Friday, 23 December 2016

हर व्यक्ति स्वतः ही स्वाभाविक रूप से सनातन धर्मानुयायी हिन्दू है .....

हर व्यक्ति स्वतः ही स्वाभाविक रूप से सनातन धर्मानुयायी हिन्दू है .....
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वह हर व्यक्ति स्वतः ही स्वभाविक रूप से सनातन धर्मानुयायी हिन्दू है जिसकी चेतना ऊर्ध्वमुखी है, जिसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर परम प्रेम भरा पडा है, जो निज जीवन में परमात्मा को उपलब्ध होना चाहता है, जो समष्टि के कल्याण की कामना करता है, व जो सब में परमात्मा को और परमात्मा को सबमें देखता है| 
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ऐसा व्यक्ति चाहे किसी भी मत, पंथ या मज़हब का अनुयायी हो, व विश्व के किसी भी कोने में रहता हो, स्वतः ही हिन्दू हो जाता है क्योंकि हिंदुत्व एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है जो व्यक्ति को परमात्मा की ओर अग्रसर करती है और व्यष्टिगत चेतना को समष्टि के साथ जोड़ती है|
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हिन्दू होने के लिए किसी औपचारिक दीक्षा की आवश्यकता नहीं है| यदि आपको भगवान से अहैतुकी परम प्रेम हो जाता है तो आप अपने आप ही हिन्दू बन जाते हैं|
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सनातन धर्मानुयायी हिन्दू ऐसे लोगों का समूह है जिनकी चेतना ऊर्ध्वमुखी है चाहे वे पृथ्वी के किसी भी भाग में रहते हों|
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मुझे गर्व है कि मैंने उस धरती पर जन्म लिया है जहाँ गंगा, हिमालय और ऐसे व्यक्ति भी हैं जो निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें ......

निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें ......
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भ्रूमध्य में परमात्मा की एक बार तो साकार कल्पना करें, फिर उसे समस्त सृष्टि में फैला दें| सारी सृष्टि उन्हीं में समाहित है, और वे सर्वत्र हैं| उनके साथ एक हों, वे हमारे से पृथक नहीं हैं| स्वयं की पृथकता को उनमें समाहित यानि समर्पित कर दें|
उपास्य के सारे गुण उपासक में आने स्वाभाविक हैं|
आगे के अनुभव आप स्वयं प्राप्त करें| यह हर आत्मा की अपनी निजी समस्या और दायित्व है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Original Sin की अवधारणा सबसे बड़ा झूठ है .....

Original Sin की अवधारणा सबसे बड़ा झूठ है .....
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मैं Original Sin की अवधारणा को नहीं मानता| यह सबसे बड़ा झूठ है जिस पर वर्तमान चर्चवाद टिका है| कोई भी मनुष्य जन्म से पापी नहीं है| हर व्यक्ति परमात्मा का अंश है| परमात्मा को प्राप्त करना हर व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है| परमात्मा को पाने का एकमात्र मार्ग .... परमप्रेम है|
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परमात्मा की चेतना निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं के ह्रदय में प्रकट हो| चलते-फिरते, उठते-बैठते, कार्य करते, विश्राम करते, और हर समय हमारी चेतना में एक ही भाव रहे कि भगवान् सर्वदा हमारी दृष्टि में हैं, और हम भगवान की दृष्टि में हैं| हमें मतलब सिर्फ उसी चेतना से है|
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जीवन में धर्म का पालन कर के ही हम धार्मिक बन सकते हैं, स्वयं की व दूसरों की निंदा कर के या गालियाँ देकर नहीं| अपनी मान्यता के विरुद्ध कोई बात सुनते ही हम लोग भड़क जाते हैं, यह कोई धार्मिकता नहीं है|
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जीवन में हमारे आदर्श उच्चतम हों, हमारे आचार-विचार शुद्ध व पवित्र हों| हमारी चेतना परमात्मा के साथ संयुक्त हो और हमें भगवान से भक्ति (परम प्रेम), विवेक और ज्ञान की प्राप्ति हो| जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिलकर महासागर बन जाती है वैसे ही हमारा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार परमात्मा की चेतना से जुड़कर परम शिवमय हो जाए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

आने वाला समय सम्पूर्ण विश्व में सनातन हिन्दू धर्म के पुनरोत्थान का है ....

आने वाला समय सम्पूर्ण विश्व में सनातन हिन्दू धर्म के पुनरोत्थान का है .....
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पूरे विश्व में प्रबुद्ध वर्ग इस समय जितनी रूचि सनातन धर्म के सत्यों को समझने में ले रहा है ऐसा पिछले पंद्रह सौ वर्षों में तो कभी नहीं हुआ था|
योग, वेदान्त, और भक्ति का खूब प्रचार हो रहा है|
योरोप में ईसाईयत मात्र एक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बनकर रह गयी है जो अपने अनुयायियों को सुख, शांति, सुरक्षा व संतोष नहीं दे पा रही है| ईसाई देश इस समय आतंकवाद से त्रस्त हैं| उनके आदर्श ध्वस्त हो रहे हैं|
मुस्लिम देश शिया-सुन्नी विवादों व उद्देश्यहीन आपसी कलह से दुखी हैं|
जहाँ जहाँ साम्यवादी व्यवस्थाएं थीं वे अपने पीछे इतना विनाश छोड़ गयी हैं कि उसकी त्रासदी से लोग अभी तक उबर नहीं पाए हैं|
भारत में भी ये धर्मनिरपेक्षतावाद, समाजवाद, आल्पसंख्यकवाद आदि के नारे खोखले सिद्ध हो रहे हैं| अल्प मात्रा में सही पर धीरे धीरे अनेक लोग पक्काई से आध्यात्म की और आकर्षित हो कर आगे बढ़ रहे हैं| धर्म-विरोधी शक्तियां शनैः शनैः पराभूत हो रही हैं|
आगे आने वाला समय निश्चित रूपसे श्रेष्ठतर होगा| मैं तो इस बारे में आश्वस्त हूँ कि आने वाला समय सनातन हिन्दू धर्म के पुनरोत्थान का होगा|
ॐ ॐ ॐ ||

"जाति हमारी ब्रह्म है ......

