016

देश खनन माफियाओं के चंगुल में है .....

April 23, 2013.

ॐ श्री गुरवे नमः| आज मैं साधन क्रमों पर चर्चा करने वाला था पर उसके स्थान पर अपनी ही व्यथा व्यक्त करने जा रहा हूँ| अपने सामने इतना अन्याय देख रहा हूँ कि इस समाज से विरक्ति हो गयी है| इच्छा यही हो रही है कि विरक्त होकर सांसारिक चेतना से ऊपर उठ जाऊं और स्थाई रूप से एकांतवास करूं व इस समाज और इसकी चेतना से पृथक ही रहूँ|
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सारा देश इस समय खनन माफियाओं के चंगुल में है| हर जिले में पटवारी से जिलाधीश तक, और सिपाही से पुलिस अधीक्षक तक, और सारे मंत्रीगण खनन माफियाओं के बंधुआ मजदूर है| देश की बहुमूल्य खनिज संपदा की लूट हो रही है| और जो भी इन माफियाओं के मार्ग में आता है उसका अंत कर दिया जाता है|
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स्वतन्त्रता संग्राम में हमारे क्षेत्र में स्वतंत्रता सेनानियों के शिरोमणि थे --- पचेरी ग्राम के पं.ताड़केश्वर शर्मा| अंगरेज़ सरकार ने उनके पूरे परिवार को सगे सम्बन्धियों, महिलाओं और बच्चों सहित जेल में डाल रखा था| उनका घर, खेत और सारी सम्पति जब्त कर ली थी| तथाकथित आज़ादी के बाद उनके परिवार के जीवित बचे छ: सदस्यों को राष्ट्रपति ने सम्मानित भी किया था|
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उनके पौत्र पं.प्रदीप शर्मा पर्यावरण प्रेमी होने के कारण और परोपकार हेतु खनिज माफियों के विरुद्ध संघर्षरत थे| दो माह पूर्व उनके परिवार के अनुसार पुलिस की मिलीभगत से चुनौती देकर भोजन करते समय घर से बाहर बुलाकर उनकी ह्त्या कर दी गयी और लाश को एक-डेढ़ फुट गहरे नाले में फेंक दिया गया| उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर आसपास के गाँवों से हजारों लोग एकत्र हो गए व जिले के कई प्रतिष्ठित लोग भी आ गए तब प्रशासन ने पूर्ण आश्वासन दिया था कि मामले की निष्पक्ष जांच होगी| उनके शरीर पर और गले पर चोट के निशान भी थे|
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अब सरकार यह सिद्ध करने पर अड़ी हुई है कि पं.प्रदीप शर्मा ने पानी में डूब कर आत्म-हत्या की है| सरकारी पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में भी दम घुटने से मौत दिखाई गई है और शरीर पर चोटों के निशान नहीं होना बताया है| उनके गाँव पचेरी में अभी तक आन्दोलन चल रहा है| सारे गाँव के लोग पाबन्द किए गए हैं| आस पास के गाँवों में पूर्ण बंद रहा है और प्रशासन ने जन आन्दोलन को कुचलने की पूर्ण चेष्टा की है| पं.प्रदीप शर्मा के घर का ताला तोड़कर उनका चलभाष और अन्य साक्ष्य चोरी किये गए| जाँच के नाम पर सारे साक्ष्यों को मिटाया गया है| क्या इतने जीवट का व्यक्ति जो खनन माफियाओं के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था एक फुट गहरे पानी में डूब कर आत्म-ह्त्या करेगा?
क्या कोई एक फुट गहरे पानी में डूब कर आत्म-हत्या कर सकता है?
दो महीने बीत जाने पर भी किसी नामजद को गिरफ्तार नहीं किया गया है| CBI से जाँच की मांग नहीं मानी जा रही है| यदि CBI से जाँच हो तो पूरी सरकार बेनकाब हो जायेगी| पर सीबीआई भी तो सरकार से ही आदेश लेगी|
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कल जिला मुख्यालय पर एक बहुत बड़ा धरना दिया गया जिसमे अनेक पूर्व वरिष्ठ पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी, प्रसिद्ध डॉक्टर, प्रबुद्धजन, शिक्षाविद और मातृशक्ति थी| सबने इस घटना की निंदा की| ज्ञापन लेने के लिए कोई अधिकारी उपलब्ध नहीं था| अब उस महान स्वतंत्रता सेनानी के परवार के सदस्यों ने निर्णय लिया है की वे अपने सम्मान लौटा देंगे और आमरण अनशन करेंगे|
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जब एक प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी का परिवार इन खनन माफियाओं से सुरक्षित नहीं है तो एक सामान्य जन का क्या हाल होगा?
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और भी अनेक बातें हैं जो पीड़ित करती हैं| इसमें दोष बुरे लोगों का नहीं है| दोष तो हमारा ही है हम निर्बल और संवेदन हीन बन गए हैं|
दुनिया को खतरा बुरे लोगों की ताकत से नहीं है बल्कि अच्छों की दुर्बलता के कारण है|
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वर्त्तमान में Democracy (लोकतंत्र) समाप्त होकर Plutocracy (धनी व कुटिल लोगों का राज्यतंत्र) रह गयी है| वर्त्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था काले विषधर उगल रही है और हम उन्हें दूध पिला रहे हैं| आज की राजनीति आत्मा पर लात मार रही है और हम वफादारी के साथ अपनी दुम हिला रहे हैं|
हम सत्य को कहने से डर रहे हैं|
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अधिक से अधिक 50 या 60 प्रतिशत मतदान होता है फिर ये मत अनेक प्रत्याशियों में बँट जाते हैं| मात्र 20-25 मत प्राप्त करने वाला व्यक्ति जनप्रतिनिधी बन जाता है|
वोट बेंक की राजनीति, जातिवाद, साम्प्रदायिकता की भावना भड़का कर, पैसे शराब आदि बाँट कर 15 से 20 प्रतिशत वोट प्राप्त कर लेने वाले की जीत पक्की है| सारे माफिया इसी तरीके से सत्ता में आते हैं|
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हमारे मन में लाचारी का भाव की मैं अकेला क्या कर सकता हूँ, मेरी कौन सुनेगा आदि के कारण ही यह democracy बदल कर plutocracy हो गई है| मैं सभी पाठकों से निवेदन करता हूँ की हम सब यह संकल्प करें की अगले चुनावों में शत-प्रतिशत मतदान के लक्ष्य को प्राप्त करें| समाज के जिस पात्र भाई बहिन का नाम मतदाता सूचि में नहीं है वे अपना नाम जुड़ायें| मतदान वाले दिन सूर्य उदय होते ही एक धार्मिक कर्तव्य मानकर मतदान देने पहुँच जाएँ| अन्यथा यही अन्याय और माफिया राज्य सहने के लिए तैयार रहें| सोचें, विचारें और सक्रियता से आगे बढ़ें अन्यथा पांचाली के चीर हरण में जो चुप रहेंगे उन्हें भावी पीढी कभी क्षमा नहीं करेगी|
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शुभ कामनाएँ| जय जननी जय भारत|
२३ अप्रेल, २०१३.

अप्राप्त के लालच का त्याग .........

अप्राप्त के लालच का त्याग .........
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प्रिय निजात्मगण,
आप सब में हृदयस्थ भगवन नारायण को नमन!
आज प्रातः ही एक लेख पढ़ रहा था जिसने मुझे झकझोर कर रख दिया| एक बात जो बार बार भूल जाता हूँ वह चैतन्य की गहराई में बैठ गयी|
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हमारे जीवन का लक्ष्य है --- शरणागति द्वारा भगवान के श्रीचरणों में सम्पूर्ण समर्पण अर्थात अपने मन बुद्धि चित्त और अहंकार का सम्पूर्ण समर्पण|
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अब प्रश्न उठता है कि इसमें बाधा क्या है? इसमें सबसे बड़ी बाधा है --- कुछ पाने का लालच अर्थात जो अप्राप्त है उसे पाने का लोभ| हम कुछ माँगते हैं यह हमारा लोभ ही है| इच्छा शक्ति मात्र से इस लोभ रूपी महाशत्रु पर विजय नहीं पाई जा सकती| किसी भी प्रकार के संकल्प-विकल्पों से बचो|
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जीवन का सार कुछ होने में है, न की कुछ प्राप्त करने में| आप यह देह नहीं हैं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं| जब आप परमात्मा को उपलब्ध हैं तो सब कुछ आपका ही है| फिर काहे की इच्छा?
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जो कुछ भी प्राप्त है उसका पूर्ण सदुपयोग भी होना चाहिए| इसमें मार्गदर्शन प्रत्यक्ष परमात्मा की कृपा से ही मिलता है जो उनके प्रति परम प्रेम से प्राप्त होती है| कोई भी कामना न करें| कामना ही सब दुःखों का कारण है|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर

जिस गति से हमारा भौतिक ज्ञान बढ़ रहा है उसी गति से हमारा आध्यात्मिक अज्ञान भी अनावृत हो रहा है .......

जिस गति से हमारा भौतिक ज्ञान बढ़ रहा है उसी गति से हमारा आध्यात्मिक अज्ञान भी अनावृत हो रहा है ........
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चाहे कोई मेरा कितना भी उपहास करे, मेरी कितनी भी हँसी उड़ाये या मुझे कितना भी बुरा बताए, पर यह सुनिश्चित है कि वर्तमान सभ्यता निकट भविष्य में नष्ट होगी व एक नई प्रजाति इस पृथ्वी पर राज्य करेगी| ऐसा मुझे बार बार आभास होता है|
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वर्तमान सभ्यता ने आत्मज्ञान यानि ब्रह्मज्ञान को असंगत बना रखा है, आत्मा व परमात्मा के चिंतन को पिछड़ेपन की निशानी, साम्प्रदायिक व बेकार की बात बना रखा है| वर्त्तमान सभ्यता का एकमात्र लक्ष्य इन्द्रिय सुखों के लिए ही भौतिक समृद्धि की प्राप्ति है| भौतिक समृद्धि आवश्यक है पर उस का लक्ष्य निज जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति है| सारे ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत भी परमात्मा ही है| आसुरी सभ्यताएँ चिरस्थायी नहीं होतीं|
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अपने स्वयं को यानि आत्म-तत्व को जाने बिना हम सब कुछ जानना चाहते हैं| अपने वास्तविक कल्याण के लिए हमें क्या करना चाहिए, इस पर कोई प्रयास नहीं हो रहा है| सौभाग्य से इस लक्ष्य के प्रति जागरूक दिव्यात्माओं का भी जन्म हो रहा है जो एक नई प्रजाति ही है|
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हे प्रभु, हे परमशिव, आप की आरोग्यकारी उपस्थिति आप की सभी संतानों के देह, मन और आत्माओं में प्रकट हो| सभी का कल्याण हो| आपके अतिरिक्त हमारी कोई अन्य कोई कामना नहीं हो| हम राग-द्वेष और अहंकार जैसे सभी बंधनों से मुक्त हों|
ॐ ॐ ॐ ||

राष्ट्र और समाज की चिंता संत महात्माओ को ही होती है .....

राष्ट्र और समाज की चिंता संत महात्माओ को ही होती है .....
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जिस समय पृथ्बी पर रावण का आतंक था, उस समय जनक तथा दशरथ जैसे चक्रवर्ती राजा राज्य कर रहे थे| वे कभी भी रावण का वध कर सकते थे, पर धर्मरक्षा की चिंता विश्वामित्र जैसे संतों को ही हुई| राष्ट्र और समाज की चिंता सिर्फ संत महात्माओ को ही होती है|
गाधि तनय मन चिंता व्यापी ,हरि बिन मरय न निशिचर पापी|
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मेरे मन में प्रश्न यह उठता है जब इतने बड़े बड़े पराक्रमी चक्रवर्ती राजा थे उन्होंने रावण से युद्ध क्यों नहीं किया? एक संत को ही यह चिंता क्यों हुई कि हरि बिना ये निशाचर पापी नहीं मरेंगे|
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वर्त्तमान में भी देश की चिंता सिर्फ संत महात्माओं को ही है| वे ही इस समय सर्वाधिक प्रयास कर रहे हैं और अपना सर्वस्व न्योछावर कर रहे हैं| उन्ही के पुण्य प्रताप से सनातन धर्म और भारतवर्ष जीवित है|
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भारतवर्ष को इस समय आवश्यकता है एक ब्रह्मतेज की| जब ब्रह्मत्व जागृत होगा तब क्षातृत्व भी जागृत होगा| इसके लिए साधना और समर्पित साधकों की आवश्यकता है| यह संत महात्माओं का तप ही रक्षा करेगा|

ॐ शिव !

