Monday, 13 May 2019

सीता नवमी की शुभ कामनाएँ .....

सीता नवमी की शुभ कामनाएँ .....
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"उद्भव स्थिति संहार कारिणीं क्लेश हारिणीम्| सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्||"
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आज वैशाख शुक्ल नवमी को "सीता नवमी" है जिसे "जानकी नवमी" भी कहते हैं| आज ही के दिन माँ सीता का प्राकट्य हुआ था| आज ही के द‍िन पुष्य नक्षत्र में राजा जनक ने संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए भूमि जोती थी और उसी समय उन्हें पृथ्वी में दबी हुई एक बालिका मिली थी| जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को सीता कहते हैं| यही वजह थी क‍ि उनका नाम सीता रखा गया| यह स्थान बिहार के सीतामढी जिले में पुनौरा धाम कहलाता है|
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"जनकसुता जगजननी जानकी| अतिसय प्रिय करुणानिधान की||
ताके जुग पदकमल मनावउं| जासु कृपा निर्मल मति पावउँ||"

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१३ मई २०१९ 

हम कब तक सोते रहेंगे ? .....

हम कब तक सोते रहेंगे ? .....
अनंत काल से अब तक हम सो ही तो रहे हैं, और किया भी क्या है? क्या अब भी सोते ही रहेंगे?अब तो जागने में ही सार है| सदा सोने की बहुत बुरी आदत पड़ गयी है| बाहर चारों ओर अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो रहा है, और ज्ञान रूपी प्रकाश फ़ैलने लगा है| जिन्हें यह प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा है वे अभी भी नींद में हैं| उनकी चिंता छोड़ो| सामने साक्षात् परमात्मा हैं| उनके इस विराट प्रेमसिन्धु में तुरंत छलांग लगा लो| आनंद ही आनंद है, कहीं कोई अभाव नहीं है| परमात्मा के प्रकाशमय रूप का ध्यान कीजिये, प्रकाश और आनंद से चैतन्य भर जाएगा| कहीं भी अन्धकार नहीं दिखेगा|
कृपा शंकर .
१२ मई २०१९

स्त्री सदा जन्मजात ऋणमुक्ता और अवध्या है.....

स्त्री सदा जन्मजात ऋणमुक्ता और अवध्या है.....
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जन्म के समय हर पुरुष पर पितृऋण, ऋषिऋण और देवऋण होते हैं, जिन से उसे उऋण होना ही पड़ता है| पर ये ऋण सिर्फ पुरुषों पर होते हैं, स्त्रियों पर नहीं| कन्या के ऋण का भार पिता पर होता है, और विवाहिता के ऋण का भार पति पर होता है| स्त्री सदा ऋणमुक्ता है, उस पर कोई ऋण नहीं है|
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ऐसे ही स्त्री सदा अवध्या भी है| उसका वध नहीं किया जा सकता| कुछ विशेष परिस्थितियों में ही आततायी स्त्री का वध किया जा सकता है जैसे भगवान श्रीराम ने ताड़का का किया था| पर वे विष्णु के अवतार थे जिन्हें कोई पाप नहीं लग सकता| भारत के पूरे इतिहास में किसी भी हिन्दू शासक ने कभी भी किसी स्त्री का वध नहीं किया|
११ मई २०१९

प्रसन्नता एक विकल्प है, कोई परिणाम नहीं....

प्रसन्नता एक विकल्प है, कोई परिणाम नहीं....
दो दिन पूर्व जगन्माता से प्रार्थना की और निवेदन किया कि आपके आशीर्वाद से मुझे कोई अभाव नहीं है, जीवन में पूर्ण संतुष्टि और तृप्ति है, कोई कामना नहीं है, फिर भी एक पीड़ा/वेदना और तड़फ हृदय में क्यों है? तुरंत उत्तर मिला कि तुम ने इस मनुष्य देह को धारण किया हुआ है इसके लिए कोई न कोई कारण तो चाहिए| यह वेदना नहीं होगी और सिर्फ आनंद ही होगा तो यह देह उसी समय छूट जायेगी| जब प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जायेंगे तब यह वेदना भी नहीं रहेगी| इस वेदना के साथ ही प्रसन्न रहो|
११ मई २०१९

भारत की जय होगी क्योंकि यहाँ धर्म की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है ....