"जाति हमारी ब्रह्म है माता पिता है राम| गृह हमारा शुन्य है अनहद में विश्राम|"
कल तक यह बात सत्य थी| अब तो यह भी बहुत पुरानी सी बात हो गयी है|
अब न तो किसी भी तरह की समाधि की कामना है, न ही किसी तरह की तुरियादिवस्था की| बस उनकी उपस्थिति निरंतर बनी रहे| उन की उपस्थिति के समक्ष सब विभूतियाँ बेकार हैं| अब तक की यही सबसे बड़ी उपलब्धी है| पता नहीं हम उन्हें उपलब्ध हुए हैं या वे हमें उपलब्ध हुए हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|

क्रिसमस पर विशेष लेख ...... (5)

क्रिसमस पर विशेष लेख ..... (5)

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श्री श्री परमहंस योगानंद के अनुसार जीसस क्राइस्ट की मूल शिक्षाएँ, भगवान श्रीकृष्ण की ही शिक्षाएँ थीं| स्वामी विवेकानंद ने भी लिखा है कि ईसा मसीह में देवत्व पूर्ण रूप से व्यक्त था| वे एक पूर्ण संत थे और ईश्वर के साथ एक थे|
उन्होंने जिस कृष्ण चैतन्य को व्यक्त किया उसी को हम भी व्यक्त करें|
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24 दिसंबर की पूरी रात ओंकार रूप परमात्मा का ध्यान करें| यदि ध्यान न कर सकें तो जप, भजन-कीर्तन आदि करें|
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जीसस क्राइस्ट एक यहूदी थे पर आचार विचार से विशुद्ध भारतीय थे| भारत में रहकर उन्होंने सनातन व बौद्ध धर्मों का अध्ययन किया| फिलिस्तीन/इजराइल बापस जाकर अपने उपदेश दिए| उनकी मूल शिक्षाएं लुप्त हो गयी हैं| सूली पर वे मरे नहीं थे| बापस भारत आकर वर्षों तक जीवित रहे और भारत में ही देह त्याग किया|
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आप पर परमात्मा की पूर्ण कृपा हो| आप का निवास परमात्मा के ह्रदय में हो| जीवन का लक्ष्य परमात्मा से जुड़ना है| हमारा उद्गम परमात्मा से है, और जब तक बापस परमात्मा से नहीं जुड़ेंगे तब तक ऐसे ही इस दुःख सागर में भटकते रहेंगे|
क्रिसमस की शुभ कामनाएँ|
अब क्रिसमस के बाद ही मिलेंगे| शुभ कामनाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
December 22, 2015.

क्रिसमस पर विशेष लेख ...... (4)

क्रिसमस पर विशेष लेख ..... (4)

