Monday, 13 May 2019

ऋषिकेश, केशिनिषूदन और महाबाहू .... शब्दों के अर्थ ......

ऋषिकेश, केशिनिषूदन और महाबाहू .... शब्दों के अर्थ ......
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गीता में मोक्ष-सन्यास योग के आरम्भ में ही अर्जुन, भगवान श्री कृष्ण को एक साथ ऋषिकेश, महाबाहो और केशिनिषूदन कह कर संबोधित करता है .....
"संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्| त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन||१८:१||
अर्थात् .... हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे केशिनिषूदन, मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्पृथक् जानना चाहता हूँ||
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ये तीनों ही शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं, जिनका अर्थ जानना बड़ा आवश्यक है.....
(१) अपने बाल्यकाल में भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण ने घोड़े का रूप धारण करने वाले केशि नामक असुर का वध किया था, इसलिए अर्जुन ने उन्हें केशिनिषूदन कहा| वह असुर घोड़े का रूप धर कर भगवान श्रीकृष्ण को उनके बाल्यकाल में उन्हें मारने के लिए आया था, पर बालक भगवान श्रीकृष्ण ने उस का वध कर दिया, अतः वे केशिनिषूदन कहलाये| श्रुति भगवती ने इन्द्रियों को घोड़ा भी कहा है .... "इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयास्तेषु गोचरान्| आत्मेन्द्रिय मनोयुक्त भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः||" (कठोपनिषद).
(२) इन्द्रियों को ऋषिका भी कहते हैं| जिसने अपनी सारी इन्द्रियों पर विजय पा ली है, वह ऋषिकेश है| इन्द्रियों में मन भी आता है|
(३) महाबाहू का शाब्दिक अर्थ तो है लम्बी भुजाओं वाले| पर इसका तात्विक अर्थ है .... महान कार्य करने वाले|
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जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हम सब पर बनी रहे|
"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर्मर्दनम्| देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्||"

4 comments:

  1. अर्जुन भगवान् को संबोधित करता है ' हे महाबाहो " ! महाबाहो : अर्थात् बड़ी : बड़ी भुजाओं वाले । घ्यान देंगे - भुजाएं हमारे यहां कर्म का प्रतीक हैं । पांच कर्मेन्द्रियाँ हैं जिनमें पैर केवल चलने का ही काम करते हैं , वाणी केवल बोलने का कार्य करती है , परन्तु हाथ अनेक काम कर लेता है । हम अभी टंकण करके अपने वाणी का भी कार्य कर रहे हैं । अगर कभी भगवान् की कृपा से लंगड़े भी हुए तो हाथ से चल लेंगे । बाकी भी बहुत सारे कार्य हाथ से कर लेंगे । अतः महाबाहु का अर्थ होता है अत्यंत उत्तम कर्म या महान् कर्म करने वाला । इसलिए अर्जुन भगवान् को सम्बोधन करते हुए कहता है 'हे महाबाहो ! " उत्तम कर्म करनेवाले - भगवान् !
    मङ्गलमूर्ति मङ्गल करें ।

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  2. रामचरितमानस में संत तुलसीदास जी ने लिखा है ....
    "बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
    आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
    तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।
    असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।"

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  3. जगन्नाथ मन्दिर के महालक्ष्मी मन्दिर के सामने कक्ष में इससे सम्बन्धित श्वेतश्चतर उपनिषद् के श्लोक हैं जो ओड़िया लिपि में हैं-
    अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
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    न तस्य कार्यं करणं नविद्यते न तत् समश्चाभ्यधिकश्च श्रूयते।
    पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च॥
    ज्ञानघन-जगन्नाथ, बल-बलभद्र, क्रिया-सुभद्रा।

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  4. महाबाहु शब्द का एक अर्थ तो महान कार्य करने वाला ऐसा होता है । एक अर्थ होता है असीम शक्ति वाला , ग्यारवे अध्याय में इसके लिए दूसरे शब्द हैं "अनन्तवीर्य अमित विक्रम " । योग सबसे बड़ी शक्ति है कुम्भक की अर्थात् प्राण के स्थिरत्व की । योग साहित्यों में उल्लेख है "कुम्भक के समान वल नहीं" । प्राण के चंचलता से सब क्रियाशील हैं, किन्तु उसको स्थिर करके भी अक्रिय स्थिति में रहकर कर्म करने में जो सक्षम हो , वो महाबाहु है ।
    एक दूसरे हिसाब से, कर्म में प्रवृत्ति होती है इंद्रियों से, इंद्रियों से निवृत्ति की स्थिति में भी जो सजग हो, सक्रिय हो ।
    हाथ नहीं किन्तु सब कर्म करता हो, पैर नहीं किन्तु सर्वत्र गति हो , कान नहीं , सब सुनता हो ।

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