परमात्मा से जुड़ कर ही मनुष्य महान बनता है ......

परमात्मा से जुड़ कर ही मनुष्य महान बनता है ......
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पानी का एक बुलबुला सागर से दूर होकर अत्यंत असहाय, अकेला और अकिंचन है| उस क्षणभंगुर बुलबुले से छोटा और कौन हो सकता है? पर वही बुलबुला जब सागर में मिल जाता है तो एक विकराल, विराट और प्रचंड रूप धारण कर लेता है|
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वैसे ही मनुष्य जितना परमात्मा से समीप है, उतना ही महान है| जितना वह परमात्मा से दूर है, उतना ही छोटा है| जितने हम परमात्मा से समीप हैं उसी अनुपात में प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य है| जितना हम परमात्मा से दूर जायेंगे प्रकृति की प्रत्येक शक्ति उसी अनुपात में हम से विपरीत जाने को बाध्य होगी |

ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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हमारी आत्मा हम स्वयं हैं, और यह संसार एक दर्पण है .....
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दर्पण को कितना भी सजा लें, यदि हमारी आत्मा कलुषित है तो प्रतिबिंब भी कलुषित ही होगा | उज्जवल ही करना है तो बिम्ब का करें | शृंगार स्वयं अपनी आत्मा का करें, फिर उसका प्रतिबिंब यह संसार भी अति सुन्दर होगा |
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हम उस दाता से जुड़ें, न कि भिखारी दुनिया से | शृंगार ही करना है तो स्वयं के चेहरे का करें, न की दर्पण का |
ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||

कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा.....

"कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा".....

भगवान के नाम का जो इतना अवर्णनीय महत्व है वह तो सभी युगों के लिए होना चाहिए, पर सिर्फ कलियुग के लिए ही इसका इतना अधिक महत्व क्यों बताया गया है? अन्य युगों में क्या और भी कोई आधार था?
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यह प्रश्न मैनें माननीय स्वर्गीय श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी से पूछा था| उन्होंने जो उत्तर दिया था उसे साभार उन्हीं के शब्दों में प्रेषित कर रहा हूँ......
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"हर हर महादेव......नमन मान्यवर कृपा शंकर बी. जी,
एक बार कुछ मुनि मिलकर विचार करने लगे कि किस समय में थोड़ा सा पुण्य भी महान फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं?…। वे जब कोई निर्णय नहीं कर सके,तब निर्णय के लिए मुनि व्यास के पास पहुंचे। व्यासजी उस समय गंगाजी में स्नान कर रहे थे। मुनि मंडली उनकी प्रतीक्षा में गंगाजी के तट पर स्थित एक वृक्ष के पास बैठ गयी……। वृक्ष के पास बैठे मुनियों ने देखा कि व्यासजी गंगा में डुबकी लगाकर जल से ऊपर उठे और “शूद्रः साधुः“,”कलिः साधुः” पढ़कर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। जल से ऊपर उठकर ‘योषितः साधु धन्यास्ताभ्यो धन्यरोस्ति कः ‘ कहकर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी…। मुनिगण इसे सुनकर संदेह में पड़ गए। व्यासजी द्वारा कहे गए मन्त्र नदी स्नान-काल में पढ़े जानेवाले मंत्रो में से नहीं थे, वो जो कह रहे थे उसका अर्थ है ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है!!!’ मुनिगण संदेह के समाधान हेतु आये थे,परन्तु यह सुनकर वे पहले से भी विकट संदेह में पड़ गए और जिज्ञासा से एक दुसरे को देखने लगे……कुछ देर बाद स्नान कर लेने पर नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्यासजी जब आश्रम में आये,तब मुनिगण भी उनके समीप पहुंचे। वे सब जब यथायोग्य अभिवादन आदि के अनंतर आसनों पर बैठ गए तब व्यासजी ने उनसे आगमन का उद्देश्य पूछा। मुनियों ने कहा कि हमलोग आपसे एक संदेह का समाधान कराने आये थे, किन्तु इस समय उसे रहने दिया जाए, केवल हमें संभव हो तो यह बतलाया जाए कि आपने स्नान करते समय कई बार कहा था कि ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, सो बात क्या है? हमें कृपा करके बताएं। यह जान लेने के बाद हम जिस आतंरिक संदेह के समाधान के लिए आये थे,उसे कहेंगे।
व्यासजी उनकी बातें सुनकर बोले कि मैंने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को जो बार बार साधुश्रेष्ठ कहा, आपलोग सुनें। जो फल सतयुग में दस वर्ष ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने से मिलता है, उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास और कलियुग में सिर्फ एक दिन में प्राप्त कर लेता है…। जो फल सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग में सिर्फ ईश्वर का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है। कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही लोगों को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है,इन कारणों से मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा।"
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"शास्त्रों में लिखा है कि कलियुग में भगवान का अवतरण होता है 'नाम' के रूप में। कलियुग में जो युग-धर्म है वह है नाम संकीर्तन। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है कि कलियुग में केवल हरिनाम ही हमारा उद्धार कर सकता है। इसके अलावा किसी भी अन्य साधना से सद्गति नहीं है। यही बात नानक देव ने भी कही है, 'नानक दुखिया सब संसार, ओही सुखिया जो नामाधार।' रामचरितमानस में भी यही लिखा है, कलियुग केवल नाम आधारा। किसी भी संत के पास चले जाओ, किसी भी शास्त्र को उठाओ, सब यही इंगित करते हैं कि कलियुग में भगवान का अवतरण उनके नाम के रूप में हुआ है। इसी से उद्धार होगा।
यहां पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि यह भगवद् नाम अन्य भौतिक नामों की तरह जड़ नहीं है। भौतिक जगत में हम देख सकते हैं कि एक व्यक्ति का नाम लक्ष्मीपति है परंतु वह है एक भिखारी। अथवा नयनमणि नाम वाला व्यक्ति एक आँख से काना है। किंतु भगवद् राज्य में ऐसा नहीं होता। लक्ष्मीपति भगवान वास्तव में लक्ष्मी के पति ही हैं व सबसे धनी हैं। गोविंद सभी इंदियों के स्वामी हैं व इंदियां उनकी सेवा में नियुक्त हैं। कृष्ण नाम जिनका है, वे वास्तव में सभी को आकर्षित करने वाले हैं।
भगवद् नाम हमारी दुष्टों से रक्षा करेगा, हमें इस भव सागर से पार कराएगा, हमें हमारी इच्छानुसार वरदान देगा। वह सब कुछ करेगा, किंतु इसके लिए हमें पूर्ण रूप से समर्पित होकर नाम कीर्तन करना होगा। यह तभी होगा। आखिर दौपदी ने वस्त्र हरण के समय जब तक पूर्ण शरणागत होकर दोनों हाथ उठा कर भगवान को नहीं पुकारा था, तब तक भगवान नहीं आए थे।"
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"एक बार राजा परीक्षित जंगल से गुजर रहे थे तो उन्होंने एक बैल को एक टाँग पर खड़ा देखा। जब राजा ने बैल से पूछा तो उसने कुछ स्पष्ट नहीं बताया क्योंकि वे और कोई और नहीं बल्कि स्वयं साक्षात् धर्मराज थे और धर्मराज कैसे किसी की निंदा कर सकते थे? तब परीक्षित ने ध्यान बल से पता लगाया कि इनकी ऐसी दशा का जिम्मेदार कलियुग है। राजा ने सोचा कि कलियुग के आने पर संसार में चारों तरफ लूट-पाट चोरी-डकैती आदि नाना प्रकार के पापकर्मों की वृद्धि हो जायेगी अतः इस कलियुग का अंत कर देना चाहिए। जब उन्होंने कलियुग का अंत करने का पूरा मानस बना लिया था तभी उनके मन में एक विचार आया, जिसके कारण उन्होंने कलियुग का अंत करने का विचार त्याग दिया। उन्होंने सोचा कि कलियुग में सभी प्रकार की बुराइयां हैं, लेकिन इस में एक बहुत बड़ी अच्छाई भी है जिसका लाभ कलियुग में सबको प्राप्त होगा और वो वह है कि कलियुग में ईश्वर की प्राप्ति के लिए लोगों को बड़े-बड़े यज्ञ नहीं करने पड़ेंगे। सालों-साल तक तपस्या नहीं करनी पड़ेगी केवल एक बार सच्चे मन से जो व्यक्ति ईश्वर के नाम का उच्चारण करेगा और ईश्वर को याद करेगा बस उसे ही ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी। यह सोचकर उन्होंने उस समय कलियुग पर केवल पूर्णतया नियंत्रण कर लिया लेकिन उसका वध नहीं किया। इसी का उल्लेख तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में किया है -
कलियुग केवल नाम अधारा,सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा......
साभार: मिथिलेश व्दिवेदी जी.

Friday 21 April 2017

संकल्पवान की सदा विजय होती है .....

April 22, 2014 at 9:35pm ·

संकल्पवान की सदा विजय होती है .....
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लाखों में से एक आत्मा निश्चय पूर्वक दृढ़ संकल्प करता है कि मैं अज्ञान के तिमिर को भेदते हुए आगे बढूँगा और परमात्मा को उपलब्ध होऊँगा | सत्य का अनुसंधान सब के लिए संभव नहीं है, पर जो उसके लिए प्राणों की बाज़ी लगा कर सब बाधाओं को पार करता हुआ अनवरत चलता रहता है वह ही उस पार पहुँच पाता है |

दो ही चीजें काम आती है ---- एक तो परम प्रेम और दूसरा पूर्ण समर्पण| इनके होने पर गुरु कृपा स्वतः ही होती है| फिर गुरु सब भूलों का शोधन कर देते हैं|

योगियों के लिए सुषुम्ना -- स्वर्ग का मार्ग है, और कूटस्थ -- स्वर्ग का द्वार है|

पानी का एक बुलबुला सागर से दूर होकर अत्यंत असहाय, अकेला और अकिंचन है|
उस क्षणभंगुर बुलबुले से छोटा और कौन हो सकता है?
पर वही बुलबुला जब सागर में मिल जाता है तो एक विकराल, विराट और प्रचंड रूप धारण कर लेता है|
वैसे ही मनुष्य है|
जितना वह परमात्मा से दूर है उतना ही छोटा है|
परमात्मा से जुड़ कर ही मनुष्य महान बनता है|
मनुष्य जितना परमात्मा से समीप है उतना ही महान है|
जितना वह परमात्मा से दूर है उतना ही छोटा है|
जितना आप परमात्मा से समीप हैं उसी अनुपात में प्रकृति की प्रत्येक शक्ति आपका सहयोग करने को बाध्य है|
जितना आप परमात्मा से दूर जायेंगे प्रकृति की प्रत्येक शक्ति उसी अनुपात में आप से विपरीत जाने को बाध्य होगी |


ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२२ अप्रेल २०१४

Thursday 20 April 2017

मेरे भावो की अभिव्यक्तियाँ ......

मेरे भावों की अभिव्यक्तियाँ ........

मेरे द्वारा जो कुछ भी लिखा जाता है वह स्वयं के भावों की ही अभिव्यक्ति मात्र है, अन्य कुछ नहीं| अधिकांशतः मेरा एक ही विषय रहता है .... "परमात्मा से प्रेम", बाकी सब इसी का विस्तार है| पुराने गहरे संस्कारों के कारण कभी कभी हिन्दू राष्ट्रवाद की भावनाएँ भी छलक उठती हैं| इसके अतिरिक्त और कुछ मुझे आता जाता भी नहीं है|

मेरे विचार .....