((निम्न लेख गूगल पर ढूंढ कर कॉपी/ पेस्ट किया गया है| लेखक का नाम अज्ञात है|
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कृष्ण भक्त जीसस : .......
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लुईस जेकोलियत (Louis Jacolliot) ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाइबिल इन इंडिया' (The Bible in India, or the Life of Jezeus Christna) में लिखा है कि जीसस क्रिस्ट और भगवान श्रीकृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राइस्ट पर एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। 'जीसस' शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राइस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है। इसका संस्कृत में अर्थ होता है 'मूल तत्व'।
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इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राइस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है, हालांकि उन्होंने कृष्ण की जगह क्रिसना शब्द का इस्तेमाल किया। भारत में गांवों में कृष्ण को क्रिसना ही कहा जाता है। यह क्रिसना ही योरप में क्राइस्ट और ख्रिस्तान हो गया। बाद में यही क्रिश्चियन हो गया। लुईस के अनुसार ईसा मसीह अपने भारत भ्रमण के दौरान जगन्नाथ के मंदिर में रुके थे।
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30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुंचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।
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इससे पहले वे जब येरुशलम जा रहे थे तब रास्ते में पर्सिया यानी वर्तमान ईरान में रुके। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया।
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18 वर्ष उन्होंने भारत के काश्मीर और लद्दाख के हिन्दू और बौद्ध आश्रमों में रहकर बौद्घ एवं हिन्दू धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का गहन अध्ययन किया। निकोलस लिखते हैं कि वे लद्दाख के बौद्ध हेमिस मठ में रुके थे। वहां उन्होंने ध्यान साधना की। अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था।
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निकोलस अपनी किताब में यहां तक लिखते हैं कि सूली पर चढ़ाए जाने के बाद यह माना गया कि ईसा की मौत हो गई है लेकिन असलियत यह है कि ईसा सूली पर चढ़ाए जाने के बाद भी जीवित रह गए थे। सूली पर चढ़ाए जाने के 3 दिन बाद ये अपने परिवार और मां मैरी के साथ तिब्बत के रास्ते भारत आ गए। भारत में श्रीनगर के पुराने इलाके को इन्होंने अपना ठिकाना बनाया। 80 साल की उम्र में जीसस क्राइस्ट की मृत्यु हुई। उन्हें वहीं दफना दिया गया और उनकी कब्र आज भी वहीं पर है। लोग इस पर विश्वास करे या न करें लेकिन यह सूरज के दिखने जैसा सत्य है।
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लातोविच ने तिब्बत के मठों में ईसा से जुड़ी ताड़ पत्रों पर अंकित दुर्लभ पांडुलिपियों का दुभाषिए की मदद से अनुवाद किया जिसमें लिखा था, 'सुदूर देश इसराइल में ईसा मसीह नाम के दिव्य बच्चे का जन्म हुआ। 13-14 वर्ष की आयु में वो व्यापारियों के साथ हिन्दुस्तान आ गया तथा सिंध प्रांत में रुककर बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन किया। फिर वो पंजाब की यात्रा पर निकल गया और वहां के जैन संतों के साथ समय व्यतीत किया। इसके बाद जगन्नाथपुरी पहुंचा, जहां के पुरोहितों ने उसका भव्य स्वागत किया। वह वहां 6 वर्ष रहा। वहां रहकर उसने वेद और मनु स्मृति का अपनी भाषा में अनुवाद किया।'
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वहां से निकलकर वो राजगीर, बनारस समेत कई और तीर्थों का भ्रमण करते हुए नेपाल के हिमालय की तराई में चला गया और वहां जाकर बौद्ध ग्रंथों तथा तंत्रशास्त्र का अध्ययन किया फिर पर्शिया आदि कई मुल्कों की यात्रा करते हुए वह अपने वतन लौट गया।
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लातोविच के बाद रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी अभेदानंद ने 1922 में लद्दाख के होमिज मिनिस्ट्री का भ्रमण किया और उन साक्ष्यों का अवलोकन किया जिससें हजरत ईसा के भारत आने का वर्णन मिलता है और इन शास्त्रों के अवलोकन के पश्चात उन्होंने भी लातोविच की तरह ईसा के भारत आगमन की पुष्टि की और बाद में अपने इस खोज को बांग्ला भाषा में 'तिब्बत ओ काश्मीर भ्रमण' नाम से प्रकाशित करवाया।
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मिर्जा गुलाम अहमद कादियान का शोध : लुईस जेकोलियत और निकोलस नातोविच के शोध के बाद पाकिस्तान के आध्यात्मिक गुरु मिर्जा गुलाम अहमद ने इस पर गहन शोध किया। उनके अनुसार ईसा मसीह 120 वर्ष तक जीए और कश्मीर के रौजाबल में उनकी कब्र है। कादियान के अनुसार ईसा मसीह यूज आसफ (शिफा देने वाला) नाम से यहां रहते थे। इसके लिए उन्होंने कई पुख्ता दलीलें पेश कीं। अपने तमाम शोधों को पुख्ता प्रमाणों के साथ उन्होंने 'मसीह हिन्दुस्तान' नाम से लिखी अपनी किताब में लिपिबद्ध किया है।
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अहमद कादियान को मानने वालों को अहमदिया मुसलमान कहते हैं। आजकल पाकिस्तान में इनका कत्लेआम किया जा रहा है, क्योंकि ये परंपरागत बातों से हटकर धर्म को नए रूप में देखते हैं। लाखों अहमदी मुसलमानों को भागकर चीन की शरण में जाना पड़ा है।
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सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आए। यह अपने योग बल से भारत आ गए और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया।
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कश्मीरी विद्वानों का मत : कश्मीरी विद्वानों के अनुसार ईस्वी सन् 80 में कश्मीर के कुंडलवन में हुए चतुर्थ बौद्ध संगीति में ईसा ने भी हिस्सा लिया था। (श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार के खंडहर हैं, मान्यता है कि इसी स्थान पर हुए उक्त बौद्ध महासंगीति में हजरत ईसा ने भाग लिया था।)
