Monday 30 October 2017

परमात्मा के परमप्रेममय रूप का हम सदा ध्यान करें .....

परमात्मा के परमप्रेममय रूप का हम सदा ध्यान करें .....
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प्रेम ही ब्रह्म है, प्रेम ही हमारा स्वभाव है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है, और उस पर ध्यान ही सच्चिदानंद की प्राप्ति का मार्ग है| सब कुछ ब्रह्ममय है | ब्रह्म ही हमारा साक्षिरूप है, वही परमशिव है, वही गुरु रूप में निरंतर कूटस्थ में बिराजमान है | सहस्त्रार गुरुचरण हैं और सहस्त्रार में स्थिति ही गुरुचरणों में आश्रय है |
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जिस देह में हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं, इस देह का भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, सहस्त्रार उत्तर दिशा है, बिंदु विसर्ग (शिखास्थल) पश्चिम दिशा है और उससे नीचे का क्षेत्र दक्षिण दिशा है|
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सहस्त्रार से परे का क्षेत्र परा है, वही परब्रह्म है वही परमशिव है जहाँ उनके सिर से प्रेममयी ज्ञानगंगा उनकी परम कृपा के रूप में हम सब पर तैलधारा की तरह निरंतर बरस रही है|
ॐ ॐ ॐ !!
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वह परब्रह्म परमशिव परमप्रेम हम स्वयं हैं, कहीं कोई पृथकता नहीं है| भगवान के इसी परमप्रेममय रूप पर हम सदा ध्यान करें| ॐ ॐ ॐ !!
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ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्चः :---- जब हम कहते हैं कि पूर्व दिशा में मुँह कर के ध्यान करो, इसका अर्थ है अंतर्दृष्टि भ्रूमध्य में रख कर ध्यान करो| जब हम कहे हैं कि उत्तर दिशा में मुँह कर के ध्यान करो, इसका अर्थ है सहस्त्रार पर अंतर्दृष्टि रख कर ध्यान करो| दक्षिण दिशा में ध्यान मत करो ... का अर्थ है आज्ञा चक्र से नीचे दृष्टी मत रखो ध्यान के समय |

हिंदुत्व, हिन्दूराष्ट्र और भारतमाता .....

हिंदुत्व, हिन्दूराष्ट्र और भारतमाता .....
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हिंदुत्व एक ऐसी ऊर्ध्वमुखी चेतना है जो मनुष्य को निरंतर परमात्मा की ओर उन्मुख व अग्रसर करती है| ऐसी ही विभा में रत आदर्श लोगों का समूह हिन्दु राष्ट्र हिन्दुस्तान भारतवर्ष है जो हिंसा से सदा दूर है|
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हे जगन्माता, भारत के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का समूल नाश करो| इस राष्ट्र में कहीं भी अन्धकार और असत्य की शक्तियों का अस्तित्व न रहे| इस राष्ट्र में सारे सदगुण हों, इस राष्ट्र को द्विगुणित परम वैभव, सर्वशक्तिसम्पन्नता और परम ऐश्वर्य प्रदान करो| इस राष्ट्र में सभी नागरिक तपस्वी, तेजस्वी व शक्तिशाली बनें, उन्हें तप करने का सामर्थ्य, निरंतर ब्रह्मचिंतन और स्वाध्याय करने की शक्ति और प्रेरणा दो| यहाँ आत्म-ज्ञानी महान आत्माओं का जन्म हो, इस राष्ट्र को आध्यात्म और ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ करो|
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यह राष्ट्र हमारे लिए माता है, कोई भूखंड मात्र नहीं| इस राष्ट्र की आध्यात्मिक आत्मा को हम भारतमाता कहते हैं| भारतमाता अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हों, कहीं कोई अन्धकार व असत्य का अस्तित्व न रहे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ........

चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ........
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जब भगवान चंद्रशेखर का आश्रय मिल जाए तो यमराज किसी का क्या बिगाड़ लेगा ? मार्कंडेय के समक्ष उनके प्राण हरने यमराज आये तो मार्कंडेय ने भगवान चंद्रशेखर का आश्रय लिया और अनेक कल्पों के लिए अमर हो गए| भगवान शिव की मानस कन्या नर्मदा के वे आज भी द्वारपाल है| नर्मदा की परिक्रमा उनकी आशीर्वाद से ही पूर्ण होती है| अनेक कल्प बीत जायेंगे पर वे सदा अमर ही रहेंगे|
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चंद्रशेखर चंद्रशेखर चंद्रशेखर पाहिमाम् ।
चंद्रशेखर चंद्रशेखर चंद्रशेखर रक्षमाम् ॥
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रत्नसानु शरासनं रजताद्रि शृंग निकेतनं
शिंजिनीकृत पन्नगेश्वर मच्युतानल सायकम् ।
क्षिप्रदग्द पुरत्रयं त्रिदशालयै रभिवंदितं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ १ ॥
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मत्तवारण मुख्यचर्म कृतोत्तरीय मनोहरं
पंकजासन पद्मलोचन पूजितांघ्रि सरोरुहम् ।
देव सिंधु तरंग श्रीकर सिक्त शुभ्र जटाधरं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २ ॥
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कुंडलीकृत कुंडलीश्वर कुंडलं वृषवाहनं
नारदादि मुनीश्वर स्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् ।
अंधकांतक माश्रितामर पादपं शमनांतकं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ३ ॥
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पंचपादप पुष्पगंध पदांबुज द्वयशोभितं
फाललोचन जातपावक दग्ध मन्मध विग्रहम् ।
भस्मदिग्द कलेबरं भवनाशनं भव मव्ययं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ४ ॥
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यक्ष राजसखं भगाक्ष हरं भुजंग विभूषणम्
शैलराज सुता परिष्कृत चारुवाम कलेबरम् ।
क्षेल नीलगलं परश्वध धारिणं मृगधारिणम्
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ५ ॥
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भेषजं भवरोगिणा मखिलापदा मपहारिणं
दक्षयज्ञ विनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् ।
भुक्ति मुक्ति फलप्रदं सकलाघ संघ निबर्हणं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ६ ॥
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विश्वसृष्टि विधायकं पुनरेवपालन तत्परं
संहरं तमपि प्रपंच मशेषलोक निवासिनम् ।
क्रीडयंत महर्निशं गणनाथ यूथ समन्वितं
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ७ ॥
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भक्तवत्सल मर्चितं निधिमक्षयं हरिदंबरं
सर्वभूत पतिं परात्पर मप्रमेय मनुत्तमम् ।
सोमवारिन भोहुताशन सोम पाद्यखिलाकृतिं
चंद्रशेखर एव तस्य ददाति मुक्ति मयत्नतः ॥ ८ ॥
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!!ॐ नमः शिवाय !!

किस का ध्यान करें ? किस को प्रेम करें ? ....

किस का ध्यान करें ? किस को प्रेम करें ?
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ध्यान उसी का होता है जिस से प्रेम होता है| बिना प्रेम के कोई ध्यान नहीं होता| प्रेम तो हमें उस से हो गया है जिस का कभी जन्म ही नहीं हुआ है, और जिस की कभी मृत्यु भी नहीं होगी| जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो अवश्य ही होगी| पर जिसने कभी जन्म ही नहीं लिया, क्या वह मृत्यु को प्राप्त कर सकता है?
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हमारा भी एक अजन्मा स्वरुप भी है जो अनादि और अनंत है| वह ही हमारा वास्तविक अस्तित्व है| हम यह देह नहीं हैं, प्रभु की अनंतता हैं| उस अनंतता को ही प्रेम करें और उसी का ध्यान करें|
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यही शिव भाव है| उन सर्वव्यापी भगवान परम शिव में परम प्रेममय हो कर पूर्ण समर्पण करना ही उच्चतम साधना है, वही मुक्ति है, और वही लक्ष्य है|
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अपने विचारों के प्रति सतत् सचेत रहिये| जैसा हम सोचते हैं वैसे ही बन जाते हैं| हमारे विचार ही हमारे "कर्म" हैं, जिनका फल भोगना ही पड़ता है| मन की हर इच्छा, हर कामना एक कर्म या क्रिया है जिसकी प्रतिक्रया अवश्य होती है| यही कर्मफल का नियम है|
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अतः हम स्वयं को मुक्त करें ..... सब कामनाओं से, सब संकल्पों से, सब विचारों से, और निरंतर शिव भाव में रहें|
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उन परम शिव से परम प्रेम, उन्हें पाने की अभीप्सा और तड़प, उन के प्रति पूर्ण समर्पण व प्रेम, समष्टि के कल्याण की कामना व प्रार्थना, और कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
२९ अक्टूबर २०१७

शिक्षा की तरह आध्यात्म में भी क्रम होते हैं .....

किसी भी विद्यालय में जैसे कक्षाओं के क्रम होते हैं ..... पहली दूसरी तीसरी चौथी पांचवीं आदि कक्षाएँ होती है, वैसे ही साधना में भी क्रम होते हैं| जो चौथी में पढ़ाया जाता वह पाँचवीं में नहीं| एक चौथी कक्षा का बालक अभियांत्रिकी गणित के प्रश्न हल नहीं कर सकता| वैसे ही आध्यात्म में है|
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किसी भी जिज्ञासु के लिए आरम्भ में भगवान की साकार भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है| उसके पश्चात ही क्रमशः स्तुति, जप, स्वाध्याय, ध्यान आदि के क्रम आते हैं| वेदों-उपनिषदों को समझने की पात्रता आते आते तो कई जन्म बीत जाते हैं| एक जन्म में वेदों का ज्ञान नहीं मिलता, उसके लिए कई जन्मों की साधना चाहिए| दर्शन और आगम शास्त्रों को समझना भी इतना आसान नहीं है|
सबसे अच्छा तो यह है कि सिर्फ भगवान की भक्ति करें और भगवान जो भी ज्ञान करादें उसे ही स्वीकार कर लें, भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई कामना न रखें|
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आरम्भ में भगवान के अपने इष्ट स्वरुप की साकार भक्ति ही सबसे सरल और सुलभ है| किसी भी तरह का दिखावा और प्रचार न करें| घर के किसी एकांत कोने को ही अपना साधना स्थल बना लें| उसे अन्य काम के लिए प्रयोग न करें, व साफ़-सुथरा और पवित्र रखें| जब भी समय मिले वहीं बैठ कर अपनी पूजा-पाठ, जप आदि करें|
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ह्रदय में प्रेम और तड़प होगी तो भगवान आगे का मार्ग भी दिखाएँगे| जो आपको भगवान से विमुख करे ऐसे लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें| भगवान से प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ है| उन्हें अपने ह्रदय का पूर्ण प्रेम दें| शुभ कामनाएँ|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

