भगवत्-प्राप्ति ही हमारा एकमात्र स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म हैं ---
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हम शाश्वत आत्मा है, यह नश्वर देह नहीं। हम न तो यह शरीर (भौतिक, सूक्ष्म और कारण) हैं, न ही उससे जुड़ी हुई इंद्रियाँ (कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेंद्रियाँ) व उनकी तन्मात्राएँ हैं, और न ही हम अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) हैं। हमारा एकमात्र धर्म है -- परमात्मा की प्राप्ति। आत्मा का अन्य कोई धर्म नहीं है। यह भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म है। हम अपने जीवन भर अंत समय तक स्वधर्म का ही पालन करें, और स्वधर्म में रहते हुये ही अंत समय में इस भौतिक देह का त्याग करें। भय, दुख और अशांति में जीने से अच्छा है कि निर्भयता, शांति व प्रसन्नता रूपी "आत्म-धर्म" में रहते हुये ही अंत समय में शरीर छोड़ें। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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हमारा राग-द्वेष, लोभ और अहंकार हमारी बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है, और हम शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ करने लगते हैं। हमारी भ्रष्ट बुद्धि परधर्म को भी धर्म मान लेती है। परधर्म निश्चित रूप से नर्क की प्राप्ति कराता है। गीता साक्षात भगवान की वाणी है, अतः इस में कोई शंका न हो। यह श्रद्धा-विश्वास का विषय है। जिस विषयका हमें पता नहीं है, उसका पता शास्त्र से ही लगता है। शास्त्र ही कहता है कि जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म करता है -- 'धर्मो रक्षति रक्षितः' (मनुस्मृति)। जो धर्म का पालन करता है, उसके कल्याण का भार धर्म पर और धर्म के उपदेष्टा भगवान्, वेदों, शास्त्रों, ऋषियों-मुनियों आदि पर होता है; तथा उन्हीं की शक्ति से उसका कल्याण होता है। जैसे धर्म का पालन करने के लिये भगवान्, वेद, शास्त्रों, ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओं की आज्ञा है, इसलिये धर्म-पालन करते हुए मरने पर उन की शक्ति से ही कल्याण होता है। भगवान कहते हैं --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - इस में क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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उपरोक्त श्लोक की व्याख्या में अनेक महान भाष्यकारों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का उपयोग किया है। भगवान की ओर चलोगे तो उनकी परम कृपा होगी। तभी हम इसका सही अर्थ समझ पाएंगे। सार की बात यह है कि भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म है , और उसका पालन ही इस संसार के महाभय से हमारी रक्षा करता है।
सभी महान आत्माओं और महापुरुषों का नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अक्तूबर २०२३