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हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थि‍त है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहां रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। यहाँ से शिक्षा लेकर वे जेरूसलम पहुंचे और वहां वे धर्मगुरु तथा इसराइल के मसीहा या रक्षक बन गए।
पहली बार हुआ विवाद : सिंगापुर स्पाइस एयरजेट की एक पत्रिका में इसी बात की चर्चा की गई थी कि यीशु को जब क्रूस पर चढ़ाने के लिए लाया जा रहा था तब वे क्रूस से बचकर भाग निकले और कश्मीर पहुंचे और बाद में वहां उनकी मृत्यु हो गई। उनका मकबरा कश्मीर के रौजाबल नामक स्थान में है।
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कैथोलिक सेकुलर फोरम नामक एक संस्था ने इस खबर का कड़ा विरोध किया। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में इस पत्रिका के खिलाफ प्रदर्शन भी हुआ। विरोध के बाद स्पाइस एयरजेट के डायरेक्टर अजय सिंह ने माफी मांगी और कहा कि पत्रिका की करीब 20 हजार प्रतियों का वितरण तुरंत बन्द कर दिया गया है।
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मेहर बाबा (मेरवान एस. ईरानी) का वक्तव्य : पारसी परिवार में जन्में मेहर बाबा को एक रहस्यमयी और चमत्कारिक संत माना जाता है। 30 वर्षों तक मेहर बाबा मौन रहे और मौन में ही उन्होंने देह त्याग दी। उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम 'गॉड स्पीक' है। मेहर बाबा अनुसार ईसा मसीह सूली से बच गए थे। उन्होंने भारत में रहकर तप साधना की थी। जिसके माध्यम से उन्होंने सूली पर निर्विकल्प समाधी लगा ली थी। इस समाधी में व्यक्ति 3 दिन तक मृत समान रहता है। बाद में उसकी चेतना लौट आती है और उसके अंग-प्रत्यंग फिर से कार्य करने लगते हैं। आमतौर पर बहुत ज्यादा बर्फिले इलाके में भालू ऐसा करते हैं। समाधी से जागने के बाद ईसा मसीह फिर से भारत आ गए थे। यहां आकर उन्होंने रंगून की यात्रा की फिर पुन: भारत लौटकर उन्होंने अपना बाकी जीवन नार्थ कश्मीर में ही बिताया।
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मेहर बाबा की बातों का अभयानंद, सत्यसाईंबाबा, शंकराचार्य, आदि ने समर्थन किया। फिदा हसनैन, अजीज कश्मीरी, जेम्स डियरडोफ, मंतोशे देवजी आदि ने भी माना है कि कश्मीर के रौजाबल में जो कब्र है वह ईसा मसीह की ही है। खैस, कोई ईसाई इसे नहीं मानता है तो यह एक ऐतिहासिक और पवित्र स्थल को खो देने की बात होगी। नहीं मानने का कोई तो ठोस कारण होना चाहिए?
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होल्गर कर्स्टन : एक जर्मन विद्वान होल्गर कर्स्टन ने 1981 में अपने गहन अनुसन्धान के आधार पर एक पुस्तक लिखी 'जीसस लिव्ड इन इण्डिया: हिज लाइफ बिफोर एंड ऑफ्टर क्रूसिफिक्शन' में ये सिद्ध करने का प्रयास किया कि जीसस ख्रीस्त ने भारत में रहकर ही बुद्ध धर्म में दीक्षा ग्रहण की और वे एक बौद्ध थे।
उन्होंने बौद्धमठ में रहकर तप-योग ध्यान साधना आदि किया। इस योग साधना के कारण ही क्रॉस पर उनका जीवन बच गया था जिसके बाद वो पुनः अपने अनुयायियों की सहायता से भारत आ गए थे और लदाख में हेमिस गुम्फा नामक बौद्ध मठ में रहे। बाद में श्रीनगर में उनका वृद्धवस्था में देहांत हुआ। वहां आज भी उनकी मजार है।
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तिब्बत में ल्हासा में दलाई लामा के पोटाला पेलेस में एक दो हजार वर्ष पुराना हस्त लिखित ग्रंथ था जिसमें ईसा मसीह की तिब्बत यात्रा का विवरण दर्ज था। इसको यूरोप के कुछ पादरियों ने तिब्बत भ्रमण के समय देखा था और उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी, लेकिन प्रकाशित होने से पूर्व ही पोप को पता चल गया और तब उस पुस्तक की सभी प्रतियां नष्ट करा दी गयीं।-कादम्बिनी अगस्त 1995.
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लॉस एंजिलिस निवासीफिलिप गोल्ड़बर्ग का एक व्याख्यान टूर भारत में आयोजित किया गया था उन्होंने ‘अमेरिकन वेद’ सहित उन्नीस पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने बताया की आज अमेरिकावासी नाम के लिए ईसाई हैं जबकि व्यव्हार में बहुलवादी वेदांत को अपना चुके हैं। चर्च ने सत्य को छुपाने के अनेक उपाय किए।
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ओशो ने क्या कहा इस विषय पर...
कश्मीर में उनकी समाधि को बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को 'रौजाबल' के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहां ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।
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आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर हैं जहाँ यह सम्मेलन हुआ था।
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पहलगाव था पहला पड़ाव : पहलगाम का अर्थ होता है गडेरियों का गाँव। जबलपुर के पास एक गाँव है गाडरवारा, उसका अर्थ भी यही है और दोनों ही जगह से ईसा मसीह का संबंध रहा है। ईसा मसीह खुद एक गडेरिए थे। ईसा मसीह का पहला पड़ाव पहलगाम था। पहलगाम को खानाबदोशों के गाँव के रूप में जाना जाता है। बाहर से आने वाले लोग अक्सर यहीं रुकते थे। उनका पहला पड़ाव यही होता था। अनंतनाग जिले में बसा पहलगाम, श्रीनगर से लगभग 96 कि.मी. दूर है।
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पहलगाम चारों तरफ पहाड़ों से घिरा है। यहां की सुंदरता और प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। यहां के पहाड़ों के दर्रों से पाक अधिकृत कश्मीर या तिब्बत के रास्ते जाया जा सकता है। इसके आसपास बर्फीले इलाके की श्रृंखलाबद्ध पहाड़ियां है। यही से बाबा अमरनाथ की गुफा की यात्रा शुरू होती है। मान्यता है कि ईसा मसीह ने यही पर प्राण त्यागे थे और ओशो की एक किताब 'गोल्डन चाइल्ड हुड' अनुसार मूसा यानी यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी यहीं पर प्राण त्यागे थे। दोनों की असली कब्र यहीं पर है।