(१) परमात्मा को हम सीमित नहीं कर सकते, वह साकार भी है और निराकार भी| जो कुछ भी सृष्ट हुआ है वह साकार है| सारे रूप-गुण उसी के हैं|

(२) ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग दोनों एक ही हैं, इनमें कोई अंतर नहीं है| अंतर अपनी अपनी समझ का है| आध्यात्म का कोई भी मार्ग हो, बिना भक्ति के एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ सकते| भक्ति ही सबसे बड़ा गुण है| वास्तविक भक्ति होने पर अन्य सभी गुण स्वतः ही खिंचे चले आते हैं| मार्ग की प्राप्ति प्रारब्ध से होती है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है|

(३) जो परम ब्रह्म परमात्मा हैं, वे सब नाम-रूपों से परे हैं ..... साकार रूप में वे ही भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराम और शिव आदि हैं| ओंकार रूप में भी साकार वे ही हैं, और कूटस्थ ज्योति व प्रणव नाद भी उन्हीं की साकारता है| अपने दिन का प्रारम्भ उनके ध्यान से करें| रात्रि को सोने से पूर्व उनका गहन ध्यान कर के ही सोयें| हर समय उनकी स्मृति बनाए रखें|

(४) सहस्त्रार के मध्य में एक विराट श्वेत ज्योति सदैव बिराजमान रहती है| हमारी चेतना का केंद्र वहीं है|

(५) प्राण तत्व .... मेरु शीर्ष (शिखा स्थान) से देह में प्रवेश कर मेरु-दंड के सभी चक्रों में प्रवेश कर पूरी देह को जीवंत रखता है| समस्त ऊर्जा वहीं से प्राप्त होती है|

(६) अपनी ऊर्जा को फालतू के कार्यों में व्यर्थ न कर चेतना के ऊर्ध्वगमन में ही खर्च करें| अपनी चेतना को निरंतर आज्ञा चक्र और सहस्त्रार के मध्य रखें और प्रणव ध्वनी को सुनते रहें|

(७) परमात्मा के निरंतर चिंतन से स्वयं परमात्मा ही हमारी चिंता करने लगते हैं|
परमात्मा के साकार रूप आप सब को मेरा सादर नमन|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

यह RIP क्या है ? .....

यह RIP क्या है ?
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आजकल शोक संदेशों में RIP लिखने की एक परम्परा सी चल पडी है| मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि इसका अर्थ क्या है| फिर किसी ने बताया कि RIP = Rest in peace.
पर यह तो उन्हीं पर लागु होता है जिन्हें कब्रों में दफनाया जाता है| वे कयामत तक कब्रों में शांति से आराम करेंगे
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अब्राहमिक मतों के अनुसार जिस दिन कयामत होगी उस दिन पूर्व दिशा में एक नारसिंघा बाजे की सी बड़ी जोर की आवाज़ आएगी| उस आवाज़ को सुनकर कब्रों में शांति से सो रहे इंसान जाग उठेंगे| सबकी पेशी होगी और सब से हिसाब पूछा जाएगा कि उन्होंने ज़िन्दगी में क्या क्या किया| सबको दंड और पुरष्कार मिलेंगे| विधर्मियों को नर्क की अग्नि में अनंत काल के लिए डाल दिया जाएगा| जब से दुनियाँ बनी है तब से अब तक के सारे लोगों का हिसाब होगा| पता नहीं किस का क्रम कब आयेगा| बड़ा शोरगुल होगा| बड़ी अफरा-तफरी होगी|
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पर उनका क्या होगा जिनके दाह संस्कार हुए हैं ?
अतः यह RIP उन लोगों को मत भेजिए जिनके दाह संस्कार हुए हैं|
और भी कई तरह के शोक सन्देश होते हैं| वे भेजिए पर RIP नहीं|
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उर्दू का एक बहुत पुराना शेर याद आया है जिसके अनुसार ऐसे भी लोग हैं जिन्हें क़यामत की चिंता नहीं है, वे अपनी मस्ती में सोये हुए हैं|
"हम सोते ही न रह जाएँ ऐ शोरे-क़यामत !
इस राह से निकलें तो हमको भी जगा देना |"

साधन चतुष्टय ...... क्या आध्यात्मिक साधना सिर्फ भावों से ही हो सकती है ? ......

क्या आध्यात्मिक साधना सिर्फ भावों से ही हो सकती है ? ......
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कुछ लोग उदधृत करते हैं ..... "मन चंगा तो कठौती में गंगा"|
पर मेरा व्यवहारिक अनुभव तो यही कहता है कि जब तक तमोगुण और रजोगुण हावी हैं, तब तक मन कभी चंगा हो ही नहीं सकता चाहे कोई कितना भी प्रयास करले|
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भगवान ने गीता जी में "साधन चतुष्टय" की बात क्यों कही है? यदि साधना सिर्फ भावना से ही हो जाती तो भगवान को साधन चतुष्टय के बारे में क्यों बताना पड़ा? बिना साधन चतुष्टय पूर्ण किये कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती, ऐसा प्रायः सभी महात्माओं का मत है|
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ब्रह्मसूत्र शंकरभाष्य में तथा विवेक चूडामणि ग्रंथ में भगवान शंकराचार्य इसकी चर्चा करते हैं......
चार साधनों के समूह के रूप मे साधन चतुष्टय बतलाए गये हैं ......

(१) नित्यानित्य वस्तु विवेक : अर्थात् , नित्य एवं अनित्य तत्त्व का विवेक ज्ञान|
(२) इहमुत्रार्थ भोगविराग : जागतिक एवं स्वार्गिक दोनों प्रकार के भोग-ऐश्वर्यों से अनासक्ति|
(३) शमदमादि षट् साधन सम्पत् ..... शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति, तितिक्षा, आदि छः साधन सम्पत्तियों से युक्त होना|
(४) मुमुक्षत्व – मोक्षानुभूति की उत्कण्ठ अभिलाषा|
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उपरोक्त साधन मोक्ष प्राप्ति में सहायक कहे गये है| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

निराशा से मुक्ति ........

निराशा से मुक्ति ........
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यह स्वाभाविक है कि हमारी कुछ आकांक्षाएँ, लक्ष्य और अपेक्षाएँ होती हैं जिनकी पूर्ती ना होने से घोर निराशा होती है| कुछ लोग इससे अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेते हैं और कुछ लोग दूसरों को आत्महत्या के लिए बाध्य कर देते हैं| इस निराशा से अनेक अपराध भी जन्म लेते हैं|
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पहले भारत में यह बीमारी नहीं थी| पर आजकल कुछ अधिक ही है| दूषित राजनीती भी इसके कारणों में से एक है|
भारत में गरीब किसान, असंगठित क्षेत्र के श्रमिक, और गरीब व्यापारी अधिक उधार में डूब जाने पर आत्महत्या कर लेते हैं| गरीब किसानों के प्रति तो कुछ हमदर्दी राजनीतिक लोगों में है पर गरीब व्यापारी या असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए बिलकुल भी नहीं है|
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हर व्यक्ति साधू संत या आध्यात्मिक नहीं हो सकता| कहने को तो मैं कह सकता हूँ कि पूरा ब्रह्मांड मेरा है, बैंकों में पड़ा सारा धन मेरा है| पर मेरा क्या है यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ|
प्रश्न यह है कि निराशा से मुक्ति कैसे पाई जाय ?
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मैं जहाँ तक सोचता हूँ इसके लिए अभ्यास द्वारा पूरे जीवन की चिंतन धारा ही बदलनी होगी| अपने विचार भी सकारात्मक बनाने होंगे और अपने बच्चों की सोच भी सुधारनी होगी| सर्वप्रथम तो यह बात मन में बैठानी होगी कि अपेक्षाएँ ही सब दुःखों की जननी हैं| यह संसार हमें सुख और आनंद का प्रलोभन देता है, पर मिलती यहाँ सिर्फ निराशा ही है| हम किसी भी भौतिक वस्तु के शाश्वत स्वामी नहीं हो सकते| पर अपेक्षा नहीं होगी तो मनुष्य कुछ काम भी नहीं करेगा|
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निराशा का जन्म आत्म-विश्वास की कमी से होता है| अपरिग्रह की अवधारणा का लुप्त होना और ईश्वर में आस्था का न होना भी निराशा का एक बड़ा कारण है| वर्षों पहिले मैं सोचा करता था कि सिर्फ गरीब लोग ही निराशावश आत्मह्त्या करते हैं| पर सबसे अधिक आत्महत्या तो धनाढ्य लोग करते हैं| निराशा के कारण सबसे अधिक आत्महत्या जापान और अमेरिका में होती हैं| व्यापर में थोड़ा सा घाटा लगा या अपेक्षित लाभ नहीं हुआ तो कर ली आत्महत्या| अमेरिका के एक गायक जिसे लोग सर्वाधिक सफल अमेरिकन मानते थे, ने अधिक पैसे के नशे में आत्महत्या कर ली| उसे अरबों रुपया कमाकर भी सुख शांति नहीं मिली|
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समस्त निराशाओं का मूल कारण हमारी परमात्मा से भिन्नता है| जीवन में मनुष्य चाहता है ..... सुख, शांति और सुरक्षा|
ये हमें भगवान में आस्था लाकर और अपने कर्मफल भगवान को समर्पित कर के ही मिल सकती हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


April 20,  2015

सारे प्रश्न हमारे सीमित और अशांत मन की उपज हैं .....

सारे प्रश्न हमारे सीमित और अशांत मन की उपज हैं .....
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हमारे बाहर कोई उत्तर नहीं है| सारे उत्तर हमारे भीतर ही हैं|
सारे प्रश्न हमारे सीमित और अशांत मन की उपज हैं| शांत मन में सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं|
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मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ है| मेरे में एक अति तीब्र जिज्ञासा वृति थी सत्य को जानने की| जीवन में ऐसे कई मनीषी महात्मा मिले जिनकी उपस्थिति मात्र से मेरा अशांत मन शांत हो जाता, और मन में भरे हुए बहुत सारे प्रश्न उस समय बिलकुल विस्मृत हो जाते| उनके पास से दूर जाते ही वे सब प्रश्न फिर याद आ जाते और मन भी अशांत हो जाता| मैं फिर दुबारा लिखकर बहुत सारे प्रश्न ले जाता कि अब की बार नहीं छोड़ना है, ये सारे प्रश्न पूछने ही हैं| पर उनके पास जाते ही भूल जाता कि कुछ पूछना भी है| मुझे एक ऐसे भी महात्मा मिले हैं जिन्होंने बिना पूछे ही मेरे मन में उत्पन्न हुए सारे प्रश्नों के क्रमशः उत्तर दे दिए|
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अब कोई प्रश्न ही नहीं बचा है| कम से कम आध्यात्मिक क्षेत्र का तो कोई भी प्रश्न, कोई जिज्ञासा या शंका जब होती है तो उसका समाधान भी भीतर से ही तुरंत हो जाता है| आध्यात्मिक क्षेत्र में तो किसी से कुछ पूछने की कोई बात ही नहीं रही है|
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अंततः मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सारे प्रश्न हमारे सीमित और अशांत मन की उपज हैं| शांत मन में सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| जब मन शांत होता है तो कोई प्रश्न ही उत्पन्न नही होता|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय |

मैं साँस नहीं ले रहा, यह समस्त सृष्टि मेरे माध्यम से साँस ले रही है .....


मैं साँस नहीं ले रहा, यह समस्त सृष्टि मेरे माध्यम से साँस ले रही है  .....
(I am not breathing ....... I am being breathed by the Divine) .....
यह देह साक्षात् परमात्मा का एक उपकरण है| स्वयं परमात्मा इस उपकरण से साँस ले रहे हैं|
मेरा होना ..... यह पृथकता का बोध ..... एक भ्रम मात्र है|
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राग-द्वेष और अहंकार कामना उत्पन्न करते हैं| कामना अवरोधित होने पर क्रोध को जन्म देती है| ये काम और क्रोध दोनों ही नर्क के द्वार हैं जो सारे पाप करवाते हैं| कामनाओं को पूरा न करो .... यह भी एक साधना है, इससे रजोगुण कम होता है|
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सदा ब्राह्मी स्थिति में ही रहने का ही प्रयास करो| एकमात्र कर्ता तो सिर्फ परमात्मा ही हैं| परमात्मा से पृथक कोई कामना नहीं हो|
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यदि यह भाव निरंतर बना रहे कि मैं तो भगवान का एक नौकर यानि दास मात्र हूँ, या मैं उनका परम प्रिय पुत्र हूँ, और जो उनकी इच्छा होगी वह ही करूँगा, या वह ही हो रहा है जो उनकी इच्छा है, तो साधन मार्ग से साधक च्युत नहीं हो सकता| या फिर यह भाव रहे कि 'मै' तो हूँ ही नहीं, जो भी हैं, वे ही हैं, और वे ही सब कुछ कर रहे हैं| यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि साधना की किस उच्च स्थिति में हम हैं| पर परमात्मा का स्मरण सदा बना रहे|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

कश्मीर की एक वास्तविकता .....

