साधना में अनुकूलता, भगवान का अनुग्रह है (अजपा-जप) ---
-----------------------------------------------------
अपने चारों ओर के वातावरण को अनुकूल बनाने का प्रयास तो स्वयं को ही करना पड़ेगा, फिर भगवान की कृपा ही अनुकूलता के रूप में आती है| श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम कहते हैं --
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो| सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा| दुर्लभ साज सुलभ करि पावा||"
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ|
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ||"
अर्थात् "यह मनुष्य का शरीर भवसागर से तरने के लिए बेड़ा (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं| जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है||"
.
सन्मुख का अर्थ होता है--सामने| सामने कौन सी वायू बह रही है? जो साँस दोनों नासिकाओं से बह रही है, वह ही सन्मुख मरुत है, और वह ही भगवान की कृपा है| ध्यान किस का करते हैं? गुरु महाराज का| ध्यान कौन करते हैं? गुरु महाराज| गुरु महाराज स्वयं ही अपना स्वयं का ध्यान कर रहे हैं| गुरु कौन हैं? गुरु तत्व हैं| वे ध्यान किस का कर रहे हैं? अपने गुरुत्व यानि अपनी विराटता का| हम कौन है? एक साक्षी निमित्त मात्र| हम माध्यम बनकर, कर्ताभाव से मुक्त होकर, गुरु महाराज को कर्ता बनाकर उन्हें अपने गुरुत्व का ध्यान करते हुए देखने के साक्षी बनें, और उन के साथ एक हों| यहाँ अपना अहंकार उन्हें समर्पित कर दिया जाता है| उनके प्रति समर्पित होकर उन के साथ एक बनें| भगवान की जो विराटता है, जो उन का अनंत विस्तार है, वही हम हैं| एक तरह से यह अपना स्वयं का ही ध्यान है|
"सोSहं"|| भीतर जाती हुई साँस के साथ मानसिक रूप से सोSSSSSSSS, और बाहर आती हुई साँस के साथ हंSSSSSS का मानसिक जप करें| "ह" संहार बीज है, और "सः" सृष्टि बीज| यह साधना हंसःयोग यानि हंसयोग है| वेदों में इसे "हंसवतीऋक" कहा गया है| है के साथ जो बिन्दु है, वह समस्त सृष्टि में व्याप्त राम का नाम यानि ओंकार है {तस्य वाचक: प्रणव: (योगदर्शन, १.२७)}
सोSहं का उल्टा यदि करें, यानि हंसः, तो यह हंस-गायत्री कहलाता है| महत्व दोनों का एक ही है| समस्त सृष्टि में व्याप्त राम के नाम या ॐ की ध्वनि को साथ-साथ सुनते रहें, और यह साधना करते रहें| इस साधना को "अजपा-जप" कहते हैं| साधनाकाल में कमर सदा सीधी रहे, और दृष्टि भ्रूमध्य में रहे| यह साधना भगवान को समर्पित होकर करें, अन्यथा दोष लगता है|
.
मैं जब यह साधना करता हूँ, तो पाता हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही मेरे स्थान पर अपना स्वयं का ध्यान कर रहे हैं| मैं कोई ध्यान नहीं करता, ध्यान तो भगवान श्रीकृष्ण ही अपना स्वयं का करते हैं| मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ| यह बहुत ही दुर्लभ साधन है जो निश्चित रूप से हमें परमात्मा की प्राप्ति कराता है|
.
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च| वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ| मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है| समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ||"
.
एक गहन अभीप्सा हो, प्रचंड इच्छा शक्ति हो, और ह्रदय में परम प्रेम हो, तो भगवान को पाने से कोई भी विक्षेप या आवरण की मायावी शक्ति नहीं रोक सकती| जो सबके हृदय में हैं, उनकी प्राप्ति दुर्लभ नहीं हो सकती पर अन्य कोई इच्छा नहीं रहनी चाहिये| हमारा समर्पण सिर्फ भगवान के प्रति है, किसी अन्य के प्रति नहीं| सब का मंगल हो| सब को नमन !!
कृपा शंकर
झूञ्झुणू (राजस्थान)
८ जनवरी २०२१
.
पुनश्च: --- श्रीरामचरितमानस के अनुसार (उत्तरकाण्ड में चौपाई क्रमांक ७.११८ से) ---
'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत् कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है||
"सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।"