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'पहलगाम एक छोटा-सा गांव है, जहां पर कुछ एक झोपड़ियां हैं। इसके सौंदर्य के कारण जीसस ने इसको चुना होगा। जीसस ने जिस स्‍थान को चुना वह मुझे भी बहुत प्रिय है। मैंने जीसस की कब्र को कश्‍मीर में देखा है। इसराइल से बाहर कश्‍मीर ही एक ऐसा स्‍थान था जहां पर वे शांति से रह सकते थे। क्‍योंकि वह एक छोटा इसराइल था। यहां पर केवल जीसस ही नहीं मोजेज भी दफनाए गए थे। मैंने उनकी कब्र को भी देखा है। कश्मीर आते समय दूसरे यहूदी मोजेज से यह बार-बार पूछ रहे थे कि हमारा खोया हुआ कबिला कहां है (यहूदियों के 10 कबिलों में से एक कबिला कश्मीर में बस गया था)।
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यह बहुत अच्‍छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी है। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्‍तु दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्‍का की ओर होता है। केवल वे दोनों कब्रें ही कश्‍मीर में ऐसी है जो मुसलमान नियमों के अनुसार नहीं बनाई गई।'- ओशो
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ईसा का नामकरण : यीशु पर लिखी किताब के लेखक स्वामी परमहंस योगानंद ने दावा किया गया है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुंचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुंचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम 'ईसा' रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ 'भगवान' होता है।
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एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें 'ईशा' नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालांकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम 'ईश उपनिषद' है। 'ईश' या 'ईशान' शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है।
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कुछ विद्वान मानते हैं कि ईसा इब्रानी शब्द येशुआ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है होता है मुक्तिदाता। और मसीह शब्द को हिंदी शब्दकोश के अनुसार अभिषिक्त मानते हैं, अर्थात यूनानी भाषा में खीस्तोस। इसीलिए पश्चिम में उन्हें यीशु ख्रीस्त कहा जाता है। कुछ विद्वानों अनुसार संस्कृत शब्द 'ईशस्' ही जीसस हो गया। यहूदी इसी को इशाक कहते हैं।
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द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : स्वामी परमहंस योगानंद की किताब 'द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट: द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू' में यह दावा किया गया है कि प्रभु यीशु ने भारत में कई वर्ष बिताएं और यहां योग तथा ध्यान साधना की। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि 13 से 30 वर्ष की अपनी उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया।
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उक्त सभी शोध को लेकर 'लॉस एंजिल्स टाइम्स' में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है। 'द गार्जियन' में भी स्वामीजी की पुस्तक के संबंध में छप चुका है।
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सेंट थॉमस..
सूली के बाद ही उनके ‍शिष्य ईसा की वाणी लेकर 50 ईस्वी में हिन्दुस्तान आए थे। उनमें से एक 'थॉमस' ने ही भारत में ईसा के संदेश को फैलाया। उन्हीं की एक किताब है- 'ए गॉस्पेल ऑफ थॉमस'। चेन्नई शहर के सेंट थामस माऊंट पर 72 ईस्वी में थॉमस एक भील के भाले से मारे गए। मेरी मेग्दालिन भी ईसा की शिष्या थीं जिन्हें उनकी पत्नी बताए जाने के ‍पीछे विवाद हो चला है। उक्त गॉस्पल में मेरी मेग्दालिन के भी सूत्र हैं।
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दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च, सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देती है। थॉमस ने एक हिन्दू राजा के धन के बल पर भारत के केरल में ईसाइयत का प्रचार किया और जब उस राजा को इसका पता चला तो थॉमस बर्मा भाग गए थे।
इसके बाद सन 1542 में सेंट फ्रेंसिस जेवियर के आगमन के साथ भारत में रोमन कैथोलिक धर्म की स्‍थापना हुई जिन्होंने भारत के गरीब हिंदू और आदिवासी इलाकों में जाकर लोगों को ईसाई धर्म की शिक्षा देकर सेवा के नाम पर ईसाई बनाने का कार्य शुरू किया। इसके बाद भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान इस कार्य को और गति मिली। फिर भारत की आजादी के बाद 'मदर टेरेसा' ने व्यापक रूप से लोगों को ईसाई बनाया।
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फिफ्त गॉस्पल : ये फिदा हसनैन द्वारा लिखी गई एक किताब है जिसका जिक्र अमृता प्रीतम ने अपनी किताब 'अक्षरों की रासलीला' में विस्तार से किया है। ये किताब जीसस की जिन्दगी के उन पहलुओं की खोज करती है जिसको ईसाई जगत मानने से इंकार कर सकता है, मसलन कुंवारी मां से जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जीवित हो जाने वाले चमत्कारी मसले। किताब का भी यही मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र तक ईसा भारत भ्रमण करते रहे।
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ऐसी मान्यता है कि उन्होंने नाथ सम्प्रदाय में भी दीक्षा ली थी। सूली के समय ईशा नाथ ने अपने प्राण समाधि में लगा दिए थे। वे समाधि में चले गए थे जिससे लोगों ने समझा कि वे मर गए। उन्हें मुर्दा समझकर कब्र में दफना दिया गया।
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महाचेतना नाथ यहुदियों पर बहुत नाराज थे क्योंकि ईशा उनके शिष्य थे। महाचेतना नाथ ने ध्यान द्वारा देखा कि ईशा नाथ को कब्र में बहुत तकलीफ हो रही है तो वे अपनी स्थूल काया को हिमालय में छोड़कर इसराइल पहुंचे और जीसस को कब्र से निकाला। उन्होंने ईशा को समाधि से उठाया और उनके जख्म ठीक किए और उन्हें वापस भारत ले आए। हिमालय के निचले हिस्से में उनका आश्रम था जहां ईशा नाथ ने अनेक वर्षों तक जीवित रहने के बाद पहलगाम में समाधि ले ली।
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(उपरोक्त लेख गूगल पर ढूंढ कर कॉपी/ पेस्ट किया गया है| लेखक का नाम अज्ञात है| उपरोक्त तथ्यों पर अनुसंधान आवश्यक है)
December 22, 2015.