कश्मीर की एक वास्तविकता  .....
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कश्मीर की राजधानी श्रीनगर को सम्राट अशोक ने बसाया था|
जब चीनी यात्री ह्वैंसान्ग भारत आया था तो उसने कश्मीर में ढाई हज़ार से अधिक बौद्ध मठों का होना बताया था|
कश्मीरी शैव दर्शन वास्तविक कश्मीरियत है, इसका जन्म और विकास कश्मीर में ही हुआ|
पूरा कश्मीर अतीत में वैदिक शिक्षा का केंद्र रहा है|
आज से सात सौ वर्ष पूर्व तक कश्मीर में शत प्रतिशत हिन्दू थे| बौद्ध भी हिंदुत्व के ही भाग थे|
जब मंगोलों के आक्रमण मध्य एशिया पर हुए तब मध्य एशिया के अनेक मुसलमान शरणार्थी के रूप में कश्मीर में आये जिन्हें वहाँ के हिन्दू राजाओं ने शरण दी और आगे का इतिहास राजतरंगिनी में लिखा है|
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आज जो कश्मीर के हिन्दुओं पर बीत रही है कल को वैसा ही योरोप में होगा| .
आजकल योरोप में जो शरणार्थी जा रहे हैं वह योरोप पर एक ज़िहादी आक्रमण है| जो भारत के हिन्दू कश्मीरियों पर बीती है वही योरोप के मूल निवासियों पर बीतने वाली है| यह कोई कल्पना नहीं एक वास्तविकता है|
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कश्मीर घाटी के वे लोग जो भारत के विरोध में हर अवसर पर और हर स्थान पर भारत विरोधी नारेबाजी और प्रदर्शन कर रहे हैं, संभवतः पाकिस्तान अधिकृत गुलाम कश्मीर की वास्तविकता से परिचित नहीं है| उन्हें यह भी नहीं पता होगा कि बाकी के पाकिस्तान के क्या हाल हैं| भारत से बाहर मेरा अनेक देशों में अनेक पाकिस्तानियों से मिलना और विचार-विमर्श हुआ है और पाकिस्तान की मानसिकता को मैं खूब अच्छी तरह समझता हूँ| यहाँ मैं कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूँ|
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पाकिस्तान में पंजाबी पाकिस्तानी सबसे अधिक दबंग और प्रभावशाली हैं| वे अपने सामने अन्य पाकिस्तानियों को कुछ भी नहीं समझते| पाकिस्तान की राजनीति में, सेना में और प्रशासन में उन्हीं का दबदबा है और वे अन्य प्रान्त के लोगों को बड़ी हीन दृष्टी से देखते हैं| आपस की बोलचाल में वे पंजाबी भाषा का ही प्रयोग करते हैं|
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भारत से गए लोगों की वहाँ कोई कद्र नहीं है, उनको मुहाजिर कहा जाता है और बड़ी नीची निगाह से देखा जाता है| पंजाबी लोग तो उन्हें अपने पास बैठाना भी पसंद नहीं करते|
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पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों को पंजाबी पाकिस्तानियों द्वारा आतंकित कर के और बहुत डरा धमका कर रखा हुआ है| वहां के कश्मीरियों के पास अपनी व्यथा व्यक्त करने के लिए कोई मंच नहीं है|
पाकिस्तान के सारे आतंकी प्रशिक्षण केंद्र गुलाम कश्मीर में हैं| उन आतंकी प्रशिक्षण केन्द्रों को चलाने वाले सारे पंजाबी पाकिस्तानी हैं|
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गुलाम कश्मीर में कोई विकास का कार्य नहीं हुआ है| बेरोजगार लोगों के लिए आतंकी बन जाना एक मजबूरी है| कश्मीरी लोग यदि पाकिस्तान में चले भी जाते हैं तो जीवन भर रोयेंगे| उनको यहाँ जो सुख सुविधा मिल रही है वह वहाँ एक दुःस्वप्न मात्र होगी| उनको वहाँ पाकिस्तानी पंजाबियों का गुलाम बनकर जीवन भर रहना होगा|
और भी कई बाते हैं, पर विस्तार भय से अधिक नहीं लिख रहा|
तथाकथित शांतिप्रिय भटके हुए कश्मीरी लोगों को भगवान सद्बुद्धि दे|


इति ||

Monday 17 April 2017

सप्त व्याहृतियों के साथ ब्रह्म गायत्री मन्त्र की साधना .....

सप्त व्याहृतियों के साथ ब्रह्म गायत्री मन्त्र की साधना .....
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प्रिय निजात्मगण, आप सब के शिवरूप को नमन !
मैं अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से एक ऐसे विषय पर चर्चा करने का दुःसाहस कर रहा हूँ जिसकी पात्रता मुझ में नहीं है, अतः सभी से क्षमा याचना भी कर लेता हूँ|
निम्न प्रस्तुति मेरी साधू-संतों व विद्वानों के साथ हुए व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, निजी अनुभवों और स्वाध्याय पर आधारित है| यह प्रस्तुति गंभीर योग साधकों के लिए ही है| कहीं चूक भी जाऊँ तो आप सब मुझे क्षमा भी कर ही देंगे क्योंकि आप सब मेरी ही निजात्मा हैं और मेरे ह्रदय का सम्पूर्ण अहैतुकी प्रेम आप सब को समर्पित है|
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ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है----
"तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात् |"
इस ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र हैं| यह मन्त्र सभी वेदमन्त्रों का मूल बीज है| इसी से सभी मन्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ है|
इसका अर्थ देखिये .....
तत् : उस
सवितु: सविता-सूर्य-प्रकाशक-ज्ञान
वरेण्यं: वरण करने योग्य
भर्ग: शुद्ध विज्ञान स्वरूप
देवस्य: देव का
धीमहि: हम ध्यान करें
धियो: बुद्धि को
य: जो
न: हमारी
प्रचोदयात: शुभ कार्यों में प्रेरित करे
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उस वरण करने योग्य शुद्ध विज्ञान स्वरूप सूर्य- प्रकाशक- ज्ञान देव का हम ध्यान करें जो हमारी बुद्धि को शुभ कार्यों में प्रेरित करे|
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गायत्री की महिमा अनंत है .....
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गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:|
गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:|| —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री| —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को 'गायत्री छन्दसामहम्' अर्थात छंदों में गायत्री कहा है|
गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में भी सावित्री (गायत्री) मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है|
भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 150 में दिया गया है|
युधिष्ठिर पितामह से प्रश्न करते हैं ---- हे पितामह महाप्रज्ञ सर्व शास्त्र विशारद, कि जप्यं जपतों नित्यं भवेद्धर्म फलं महत ॥ प्रस्थानों वा प्रवेशे वा प्रवृत्ते वाणी कर्मणि ।। देवें व श्राद्धकाले वा किं जप्यं कर्म साधनम ॥ शान्तिकं पौष्टिक रक्षा शत्रुघ्न भय नाशनम् ।। जप्यं यद् ब्रह्मसमितं तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा --- यान पात्रे च याने च प्रवासे राजवेश्यति ।। परां सिद्धिमाप्नोति सावित्री ह्युत्तमां पठन ॥ न च राजभय तेषां न पिशाचान्न राक्षसान् ।। नाग्न्यम्वुपवन व्यालाद्भयं तस्योपजायते ॥ चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषतः ।। करोति सततं शान्ति सावित्री मुत्तमा पठन् ॥
नार्ग्दिहति काष्ठानि सावित्री यम पठ्यते ।। न तम वालोम्रियते न च तिष्ठन्ति पन्नगाः ॥ न तेषां विद्यते दुःख गच्छन्ति परमां गतिम् ।। ये शृण्वन्ति महद्ब्रह्म सावित्री गुण कीर्तनम ॥ गवां मन्ये तु पठतो गावोऽस्य बहु वत्सलाः ।। प्रस्थाने वा प्रवासे वा सर्वावस्थां गतः पठेत ॥
''जो व्यक्ति सावित्री (गायत्री) का जप करते हैं उनको धन, पात्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं ।। उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता ।। जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं ।।
जिस स्थान पर सावित्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं ।।
जो लोग सावित्री के गुणों से भरे वेद को ग्रहण करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं ।।
गौवों के बीच सावित्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है ।। घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें ।
भीष्म पितामह कहते हैं कि सावित्री- गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|
गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
गायत्री का सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं— सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता। सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता। -देवी भागवत
इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता- (सूर्य) है। वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं।’’
मनोवै सविता। प्राणधियः। -शतपथ 3/6/1/13
प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता। -शतपथ 7/7/9
सूर्य ही तेज कहा जाता है।
ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गायत्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए।
गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है|
गुरु कृपा से ही परा सुषुम्ना का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है|
उससे भी आगे उत्तरा सुषुम्ना जो आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक है, में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
वहाँ जो ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जाप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में विराट सर्वव्यापी श्वेत भर्ग: ज्योति का ध्यान किया जाता है और चित्त जब स्थिर हो जाता है तब फिर प्रार्थना की जाती है ----
"ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं| ॐ भर्गोदेवस्य धीमहि| ॐ धियो योन: प्रचोदयात||"
यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं|
सप्त व्याहृति के साथ गायत्री जाप करना चाहिए|
पहली विधि :--
==========
ॐ भू: -------- मूलाधार
ॐ भुवः ------ स्वाधिष्ठान
ॐ स्वः ------- मणिपुर
ॐ महः -------- अनाहत
ॐ जनः -------- विशुद्धि
ॐ तपः --------- आज्ञा
ॐ सत्यं --------- सहस्त्रार
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्यधीमहि धियोयोनःप्रचोदयात् ----------- सहस्त्रार |||
अंत में दाएं हाथ की तीन अन्गुलियों से स्पर्श करते हुए ----
आपोज्योति -------दाईं आँख
रसोsमृतं ---------- बाईं आँख
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरों --- भ्रूमध्य
यह गायत्री क्रिया है| इसका जाप अधिकाधिक करना चाहिए||
दूसरी विधि :--
========
(१) ॐ -- प्राण ऊर्जा को ब्रह्मरंध्र तक क्रिया प्राणायाम द्वारा लाकर वहीँ रहने दें| श्वास वहीँ छोड़ दें|
विचार रखिये कि ईश्वरीय ब्रह्म शक्ति और अतिमानस शक्ति सहस्रार में अवतरण कर रही है|
तीन बार गम्भीर और लम्बे श्वास लें|
(२) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मूलाधार तक और भूः से बापस ब्रह्मरन्ध्र|
(३) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से स्वाधिष्ठान तक और र्भुव: से ब्रह्मरन्ध्र।
(४) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मणिपुर तक और स्व: से मणिपुर से ब्रह्मरन्ध्र।
(५) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से अनाहत तक और महः से अनाहत से ब्रह्मरन्ध्र|
(६) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से विशुद्धि तक और जनः से विशुद्धि से ब्रह्मरन्ध्र|
(७) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से आज्ञा तक और तपः से आज्ञा से ब्रह्मरन्ध्र|
(८) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से ब्रह्मरन्ध्र तक और सत्यम् से ब्रह्मरन्ध्र से ब्रह्मरन्ध्र|
(९) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मणिपुर तक और तत्सवितुर्वरेण्यं से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(१०) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से विशुद्धि तक और भर्गो देवस्य धीमहि से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(११) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से आज्ञा तक और धियोयोन:प्रचोदयात् से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(१२) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से महाशून्य और बापस ब्रह्मरन्ध्र|
श्वास-प्रश्वास ब्रह्मरन्ध्र में ही|
चौबीस बार यह गायत्री क्रिया करनी है|
अंत में --
आपोज्योति -------दाईं आँख |
रसोsमृतं ---------- बाईं आँख |
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरों --- भ्रूमध्य ||
सात व्याह्रतियों के साथ गायत्री मन्त्र और प्राणायाम ........
(गायत्री साधना की यौगिक व तांत्रिक विधि)
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यह एक जप है| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे|
फिर उस ज्योति का ध्यान करते रहो और ॐ के साथ साथ ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं ही हैं|
(पूरी विधि किसी शक्तिपात संपन्न सद्गुरु से सीखनी चाहिए)
समापन -- 'ॐ आपो ज्योति रसोsमृतं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्' से कर के लम्बे समय तक बैठे रहो अपने आसन पर और सर्वस्व के कल्याण की कामना करो| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और आप स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
मुझे एक संत ने बताया था कि ऋग्वेद में एक मंत्र है जिस में "गायत्री" शब्द आता है और उस मन्त्र के दर्शन बिश्वामित्र से बहुत पूर्व शव्याश्व्य ऋषि को हुए थे|
प्रचलित गायत्री मन्त्र के दृष्टा विश्वामित्र ऋषि थे| इस के चौबीस अक्षर हैं और तीन पद हैं| अतः यह त्रिपदा चौबीस अक्षरी गायत्री मन्त्र कहलाता है| बाद में अन्य महान ऋषियों ने गायत्री मंत्र से पहले "भू", भुवः, और "स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ भी जोड़ दीं| अतः पूरा मन्त्र अपने प्रचलित वर्त्तमान स्वरुप में आ गया|
यह सप्त व्याह्रातियुक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और प्रभावी है|
ॐ तत्सत्| ॐ नमः शिवाय|

कृपा शंकर
१८ अप्रेल २०१५

(1) स्वयं शक्तिशाली बनो, अपनी कमी के लिए औरों को दोष मत दो. (2) भ्रमित करने वाले शब्दजाल में मत फँसो.