आँख मींच कर किसी को संत ना मानें .....

आँख मींच कर किसी को संत ना मानें चाहे सरकार, समाज या दुनिया उसे संत कहती हो ...
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हमारी आस्था को खंडित करने वाला, हमारा धर्मांतरण करने वाला, हमारी जड़ें खोदने वाला, और हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार करने वाला कोई व्यक्ति कभी संत नहीं हो सकता है |
संतों में कुटिलता का अंशमात्र भी नहीं होता ...... संत जैसे भीतर से हैं, वैसे ही बाहर से होते है| उनमें छल-कपट नहीं होता |

संत सत्यनिष्ठ होते हैं ...... चाहे निज प्राणों पर संकट आ जाए, संत किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलेंगे | रुपये-पैसे माँगने वे चोर बदमाशों के पास नहीं जायेंगे| वे पूर्णतः परमात्मा पर निर्भर होते हैं |
संत समष्टि के कल्याण की कामना करते हैं, न कि सिर्फ अपने मत के अनुयायियों की |
उनमें प्रभु के प्रति अहैतुकी प्रेम लबालब भरा होता है | उनके पास जाते ही कोई भी उस दिव्य प्रेम से भर जाता है|
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आजकल हिन्दुओं का धर्मांतरण करने और हिन्दुओं को भ्रमित करने बहुत सारे देशी-विदेशी सैंट लोग भारत में घूम रहे हैं, अपने विद्यालय खोल रहे हैं, सेवा के दिखावे कर रहे हैं, व और भी अनेक फर्जी कार्य कर रहे हैं | उनके प्रभाव में न आयें |

ॐ ॐ ॐ ||

बोल्शेविक क्रांति का शताब्दी वर्ष ......

बोल्शेविक क्रांति का शताब्दी वर्ष ......
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२५ अक्टूबर १९१७ को वोल्गा नदी में खड़े रूसी युद्धपोत औरोरा से एक सैनिक विद्रोह के रूप में आरम्भ हुई रूस की बोल्शेविक क्रांति का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है| पिछले सौ वर्षों में हुई यह विश्व की सबसे बड़ी घटना थी जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया|
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मैं कम्युनिष्ट नहीं हूँ, मार्क्सवाद में नहीं, वेदान्त दर्शन में पूर्ण आस्था रखता हूँ, पर जीवन की युवावस्था में एक ऐसा समय अवश्य था जब मार्क्सवाद के प्रभाव से अछूता नहीं रहा था| शायद ही कोई युवा उस समय ऐसा रहा होगा जिस पर मार्क्सवाद की छाया नहीं पड़ी हो|
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समाज में व्याप्त अन्याय, अभाव और वर्गसंघर्ष की भावना ही मार्क्सवाद को जन्म देती है| यह एक घोर भौतिक और आध्यात्म विरोधी विचारधारा है| विश्व को इसके अनुभव से निकलना ही था| इस विचारधारा ने अन्याय और अभाव से पीड़ित विश्व में एक समता की आशा जगाई पर कालांतर में सभी को निराश किया|
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इस विचारधारा का उद्गम ब्रिटेन से हुआ पर ब्रिटेन में इसका प्रभाव शून्य था| रूस उस समय एक ऐसा देश था जहाँ विषमता, अन्याय, शोषण और अभावग्रस्तता बहुत अधिक थी| व्लादिमीर इल्यिच उलियानोव लेनिन एक ऊर्जावान और ओजस्वी वक्ता था जिसने रूस में इस विचार को फैलाया| लेनिन का जन्म १० अप्रेल १८७० को सिम्बर्स्क (रूस) में हुआ था| सन १८९१ में इसने क़ानून की पढाई पूरी की| अपने उग्र विचारों के कारण यह रूस से बाहर निर्वासित जीवन जी रहा था| रूसी शासक जार निकोलस रोमानोव ने इसके भाई को मरवा दिया था अतः यह जार के विरुद्ध एक बदले की भावना से भी ग्रस्त था|
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इसी के प्रयास से (और कुछ पश्चिमी शक्तियों की अप्रत्यक्ष सहायता से) सोवियत सरकार की स्थापना हुई और रूस एक कमजोर देश से विश्व की महाशक्ति बना| मार्क्स के विचारों को मूर्त रूप लेनिन ने ही दिया| मार्क्सवाद की स्थापना के लिए करोड़ों लोगों की हत्याएँ हुईं, बहुत अधिक अन्याय भी हुआ| पूरे विश्व में यह विचारधारा फ़ैली, कई देशों में मार्क्सवादी सरकारें भी बनीं, पर अंततः यह विचारधारा विफल ही सिद्ध हुई क्योंकि यह घोर भौतिक विचारधारा थी|
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७ नवम्बर १९१७ को सोवियत सरकार स्थापित हुई थी अतः विधिवत रूप से ७ नवम्बर को ही बोल्शेविक क्रांति दिवस के रूप में रूस में मनाया जाता था| २१ जनवरी १९२४ को लेनिन की मृत्यु हुई| उसके बाद स्टालिन ने सोवियत संघ पर राज्य किया| स्टालिन रूसी नहीं था, जॉर्जियन था (जॉर्जिया अब रूस से अलग देश है)| निरंकुश निर्दयी तानाशाह स्टालिन को ही द्वितीय विश्वयुद्ध जीतने और मार्क्सवादी विचारधारा को फैलाने का श्रेय जाता है|
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सन १९९१ में सोवियत संघ के पतन के बाद रूसी सरकार ने मार्क्सवाद को अस्वीकार कर दिया पर विश्व में विशेषकर भारत में इसका प्रभाव अभी भी है|
चीन में भी कम्युनिज्म व्यवहारिक रूप से समाप्त हो गया है| अब कम्युनिष्ट सता विश्व में कहीं भी नहीं है| कल मैंने बोल्शेविक क्रांति पर एक विस्तृत पोस्ट भी डाली थी|
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सभी को नमन ! शुभ कामनाएँ | ॐ ॐ ॐ !!

पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल ......

पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल ......

जब तेल ही बेचना था तो फारसी क्यों सीखी ?

जब सांसारिक मोह माया में ही फँसे रहना था तो आध्यात्म में क्यों आये ?
त्रिशंकु की गति सबसे अधिक खराब होती है| या तो इस पार ही रहना चाहिए या उस पार निकल जाना चाहिए| बीच में लटकना अति कष्टप्रद है|
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"पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल" एक बहुत पुराना मुहावरा है| देश पर जब मुसलमान शासकों का राज्य था तब उनका सारा सरकारी और अदालती कामकाज फारसी भाषा में ही होता था| उस युग में फारसी भाषा को जानना और उसमें लिखने पढने की योग्यता रखना एक बहुत बड़ी उपलब्धी होती थी| फारसी जानने वाले को तुरंत राजदरबार में या कचहरी में अति सम्मानित काम मिल जाता था| बादशाहों के दरबार में प्रयुक्त होने वाली फारसी बड़ी कठिन होती थी, जिसे सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी|
बादशाहों के उस जमाने में तेली और तंबोली (पान बेचने वाला) के काम को सबसे हल्का माना जाता था| अतः यह कहावत पड़ गयी कि "पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल"| अर्थात जब तेल ही बेचना था तो इतना परिश्रम कर के फारसी पढने का क्या लाभ हुआ?
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किसी को आत्मज्ञान ही प्राप्त करना है तो लक्ष्य की प्राप्ति तक उसे गुरु प्रदत्त आध्यात्मिक साधना के अतिरिक्त अन्य सब कुछ भूल जाना चाहिए| इधर उधर हाथ मारने से कुछ भी लाभ नहीं है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

रूस की अक्टूबर क्रांति (बोल्शेविक क्रांति) क्या सचमुच एक महान क्रांति थी या एक भयंकर छलावा थी ?........

(संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख / October 25, 2015)
रूस की अक्टूबर क्रांति (बोल्शेविक क्रांति) क्या सचमुच एक महान क्रांति थी या एक भयंकर छलावा थी ?........
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7 नवंबर 1917 (रूसी कैलेंडर 25 अक्टूबर) को हुई बोल्शेविक क्रांति पिछले एक सौ वर्षों में हुई विश्व की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी जिसे महान अक्टूबर क्रांति का नाम दिया गया| इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि रूस में जारशाही का अंत हुआ और मार्क्सवादी सता स्थापित हुई व सोवियत संघ का जन्म हुआ|
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी योरोप के अनेक देशों में, चीन, उत्तरी कोरिया, उत्तरी विएतनाम, व क्यूबा में रूसी प्रभाव से मार्क्सवादी शासन स्थापित हुए| मार्क्सवाद ने विश्व की चिंतनधारा को बहुत अधिक प्रभावित किया| कहते हैं कि पिछले सौ वर्षों में विश्व की चिंतनधारा को सर्वाधिक प्रभावित जिन तीन व्यक्तियों ने किया है, वे हैं ..... मार्क्स, फ्रायड और गाँधी|
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पर मेरे दृष्टिकोण से यह तथाकथित क्रांति एक छलावा थी| मार्क्सवादी मित्र मुझे क्षमा करें, मेरा यह मानना है कि मार्क्सवादी साम्यवाद ने विश्व की चेतना को नकारात्मक रूप से ही बहुत अधिक प्रभावित किया है| यह मार्क्सवादी साम्यवाद एक छलावा था जिसने मेरे जैसे करोड़ों लोगों को भ्रमित किया| मुझे इसके छलावे से निकलने में बहुत समय लगा| बाद में मेरे जैसे और भी अनेक लोग इस अति भौतिक व धर्म-विरोधी विचारधारा के भ्रमजाल से मुक्त हुए|
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विश्व में जहाँ भी साम्यवादी सत्ताएँ स्थापित हुईं वे अपने पीछे एक विनाशलीला छोड़ गईं| इनके द्वारा अपने ही करोड़ों लोगों का भयानक नरसंहार हुआ और मानवीय चेतना का अत्यधिक ह्रास हुआ| अब तो विश्व इसके प्रभाव से मुक्त हो चुका है| सिर्फ उत्तरी कोरिया में ही एक निरंकुश तानाशाही द्वारा यह व्यवस्था बची हुई है, जिसका मार्क्स से कोई सम्बन्ध नहीं है| भारत में भी साम्यवादी मार्क्सवाद के बहुत अधिक अनुयायी हैं|
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यह एक धर्म-विरोधी व्यवस्था थी इसलिए मैं यह लेख लिख रहा हूँ| यह क्रांति कोई सर्वहारा की क्रांति नहीं थी| यह एक सैनिक विद्रोह था जो वोल्गा नदी में खड़े औरोरा नामक नौसैनिक युद्धपोत से आरम्भ हुआ और सारी रुसी सेना में फ़ैल गया| इस विद्रोह का कोई नेता नहीं था अतः फ़्रांस में निर्वासित जीवन जी रहे व्लादिमीर इलीइच लेनिन ने जर्मनी की सहायता से रूस में आकर इस विद्रोह का नेतृत्व संभाल लिया और इसे सर्वहारा की मार्क्सवादी क्रांति का रूप दे दिया|
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इस सैनिक विद्रोह की पृष्ठभूमि में जाने के लिए तत्कालीन रूस की भौगोलिक, राजनितिक, सैनिक व आर्थिक स्थिति को समझना होगा| रूस में भूमि तो बहुत है पर उपजाऊ भूमि बहुत कम है| रूस सदा से एक विस्तारवादी देश रहा है| इसने फैलते फैलते पूरा साइबेरिया, अलास्का और मंचूरिया अपने अधिकार में ले लिया था| उसका अगला लक्ष्य कोरिया को अपने अधिकार में लेने का था| रूस की इस योजना से जापान में बड़ी उत्तेजना और आक्रोश फ़ैल गया क्योंकी जापान का बाहरी विश्व से सम्बन्ध कोरिया के माध्यम से ही था| अतः जापान ने युद्ध की तैयारियाँ कर के अपनी सेनाएँ रूस के सुदूर पूर्व, कोरिया और मंचूरिया में उतार दीं| रूस और जापान में युद्ध हुआ जिसमें रूस पराजित हुआ| जापान ने कोरिया और पूरा मंचूरिया उसकी राजधानी पोर्ट आर्थर सहित रूस से छीन लिया|
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रूसी शासक जार ने अपनी नौसेना को युद्ध के लिए भेजा जो बाल्टिक सागर से हजारों मील की दूरी तय कर अटलांटिक महासागर में उत्तर से दक्षिण की ओर समुद्री यात्रा करते करते, अफ्रीका का चक्कर लगाकर जब तक मेडागास्कर पहुँची, मंचुरिया का पतन हो गया था| फिर भी रुसी नौसेना हिन्द महासागर को पार कर, सुंडा जलडमरूमध्य और चीन सागर होती हुई सुदूर पूर्व में व्लादिवोस्टोक की ओर रवाना हुईं| जब रुसी नौसेना जापान और कोरिया के मध्य त्शुशीमा जलडमरूमध्य को पार कर रही थी उस समय जापान की नौसेना ने अचानक आक्रमण कर के पुरे रूसी नौसेनिक बेड़े को डुबा दिया, जिसमें से कोई भी जहाज नहीं बचा और हज़ारों रुसी सैनिक डूब कर मर गए| यह एक ऐसी घटना थी जिससे रूसी सेना में और रूस में एक घोर निराशा फ़ैल गयी|
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बाद में हुए प्रथम विश्व युद्ध में रुसी सेना की बहुत दुर्गति हुई| रुसी सेना के पास न तो अच्छे हथियार थे, न अच्छे वस्त्र और न पर्याप्त खाद्य सामग्री| जितने सैनिक युद्ध में मरे उससे अधिक सैनिक तो भूख और ठण्ड से मर गए| अतः सेना में अत्यधिक आक्रोश था अपने शासक जार निकोलस रोमानोव के प्रति| रूस में खाद्य सामग्री की बहुत अधिक कमी थी और पेट भर के भोजन भी सभी को नहीं मिलता था| सामंतों और पूँजीपतियों द्वारा जनता का शोषण भी बहुत अधिक था| अतः वहाँ की प्रजा अपने शासक और वहाँ की व्यवस्था के प्रति अत्यधिक आक्रोशित थी|
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उपरोक्त परिस्थितियों में सैनिक विद्रोह के रूप में रूस में तथाकथित महान अक्टूबर क्रांति हुई| जो सैनिक इसके पक्ष में थे वे बहु संख्या में थे अतः "बोल्शेविक" कहलाये और जो वहाँ के शासक के पक्ष में अल्प संख्या में थे वे "मेन्शेविक" कहलाये| उनमें युद्ध हुआ और बोल्शेविक जीते अतः यह क्रांति बोल्शेविक क्रांति कहलाई|
