Thursday, 6 April 2017

भगवान सत्यनारायण हैं .....

भगवान सत्यनारायण हैं .....
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असत्य वादन यानि झूठ बोलने से और दूसरों की निंदा करने से वाणी दग्ध हो जाती है| उस दग्ध वाणी से किया गया कोई मंत्रपाठ, प्रार्थना या आराधना सफल नहीं होती है| वे दग्ध वाणी के शब्द चाहे बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति या परा, किसी भी स्तर के हों|
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जो सदा सत्य बोलते हैं उनके मुख से निकले वचन स्वतः ही सत्य हो जाते हैं| हमारे धर्म और संस्कृति में सत्य का सर्वाधिक महत्व इसी लिए है| इस विषय पर शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा हुआ है| आध्यात्मिक अनुभव भी उन्हीं को होते हैं जो सत्य में जीते हैं|
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एकमात्र सत्य परमात्मा है| सत्य का साक्षात्कार ही परमात्मा का साक्षात्कार है|
मन में हम अनेक शुभ संकल्प कर लेते हैं पर भौतिक स्तर पर उनका क्रियान्वन नहीं करते इसलिए वे संकल्प मिथ्या और व्यर्थ हो जाते हैं| सभी संकल्पों को साकार रूप भी देना चाहिए, यह भी सत्य की साधना है| हमारे भौतिक अस्तित्व से अन्यों को लाभ पहुँचना चाहिए|
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हम अपने नित्य कर्मों का पालन करें, किसी को पीड़ित न करें, परोपकार के कार्य करें, और स्वयं के प्रति ईमानदार रहें| आत्मप्रशंसा, परनिंदा और असत्य बोलने से बचें| दूसरों का गला काटकर कोई बड़ा या महान नहीं बन सकता| वर्षा का जल पर्वत के शिखर से नीचे तालाब में आता है तो तालाब पर्वत के शिखर को दोष नहीं दे सकता| हमें स्वयं को ऊपर उठ कर सत्य में प्रतिष्ठित होना होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

इस दुःख रुपी संसार सागर के महाभय से रक्षा सिर्फ धर्म के पालन से ही होगी ...

इस दुःख रुपी संसार सागर के महाभय से रक्षा सिर्फ धर्म के पालन से ही होगी ...
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ---
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||२:४०||
अर्थात इस महाभय से हमारी रक्षा थोड़ा बहुत धर्म का पालन ही करेगा|
जब भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है तो उसकी पालना हमें करनी ही होगी| अन्य सारे उपाय अति जटिल और कठिन है अतः सबसे सरल मार्ग के रूप में स्वाभाविक रूप से धर्म का पालन हमें करना ही चाहिए, तभी धर्म ही हमारी रक्षा करेगा| धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है और धर्म की रक्षा ही अपनी स्वयं की रक्षा है|
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वैसे तो महाभारत में "धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां" कहा गया है, पर भारतवर्ष पर इतनी तो कृपा है परमात्मा की कि भारत में एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति को भी पता है कि धर्म और अधर्म क्या है| कभी कोई संशय हो तो निष्ठापूर्वक अपने हृदय से पूछिए, हमारा हृदय बता देगा कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है| हम अपने नित्य कर्मों का पालन करें, किसी को पीड़ित न करें, परोपकार के कार्य करें, और स्वयं के प्रति ईमानदार रहें, इतना ही पर्याप्त है| आत्मप्रशंसा, परनिंदा और असत्य बोलने से बचें| दूसरों का गला काटकर कोई बड़ा या महान नहीं बन सकता| वर्षा का जल पर्वत के शिखर से नीचे तालाब में आता है तो तालाब पर्वत के शिखर को दोष नहीं दे सकता| हमें स्वयं को ऊपर उठना होगा|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ अप्रेल २०१६