भारत की जय होगी क्योंकि यहाँ धर्म की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है| समय आ गया है जब असत्य और अन्धकार की आसुरी शक्तियाँ पराभूत होंगी व धर्म की पुनर्स्थापना होगी|
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जिससे हमारा सम्पूर्ण सर्वोच्च विकास और सब तरह के दुःखों/कष्टों से मुक्ति हो वही धर्म है| यह धर्म की हिंदू परिभाषा और यही वास्तविकता है| धर्म एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो हमें परमात्मा से संयुक्त करता है| 
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"यथो अभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि स धर्म" ..... जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि हो वही धर्म है| धर्म की यह परिभाषा कणाद ऋषि ने वैशेषिकसूत्रः में की है जो हिंदू धर्म के षड्दर्शनों में से एक है|
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हम अपने स्वधर्म का पालन करें, क्योंकि गीता में यह भगवान की आज्ञा है .....
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||
इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है| इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है||
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धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः| तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् || (मनुस्मृति)
जो मनुष्य धर्म की हत्या करता है, धर्म उसका नाश करता है। इसलिये धर्म की रक्षा करना चाहिए ताकि हमारी रक्षा हो सके.
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'यतो धर्मस्ततो जयः' .... महाभारत में यह वाक्य अनेक बार आया है| जहाँ धर्म है वहीं जय है| धर्म की जय और अधर्म का नाश होगा| भारतवर्ष ही धर्म है और धर्म ही भारतवर्ष है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मई २०१९

त्यागी कौन है ? .....

प्रश्न : त्यागी कौन है ? .....
उत्तर : गीता में भगवान कहते हैं .....
"न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः| यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते||१८:११||
अर्थात् ..... क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा अशेष कर्मों का त्याग संभव नहीं है| इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही पुरुष त्यागी कहा जाता है||
गीता के अनुसार त्यागी वह है जिसने सभी कर्मफलों का त्याग कर दिया है| त्यागी नाम रखने से ही कोई त्यागी नहीं हो जाता |
६ मई २०१९ 

परम-प्रेम, प्राण-तत्व, आकाश-तत्व और आनंद .....

परम-प्रेम, प्राण-तत्व, आकाश-तत्व और आनंद .....
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ऊपर जिन चार शब्दों का मैनें प्रयोग किया है, ये मेरी निजी व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं, बौद्धिक स्तर पर इन्हें किसी को भी समझाने में मैं असमर्थ हूँ| जब गुरु-रूप में परमात्मा की कृपा होती है तब सर्वप्रथम तो हृदय में प्रेम जागृत होता है जो शनैः शनैः परम-प्रेम में परिवर्तित हो जाता है| परम-प्रेम में प्रेमास्पद के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं रहती, अन्य कुछ भी प्रिय नहीं लगता| यही परम-प्रेम का लक्षण है| इसे ही गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति कहा है, जिसका एक अति, अति अल्प अंश भी मिल जाए तो हम निहाल हो जाते हैं .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||
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श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथों का तो सार ही परम-प्रेम यानि भक्ति है| इन ग्रंथों का एकमात्र उद्देश्य परम-प्रेम यानि भक्ति को जागृत करना है| भक्ति सूत्रों के आचार्य देवर्षि नारद कहते हैं...
"अथातो भक्ति व्याख्यास्याम:, सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा, अमृतस्वरूपा च, यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति||"
इसके भावार्थ का सार है कि भक्ति परमप्रेमरूपा है, अमृतस्वरुपा है, जिसे पाकर हम सिद्ध हो जाते हैं, अमृत हो जाते हैं, तृप्त हो जाते हैं|
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अति अल्प और अति सीमित मात्रा में भी प्राप्त यह परम-प्रेम ही हमें प्राण-तत्व और आकाश-तत्व की अनुभूतियाँ कराता है| ये अनुभूतियाँ उन सभी को होती हैं, जो भगवान को समर्पित हो, प्रेमपूर्वक थोड़ा-बहुत भी नियमित ध्यान करते हैं| इसमें कुछ विशेष या कोई बड़ी बात नहीं है| ये अनुभूतियाँ सभी को होती हैं| ये सामान्य से भी अधिक सामान्य बात है| पर यहाँ कर्ता हम नहीं, भगवान स्वयं ही होते हैं|
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फिर जो आनंद की अनुभूतियाँ होती हैं उन्हें ही चिर-स्थायी रखने के लिए परमात्मा को समर्पित होकर नियमित, गहन व दीर्घ साधना करनी पड़ती है, जो आवश्यक है| यहाँ भी कर्ता हम नहीं, स्वयं परमात्मा होते हैं| हमें करना क्या है? इसका उत्तर स्वयं भगवान दो बार देते हैं ....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||
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हे प्रभो, एकमात्र आनंद आपकी भक्ति में ही है, जो अन्यत्र कहीं भी नहीं है| आपके बिना हम उसी तरह एक मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकते, जैसे मछली जल के बिना नहीं रह सकती है|
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"नाथ भगति अति सुखदायनी| देहु कृपा करि अनपायनी|| 
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी| एवमस्तु तब कहेउ भवानी||" (श्रीरामचरितमानस)
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम|
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम||" (श्रीरामचरितमानस)
"परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम|
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम||" (श्रीरामचरितमानस)
"देहु भगति रघुपति अति पावनि| त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि|| 
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु| होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु||" (श्रीरामचरितमानस)
"अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव|
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव||" (श्रीरामचरितमानस)
"भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम|
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम|| (श्रीरामचरितमानस)
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इतनी अनंत महिमा है परम-प्रेम की कि पूरी उम्र भर लिखते रहें तो भी समाप्त नहीं होगी| यही आदि है, यही मध्य है और यही अंत है| परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ मई २०१९
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पुनश्चः :--- यह लिखना छोटे मुँह बड़ी बात होगी पर सत्य है कि प्राण-तत्व का आकाशतत्व में योग ही हमें आनंद प्रदान करता है और सिद्ध बनाता है|

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुभ कामनाएँ .....