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फिर रूस में क्या हुआ और कैसे साम्यवाद अन्य देशों में फैला यह तो प्रायः सब को पता है| चीन में साम्यवाद रूस की सैनिक सहायता से आया| माओ के long march में स्टालिन के भेजे हुए रुसी सेना के टैंक भी थे जिनके कारण ही माओ सत्ता में आ पाया, न कि अपने स्वयं के बलबूते पर|
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सन १९६७ में जब बोल्शेविक क्रांति की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी, संयोग से मैं उस समय रूस में रहकर एक प्रशिक्षण ले रहा था| मेरी आयु तब उन्नीस-बीस वर्ष की थी और वहाँ की सब बातें याद हैं| सन १९६८ में जब मार्क्सवाद विरोधी प्रतिक्रांति चेकोस्लोवाकिया में हुई थी, और २० अगस्त १९६८ को वारसा पेक्ट के दो लाख से अधिक सैनिकों ने चेकोस्लोवाकिया पर मार्क्सवाद की पुनर्स्थापना के लिए आक्रमण कर दिया था, उन दिनों भी मैं रूस में ही था| पूरे चेकोस्लोवाकिया में मार्क्सवाद और रूस विरोधी प्रदर्शन हुए थे, प्राग में कई देशभक्त चेक युवक जोश में आकर अपना सीना खोलकर रूसी टेंकों के सामने खड़े हो गए, पर उन सबको कुचल दिया गया और पूरी प्रतिक्रांति को निर्दयता से दबा दिया गया| १९५६ में ऐसी ही प्रतिक्रांति हंगरी में भी हुई थी जिसे भी कुचल दिया गया था| २५ अगस्त १९६८ को मास्को के लाल चौक में अनेक रूसी लोगों ने ही साहस कर के अपनी सरकार की नीतियों और मार्क्सवादी व्यवस्था के विरुद्ध प्रदर्शन किया था जिन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया|
बाद में मुझे जीवन में अनेक मार्क्सवादी देशों .... लातविया, रोमानिया, युक्रेन, चीन और उत्तरी कोरिया में जाना हुआ, अतः इस व्यवस्था को मैं अच्छी तरह समझता हूँ|
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विश्व की चेतना को इस प्रभाव से निकलना ही था और आने वाले समय के लिए यह आवश्यक भी हो गया था| सन १९८९ में रोमानिया में जब वहाँ के महाभ्रष्ट मार्क्सवादी शासक चाउसेस्को के विरुद्ध बुखारेस्ट में प्रदर्शन और आन्दोलन हो रहे थे तब सोवियत संघ ने आन्दोलनकारियों का समर्थन किया, जो अपने आप में ही मार्क्सवाद के पतन का सूचक था| उस समय मैं युक्रेन में था और समझ गया कि मार्क्सवाद का अंतिम समय आ गया है| अगले एक वर्ष में सोवियत संघ रेत में बने एक महल की तरह अपने आप ही ढह गया और विश्व में साम्यवादी सरकारों का गिरना आरंभ हो गया| सभी साम्यवादी देशों में लोगों ने मार्क्स और लेनिन की मूर्तियों को तोड़ना और मार्क्सवादियों को पीटना आरम्भ कर दिया| मार्क्सवाद ने अपनी अंतिम साँसे लीं और दम तोड़ दिया|
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मार्क्सवादी सत्ताओं ने धर्म की जड़ों को उखाड़ कर फैंक दिया था| पर अब वहाँ धर्म पुनर्जीवित हो रहा है|
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साम्यवाद का मूल स्रोत ब्रिटेन है| जैसे भारतीय सभ्यता को नष्ट करने का षडयंत्र ब्रिटेन से आरम्भ हुआ था, वैसे ही रूस को नष्ट करने का भी यह मार्क्सवाद एक षड्यंत्र था जिसे लेनिन के माध्यम से रूस में निर्यातित किया गया| | जर्मनी से उपद्रवी मार्क्स को ब्रिटेन बुलाया गया| उसके साहित्य को ब्रिटेन में तो नहीं पढ़ाया गया पर सरकारी खर्च से उसके साहित्य को छाप कर पूरे विश्व में फैलाया गया| मुझे लगता है कि मार्क्सवाद को एक षड्यंत्र के अंतर्गत भारत में भी श्री ऍम.ऐन. रॉय नाम के एक विचारक के द्वारा निर्यातित किया गया, पर भारत में धर्म की जड़ें बहुत गहरी थीं, इसलिए भारत में मार्क्सवादी सत्ता कभी केंद्र में स्थापित नहीं हो पाई| दुनिया के सारे उपद्रवियों को ब्रिटेन में शरण मिल जाती है| अब आजकल जर्मनी को नष्ट करने का एक षड्यंत्र चल रहा है, जिसके अंतर्गत अरब मुस्लिम शरणार्थियों को वहाँ भेजा जा रहा है| वे जर्मनी के मूल स्वरुप को कुछ वर्षों में नष्ट कर देंगे|
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आश्चर्य है कि कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगल्स और लेनिन व माओ, इन सब को मार्क्सवादी सत्ताओं ने देवता की तरह अपनी प्रजा पर थोपा| सारे साम्यवादी देशों में प्रायः हर प्रमुख चौराहों पर इनकी मूर्तियाँ स्थापित की गईं| अब तो वे सब तोड़ दी गईं हैं| इन तीनों के व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी आदर्श नहीं था| चीन में माओ भी कोई आदर्श नहीं था पर उसने साम्यवाद को चीनी राष्ट्रवाद से जोड़कर एक अच्छा काम किया| भारत में साम्यवाद को हिन्दू राष्ट्रवाद के विरुद्ध खड़ा किया गया|
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अपने जीवन के अंतिम काल में लेनिन एक आदतन शराबी और अत्यधिक परस्त्रीगामी हो गया था और शराब के नशे में ही मर गया| मार्क्स एक चैन स्मोकर और परस्त्रीगामी था, जिसने अपनी नौकरानियों से अवैध बच्चे पैदा किये और कभी उनकी जिम्मेदारी नहीं ली| स्टालिन को उसके ही पुलिस प्रमुख बेरिया ने शराब में जहर देकर मार दिया और अंत में स्वयं भी ख्रुश्चेव द्वारा मरवा दिया गया| चीन में चेयरमैन माओ के बारे में उसके एक निजी डॉक्टर ने (जिसने बाद में भागकर अमेरिका में शरण ली थी) अपनी पुस्तक में लिखा है कि माओ ने सत्ता के मद में अपने जीवन में एक हज़ार से भी अधिक युवा महिलाओं से बलात् यौन सम्बन्ध स्थापित किये और करोड़ों चीनियों की हत्याएँ करवाईं| किम इल सुंग भी निजी जीवन में एक दुराचारी था| कोई भी एक ऐसा मार्क्सवादी नेता नहीं है जिसके जीवन में कुछ तो आदर्श हो|
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सार की बात तो यह है कि साम्यवादी बोल्शेविक क्रांति एक छलावा थी| अब तो रूस में सनातन धर्म जिस गति से फ़ैल रहा है उससे लगता है रूस का भावी धर्म सनातन धर्म ही हो जाएगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

