परमात्मा से जुड़ कर ही मनुष्य महान बनता है ......
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पानी का एक बुलबुला सागर से दूर होकर अत्यंत असहाय, अकेला और अकिंचन है| उस क्षणभंगुर बुलबुले से छोटा और कौन हो सकता है? पर वही बुलबुला जब सागर में मिल जाता है तो एक विकराल, विराट और प्रचंड रूप धारण कर लेता है|
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वैसे ही मनुष्य जितना परमात्मा से समीप है, उतना ही महान है| जितना वह परमात्मा से दूर है, उतना ही छोटा है| जितने हम परमात्मा से समीप हैं उसी अनुपात में प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य है| जितना हम परमात्मा से दूर जायेंगे प्रकृति की प्रत्येक शक्ति उसी अनुपात में हम से विपरीत जाने को बाध्य होगी |
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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हमारी आत्मा हम स्वयं हैं, और यह संसार एक दर्पण है .....
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दर्पण को कितना भी सजा लें, यदि हमारी आत्मा कलुषित है तो प्रतिबिंब भी कलुषित ही होगा | उज्जवल ही करना है तो बिम्ब का करें | शृंगार स्वयं अपनी आत्मा का करें, फिर उसका प्रतिबिंब यह संसार भी अति सुन्दर होगा |
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हम उस दाता से जुड़ें, न कि भिखारी दुनिया से | शृंगार ही करना है तो स्वयं के चेहरे का करें, न की दर्पण का |
ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||
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पानी का एक बुलबुला सागर से दूर होकर अत्यंत असहाय, अकेला और अकिंचन है| उस क्षणभंगुर बुलबुले से छोटा और कौन हो सकता है? पर वही बुलबुला जब सागर में मिल जाता है तो एक विकराल, विराट और प्रचंड रूप धारण कर लेता है|
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वैसे ही मनुष्य जितना परमात्मा से समीप है, उतना ही महान है| जितना वह परमात्मा से दूर है, उतना ही छोटा है| जितने हम परमात्मा से समीप हैं उसी अनुपात में प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य है| जितना हम परमात्मा से दूर जायेंगे प्रकृति की प्रत्येक शक्ति उसी अनुपात में हम से विपरीत जाने को बाध्य होगी |
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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हमारी आत्मा हम स्वयं हैं, और यह संसार एक दर्पण है .....
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दर्पण को कितना भी सजा लें, यदि हमारी आत्मा कलुषित है तो प्रतिबिंब भी कलुषित ही होगा | उज्जवल ही करना है तो बिम्ब का करें | शृंगार स्वयं अपनी आत्मा का करें, फिर उसका प्रतिबिंब यह संसार भी अति सुन्दर होगा |
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हम उस दाता से जुड़ें, न कि भिखारी दुनिया से | शृंगार ही करना है तो स्वयं के चेहरे का करें, न की दर्पण का |
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हमारी आत्मा हम स्वयं हैं, और यह संसार एक दर्पण है .....
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दर्पण को कितना भी सजा लें, यदि हमारी आत्मा कलुषित है तो प्रतिबिंब भी कलुषित ही होगा | उज्जवल ही करना है तो बिम्ब का करें | शृंगार स्वयं अपनी आत्मा का करें, फिर उसका प्रतिबिंब यह संसार भी अति सुन्दर होगा |
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हम उस दाता से जुड़ें, न कि भिखारी दुनिया से | शृंगार ही करना है तो स्वयं के चेहरे का करें, न की दर्पण का |
ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||
किसी भी शिवालय में हम जाते हैं तो हमारी दृष्टी भगवान शिव के वाहन नंदी पर पड़ती ही है| नंदी का मुँह सदा भगवान शिव की ओर ही होता है| यह मुद्रा प्रतीकात्मक है| इस का अर्थ मुझे तो यही प्रतीत होता है कि जिस प्रकार नंदी भगवान शिव का वाहन है और उसकी दृष्टी सदा भगवान शिव की ओर ही है, वैसे ही हमारी यह देह भी हमारी आत्मा का वाहन है, और हमारी दृष्टी भी निज आत्मा यानी आत्म-तत्व की ओर होनी चाहिए|
ReplyDeleteआगम शास्त्रों का मेरा कोई विशेष अध्ययन नहीं है अतः जैसा अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से समझ में आया, वैसा यहाँ लिख दिया| कोई और अर्थ है तो मैं जानना चाहूँगा| धन्यवाद|
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||