(1) स्वयं शक्तिशाली बनो, अपनी कमी के लिए औरों को दोष मत दो.
(2) भ्रमित करने वाले शब्दजाल में मत फँसो.
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(1) आप कहीं वन में घूमने गए और सामने कोई हिंसक प्राणी आ जाए और आप को मारने के लिये आप पर आक्रमण करे तो उसके सामने घुटने टेक कर हाथ जोड़ कर रो रो कर प्रार्थना करने से कि महाराज मैंने तो कभी चींटी भी नहीं मारी, मैं तो अहिंसा का पुजारी हूँ और किसी का अहित नहीं करता हूँ, मुझे मत मारो तो क्या वह हिंसक प्राणी आपको छोड़ देगा?
यदि आप सक्षम हैं तो सिंह की भी हिम्मत नहीं होगी आप पर आक्रमण करने की|
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वैसे ही दुर्जन लोग तो आप को दू:खी करेंगे ही क्योंकि यह उनका स्वभाव है| उनको दोष देने की अपेक्षा आप स्वयं सक्षम बनिये| आप सक्षम और शक्तिशाली होंगें तो किसी का साहस नहीं होगा आपका अहित करने का| किसी के साथ अन्याय मत करो और निरंतर परोपकार करो| आत्म प्रशंसा से कुछ नहीं होने वाला|
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हमें अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो अपने स्वयं के समाज की कमियों को दूर करना होगा| शास्त्र की रक्षा के लिए शस्त्र भी उठाना होगा| स्वयं को सक्षम बनाना होगा| बालिकाओं को आत्म रक्षा करना सिखाएँ| किशोर अखाड़ों में जाकर व्यायाम करें और शस्त्र चलाना सीखें| उनको दबाने की या छेड़ने की किसी की हिम्मत नहीं होगी|
अपनी कमी के लिए औरों को दोष मत दो|
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(2) कुछ भ्रमित करने वाले उपदेशों से बचो जिन्होनें समाज में भ्रम फैलाया है|
हिन्दुओं को मूर्ख बनाने के लिए ये झूठ सिखाए गए हैं .....
सर्व धर्म समभाव,
सब मार्ग एक ही लक्ष्य पर पहुंचाते हैं,
सब धर्मों में एक ही बात है, आदि आदि|
..... उपरोक्त तीनों बातें हिन्दुओं को मूर्ख बनाए के लिए रची गईं हैं| ये किसी मार्क्सवादी सेकुलर के दिमाग की उपज हैं|
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सिर्फ संकल्प से समभाव नहीं आ सकता| यह तो योग साधना की एक बहुत ऊँची उपलब्धि है| इसी पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ----- समत्वं योग उच्यते|
"सर्वधर्म समभाव" ..... पूरे संस्कृत या आध्यात्मिक साहित्य में कहीं भी यह वाक्य नहीं है| धर्म तो एक ही होता है| मत-मतान्तर, पंथ, और मजहब ....इनको धर्म नहीं कह सकते|
यह आवश्यक नहीं है कि सभी मार्ग एक ही गंतव्य पर पहुँचते हैं| हो सकता है कोई मार्ग आपको भूल भुलैयों में ही घुमाता रहे और कहीं पहुंचे ही ना|
किन्हीं भी दो मज़हबों में एक बात नहीं है| बिना उनका अध्ययन हम कह देते हैं कि उनमें एक ही बात है|
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सभी को नमन| ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय ||
कृपा शंकर
१८ अप्रेल २०१३

भगवान महावीर और स्यादवाद ......

भगवान महावीर और स्यादवाद ......
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महावीर जयंती पर भगवान महावीर के अनुयायियों को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन|
मेरा जहाँ तक अल्प और सीमित ज्ञान है, महावीर की शिक्षाओं का सार और उद्देश्य है ..... "वीतरागता", यानि एक ऐसी अवस्था की प्राप्ति जो राग-द्वेष और अहंकार से परे हो|
उनकी सबसे बड़ी देन है ..... "स्यादवाद" यानि "अनेकान्तवाद"| स्यादवाद दर्शन इतना स्पष्ट, सरल और सर्वग्राह्य है कि उस पर कोई विवाद नहीं हो सकता| उनके अनुसार सत्य को वो ही जान सकता है जिसने 'कैवल्य' की स्थिति प्राप्त कर ली हो|
उनके अनुयायी "कैवल्य" को कैसे परिभाषित करते हैं, इसका मुझे ज्ञान नहीं है| यह मैं अवश्य जानना चाहूँगा|
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उनके दर्शन के बारे में मैंने विभिन्न स्त्रोतों से जो अध्ययन किया है उसका सार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ .......
स्यादवाद दर्शन :---
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किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं। मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है। साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है। वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही नय कहलाता है। नय किसी भी वस्तु को समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं। आंशिक और सापेक्ष ज्ञान से सापेक्ष सत्य की प्राप्ति ही संभव है, निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति नहीं। सापेक्ष सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी भी वस्तु के संबंध में साधारण व्यक्ति का निर्णय सभी दृष्टियों से सत्य नहीं हो सकता। लोगों के बीच मतभेद रहने का कारण यह है कि वे अपने विचारों को नितान्त सत्य मानने लगते हैं और दूसरे के विचारों की उपेक्षा करते हैं। विचारों को तार्किक रूप से अभिव्यक्त करने और ज्ञान की सापेक्षता का महत्व दर्शाने के लिए ही स्यादवाद या सप्तभंगी नय का सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
सापेक्षिक ज्ञान का बोध कराने के लिए प्रत्येक नय के आरंभ में स्यात् शव्द के प्रयोग का निर्देश किया गया है। इसका उदाहरण एक हाथी और छः नेत्रहीन व्यक्तियों के माध्यम से दिया है। सभी नेत्रहीन ज्ञान की उपलब्धता और उस तक पहुँच की सीमा का बोध कराते हैं। यदि कोई हाथी को सीमित अनुभव के आधार पर कहे कि हाथी खम्भे, रस्सी, दीवार, अजगर या पंखे जैसा है तो वह उसके आंशिक ज्ञान और सापेक्ष सत्य को ही व्यक्त करता है। यदि इसी अनुभव में 'स्यात्' शब्द जोड़ दिया जाय तो मत दोषरहित माना जाता है। अर्थात, यदि कहा जाय कि 'स्यात् हाथी खम्भे या रस्सी के समान है' तो मत तार्किक रूप से सही माना जायगा। उर्दू का शब्द "शायद" "स्यात" का ही अपभ्रंस है|
सप्तभंगी नय :---
(1) स्यात्-अस्ति ............................ (शायद है) |
(2) स्यात्-नास्ति .......................... (शायद नहीं है) |
(3) स्यात् अस्ति च नास्ति च ............(शायद है भी और नहीं भी है) |
(4) स्यात् अव्यक्तम् .................... ..(शायद अव्यक्त है) |
(5) स्यात् अस्ति च अव्यक्तम् च ...... (शायद है भी और अव्यक्त भी है) |
(6) स्यात् नास्ति च अव्यक्तम् च ......(शायद नहीं भी है और अव्यक्त भी है) |
(7) स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तम् च...(शायद है भी और नहीं भी और अव्यक्त भी है) |
यह विषय मूल रूप से समझने में अति सरल है| कोई भी इसे समझ सकता है|
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वैदिक और श्रमण परंपरा में अंतर .....
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वैदिक परंपरा और श्रमण परम्परा में मूलभूत अंतर यह है कि वैदिक परम्परा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण मानती है, जहाँ श्रमण परंपरा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण नहीं मानती| वैदिक परम्परा आस्तिक है और श्रमण परम्परा नास्तिक है| जैन दर्शन नास्तिक दर्शन है| इस विषय पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए| दोनों में सबसे बड़ी समानता जो है वह है ..... "वीतरागता", जो कोई छोटी मोटी बात नहीं बल्कि बहुत महान उपलब्धि है|
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तीर्थंकर महावीर के उपदेशों की जिन विद्वानों ने विवेचनाएँ की है (क्षमायाचना सहित निवेदन करना चाहता हूँ कि) उन्होंने उसे अत्यंत जटिल और संकीर्ण बना दिया है, अन्यथा यह अत्यंत सरल और पारदर्शी है|
उन्होंने ईश्वर की कहीं आवश्यकता नहीं समझी और सीधे ही वीतरागता की बात की| वीतरागता का अर्थ है ऐसी अवस्था जो राग द्वेष और अहंकार से परे हो| मेरे विचार से यही "कैवल्य" अवस्था है|
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>>> उनके उपदेशों का सार यह है कि पहले वीतराग बनो तभी सत्य को समझ पाओगे| <<<
श्रमण परम्परा का आरम्भ ऋषभदेव से होता है जिनका उल्लेख ऋग्वेद और भागवत में भी है|
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मेरे लिखने में कोई अशुद्धि या दोष रहा हो तो विद्वजनों से क्षमा चाहता हूँ|
धन्यवाद| पुनश्चः मंगल कामनाएँ और अभिनन्दन|
कृपाशंकर
April18,2016

भारत का संविधान क्या मौलिक है ?

भारत का संविधान क्या मौलिक है ?
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भारत के राजनेता कहते हैं कि भारत का संविधान बाबा साहेब अंबेडकर ने लिखा है| पर उन्होंने लिखा क्या है? यह समझना अति कठिन है| सारा संविधान तो ब्रिटिश संसद द्वारा पारित गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट-1935 और 1947 का ही संपादित रूप है, और दो चार बातें इधर उधर से जोड़ दी गयी हैं| बाबा साहेब अम्बेडकर तो उस एक समिति के अध्यक्ष थे जिसने संविधान का वर्तमान रूप बनाया| वे इस संविधान से सहमत भी नहीं थे इसलिए उन्होंने नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया और अगले चुनावों में स्वयं नेहरु ने उनके विरुद्ध प्रचार किया| भारत की राजनीती में झूठ बहुत अधिक है|
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सन १९७० के दशक तक में छपे हुए संविधान के संस्करणों में धारा-147 छपी हुई है| इसकी भाषा इतनी अधिक कुटिल और जटिल है कि बहुत अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी इसे ठीक से नहीं समझ सकते| इसका सार मुझे तो यही समझ में आया कि ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 व 1947 सर्वोपरी हैं और भारत की सरकार उन्हें मानने के लिए बाध्य है| इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजों ने हमें सता हस्तांतरित की है, स्वतंत्र नहीं किया है| पता नहीं अब तक क्यों इस धारा को निरस्त नहीं किया गया| लगता है किसी ने इसकी जटिल भाषा देखकर इसे समझने का प्रयास ही नहीं किया है| यह धारा यह सिद्ध करती है कि भारत का संविधान ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 व 1947 की संशोधित प्रति मात्र है|
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भारत कॉमनवेल्थ में क्यों है ? ब्रिटेन तो अब इतना गरीब हो गया है कि अँगरेज़ महिलाएँ जापान जाकर घरेलु नौकरानियों का कार्य कर रही हैं| कॉमनवेल्थ में रहने का अर्थ है कि ब्रिटेन की महारानी हमारी राज्य प्रमुख है| हम क्यों इस कॉमनवेल्थ नाम का गुलामी का धब्बा ढो रहे हैं?

कश्मीर की समस्या एक धार्मिक समस्या है, राजनीतिक नहीं .....