क्रिसमस पर विशेष लेख ..... (3)

क्रिसमस पर विशेष लेख ..... (3)  

(इस लेख में ओशो ने स्पष्ट किया है कि ईसा मसीह विश्व को भारत की देन थे)

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"ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल बेखबर है कि जीसस निरंतर तीस वर्ष तक कहां थे? वे अपने तीसवें साल में अचानक प्रकट होते है और तैंतीसवें साल में तो उन्‍हें सूली पर चढ़ा दिया जाता है। उनका केवल तीन साल का लेखा जोखा मिलता है। इसके अतिरिक्‍त एक या दोबार उनकी जीवन-संबंधी घटनाओं का उल्‍लेख मिलता है। पहला तो उस समय जब वे पैदा हुए थे—इस कहानी को सब लोग जानते है। और दूसरा उल्‍लेख है जब सात साल की आयु में वे एक त्‍यौहार के समय बड़े मंदिर में जाते है। बस इन दोनों घटनाओं का ही पता है। इनके अतिरिक्‍त तीन साल तक वे उपदेश देते रहे। उनका शेष जीवन काल अज्ञात है। परंतु भारत के पास उनके जीवन काल से संबंधित अनेक परंपराएं है।
इस अज्ञातवास में वे काश्‍मीर के एक बौद्ध विहार में थे। इसके अनेक रिकार्ड मिलते है। और काश्‍मीर की जनश्रुतियों में भी इसका उल्‍लेख है। इस अज्ञातवास में वे बौद्ध भिक्षु बनकर ध्‍यान कर रहे थे। अपने तीसवें वर्ष में वे जेरूसलेम में प्रकट होते है—इसके बाद इनको सूली पर चढ़ा दिया जाता है। ईसाईयों की कहानी के अनुसार जीसस का पुनर्जन्‍म होता है। परंतु प्रश्‍न यह है कि इस पुनर्जन्‍म के बाद दोबारा वे कहां गायब हो गये। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल मौन है। कि इसके बाद वे कहां चले गए और उनकी स्‍वाभाविक मृत्‍यु कब हुई।
अपनी पुस्‍तक ‘’दि सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’, में एक फ्रांसीसी लेखक कहता है कि काई नहीं जानता कि जीसस तीस साल तक कहां रहे और क्‍या करते रह? अपने तीसवें साल में उन्‍होंने उपदेश देना आरंभ किया। एक जनश्रुति के अनुसार इस समय वे ‘’काश्‍मीर’’ में थे। काश्‍मीर का मूल नाम है। ‘’का’’ अर्थात ‘’जैसा’’, बराबर, और ‘’शीर’’ का अर्थ है ‘’सीरिया’’।
निकोलस नाटोविच नामक एक रूसी यात्री सन 1887 में भारत आया था। वह लद्दाख भी गया था। और जहां जाकर वह बीमार हो गया था। इसलिए उसे वहां प्रसिद्ध ‘’हूमिस-गुम्‍पा‘’ में ठहराया गया था। और वहां पर उसने बौद्ध साहित्‍य और बौद्ध शस्‍त्रों के अनेक ग्रंथों को पढ़ा। इनमें उसको जीसस के यहां आने के कई उल्‍लेख मिले। इन बौद्ध शास्‍त्रों में जीसस के उपदेशों की भी चर्चा की गई है। बाद में इस फ्रांसीसी यात्री ने ‘’सेंट जीसस’’ नामक एक पुस्‍तक भी प्रकाशित की थी। इसमे उसने उन सब बातों का वर्णन किया है जिससे उसे मालूम हुआ कि जीसस लद्दाख तथा पूर्व के अन्‍य देशों में भी गए थे।
ऐसा लिखित रिकार्ड मिलता है कि जीसस लद्दाख से चलकर, ऊंची बर्फीला पर्वतीय चोटियों को पार करके काश्‍मीर के पहल गाम नामक स्‍थान पर पहुंच। पहल गाम का अर्थ है ‘’गड़रियों का गांव’’ पहल गाव में वे अपने लोगों के साथ लंबे समय तक रहे। यही पर जीसस को ईज़राइल के खोये हुए कबीले के लोग मिले। ऐसा लिखा गया है कि जीसस के इस गांव में रहने के कारण ही इस का नाम ‘’पहल गाव’’ रखा गया। कश्‍मीरी भाषा में ‘’पहल’’ का अर्थ है गड़रिया और गाम का अर्थ गांव। इसके बाद जब जीसस श्रीनगर जा रहे थे तो उन्‍होंने ‘’ईश-मुकाम’’ नामक स्‍थान पर ठहर कर आराम किया था और उपदेश दिये थे। क्‍योंकि जीसस ने इस जगह पर आराम किया इसलिए उन्‍हीं के नाम पर इस स्‍थान का नाम हो गया ‘’ईश मुकाम’’।
जब जीसस सूली पर चढ़े हुए थे तो उस समय एक सिपाही ने उनके शरीर में भाला भोंका तो उसमे से पानी और खून निकला। इस घटना को सेंट जॉन की गॉस्‍पल (अध्‍याय 19 पद्य 34) में इस प्रकार रिकार्ड किया गया है कि ‘’एक सिपाही ने भाले से उनको एक और से भोंका और तत्‍क्षण खून और पानी बाहर निकला।‘’ इस घटना से ही यह माना गया है कि जीसस सूली पर जीवित थे क्‍योंकि मृत शरीर से खून नहीं निकल सकता।
जीसस को दोबारा मरना ही होगा। या तो सूली पूरी तरह से लग गई और वे मर गए या फिर समस्‍त ईसाइयत ही मर जाती। क्‍योंकि समस्‍त ईसाइयत उनके पुनर्जन्‍म पर निर्भर करती है। जीसस पुन जीवित होते है और यही चमत्‍कार बन जाता है। अगर ऐसा न होता तो यहूदियों को यह विश्‍वास ही न होता कि वे पैगंबर है क्‍योंकि भविष्‍यवाणी में यह कहा गया था कि आने वाले क्राइस्‍ट को सूली लगेगी और फिर उसका पुनर्जन्‍म होगा।
इसलिए उन्‍होंने इसका इंतजार किया। उनका शरीर जिस गुफा में रखा गया था वहां से वे तीन दिन के बाद गायब हो गया। इसके बाद वे देखे गए—कम से कम आठ लोगों न उनको नए शरीर में देखा। फिर वे गायब हो गए। और ईसाइयत के पास ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है कि जिससे मालूम हो कह वे कब मरे।
जीसस फिर दोबारा काश्‍मीर आये और वहां पर 112 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। और वहां पर अभी भी वह गांव है जहां वे मरे।
अरबी भाषा में जीसस को ‘’ईसस’’ कहा गया है। काश्‍मीर में उनको ‘’यूसा-आसफ़’’ कहा जाता था। उनकी कब्र पर भी लिखा गया है कि ‘’यह यूसा-आसफ़ की कब्र है जो दूर देश से यहां आकर रहा’’ और यहाँ भी संकेत मिलता है कि वह 1900साल पहले आया।
