(संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख / October 25, 2015)
रूस की अक्टूबर क्रांति (बोल्शेविक क्रांति) क्या सचमुच एक महान क्रांति थी या एक भयंकर छलावा थी ?........
.
7 नवंबर 1917 (रूसी कैलेंडर 25 अक्टूबर) को हुई बोल्शेविक क्रांति पिछले
एक सौ वर्षों में हुई विश्व की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी जिसे महान अक्टूबर
क्रांति का नाम दिया गया| इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि रूस में जारशाही
का अंत हुआ और मार्क्सवादी सता स्थापित हुई व सोवियत संघ का जन्म हुआ|
.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी योरोप के अनेक देशों में, चीन, उत्तरी
कोरिया, उत्तरी विएतनाम, व क्यूबा में रूसी प्रभाव से मार्क्सवादी शासन
स्थापित हुए| मार्क्सवाद ने विश्व की चिंतनधारा को बहुत अधिक प्रभावित
किया| कहते हैं कि पिछले सौ वर्षों में विश्व की चिंतनधारा को सर्वाधिक
प्रभावित जिन तीन व्यक्तियों ने किया है, वे हैं ..... मार्क्स, फ्रायड और
गाँधी|
.
पर मेरे दृष्टिकोण से यह तथाकथित क्रांति एक छलावा थी|
मार्क्सवादी मित्र मुझे क्षमा करें, मेरा यह मानना है कि मार्क्सवादी
साम्यवाद ने विश्व की चेतना को नकारात्मक रूप से ही बहुत अधिक प्रभावित
किया है| यह मार्क्सवादी साम्यवाद एक छलावा था जिसने मेरे जैसे करोड़ों
लोगों को भ्रमित किया| मुझे इसके छलावे से निकलने में बहुत समय लगा| बाद
में मेरे जैसे और भी अनेक लोग इस अति भौतिक व धर्म-विरोधी विचारधारा के
भ्रमजाल से मुक्त हुए|
.
विश्व में जहाँ भी साम्यवादी सत्ताएँ
स्थापित हुईं वे अपने पीछे एक विनाशलीला छोड़ गईं| इनके द्वारा अपने ही
करोड़ों लोगों का भयानक नरसंहार हुआ और मानवीय चेतना का अत्यधिक ह्रास हुआ|
अब तो विश्व इसके प्रभाव से मुक्त हो चुका है| सिर्फ उत्तरी कोरिया में ही
एक निरंकुश तानाशाही द्वारा यह व्यवस्था बची हुई है, जिसका मार्क्स से कोई
सम्बन्ध नहीं है| भारत में भी साम्यवादी मार्क्सवाद के बहुत अधिक अनुयायी
हैं|
.
यह एक धर्म-विरोधी व्यवस्था थी इसलिए मैं यह लेख लिख रहा
हूँ| यह क्रांति कोई सर्वहारा की क्रांति नहीं थी| यह एक सैनिक विद्रोह था
जो वोल्गा नदी में खड़े औरोरा नामक नौसैनिक युद्धपोत से आरम्भ हुआ और सारी
रुसी सेना में फ़ैल गया| इस विद्रोह का कोई नेता नहीं था अतः फ़्रांस में
निर्वासित जीवन जी रहे व्लादिमीर इलीइच लेनिन ने जर्मनी की सहायता से रूस
में आकर इस विद्रोह का नेतृत्व संभाल लिया और इसे सर्वहारा की मार्क्सवादी
क्रांति का रूप दे दिया|
.
इस सैनिक विद्रोह की पृष्ठभूमि में जाने
के लिए तत्कालीन रूस की भौगोलिक, राजनितिक, सैनिक व आर्थिक स्थिति को
समझना होगा| रूस में भूमि तो बहुत है पर उपजाऊ भूमि बहुत कम है| रूस सदा से
एक विस्तारवादी देश रहा है| इसने फैलते फैलते पूरा साइबेरिया, अलास्का और
मंचूरिया अपने अधिकार में ले लिया था| उसका अगला लक्ष्य कोरिया को अपने
अधिकार में लेने का था| रूस की इस योजना से जापान में बड़ी उत्तेजना और
आक्रोश फ़ैल गया क्योंकी जापान का बाहरी विश्व से सम्बन्ध कोरिया के माध्यम
से ही था| अतः जापान ने युद्ध की तैयारियाँ कर के अपनी सेनाएँ रूस के सुदूर
पूर्व, कोरिया और मंचूरिया में उतार दीं| रूस और जापान में युद्ध हुआ
जिसमें रूस पराजित हुआ| जापान ने कोरिया और पूरा मंचूरिया उसकी राजधानी
पोर्ट आर्थर सहित रूस से छीन लिया|
.