समाज और राष्ट्र में व्याप्त अज्ञानता और अन्धकार दूर कैसे हो ? ....

समाज और राष्ट्र में व्याप्त अज्ञानता और अन्धकार दूर कैसे हो ? .....
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पूरी सृष्टि परमात्मा के संकल्प से बनी है| परमात्मा से जुड़कर ही कोई सृजनात्मक कार्य और समस्याओं का समाधान किया जा सकता है| इसके लिए साधना और समर्पण आवश्यक है| भगवान भुवनभास्कर की उपस्थिति मात्र से ही कहीं पर भी कोई अन्धकार नहीं रहता| उसी तरह हमें अपने निज जीवन को ज्योतिर्मय बनाना होगा तभी हम समाज और राष्ट्र में व्याप्त अन्धकार और अज्ञानता को दूर कर सकते हैं, अन्यथा नहीं| सिर्फ बुद्धि से ही हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते| किसी भी मान्यता के पीछे निज अनुभव भी होना चाहिए|
जीवन की किसी भी जटिल समस्या और बुराई का समाधान मात्र स्वयं के प्रयास से नहीं हो सकता| परमात्मा की करुणामयी कृपा का होना अति आवश्यक है| निष्काम भाव से परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम और समर्पण ही सब समस्याओं का समाधान है| फिर योग-क्षेम का वहन वे ही करते हैं|
हम सब के जीवन में शुभ ही शुभ हो| सभी को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अक्टूबर २०१७

आत्मा की विस्मृति पाप है ....

