Monday 13 May 2019

परम-प्रेम, प्राण-तत्व, आकाश-तत्व और आनंद .....

परम-प्रेम, प्राण-तत्व, आकाश-तत्व और आनंद .....
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ऊपर जिन चार शब्दों का मैनें प्रयोग किया है, ये मेरी निजी व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं, बौद्धिक स्तर पर इन्हें किसी को भी समझाने में मैं असमर्थ हूँ| जब गुरु-रूप में परमात्मा की कृपा होती है तब सर्वप्रथम तो हृदय में प्रेम जागृत होता है जो शनैः शनैः परम-प्रेम में परिवर्तित हो जाता है| परम-प्रेम में प्रेमास्पद के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं रहती, अन्य कुछ भी प्रिय नहीं लगता| यही परम-प्रेम का लक्षण है| इसे ही गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति कहा है, जिसका एक अति, अति अल्प अंश भी मिल जाए तो हम निहाल हो जाते हैं .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||
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श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथों का तो सार ही परम-प्रेम यानि भक्ति है| इन ग्रंथों का एकमात्र उद्देश्य परम-प्रेम यानि भक्ति को जागृत करना है| भक्ति सूत्रों के आचार्य देवर्षि नारद कहते हैं...
"अथातो भक्ति व्याख्यास्याम:, सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा, अमृतस्वरूपा च, यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति||"
इसके भावार्थ का सार है कि भक्ति परमप्रेमरूपा है, अमृतस्वरुपा है, जिसे पाकर हम सिद्ध हो जाते हैं, अमृत हो जाते हैं, तृप्त हो जाते हैं|
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अति अल्प और अति सीमित मात्रा में भी प्राप्त यह परम-प्रेम ही हमें प्राण-तत्व और आकाश-तत्व की अनुभूतियाँ कराता है| ये अनुभूतियाँ उन सभी को होती हैं, जो भगवान को समर्पित हो, प्रेमपूर्वक थोड़ा-बहुत भी नियमित ध्यान करते हैं| इसमें कुछ विशेष या कोई बड़ी बात नहीं है| ये अनुभूतियाँ सभी को होती हैं| ये सामान्य से भी अधिक सामान्य बात है| पर यहाँ कर्ता हम नहीं, भगवान स्वयं ही होते हैं|
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फिर जो आनंद की अनुभूतियाँ होती हैं उन्हें ही चिर-स्थायी रखने के लिए परमात्मा को समर्पित होकर नियमित, गहन व दीर्घ साधना करनी पड़ती है, जो आवश्यक है| यहाँ भी कर्ता हम नहीं, स्वयं परमात्मा होते हैं| हमें करना क्या है? इसका उत्तर स्वयं भगवान दो बार देते हैं ....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||
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हे प्रभो, एकमात्र आनंद आपकी भक्ति में ही है, जो अन्यत्र कहीं भी नहीं है| आपके बिना हम उसी तरह एक मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकते, जैसे मछली जल के बिना नहीं रह सकती है|
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"नाथ भगति अति सुखदायनी| देहु कृपा करि अनपायनी|| 
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी| एवमस्तु तब कहेउ भवानी||" (श्रीरामचरितमानस)
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम|
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम||" (श्रीरामचरितमानस)
"परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम|
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम||" (श्रीरामचरितमानस)
"देहु भगति रघुपति अति पावनि| त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि|| 
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु| होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु||" (श्रीरामचरितमानस)
"अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव|
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव||" (श्रीरामचरितमानस)
"भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम|
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम|| (श्रीरामचरितमानस)
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इतनी अनंत महिमा है परम-प्रेम की कि पूरी उम्र भर लिखते रहें तो भी समाप्त नहीं होगी| यही आदि है, यही मध्य है और यही अंत है| परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ मई २०१९
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पुनश्चः :--- यह लिखना छोटे मुँह बड़ी बात होगी पर सत्य है कि प्राण-तत्व का आकाशतत्व में योग ही हमें आनंद प्रदान करता है और सिद्ध बनाता है|

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