रूसी शासक जार ने अपनी नौसेना
को युद्ध के लिए भेजा जो बाल्टिक सागर से हजारों मील की दूरी तय कर
अटलांटिक महासागर में उत्तर से दक्षिण की ओर समुद्री यात्रा करते करते,
अफ्रीका का चक्कर लगाकर जब तक मेडागास्कर पहुँची, मंचुरिया का पतन हो गया
था| फिर भी रुसी नौसेना हिन्द महासागर को पार कर, सुंडा जलडमरूमध्य और चीन
सागर होती हुई सुदूर पूर्व में व्लादिवोस्टोक की ओर रवाना हुईं| जब रुसी
नौसेना जापान और कोरिया के मध्य त्शुशीमा जलडमरूमध्य को पार कर रही थी उस
समय जापान की नौसेना ने अचानक आक्रमण कर के पुरे रूसी नौसेनिक बेड़े को डुबा
दिया, जिसमें से कोई भी जहाज नहीं बचा और हज़ारों रुसी सैनिक डूब कर मर गए|
यह एक ऐसी घटना थी जिससे रूसी सेना में और रूस में एक घोर निराशा फ़ैल गयी|
.
बाद में हुए प्रथम विश्व युद्ध में रुसी सेना की बहुत दुर्गति हुई| रुसी
सेना के पास न तो अच्छे हथियार थे, न अच्छे वस्त्र और न पर्याप्त खाद्य
सामग्री| जितने सैनिक युद्ध में मरे उससे अधिक सैनिक तो भूख और ठण्ड से मर
गए| अतः सेना में अत्यधिक आक्रोश था अपने शासक जार निकोलस रोमानोव के
प्रति| रूस में खाद्य सामग्री की बहुत अधिक कमी थी और पेट भर के भोजन भी
सभी को नहीं मिलता था| सामंतों और पूँजीपतियों द्वारा जनता का शोषण भी बहुत
अधिक था| अतः वहाँ की प्रजा अपने शासक और वहाँ की व्यवस्था के प्रति
अत्यधिक आक्रोशित थी|
.
उपरोक्त परिस्थितियों में सैनिक विद्रोह के
रूप में रूस में तथाकथित महान अक्टूबर क्रांति हुई| जो सैनिक इसके पक्ष
में थे वे बहु संख्या में थे अतः "बोल्शेविक" कहलाये और जो वहाँ के शासक के
पक्ष में अल्प संख्या में थे वे "मेन्शेविक" कहलाये| उनमें युद्ध हुआ और
बोल्शेविक जीते अतः यह क्रांति बोल्शेविक क्रांति कहलाई|
.
फिर रूस
में क्या हुआ और कैसे साम्यवाद अन्य देशों में फैला यह तो प्रायः सब को
पता है| चीन में साम्यवाद रूस की सैनिक सहायता से आया| माओ के long march
में स्टालिन के भेजे हुए रुसी सेना के टैंक भी थे जिनके कारण ही माओ सत्ता
में आ पाया, न कि अपने स्वयं के बलबूते पर|
.
सन १९६७ में जब
बोल्शेविक क्रांति की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी, संयोग से मैं उस
समय रूस में रहकर एक प्रशिक्षण ले रहा था| मेरी आयु तब उन्नीस-बीस वर्ष की
थी और वहाँ की सब बातें याद हैं| सन १९६८ में जब मार्क्सवाद विरोधी
प्रतिक्रांति चेकोस्लोवाकिया में हुई थी, और २० अगस्त १९६८ को वारसा पेक्ट
के दो लाख से अधिक सैनिकों ने चेकोस्लोवाकिया पर मार्क्सवाद की
पुनर्स्थापना के लिए आक्रमण कर दिया था, उन दिनों भी मैं रूस में ही था|
पूरे चेकोस्लोवाकिया में मार्क्सवाद और रूस विरोधी प्रदर्शन हुए थे, प्राग
में कई देशभक्त चेक युवक जोश में आकर अपना सीना खोलकर रूसी टेंकों के सामने
खड़े हो गए, पर उन सबको कुचल दिया गया और पूरी प्रतिक्रांति को निर्दयता से
दबा दिया गया| १९५६ में ऐसी ही प्रतिक्रांति हंगरी में भी हुई थी जिसे भी
कुचल दिया गया था| २५ अगस्त १९६८ को मास्को के लाल चौक में अनेक रूसी लोगों
ने ही साहस कर के अपनी सरकार की नीतियों और मार्क्सवादी व्यवस्था के
विरुद्ध प्रदर्शन किया था जिन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया|
बाद में
मुझे जीवन में अनेक मार्क्सवादी देशों .... लातविया, रोमानिया, युक्रेन,
चीन और उत्तरी कोरिया में जाना हुआ, अतः इस व्यवस्था को मैं अच्छी तरह
समझता हूँ|
.