आत्मा की विस्मृति पाप है, आत्मा में स्थिति पुण्य है, आत्मज्ञान धर्म है, और आत्मानुसंधान सबसे बड़ी साधना है ......
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आत्मा की विस्मृति पाप है, आत्मा में स्थिति पुण्य है, आत्मज्ञान धर्म है, और आत्मानुसंधान सबसे बड़ी साधना है| स्वयं को पापी कहना पाप है क्योंकि यह साक्षात भगवान नारायण को गाली देना है जो ह्रदय में नित्य बिराजमान हैं| सत्य ज्ञान अनंत परम ब्रह्म सच्चिदानंद हम सब के हृदय में नित्य बिराजमान हैं, उनका चैतन्य हमारे ह्रदय में सदा प्रकाशित है|
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गहन ध्यान में दिखाई देने वाले कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक ही बाहर के तिमिर का नाश कर सकता है| अपने सर्वव्यापी शिवरूप में स्थित होना समष्टि का कल्याण है| हम सब सामान्य मनुष्य नहीं, परमात्मा की अमृतमय अभिव्यक्ति, साक्षात शिव परमब्रह्म हैं| जिस पर भी हमारी दृष्टि पड़े वह तत्क्षण परम प्रेममय हो जाए, जो भी हमें देखे वह भी तत्क्षण धन्य हो जाए| भगवान कहीं आसमान से नहीं उतरने वाले, अपने स्वयं के हृदय में ही हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

जो हृदय की घनीभूत पीड़ा को दूर करे वही सबसे बड़ा लाभ है ......

जो हृदय की घनीभूत पीड़ा को दूर करे वही सबसे बड़ा लाभ है ......
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मैं स्वयं की पीड़ा, स्वयं का दुःख और कष्ट तो सहन कर लेता हूँ, पर जो लोग मुझ से जुड़े हुए हैं उनका कष्ट सहन नहीं कर पाता और उनके दुःख में स्वयं दुखी होजाता हूँ, यह मेरी कमी ही है|
यह संसार सचमुच दुःख का महासागर है जिसमें चारों ओर कपटी हिंसक प्राणी भरे हुए हैं? कोई कहता है कि मनुष्य का अहंकार दुखी है, कोई इसे कर्मों का खेल बताता है, तो कोई कुछ और| दुखी मनुष्य बेचारा कपटी ठगों के चक्कर में पड़ जाता है जो आस्थाओं के नाम पर उसका सब कुछ ठग लेते हैं| इस संसार में मनुष्य जिन्हें अपना समझता है वे भी उसके साथ छल करते हैं|
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गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने बहुत अच्छा मार्गदर्शन दिया है| उन्होंने एक स्थिति को प्राप्त करने का आदेश दिया है जिसमें स्थित होकर मनुष्य दुःखों से परे हो जाता है ....

"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते" ||६.२२||
भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसको आत्मलाभ बताकर इसकी व्याख्या यों की है .....
"यं लब्ध्वाम् यम् आत्मलाभं लब्ध्वा प्राप्य च अपरम् अन्यत् लाभं लाभान्तरं ततः अधिकम् अस्तीति न मन्यते न चिन्तयति | किञ्च यस्मिन् आत्मतत्त्वे स्थितः दुःखेन शस्त्रनिपातादिलक्षणेन गुरुणा महता अपि न विचाल्यते" ||
आचार्य शंकर के अनुसार यह आत्मतत्व में स्थिति रूपी सबसे बड़ा लाभ है जिस लाभ को प्राप्त होने से अधिक अन्य कुछ भी लाभ नहीं है, जिसमें स्थित हुआ योगी बड़े भारी से भारी दुःख से भी विचलित नहीं होता है|
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आत्मतत्व में स्थित होने का मार्ग तो कोई श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही बता सकता है| ह्रदय में परम प्रेम और अभीप्सा होगी तो भगवान स्वयं किसी न किसी रूप में हमारा मार्गदर्शन करेंगे| भगवान से बड़ा कोई अन्य हमारा हितैषी नहीं है, उनसे बड़ा कोई अन्य मित्र भी नहीं है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ अक्टूबर २०१७

एक साधे सब सब सधे, सब साधे सब खोय ....

एक साधे सब सब सधे, सब साधे सब खोय ....
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हमारे एक मित्र के बच्चे परीक्षा के दिनों में कई मंदिरों में प्रार्थना करने, आशीर्वाद प्राप्त करने, और साथ साथ एक मज़ार पर भी दुआ माँगने जाते थे| उनकी माताजी यह सफाई देती थी कि हम तो सभी धर्मों और देवी-देवताओं को मानते हैं| उनके बच्चे कहते कि किसी ना किसी देवी-देवता की तो दुआ लग ही जायेगी|
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अधिकाँश घरों में पूजा घरों में अनेक देवी-देवताओं के चित्र सजे रहते हैं ... दुर्गा जी के, हनुमान जी के, राम जी के, शिव जी के, साईं बाबा के और यहाँ तक कि जीसस क्राइस्ट के भी| सभी की विधिवत आरती और प्रार्थना भी होती है| एक-दो काली मंदिरों में तो काली जी की प्रतिमा के साथ मदर टेरेसा के चित्र की भी पूजा होते मैनें स्वयं अपनी आँखों से देखा है| और भी बहुत सारी बाते हैं|
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ऐसा सब धर्म शिक्षण के अभाव में होता है| ये सभी तो एक ही परमात्मा के विविध रूप हैं| अब क्या बताऊँ, क्या लिखूं? किसी को कुछ कहने से कोई लाभ नहीं है, अपने विरोधियों की संख्या ही बढ़ाना है|
भगवान सभी को सद् बुद्धि दे| ॐ ॐ ॐ !!