‘’सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’ के लेखक ने भी इस कब्र का देखा। वह कहता है कि ‘’जब मैं कब्र के पास पहुंचा तो सूर्यास्‍त हो रहा था और उस समय वहां के लोगों और बच्‍चों के चेहरे बड़े पावन दिखाई दे रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वे प्राचीन समय के लोग हों—संभवत: वे ईज़राइल की खोई हुई उस जाति से संबंधित थे जो भारत आ गई थी। जूते उतार कर जब मैं भीतर गया तो मुझे एक बहुत पुरानी कब्र दिखाई दी जिसकी रक्षा के लिए चारों और फिलीग्री की नक्‍काशी किए हुए पत्‍थर की दीवार खड़ी थी। दूसरी और पत्‍थर में एक पदचिह्न बना हुआ था—कहा जाता है कि वह यूसा-आसफ़ का पदचिह्न है। उसकी दीवार से शारदा लिपि में लिखा गया एक शिलालेख लटक रहा थ जिसके नीचे अंग्रेजी अनुवाद में लिखा गया है—‘’यूसा-आसफ़ (खन्‍नयार। श्रीनगर) यह कब्र यहूदी है। भारत में कोई भी कब्र ऐसी नहीं है। उस कब्र की बनावट यहूदी है। और कब्र के ऊपर यहूदी भाषा, हिब्रू में लिखा गया है।
जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे। इस पुनर्जन्‍म की घटना को ईसाई मताग्रही ठीक से समझ नहीं सकते किंतु योग द्वारा यह संभव हो सकता है। योग द्वारा बिना मरे शरीर मो मृत अवस्‍था में पहुंचाया जा सकता है। सांस को चलना बंद हो जाता है, ह्रदय की धड़कन और नाड़ी की गति भी बंद की जा सकती है। इस प्रकार की प्रक्रिया के लिए योग की किसी गहन विधि का प्रयोग किया क्‍योंकि अगर वे सचमुच मर जाते तो उनके पुन जीवित होने की कोई संभावना नहीं थी। सूली लगाने वालों ने जब यह समझा कि वे मर गए है तो उन्‍होंने जीसस को उतार कर उनके अनुयायियों का दे दिया। तब एक परंपरागत कर्मकांड के अनुसार शरीर को एक गुफा में तीन दिन के लिए रखा गया। किंतु तीसरे दिन गुफा को खाली पाया गया। जीसस गायब थे।
ईसाइयों के ‘’एसनीज’’ नामक एक संप्रदाय की परंपरागत मान्‍यता है कि जीसस के अनुयायियों ने उनके शरीर के घावों का इलाज किया और उनको होश में ले आए और जब उनके शिष्‍यों ने उनको दोबारा देखा तो वे विश्‍वास ही न कर सके कि ये वही जीसस है जो सूली पर मर गए। उनको विश्‍वास दिलाने के लिए जीसस को उन्‍हें अपने शरीर के घावों को दिखाना पडा। ये घाव उनके एसनीज अनुयायियों ने ठीक किए। गुफा के तीन दिनों में जीसस के घाव भर रहे थे। ठीक हो रहे थे। और जैसे ही वे ठीक हो गए जीसस गायब हो गए। उनको उस देश से गायब होना पडा क्‍योंकि अगर वे वहां पर रह जाते तो इसमे कोई संदेह नहीं कि उनको दोबारा सूली दे दी जाती।
सूली से उतारे जाने के बाद उनके घावों पर एक प्रकार की मलहम लगाई गई। जो आज भी ‘’जीसस की मलहम’’ कही जाती है। और उनके शरीर को मलमल से ढका गया। उनके अनुयायी जौसेफ़ और निकोडीमस ने जीसस के शरीर को एक गुफा में रख दिया। और उसके मुहँ पर एक बड़ा सा पत्‍थर लगा दिया। जीसस तीन दिन इस गुफा में रहे और स्‍वस्‍थ होते रहे। तीसरे दिन जबर्दस्‍त भूकंप आया और उसके बाद तूफान; उस गुफा की रक्षा के लिए तैनात सिपाही वहां से भाग गए। गुफा पर रखा गया बड़ा पत्‍थर वहां से हट कर नीचे गिर गया। और जीसस वहां से गायब हो गये। उनके इस प्रकार गायब हो जाने के कारण ही लोगों ने उनके पुनर्जन्‍म और स्‍वर्ग जाने की कथा को जन्‍म दिया गया।
सूली पर चढ़ाये जाने से जीसस का मन बहुत परिवर्तित हो गया। इसके बाद वे पूर्णत: मौन हो गए। न उन्‍हें पैगंबर बनने में कोई दिलचस्‍पी रही न उपदेशक बनने में। बस वे तो मौन हो गए। इसीलिए इसके बाद उनके बारे में कुछ भी पता नहीं है। तब वे भारत में रहने लगे। भारत में एक परंपरा है कि बाइबल में भी कि यहूदियों का एक कबीला गायब हो गया और उसको खोजने के लिए बहुत लोग भेजे गए थे। वास्‍तव में कश्‍मीरी अपने चेहरे-मोहरे और अपने खून से मूलत: यहूदी ही है।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार, बर्नीयर ने, जो औरंगज़ेब के समय भारत आया था। लिखा है कि ‘’पीर पंजाल पर्वत को पार करने के बाद भारत राज्‍य में प्रवेश करने पर इस सीमा प्रदेश के लोग मुझे यहूदियों जैसे लगे।‘’ अभी भी काश्‍मीर में यात्रा करते समय ऐसा लगता है मानो किसी यहूदी प्रदेश में आ गए हो। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि जीसस काश्‍मीर में आए क्‍योंकि यह भारत की यहूदी भूमि थी। वहां पर यहूदी जाति रहती थी। काश्‍मीर में इस प्रकार की कई कहानियां प्रचलित है। जीसस पहल गाव में बहुत वर्षों तक रहे। उनके कारण ही यह जगह गांव बन गया। प्रतीक रूप में उनको गड़रिया कहा जाता है और पहल गाम में आज भी ऐसी अनेक लोककथाएँ प्रचलित है जिनमें बताया गया है कि 1900 वर्ष पहले ‘’यूसा-आसफ़’’ नामक व्यक्ति यहां आकर बस गया था और इस गांव को उसी ने बसाया था।
जीसस सत्‍तर साल तक भारत में थे और सत्‍तर साल तक वे आने लोगों के साथ मौन रहे।
ईसाइयत को जीसस के सारे जीवन के बारे में कुछ नहीं मालूम। कि उन्‍होंने कहां साधना की या कैसे ध्‍यान किया। उनके शिष्‍यों को भी नहीं मालूम कि अपनी मौन-अवधि में जीसस क्‍या कर थे। उन्‍होंने केवल इतना ही रिकार्ड किया कि जीसस पर्वत पर चले गए और वहां वे तीस दिन तक मौन रहे। उसके बाद वे फिर वापस आए और उपदेश देने लगे।"
(ओशो की पुस्‍तक ‘’दि सायलेंट एक्‍सप्‍लोजन’’के सम्पादित अंश, साभार)