कश्मीर की समस्या एक धार्मिक समस्या है, राजनीतिक नहीं .....   (Part 1). ........
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>>> भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में कश्मीर की समस्या का कोई हल नहीं है| इस के लिए अति सफल कूटनीति और दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है| यह कोई राजनीतिक समस्या नहीं है, बल्कि धार्मिक समस्या है|
>>> पूरा कश्मीर पकिस्तान को दे दो तो भी वह संतुष्ट नहीं होगा| उसका असली लक्ष्य तो पूरे भारत को पकिस्तान बनाना है|
>>> कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बना दो यह भी कोई स्थायी समाधान नहीं है| पाकिस्तान सैन्य आक्रमण कर के चीन की सहायता से उस पर अधिकार कर लेगा|
>>> कश्मीर घाटी में सुन्नी मुसलमान अधिक हैं| वे पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं| बाकी कश्मीर में शिया मुसलमान अधिक हैं जो भारत के साथ रहना चाहते हैं| जम्मू में हिदू बहुमत है, लद्दाख में बौद्ध बहुमत है जो भारत के साथ रहना चाहते हैं| असली समस्या कश्मीर घाटी में है|
>>> पाक अधिकृत कश्मीर में विशेषकर बाल्टीस्तान और गिलगिट में शिया बहुमत है जो पकिस्तान का साथ नहीं चाहते| पर फौजी ताकत से दबाकर उन्हें रखा गया है| पूर्व तानाशाह जिया-उल-हक ने पाक अधिकृत कश्मीर का जनसांख्यिकी परिवर्तन करने के लिए लाखों सुन्नियों को कश्मीर में बसाया ताकि शियाओं को दबा कर रखा जा सके|
>>> जब तक पकिस्तान का अस्तित्व है तब तक कश्मीर में कोई शांति नहीं हो सकती|
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>>> कश्मीर की समस्या का एक मात्र हल है ....... अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक और सैन्य सहयोग से पकिस्तान को चार टुकड़ों में बाँट दिया जाए| बलूचिस्तान, सिंध और कबायली इलाकों सहित पख्तूनख्वा को .... पंजाब से पृथक कर दिया जाए| पूरा पकिस्तान सिर्फ पाकिस्तानी पंजाब तक ही सीमित रह जाए|
>>> इसके लिए हमें अमेरिका, रूस, इजराइल, फ़्रांस और ईरान जैसे देशों से पूर्ण सक्रीय सहयोग भी लेना पड़ेगा| चीन को भी एक बार तो मनाना ही होगा|
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पकिस्तान का अस्तित्व विश्व शांति के लिए खतरा है| पकिस्तान को नष्ट किये बिना विश्व में सुख-शांति नहीं हो सकती|
>>> भारत के हित में पाकिस्तान को विखंडित करना अति आवश्यक है|
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वन्दे मातरं | भारत माता की जय | ॐ ॐ ॐ ||
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Aprl 17, 2017.

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कश्मीर की समस्या एक धार्मिक समस्या है, राजनीतिक नहीं .....   (Part 2). .......
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कश्मीर की समस्या पर कल मैनें एक लेख लिखा था, तब से अब तक २४ घंटों के भीतर भीतर ही स्थिति अत्यधिक बिगड़ चुकी है क्योंकि लोगों के दिमाग में बहुत अधिक ज़हर घोला हुआ है| कश्मीर घाटी में सभी स्कूल कॉलेज आज बंद हैं, इन्टरनेट सेवा भी बंद है और SMS सेवा भी बंद है| वहाँ पत्थरबाजी एक स्थापित उद्योग बन चुका है|
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पाकिस्तान से युद्ध तो अवश्यम्भावी है| पर भारत निर्णायक युद्ध अकेला नहीं लड़ सकेगा, किसी न किसी महाशक्ति को साथ में लेना ही होगा| इसका कारण नीचे लिख रहा हूँ|
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आज अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भारत आये हुए हैं| देखो क्या मंत्रणा होती है|
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दो-एक वर्ष पूर्व सऊदी अरब और ईरान में बहुत अधिक तनाव था और युद्ध की सी स्थिति बन गयी थी| उस समय सऊदी अरब ने ३८ मुस्लिम देशों के सुन्नी सैनिकों को अपने यहाँ बुलाकर पूरे विश्व की एक सुन्नी मुस्लिम सेना बनाई थी जिसके सेनापति पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल राहील शरीफ हैं| इसका मुख्यालय रियाद में है| पकिस्तान की तो एक पूरी डिवीज़न इस सेना में है|
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अब पाकिस्तान और सऊदी अरब में एक युद्ध संधि है कि इनमें से किसी भी एक देश का यदि किसी तीसरे देश से युद्ध होता है तो दोनों की सेनाएँ साथ साथ लड़ेंगी| यदि भारत का पाकिस्तान से युद्ध होता है तो सऊदी अरब और उसकी यह मुस्लिम सेना भी पाकिस्तान के लिए लड़ेंगी|
भारत को घेरने के लिए सऊदी अरब ने मालदीव में एक द्वीप लीज पर लिया है जिस पर सऊदी अरब और पकिस्तान मिलकर एक नौसैनिक अड्डा बनायेंगे| यह भारत को घेरने के लिए पाकिस्तान की एक चाल है| मालदीव की वर्तमान सरकार घोर भारत विरोधी है|
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उपरोक्त चाल उसी तरह है जिस तरह चीन ने बंगाल की खाड़ी में म्यान्मार के कोको द्वीप पर एक सैनिक अड्डा बना रखा है और भारत पर वहाँ से दृष्टी रखता है| यह कोको द्वीप भारत का ही था जिसे भारत की ही एक पूर्व सरकार ने बर्मा को भेंट कर दिया था| भारत को घेरने के लिए चीन तो श्रीलंका और बंगलादेश में भी सैनिक अड्डे बनाना चाहता था, पर भारत की कूटनीति से सफल नहीं हुआ|
पर पाकिस्तान के साथ यदि भारत का युद्ध होता है तो चीन भी भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ सकता है| अतः भारत को महाशक्तियों का साथ तो लेना ही होगा|
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भारत का वर्त्तमान राजनीतिक नेतृत्व सक्षम है जो किसी भी स्थिति का सफलता से सामना कर लेगा|
इति|

April 18, 2017. 
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कश्मीर की समस्या एक मजहबी समस्या है, राजनीतिक नहीं .......   (Part 3) ......
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मैंने 17 अप्रेल को उपरोक्त शीर्षक से ही एक लेख लिखा था| आज उसी कड़ी में बदली हुई परिस्थितियों में समय की आवश्यकतानुसार यह दूसरा लेख लिख रहा हूँ|
हिजबुल मुज़ाहिदीन के मारे गए कमांडर जिस स्कूल ड्रोप आउट बुरहान बानी को आज सारे अलगाववादी और पाकिस्तान एक महान शहीद और कश्मीर का हीरो बता रहे हैं, उसी हिजबुल मुजाहिदीन के वर्तमान कमांडर ज़ाकिर मूसा (संयोग से वह भी इंजीनियरिंग की फाइनल परीक्षा में फेल और कॉलेज ड्रॉप आउट है) ने अब साफ़ साफ़ फ़रमाया है कि कश्मीर घाटी में जो मारकाट मचाई जा रही है उसका सम्बन्ध किसी आज़ादी की लड़ाई से नहीं है, बल्कि कश्मीर को इस्लामी निजाम-ए-मुस्तफा यानि इस्लामी राज्य बनाने से है| उसने अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को चेतावनी भी दी है कि यदि उन्होंने कश्मीर की समस्या को राजनीतिक बताया तो उनके सिर कलम कर दिए जायेंगे|
(पढ़िए आज के "पंजाब केसरी" समाचार पत्र में श्री अश्विनी कुमार का लिखा विशेष सम्पादकीय "कश्मीर में 'इस्लामी' लड़ाई!")
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कश्मीर के अलगाववादी आजकल कश्मीर को सीरिया बनाने का प्रयास कर रहे हैं| कश्मीर में नागरिक शासन विफल हो चुका है| कश्मीर को सेना के हवाले कर के ही स्थिति को अब नियंत्रण में लाया जा सकता है|
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बुरहान वानी के लिए बरखा दत्त ने चीख चीख कर कहा था कि एक गरीब मास्टर का मासूम बेटा मार दिया गया| उस बुरहान वानी की जगह नियुक्त हुए हिज़्बुल के ज़ाकिर मूसा ने अब खुलेआम ऐलान कर दिया है कि कश्मीर में लड़ाई इस्लामिक स्टेट बनाने और शरिया लागू करने के लिए है| कश्मीर में ये सारा तांडव केवल शरीयत लागू करने के लिए ही हो रहा है| इस दिशा में पहला कदम कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर निकालना था|
अब यह स्पष्ट हो गया है कि कश्मीर की समस्या एक मज़हबी समस्या है, राजनीतिक नहीं|
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पूरा कश्मीर पकिस्तान को दे दो तो भी वह संतुष्ट नहीं होगा| उसका असली लक्ष्य तो पूरे भारत को पकिस्तान बनाना है|
कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बना दो यह भी कोई स्थायी समाधान नहीं है| पाकिस्तान सैन्य आक्रमण कर के चीन की सहायता से उस पर अधिकार कर लेगा|
जब तक पकिस्तान का अस्तित्व है तब तक कश्मीर में कोई शांति स्थापित नहीं हो सकती|
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कश्मीर की समस्या का एक मात्र हल है ....... अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक और सैन्य सहयोग से पकिस्तान को चार टुकड़ों में बाँट दिया जाए| बलूचिस्तान, सिंध और कबायली इलाकों सहित पख्तूनख्वा को .... पंजाब से पृथक कर दिया जाए| पूरा पकिस्तान सिर्फ पाकिस्तानी पंजाब तक ही सीमित रह जाए|
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पाकिस्तान का अस्तित्व विश्व शांति के लिए खतरा है| पकिस्तान को नष्ट किये बिना विश्व में सुख-शांति नहीं हो सकती| भारत के हित में पाकिस्तान को विखंडित करना अति आवश्यक है|
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वन्दे मातरं | भारत माता की जय | ॐ ॐ ॐ ||


May 14, 2017. 

जो हम पाना चाहते हैं, जिसे हम ढूंढ रहे हैं, वह तो हम स्वयं ही हैं ...

जो हम पाना चाहते हैं, जिसे हम ढूंढ रहे हैं, वह तो हम स्वयं ही हैं ....
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>>> हम जीवन की संपूर्णता व विराटता को त्याग कर लघुता को अपनाते हैं तो निश्चित रूप से विफल होते हैं| दूसरों का जीवन हम क्यों जीते हैं? दूसरों के शब्दों के सहारे हम क्यों जीते हैं? पुस्तकों और दूसरों के शब्दों में वह कभी नहीं मिलता जो हम ढूँढ रहे हैं, क्योंकि अपने ह्रदय की पुस्तक में वह सब लिखा है|
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>>> कुछ बनने की कामना से हम कुछ नहीं बन सकेंगे, क्योंकि जो हम बनना चाहते हैं, वह तो पहले से ही हैं| कुछ पाने की खोज में भटकते रहेंगे, कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि ...... जो हम पाना चाहते हैं वह तो हम स्वयं ही हैं|
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>>> जीव और शिव, आत्मा और परमात्मा, भक्त और भगवान ------ इन सब के बीच की कड़ी है ..... परमप्रेम और समर्पण| जब हम स्वयं ही वह परमप्रेम बन जाते हैं तो फिर बीच में कोई भेद नहीं रहता| यही है रहस्यों का रहस्य | उठो इस नींद से, और पाओ कि हम स्वयं ही अपने परम प्रिय हैं| हम खंड नहीं, अखंड हैं| हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्णता हैं| हम स्वयं ही मूर्तिमंत परम प्रेम हैं|
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>>> जिसने हमें अब तक भ्रम में डाल रखा था वे हैं हमारे ही चित्त की तरल चंचल वृत्तियाँ जिन्हें हम कभी शांत नहीं कर सके| अतः अब बापस हम उन्हें परमात्मा को समर्पित कर रहे हैं| ये चित्त की चंचलता पता नहीं कब से भटका रही है| शांत होने का नाम ही नहीं ले रही है|
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>>> हे प्रभू, इन्हें बापस स्वीकार कीजिये क्योंकि इन्हें शांत करना अब हमारे वश की बात नहीं है| देना ही है तो अपना स्थायी परम प्रेम दीजिये, इसके अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए|
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>>> अज्ञान के अनंत अन्धकार से घिरे इस दुर्गम अशांत महासागर के पथ पर सिर्फ एक ही मार्गदर्शक ध्रुव तारा है, और वह है आपका प्रेम| वह ही हमारी एकमात्र संपदा है जो कभी कम ना हो|
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>>> न तो हमें श्रुतियों और स्मृतियों आदि शास्त्रों का कोई ज्ञान है और न ही उन्हें समझने की क्षमता| इस देह रूपी वाहन में भी अब कोई क्षमता नहीं बची है| हमारी इन सब लाखों कमियों, दोषों, और अक्षमताओं को बापस आपको अर्पित कर रहे हैं| सारे गुण-दोष, क्षमताएँ-अक्षमताएँ, पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे संचित व प्रारब्ध सब कर्मों के फल और सम्पूर्ण पृथक अस्तित्व, सब कुछ बापस आपको अर्पित है, इसे स्वीकार करें| आप के अतिरिक्त अब हमें और कुछ भी नहीं चाहिए|
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>>> आपकी अनंतता हमारी अनंतता है, आपका प्रेम हमारा प्रेम है, और आपका अस्तित्व हमारा अस्तित्व है| आप और हम एक हैं| आपका यह परम प्रेम सबको बाँटना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
April 17, 2016

माननीय नरेन्द्र मोदी की वेंकूवर (ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा) में एक बहुत बड़ी उपलब्धी..