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुभ कामनाएँ .....
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एक मई को आज अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस है| हम सब भी भगवान के मजदूर बनें| जितनी मजदूरी करेंगे उतना ही पारिश्रमिक मिलेगा| अतः पूरी ईमानदारी से मन लगाकर मजदूरी करें|
"तुलसी विलंब न कीजिये भजिये नाम सुजान | जगत मजूरी देत है क्यों राखें भगवान ||"
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हम कुछ दशाब्दियों के लिए यह देह धारण करते हैं| अनंत जीवन में इन दशाब्दियों का क्या महत्व है? जीवन बहुत छोटा है अतः कैसे इस का सदुपयोग किया जाए इस पर विचार भी करना चाहिए| कुछ लोग कहते हैं कि जब हाथ पैर काम करना बंद कर देंगे तब हमारा समय आयेगा| क्या यह सत्य है? क्या उनका समय कभी आयेगा?
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हमारी आतंरिक दृष्टि यानि हमारी चेतना सदा परमात्मा की ओर ही रहे| किसी भी शिवालय में देखिये, शिव के वाहन नंदी का मुँह सदा भगवान शिव की ओर होता है| नंदी भगवान शिव का वाहन है और उसकी दृष्टि सदा भगवान शिव की ओर है, वैसे ही हमारी यह देह भी आत्मा का वाहन है, जिसकी दृष्टि यानि चेतना सदा आत्म-तत्व की ओर होनी चाहिए| यह भी भगवान की मजदूरी है जिसका पारिश्रमिक पुरस्कार भी अवश्य मिलता है|
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हमारी इस देह में भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, शिखास्थल पश्चिम है, सहस्त्रार उत्तर दिशा है, और उस से विपरीत दिशा दक्षिण है| योगियों को भगवान के चरण-कमलों की अनुभूति गहन ध्यान में सहस्त्रार में होती है| सहस्त्रार व ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता स्वयं परमशिव हैं| हम जब तक मायावी पाशों से बंधे हुए हैं तब तक पशु है| इन पाशों से मुक्त भगवान परमशिव ही करते हैं अतः वे पशुपतिनाथ पंचमुखी महादेव हैं जिनके दर्शन समाधि की अवस्था में कूटस्थ के सूर्यमंडल में होते हैं| अपनी चेतना सदा भगवान की ओर रखें, यह भगवान की बड़ी से बड़ी मजदूरी है|
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पुनश्चः अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की हम सभी मजदूरों को शुभ कामनाएँ|
कृपा शंकर
१ मई २०१९

ऋषिकेश, केशिनिषूदन और महाबाहू .... शब्दों के अर्थ ......

ऋषिकेश, केशिनिषूदन और महाबाहू .... शब्दों के अर्थ ......
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गीता में मोक्ष-सन्यास योग के आरम्भ में ही अर्जुन, भगवान श्री कृष्ण को एक साथ ऋषिकेश, महाबाहो और केशिनिषूदन कह कर संबोधित करता है .....
"संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्| त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन||१८:१||
अर्थात् .... हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे केशिनिषूदन, मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्पृथक् जानना चाहता हूँ||
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ये तीनों ही शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं, जिनका अर्थ जानना बड़ा आवश्यक है.....
(१) अपने बाल्यकाल में भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण ने घोड़े का रूप धारण करने वाले केशि नामक असुर का वध किया था, इसलिए अर्जुन ने उन्हें केशिनिषूदन कहा| वह असुर घोड़े का रूप धर कर भगवान श्रीकृष्ण को उनके बाल्यकाल में उन्हें मारने के लिए आया था, पर बालक भगवान श्रीकृष्ण ने उस का वध कर दिया, अतः वे केशिनिषूदन कहलाये| श्रुति भगवती ने इन्द्रियों को घोड़ा भी कहा है .... "इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयास्तेषु गोचरान्| आत्मेन्द्रिय मनोयुक्त भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः||" (कठोपनिषद).
(२) इन्द्रियों को ऋषिका भी कहते हैं| जिसने अपनी सारी इन्द्रियों पर विजय पा ली है, वह ऋषिकेश है| इन्द्रियों में मन भी आता है|
(३) महाबाहू का शाब्दिक अर्थ तो है लम्बी भुजाओं वाले| पर इसका तात्विक अर्थ है .... महान कार्य करने वाले|
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जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हम सब पर बनी रहे|
"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर्मर्दनम्| देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्||"