विश्व की चेतना को इस प्रभाव से निकलना ही था और आने
वाले समय के लिए यह आवश्यक भी हो गया था| सन १९८९ में रोमानिया में जब वहाँ
के महाभ्रष्ट मार्क्सवादी शासक चाउसेस्को के विरुद्ध बुखारेस्ट में
प्रदर्शन और आन्दोलन हो रहे थे तब सोवियत संघ ने आन्दोलनकारियों का समर्थन
किया, जो अपने आप में ही मार्क्सवाद के पतन का सूचक था| उस समय मैं युक्रेन
में था और समझ गया कि मार्क्सवाद का अंतिम समय आ गया है| अगले एक वर्ष में
सोवियत संघ रेत में बने एक महल की तरह अपने आप ही ढह गया और विश्व में
साम्यवादी सरकारों का गिरना आरंभ हो गया| सभी साम्यवादी देशों में लोगों ने
मार्क्स और लेनिन की मूर्तियों को तोड़ना और मार्क्सवादियों को पीटना आरम्भ
कर दिया| मार्क्सवाद ने अपनी अंतिम साँसे लीं और दम तोड़ दिया|
.
मार्क्सवादी सत्ताओं ने धर्म की जड़ों को उखाड़ कर फैंक दिया था| पर अब वहाँ धर्म पुनर्जीवित हो रहा है|
.
साम्यवाद का मूल स्रोत ब्रिटेन है| जैसे भारतीय सभ्यता को नष्ट करने का
षडयंत्र ब्रिटेन से आरम्भ हुआ था, वैसे ही रूस को नष्ट करने का भी यह
मार्क्सवाद एक षड्यंत्र था जिसे लेनिन के माध्यम से रूस में निर्यातित किया
गया| | जर्मनी से उपद्रवी मार्क्स को ब्रिटेन बुलाया गया| उसके साहित्य को
ब्रिटेन में तो नहीं पढ़ाया गया पर सरकारी खर्च से उसके साहित्य को छाप कर
पूरे विश्व में फैलाया गया| मुझे लगता है कि मार्क्सवाद को एक षड्यंत्र के
अंतर्गत भारत में भी श्री ऍम.ऐन. रॉय नाम के एक विचारक के द्वारा निर्यातित
किया गया, पर भारत में धर्म की जड़ें बहुत गहरी थीं, इसलिए भारत में
मार्क्सवादी सत्ता कभी केंद्र में स्थापित नहीं हो पाई| दुनिया के सारे
उपद्रवियों को ब्रिटेन में शरण मिल जाती है| अब आजकल जर्मनी को नष्ट करने
का एक षड्यंत्र चल रहा है, जिसके अंतर्गत अरब मुस्लिम शरणार्थियों को वहाँ
भेजा जा रहा है| वे जर्मनी के मूल स्वरुप को कुछ वर्षों में नष्ट कर देंगे|
.
आश्चर्य है कि कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगल्स और लेनिन व माओ, इन सब को
मार्क्सवादी सत्ताओं ने देवता की तरह अपनी प्रजा पर थोपा| सारे साम्यवादी
देशों में प्रायः हर प्रमुख चौराहों पर इनकी मूर्तियाँ स्थापित की गईं| अब
तो वे सब तोड़ दी गईं हैं| इन तीनों के व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी आदर्श
नहीं था| चीन में माओ भी कोई आदर्श नहीं था पर उसने साम्यवाद को चीनी
राष्ट्रवाद से जोड़कर एक अच्छा काम किया| भारत में साम्यवाद को हिन्दू
राष्ट्रवाद के विरुद्ध खड़ा किया गया|
.
अपने जीवन के अंतिम काल में
लेनिन एक आदतन शराबी और अत्यधिक परस्त्रीगामी हो गया था और शराब के नशे
में ही मर गया| मार्क्स एक चैन स्मोकर और परस्त्रीगामी था, जिसने अपनी
नौकरानियों से अवैध बच्चे पैदा किये और कभी उनकी जिम्मेदारी नहीं ली|
स्टालिन को उसके ही पुलिस प्रमुख बेरिया ने शराब में जहर देकर मार दिया और
अंत में स्वयं भी ख्रुश्चेव द्वारा मरवा दिया गया| चीन में चेयरमैन माओ के
बारे में उसके एक निजी डॉक्टर ने (जिसने बाद में भागकर अमेरिका में शरण ली
थी) अपनी पुस्तक में लिखा है कि माओ ने सत्ता के मद में अपने जीवन में एक
हज़ार से भी अधिक युवा महिलाओं से बलात् यौन सम्बन्ध स्थापित किये और करोड़ों
चीनियों की हत्याएँ करवाईं| किम इल सुंग भी निजी जीवन में एक दुराचारी था|
कोई भी एक ऐसा मार्क्सवादी नेता नहीं है जिसके जीवन में कुछ तो आदर्श हो|
.
सार की बात तो यह है कि साम्यवादी बोल्शेविक क्रांति एक छलावा थी| अब तो
रूस में सनातन धर्म जिस गति से फ़ैल रहा है उससे लगता है रूस का भावी धर्म
सनातन धर्म ही हो जाएगा|
.
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||