अप्रैल १७, २०१५.
 
 माननीय नरेन्द्र मोदी की वेंकूवर (ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा) में एक बहुत बड़ी उपलब्धी..
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भारत में बहुत कम लोगों को पता है कि जब पृथक खालिस्तान आन्दोलन चला था तब उसके लिए सबसे अधिक आर्थिक सहयोग वेंकूवर (ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा) से आता था|
मैं पहली बार प्रशांत महासागर के तट पर स्थित वेंकूवर नगर में सन १९८० में गया था, फिर सन १९८५ में दो बार और सन १९९०-९१ में चार बार गया| कुल सात बार वहाँ जा चुका हूँ| वहाँ अनेक मित्र थे| १९९० में मैंने अपना नया पासपोर्ट भी वेकुवर के भारतीय कोंसुलेट से बनवाया था| वहाँ नगर में खालिस्तान समर्थक समाचार पत्र खुले आम मिलते थे| पंजाब और गुजरात से गए प्रवासी वहाँ खूब हैं| सबसे अधिक पंजाबी प्रवासी हैं| वहाँ के एक गुरूद्वारे में तो बीचोंबीच एक दीवार खड़ी कर दी गयी थी क्योंकि उस गुरूद्वारे के आधे सदस्य खालिस्तान के पक्ष में थे और आधे खालिस्तान के विरोध में| वहाँ की इंडिया स्ट्रीट के पंजाबी मार्केट में तो लगता ही नहीं है कि आप कनाडा में हैं| वह बाज़ार पंजाब के किसी बाज़ार जैसा ही लगता है|
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वहाँ के कुछ खालिस्तानी, नरेन्द्र मोदी को एक ज्ञापन देना चाहते थे कि हम हिन्दू नहीं हैं| पर मोदी जी का साहस देखिये कि वे कनाडा के प्रधान मंत्री को साथ लेकर उस गुरूद्वारे में गए, वहाँ दोनों नेताओं ने मत्था टेका और भूमि पर बैठकर सत्संग भजन कीर्तन सुना और उसके पश्चात तालियों की गडगडाहट के मध्य उच्चतम न्यायालय के एक फैसले का उद्धरण देते हुए हिंदुत्व पर एक भाषण भी दे दिया| कहीं कोई विरोध नहीं हुआ| इसके लिए साहस चाहिए| फिर वे वहाँ के प्रसिद्द लक्ष्मीनारायण मंदिर भी गए और कनाडा के प्रधान मंत्री के साथ पूजा अर्चना की|
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ब्रिटिश कोलम्बिया में ही एक दो अन्य नगरों में भी गया हूँ| इससे पहिले सन १९८२ में अटलांटिक महासागर तट पर सेंट लॉरेंस नदी के मुहाने पर मोंट्रीयाल नगर भी गया था और वहाँ से कनाडा का नियाग्रा जलप्रपात भी दो बार देख कर आया| वहीं से अमेरिका में शिकागो, डेट्रॉइट, मिल्वाउकी और ड्यूलूथ भी गया था|
कनाडा में मेरे से मिलने अनेक ईसाई पादरी आते थे और मुझे प्रभावित कर अपने मत में सम्मिलित करना चाहते थे| मेरी उनसे बड़ी बहस होती थी और मैं उनको निरुत्तर कर दिया करता था| फिर भी कभी किसी पादरी को मैंने क्रोध करते या निराश होते नहीं देखा| उनको धैर्य रखने का बहुत अच्छा प्रशिक्षण मिला हुआ था| एक बार कनाडा के ही एक नगर की ही बात है| बहुत ठण्ड थी और बरसात हो रही थी| मैंने मेरे से मिलने आये एक पादरी से अनुरोध किया कि वे मुझे किसी हिन्दू मंदिर में ले चलें क्योंकि किसी मंदिर में जाने की इच्छा थी| वह पादरी मुझे उस खराब मौसम में भी दो घंटे अपनी कार चलाकर एक दूसरे शहर के एक बड़े हिन्दू मंदिर में ले गया, और हमने दर्शन करने के बाद वहाँ के रेस्टोरेंट में शाकाहारी खाना भी खाया| फिर वह बापस मुझे छोड़ कर भी गया| उसने अपना धैर्य नहीं खोया|
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वेंकूवर के स्टेनली पार्क में कई बूढ़े बूढ़े पंजाबी वृद्ध दम्पतियाँ मिलते थे जो अपनी ही व्यथा सुनाते थे|
कुल मिलाकर वहाँ के भारतीय प्रवासियों के कारण कनाडा एक अच्छा देश है जो अब भारत के साथ व्यापार में सहयोगिता बढ़ा रहा है|

भारत माता की जय| वन्दे मातरं | ॐ ॐ ॐ ||

प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में ही धर्म छिपा है .....

प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में ही धर्म छिपा है .....
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धर्म और अधर्म इन दो शब्दों के प्रचलित अर्थों पर जितनी चर्चाएँ हुई हैं, वाद विवाद, युद्ध और अति भयानक क्रूरतम अत्याचार और हिंसाएँ हुई हैं, उतनी अन्य किसी विषय पर नहीं हुई हैं|
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धर्म के नाम पर, अपनी मान्यताएं थोपने के लिए, अनेक राष्ट्रों और सभ्यताओं को नष्ट कर दिया गया, धर्म के नाम पर लाखों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ कर दी गईं जो आज भी अनवरत चल रही हैं| मनुष्य के अहंकार ने धर्म सम्बन्धी अपनी अपनी मान्यताएँ अन्यों पर थोपने के लिए सदा हिंसा का सहारा लिया है| >>>> मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना| <<<<
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धर्म के तत्व को समझने का प्रयास सिर्फ भारतवर्ष में ही हुआ है| भारत का प्राण ... धर्म है| भारत सदा धर्म-सापेक्ष रहा है| धर्म की शरण में जाने का आह्वान सिर्फ भारतवर्ष से ही हुआ है| धर्म की रक्षा के लिए स्वयं भगवान ने यहाँ समय समय पर अवतार लिए है| धर्म की रक्षा हेतु ही यहाँ के सम्राटों ने राज्य किया है| धर्म की रक्षा के लिए ही असंख्य स्त्री-पुरुषों ने हँसते हँसते अपने प्राण दिए हैं|
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भारत में धर्म की सर्वमान्य परिभाषा -- "परहित" को ही माना गया है| कणाद ऋषि के ये वचन भी सबने स्वीकार किये हैं ..... जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो वह ही धर्म है| पर यह भी विचार का विषय है कि अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि कैसे हो सकती है|
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महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं ---"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां" यानि धर्म का तत्व तो निविड़ अगम गुहाओं में छिपा है जिसे समझना अति दुस्तर कार्य है|
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प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में धर्म छिपा है| यदि कोई अपने ह्रदय को पूछे तो हृदय सदा सही उत्तर देगा| मन और बुद्धि गणना कर के स्वहित यानि अपना स्वार्थ देखेंगे पर ह्रदय स्वहित नहीं देखेगा और सदा सही धर्मनिष्ठ उत्तर देगा| ह्रदय में साक्षात भगवान ऋषिकेष जो बैठे हैं वे ही धर्म और अधर्म का निर्णय लेंगे| हमारी क्या औकात है ? पर कोई उन्हें पूछें तो सही|
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हमारी देहरूपी रथ का रथी .... आत्मा है, और सारथी -- बुद्धि है|
बुद्धि ..... कुबुद्धि और अशक्त भी हो सकती है| उसे आप पहिचान नहीं सकते क्योंकि उसकी पीठ आपकी ओर है| धर्माचरण का सर्वश्रेष्ठ कार्य यही होगा कि आप अपनी बुद्धि को सेवामुक्त कर के भगवान पार्थसारथी को अपने रथ की बागडोर सौंप दें| जहाँ भगवान पार्थसारथी आपके सारथी होंगे वहाँ जो भी होगा वह -- 'धर्म' ही होगा, 'अधर्म' कदापि नहीं|
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अंततः मेरा ह्रदय तो यही कहता है कि हम जो भी कार्य अपना अहँकार परमात्मा को समर्पित कर, समष्टि के कल्याण के लिए करते हैं, वही धर्म है| व्यष्टि का अस्तित्व समष्टि के लिए ही है| यही धर्म है| धन्यवाद|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को प्रणाम|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
16 अप्रेल 2016

दीर्घसूत्रता, प्रमाद और अनियमितता .....

दीर्घसूत्रता (जो कार्य करना है उसे आगे टालने कि प्रवृत्ति) और प्रमाद व अनियमितता >>>>> ये माया के सबसे बड़े अस्त्र हैं जो हमें परमात्मा से दूर करते हैं| ये हमारी साधना में बाधक ही नहीं, पतन के भी सबसे बड़े कारण हैं|
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नियमित ध्यान आवश्यक है अन्यथा हमारे में परमात्मा को पाने की तीब्र अभीप्सा (अतृप्त प्यास और तड़प) ही समाप्त हो जायेगी| परमात्मा को पाने की तीब्र अभीप्सा और परमात्मा से परम प्रेम (भक्ति) .... ये दो ही तो सबसे बड़े साधन हैं हमारे पास| ये होंगे तभी प्रभु की कृपा होगी और तभी सद्गुरु मिलेंगे| ये ही नहीं रहे तो पतन निश्चित है| यदि हम जीवन में किसी प्रयास के प्रति गंभीर हैं, तो उसके लिए हमें दृढ निश्चयी तथा नियमित होना ही पडेगा| जैसे स्वस्थ रहने के लिए नियमित व्यायाम आवश्यक है वैसे ही साधना में सफलता के लिए नियमित ध्यान आवश्यक है|
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जो काम करना है उसे अभी और इसी समय करो, आगे के लिए मत टालो| यही सफलता का रहस्य है| वो आगे आना वाला समय कभी नहों आयेगा| उपासना का समय हो जाये तो उसी समय उपासना करो, आगे के लिए मत टालो| तभी तो उपास्य के गुण हमारे में आयेंगे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
16 April 2016

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय .....

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय .....
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बालू रेत में चीनी मिला कर छोड़ दो| चींटियाँ बालू को छोड़ देंगी पर चीनी को खा लेंगी| गन्ना चूसते हैं तब रस को तो चूस लेते हैं पर छिलका फेंक देते हैं| संसार में यही दृष्टिकोण अपना होना चाहिए| सारी विचारधाराएँ और वाद हमारे लिए हैं, हम उनके लिए नहीं|
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हमारा प्रेम परमात्मा से है जिसे समझने और जिस की अनुभूति के पश्चात उसके विभिन्न नाम-रूपों में मोह नहीं रहता| लक्ष्य सामने हो तो तो मार्ग-दर्शिका का महत्त्व नहीं रहता| चन्द्रमा को देखने के पश्चात उसकी और संकेत करती अंगुली का महत्त्व नहीं रहता|
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अनुभूत होने पर सच्चिदानंद परमात्मा पर ही दृष्टी रहे, न कि उसके नाम रूपों पर| हाँ, वैराग्य और सर्वत्र ब्रह्मदृष्टी का अभ्यास तो आवश्यक है| जहाँ तक मैं समझता हूँ यही निष्काम कर्म है| बाकी सांसारिक कार्यों में जो हम परोपकार के नाम पर करते हैं, कुछ न कुछ यश और कीर्ति की कामना रहती ही है|
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हे परात्पर गुरु महाराज, आपकी जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

उत्तरी कोरिया की कुछ यादें .....