क्रिसमस पर विशेष लेख ..... (2)

क्रिसमस पर विशेष लेख ..... (2)
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ओशो ने ईसा मसीह और ईसाईयत के ऊपर बहुत सारे व्याख्यान दिए थे जिन्हें उनके शिष्यों ने श्रुंखलाबद्ध तरीके से पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करवाया था| जब वे जीवित थे उस समय मैनें उनका हिंदी में उपलब्ध लगभग सारा साहित्य पढ़ा था| उसमें कई परस्पर विरोधाभास भी थे पर निःसंदेह बौद्धिक धरातल पर उनकी प्रतिभा अद्वितीय थी|
उनका लगभग बत्तीस वर्ष पुराना एक प्रवचन यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिसके बाद ईसाईयत तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्‍ड रीगन सरकार ने उन्‍हें अमेरिका में हाथ-पैरों में बेडि़यां डालकर बंदी बना कर बहुत अधिक प्रताड़ित किया और उनके शिष्यों के अनुसार धीमा जहर दे कर धीमी मौत से मरने के लिए छोड़ दिया| उनसे बहुत अधिक जुर्माना लेकर भारत बापस आने दिया गया| अमेरिका में बसे रजनीशपुरम को नष्ट कर दिया गया और अमेरिका ने सभी देशों को यह निर्देश भी दे दिया कि न तो ओशो को कोई देश आश्रय देगा और न ही उनके विमान को उतरने की अनुमति देगा|
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ओशो का प्रवचन ..... (यह लगभग तीस वर्ष पूर्व उनकी "मेरा स्वर्णिम भारत" नामक पुस्तक में छपा था)
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"जब भी कोई सत्‍य के लिए प्‍यासा होता है, अनायास ही वह भारत आने के लिए उत्‍सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्‍लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्‍य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे.
ईसा मसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्‍लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्‍योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्‍हें सूली ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइबिल में उन सालों को क्‍यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्‍हें जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं. यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्‍मे, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्‍मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्‍होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्‍द भी नहीं सुने थे। फिर क्‍यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्‍यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्‍योंकि इस व्‍यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्‍पना की जा सकती है.
पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्‍म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्‍पष्‍ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्‍हें समझ आएगा कि क्‍यों वे बार-बार कहते हैं- '' अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्‍थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्‍हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।'' यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्‍होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं. ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्‍यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्‍क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था.
जीसस कहते हैं कि '' अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था।'' कौन हैं ये पुराने पैगंबर?'' वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,- '' कि ईश्‍वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है!? '' यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्‍वर के मुंह से ये शब्‍द भी कहलवा दिए हैं कि '' मैं कोई सज्‍जन पुरुष नहीं हूं, तुम्‍हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्‍यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं।'' पुराने टेस्‍टामेंट में ईश्‍वर के ये वचन हैं, और ईसा मसीह कहते हैं, '' मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्‍मा प्रेम है।'' यह ख्‍याल उन्‍हें कहां से आया कि परमात्‍मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्‍मा को प्रेम कहने का कोई और उल्‍लेख नहीं है। उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्‍त, भारत, लद्दाख और तिब्‍बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्‍कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं। तुम्‍हें जानकर आश्‍चर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्‍यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्‍य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्‍या हुआ? आजकल वे कहां हैं ? क्‍योंकि उनकी मृत्‍यु का तो कोई उल्‍लेख है ही नहीं !
सच्‍चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्‍तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्‍योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्‍वस्‍थ है तो 60 घंटे से भी ज्‍यादा लोग जीवित रहे, ऐसे उल्‍लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है. यह एक मिलीभगत थी, जीसस के शिष्‍यों की पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्‍य के अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्‍या में रोमन वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। पोंटियस के दस्‍तखत के बगैर यह हत्‍या नहीं हो सकती थी।पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए। जीसस वहां एक मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था। यदि वह जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्‍मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा, मगर उसके स्‍वयं के अंत:करण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्‍यक्ति की हत्‍या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था.
तो पोंटियस ने जीसस के शिष्‍यों के साथ मिलकर यह व्‍यवस्‍था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्‍त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार का कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्‍थगित किया जाता रहा। ब्‍यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया गया और सूर्यास्‍त के पहले ही उन्‍हें जीवित उतार लिया गया। यद्यपि वे बेहोश थे, क्‍योंकि शरीर से रक्‍तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी। पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार को यहूदी उन्‍हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस के देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्‍यगण उन्‍हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए।
जीसस ने भारत में आना क्‍यों पसंद किया? क्‍योंकि युवावास्‍था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्‍होंने अध्‍यात्‍म और ब्रह्म का परम स्‍वाद इतनी निकटता से चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह स्‍वस्‍थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए. कश्‍मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्‍मरण रहे, भारत में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है, '' जोशुआ''- यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। 'जीसस' 'जोशुआ' का ग्रीक रुपांतरण है। 'जोशुआ' यहां आए'- समय, तारीख वगैरह सब दी है। ' एक महान सदगुरू, जो स्‍वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्‍यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल की दीर्घायु तक यहांरहे।' इसी वजह से वह स्‍थान 'भेड़ों के चरवाहे का गांव' कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है-'पहलगाम', उसका काश्‍मीरी में वही अर्थ है-' गड़रिए का गाँव'. जीसस यहां रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्‍य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्‍यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्‍होंने मरना भी यहीं चाहा, क्‍योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)जीवन एक सौंदर्य है और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)मरना भी अत्‍यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्‍यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्‍तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।
यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह त्‍यागी थी! इससे भी अधिक आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह त्‍यागी थी! उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्‍थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू मूसा के बगल वाला स्‍थान स्‍वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्‍यों कश्‍मीर में आकर मृत्‍यु में प्रवेश किया? मूसा ईश्‍वर के देश 'इजराइल' की खोज में यहूदियों को इजिप्‍त के बाहर ले गए थे। उन्‍हें 40 वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्‍होंने घोषणा की कि, '' यही वह जमीन है, परमात्‍मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्‍हालो!'' मूसा ने जब इजिप्‍त से यात्रा प्रारंभ की थी तब की पीढ़ी लगभग समाप्‍त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए और नए बच्‍चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी, वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थेा उन्‍होंने युवा लोगों शासन और व्‍यवस्‍था का कार्यभार सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए। यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्‍त्रों में भी, उनकी मृत्‍यु के संबंध में , उनका क्‍या हुआ इस बारे में कोई उल्‍लेख नहीं है। हमारे यहां (कश्‍मीर में ) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।
मूसा भारत क्‍यों आना चाहते थे ? केवल मृत्‍यु के लिए ? हां, कई रहस्‍यों में से एक रहस्‍य यह भी है कि यदि तुम्‍हारी मृत्‍यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन भगवत्‍ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्‍हारी मृत्‍यु भी एक उत्‍सव और निर्वाण बन जाती है. सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्‍वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है|"
December 22, 2013.