उत्तरी कोरिया की कुछ यादें .....
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मेरा दक्षिण कोरिया तो तीन चार बार जाने का काम पडा है पर उत्तरी कोरिया में सन १९८० में यानि आज से लगभग ३७ वर्ष पूर्व एक बार दो-तीन सप्ताह के लिए जाने का काम पडा था| बहुत अधिक प्रतिबन्ध होने के कारण किसी भी विदेशी को वहाँ स्वतंत्र रूप से घूमने फिरने की अनुमति नहीं मिलती है|
उस समय वहाँ पुलिस आदि प्रायः सभी विभागों का काम सेना ही करती थी| सेना के प्रायः सभी अधिकारियों को रूसी भाषा का ज्ञान था| संभवतः उनका प्रशिक्षण रूस में या रूसी अधिकारियों द्वारा हुआ होगा|
मेरा भी रूसी भाषा पर उस समय तक बहुत अच्छा अधिकार था, अतः वहाँ के अधिकारियों से बातचीत में और उन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई|
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वहां के अधिकारियों का जीवन अभावग्रस्त ही लगा अतः सामान्य लोगों का तो बहुत ही बुरा हाल होता होगा| वहाँ के सामान्य लोग गरीबी का ही जीवन जीते होंगे जिसका आभास उन्हें स्वयं को नहीं है| लोगों को किस प्रकार अज्ञान रूपी अन्धकार में असत्य धारणाओं के मध्य रखा जाता है, यह वहाँ स्पष्ट था| मजदूर लोग जब काम करते थे तब एक महिला ध्वनी वितारक यंत्र से उन्हें खूब कड़ी मेहनत करने का भाषण देती रहती थी|
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वहाँ के पूर्व दिवंगत शासक किम इल सुंग का दर्जा तो भगवान से कम नहीं है| उन्होंने "जूचे" नामक एक नई संस्कृति और विचारधारा को जन्म दिया था|
उत्तर कोरिया जूचे कैलेंडर पर चलता है, यह किम इल सुंग की जन्मतिथि पर आधारित है| वहाँ 8 जुलाई और 17 दिसंबर को पैदा होने वालों को इन तारीखों में अपना जन्मदिन मनाने की अनुमति नहीं है| कारण यह कि ये दो तारीखें उनके पूर्व शासकों किम इल सुंग और किम जोंग इल की पुण्यतिथियां हैं|
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अमेरिका और जापान को वहाँ शत्रु राष्ट्र के रूप में सिखाया जाता है| वहाँ का हर नागरिक अमेरिका और जापान को अपना शत्रु मानता है| पूरा देश एक सैनिक किले की तरह ही है|
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वहाँ के इतिहास और भूगोल के बारे में विस्तार भय से यहाँ चर्चा नहीं कर रहा हूँ| संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि रूस का अधिकार मंचूरिया पर तो था ही और वह पूरे कोरिया पर नियंत्रण करना चाहता था, इसी कारण सन १९०५ में जापान और रूस में एक भयानक युद्ध हुआ था जिसमें रूस की पराजय विश्व के इतिहास की धारा को बदलने वाली एक अति महत्वपूर्ण घटना थी| भारत पर भी इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा था| वहाँ कई रूसी लोगों से भी मिलना हुआ था|
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कुल मिलाकर वह देश एक नर्कतुल्य ही है जहाँ किसी धर्म को मानने की सजा तो मृत्युदंड है ही, और वहाँ के तानाशाह के मनमर्जी के अनुसार न चलने की सजा भी मृत्युदंड ही है|
इति||

Saturday 15 April 2017

क्या परमात्मा है ? हमें परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ?......

(१५ अप्रेल २०१३).
क्या परमात्मा है ? हमें जीवन में परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ?......
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कुछ शाश्वत जिज्ञासाएँ और प्रश्न हैं उनमें से सबसे बड़ी जिज्ञासा रही है कि क्या परमात्मा है और हमें उसकी आवश्यकता क्यों है? विश्व में ईसाईयत और इस्लाम ने अपनी अपनी ईश्वर की अवधारणाएँ विकसित कीं और बहुत ही निर्मम और हिंसक तरीके से अपनी मान्यताओं को विश्व में स्थापित किया| पर ये दोनों विचारधाराएँ आपस में सदा युद्धरत रहीं| इनका मत था कि सभी इनकी मान्यताओं को या तो मानें अन्यथा मरने के लिए तैयार रहें| इस्लाम, ईसाई और यहूदी .... इन तीनों मतों का जन्म मध्यपूर्व में हुआ और तीनों इब्राहिमी (Abrahamic religion) मत हैं पर तीनों में कोई समानता नहीं है| इतिहास में ये आपस में सदा युद्धरत रहे हैं| इनमें कभी यह चिंतन नहीं किया गया कि परमात्मा की आवश्यकता क्यों है|
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रूस में नास्तिक साम्यवादी विचारधारा विकसित हुई जो बलात् सब पर थोपी गयी, जहाँ ईश्वर को मानने का अर्थ था अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना| यह भी बहुत अधिक हिंसक व्यवस्था थी| अब वह व्यवस्था अपनी स्वाभाविक मौत मर चुकी है, सिर्फ भारत में ही इसके कुछ अनुयायी बचे हैं| विश्व में सिर्फ उत्तरी कोरिया ही एक ऐसा देश है जहाँ ईश्वर को मानने की सजा मौत है| वहाँ का निरंकुश शासक ही स्वघोषित सब कुछ है|
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भारत में जो नास्तिक मत प्रचलित हुए उनके पास एक अति गहन दर्शन था| उन्होंने ईश्वर की आवश्यकता को कभी स्वीकार नहीं किया| इन नास्तिक मतों में प्रमुख हैं ... बौद्ध और जैन मत| इन मतों का विश्व में खूब प्रचार हुआ| ये कभी हिंसक नहीं रहे| बौद्ध मत में 'निर्वाण', और जैन मत में 'वीतरागता' लक्ष्य रही|
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अपना प्रश्न यह है कि हमें ईश्वर की आवश्यकता क्यों है? आवश्यकता है भी या नहीं? मनुष्य संसार में सुख, शांति और समृद्धि ढूँढता है, पर उसे सदा निराशा मिलती है| अंततः हार कर वह विचार करता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, यह सृष्टि क्यों है, सृष्टिकर्ता कौन है आदि आदि| यहीं से ईश्वर को जानने की जिज्ञासा का जन्म होता है| इन जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ही व्यक्ति ईश्वर की आवश्यकता को अनुभूत करता है|
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ईश्वर की आवश्यकता हमें इसलिए है कि हम ईश्वर में से आये हैं और जब तक अपने मूल में बापस नहीं लौट जाते तब तक संतुष्ट नहीं हो सकते, तब तक हमें कोई सुख शांति और सुरक्षा नहीं मिल सकती| यह सृष्टि बनी ही ऐसे है| इसका नियम भी यही है| कोई चाहे या न चाहे प्रत्येक जीव को बापस अपने मूल में लौटना ही पड़ता है| जो इसे समझते हैं वे बिना कष्ट पाए चले जाते है और जो नहीं समझते उन्हें कष्ट पाकर लौटना ही पड़ता है| प्रत्येक जीव को शिव बनना ही पड़ता है यही सृष्टि का नियम है| जिस परम चेतना से हमारा प्रादुर्भाव हुआ है उस चेतना में अपने अहंभाव को नष्ट कर हमें विलीन होना ही पड़ेगा| ईश्वर "सच्चिदानन्द" है जिसे उपलब्ध होने के लिए ही हमारा अस्तित्व हुआ है यही ईश्वर की सबसे बड़ी आवश्यकता है| प्रत्येक जीव का शिव बनना उसकी नियति है|
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ईश्वर पर और उसकी आवश्यकता पर जितना चिंतन भारत में हुआ है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है| खूब गहन चिंतन मनन करने, और साधना द्वारा साक्षात्कार करने के उपरांत ईश्वर के अस्तित्व और उसकी आवश्यकता को सनातन परम्परा में स्वीकार किया गया है|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ये, तु, अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, पर्युपासते | सर्वत्रागम्, अचिन्त्यम्, च, कूटस्थम्, अचलम्, ध्रुवम्" ||१२:३||
"सन्नियम्य, इन्द्रियग्रामम्, सर्वत्रा, समबुद्धयः | ते, प्राप्नुवन्ति, माम्, एव, सर्वभूतहिते, रताः" ||१२:४||
अर्थात् जो अक्षर की, अनिर्देश्य की, अव्यक्त की, सर्वव्यापक की, अचिंत्य की, कूटस्थ की, अचल ध्रुव की खोज करते हैं , सभी जगह समबुद्धि रखनेवाले, सभी भूतों के हित में लगे वे लोग मेरे पास ही आते हैं|
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हमारे जीवन में एक पीड़ादायक अभाव हर समय सदा ही रहता है| वह अभाव सिर्फ ईश्वर की भक्ति से ही दूर होता है| जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था उस समय १९६७, १९६८ में मैं दो वर्ष रूस में रहा| रूसी भाषा का अच्छा ज्ञान था| मेरी आयु १९-२० वर्ष की थी पर हर समय कुछ नया जानने और सीखने की प्रबल जिज्ञासा रहती थी| वहाँ ईश्वर का नाम लेने, धार्मिक कर्मकांड, किसी भी तरह के धार्मिक साहित्य और गतिविधि पर पूर्ण प्रतिबन्ध था| नास्तिकता ही राजधर्म थी| वहाँ की व्यवस्था की सोच यह थी कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता (जैसे रोटी, कपड़ा और मकान) पूरी हो जाए और व्यक्ति समर्पित होकर पूर्ण रूप से राज्य व्यवस्था के लिए कार्य करे| सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था वहाँ एकदम समाप्त हो गयी थी| उस घोर नास्तिक व्यवस्था में लोगो की वेदना और तड़प को मैंने प्रत्यक्ष देखा और अनुभूत किया है| लोग अपने आतंरिक अभाव की पूर्ती शराब और सेक्स से ही करने का प्रयास करते थे| किसी भी उत्सव पर या सप्ताहांत में जिधर देखो उधर चारों ओर नशे में चूर युवक युवतियों की भीड़ बिना किसी वर्जना के दिखाई देती थी| उन्ही दिनों तीन महीने लातविया की राजधानी रीगा में भी रहने का अवसर मिला| वहाँ के लोगों की तड़प तो रूसियों से भी अधिक थी| अब तो यह सोचकर काँप उठता हूँ कि बिना ईश्वर के कैसा अर्थहीन जीवन होता है| १९८० में २० दिन के लिए उत्तरी कोरिया जाने का अवसर मिला था| वहाँ के सभी अधिकारियों को रूसी भाषा आती थी अतः संवाद में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई| वहां की घोर नास्तिक व्यवस्था में मनुष्य सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाली मशीन के अलावा और कुछ भी नहीं था| ऐसी नास्तिक व्यवस्था की कल्पना करते हुए भी डर लगता है| १९७६ में रोमानिया गया था कुछ दिनों के लिए| वहां भी सभी नास्तिक साम्यवादी देशों जैसा ही बुरा हाल था| क्या स्त्री क्या पुरुष सब की एक ही सोच थी कि खूब सिगरेट, शराब और सेक्स का सेवन करो और राज्य की व्यवस्था के अनुकूल रहो| १९८८ के अंत में जब साम्यवाद का पतन हुआ तब मैं संयोगवश युक्रेन के ओडेसा नगर में था| उस समय वहाँ के कुछ दृश्य भूल नहीं सकता जब अनेक युवक युवतियां राज्य की नास्तिक व्यवस्था को पूर्ण चुनौती देते हुए सार्वजनिक पार्कों में कीर्तन करते थे| पुलिस उन्हें जेल में डालती तो वहां भी वे कीर्तन करने लगते| वहाँ की नास्तिक सरकार उन लोगों से डरने लगी थी| वहाँ मैनें यह प्रत्यक्ष देखा कि जीवन में ईश्वर की क्यों आवश्यकता है| जीवन में बहुत नास्तिक लोगों को देखा है उनका जीवन सदा असंतुष्ट और दुःखी ही रहता है| इससे अधिक और लिखना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| सभी को धन्यवाद!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०१३