Wednesday, 6 May 2020

परमात्मा का साथ ही सर्वश्रेष्ठ है ....

इस संसार में जैसी कुटिलता भरी पड़ी है, उस से मेरा मन भर गया है| अब यहाँ और रहने की इच्छा नहीं है, परमात्मा का साथ ही सर्वश्रेष्ठ है|
परमशिव का ध्यान ही हिमालय से भी बड़ी-बड़ी मेरी कमियों को दूर करेगा| मुझ अकिंचन में अदम्य भयहीन साहस व निरंतर अध्यवसाय की भावना शून्य है| मुझे लगता है कि आध्यात्म के नाम पर मैं अकर्मण्य बन गया हूँ और अपनी कमियों को बड़े बड़े सिद्धांतों के आवरण से ढक लिया है| शरणागति के भ्रम में अपने "अच्युत" स्वरूप को भूलकर "च्युत" हो गया हूँ| जैसा प्रमाद मुझ में छा गया है वह मेरे लिए मृत्यु है ... "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि"|
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हे परात्पर गुरु, आपके उपदेश मेरे जीवन में निरंतर परिलक्षित हों, आपकी पूर्णता और अनंतता ही मेरा जीवन हो, कहीं कोई भेद न हो| सब बंधनों व पाशों से मुझे मुक्त कर मेरी रक्षा करो| इन सब पाशों से मुझे इसी क्षण मुक्त करो| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ अप्रेल २०२०

'हरिः' शब्द के बाद 'ॐ' क्यों लगाते हैं? ....

"हरिः ॐ" ..... किसी ने प्रश्न पूछा है कि 'हरिः' शब्द के बाद 'ॐ' क्यों लगाते हैं? पता नहीं इसका शास्त्रोक्त उत्तर क्या है, पर अपने अनुभवों से इसका उत्तर दे सकता हूँ| इसे वही समझ सकेगा जो ध्यान की गहराइयों में उतर चुका हो| शास्त्रज्ञ विद्वान मुझे क्षमा करें क्योंकि मुझे न तो शास्त्रों का ज्ञान है और न ही मुझ में कोई विद्वता है|
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'हरिः' शब्द का प्रयोग सामान्यतः भगवान श्रीकृष्ण के लिए ही किया जाता है| इसका अर्थ समझने के लिए "गोपाल सहस्त्रनाम" का स्वाध्याय कीजिये| तंत्र शास्त्रों में 'ह' 'र' और 'इ' आदि बीजों के अर्थ दिये हुए हैं| पर मैं यहाँ वह ही लिखूंगा जो मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया हो|
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'ह' और 'रिः' ये दोनों प्राण-तत्व के स्पंदन की अति सूक्ष्म ध्वनियाँ हैं जो खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में गहरे ध्यान में ओंकार की ध्वनि से पूर्व सुनाई देती हैं| गहरे ध्यान के समय खेचरी या अर्ध-खेचरी मुद्रा में जब हम सांस लेते हैं तब हमारा गला स्वतः ही खुल कर खूब चौड़ा हो जाता है| उस समय हमारी सूक्ष्म देह की सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य हो जाती है| सांस भीतर लेते समय हमें अनुभव होता है कि घनीभूत प्राण-ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में मूलाधार चक्र से ऊपर उठती हुई मार्ग के सभी चक्रों को भेदती हुई आज्ञाचक्र की ओर आरोहित हो रही है| उस समय एक अति सूक्ष्म ध्वनि सिर्फ स्वयं को ही सुनाई देती है| वह ध्वनि है ..... हSSSSSSSS|
आज्ञाचक्र से जब यह प्राण-ऊर्जा मूलाधार की ओर अवरोहित होती है तब एक अति सूक्ष्म ध्वनि स्वयं को ही सुनाई देती है ..... रिःइइइइइइइइइ|
गुरुकृपा से आज्ञाचक्र के भेदन के पश्चात ही ओंकार की ध्वनि यानि अनाहत नाद जिसे अनहद नाद भी कहते हैं, सुनाई देती है| फिर तो उसी को सुनते रहना चाहिए| सारी साधनाएं उसी में समाहित हैं| यह प्राण-ऊर्जा ही घनीभूत होकर कुंडलिनी महाशक्ति कहलाती है|
ह रिः और ॐ ..... इनको मिलाकर ही नवार्न मंत्र का 'ह्रीं' है जो महालक्ष्मी का और श्रीविद्या का बीज है|
ओंकार का ध्यान, साधक को आकाश-तत्व का बोध कराता है| हरिः से प्राण-तत्व का बोध होता है| पहले प्राण-तत्व है फिर आकाश-तत्व| शायद इसी लिए हरिः के बाद ॐ का उच्चारण होता है| मुझे तो यही समझ में आया है|
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प्राण-तत्व से जुड़ी हुई साधना, श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ सिद्ध गुरु की आज्ञा से उनके आदेशानुसार ही करनी चाहिए, अन्यथा भटकने का डर है जिस से हानि भी हो सकती है|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०२०

समय परिवर्तनशील है ....

समय परिवर्तनशील है, कालचक्र तीब्रगति से आगे बढ़ रहा है| कोरोना-वायरस जैसे अदृश्य परजीवी ..... सनातन भारतीय संस्कृति के उपहास और विनाश का फल हैं| इसका समाधान भी भारत की सनातन संस्कृति से ही होगा| अमेरिका जैसी सभी महाशक्तियाँ अपने घुटनों पर हैं| जहाँ रोमन साम्राज्य था वह इटली कराह रहा है| जहाँ सल्तनत-ए-उस्मानिया (ओटोमन साम्राज्य) थी वह तुर्की अपनी विवशता से हाथ मसोस रहा है| जहाँ कभी सूर्यास्त नहीं होता था वह हकूमत-ए-बरतानिया (ब्रिटेन) भी अपने षडयंत्रों में ही अपना अस्तित्व ढूँढ रहा है| जिसने यह वायरस छोड़कर पूरी दुनियाँ की अर्थव्यवस्थाओं को विफल कर दुनियाँ पर राज करने का स्वप्न देखा है, वह चीन सब की गालियाँ खा रहा है| एक मामूली से जीव ने सब को उन की औकात दिखा दी है| इन सब आसुरी शक्तियों का प्रभाव भारत से नष्ट होगा| भारत में व्याप्त असत्य और अंधकार की शक्तियों का अस्तित्व नहीं रहेगा| भारत फिर से उठेगा| यहाँ की कालजयी संस्कृति पुनश्च जागृत होगी| भारत अखंड होगा, सनातन धर्म का पुनरोत्थान और वैश्वीकरण होगा| हमें अपनी जड़ों की ओर बापस लौटना होगा| भारत माता की जय||
३१ मार्च २०२० 

आने वाले समय में हमारे धैर्य और विवेक की परीक्षा होगी .....

आने वाले समय में हमारे धैर्य और विवेक की परीक्षा होगी .....
मुझे लगता है कि आने वाला समय अच्छा नहीं है| मनुष्य का लोभ और अहंकार बड़ा ही विनाशकारी होगा| इस भयानक विनाश से भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं| इसमें दोष किसी अन्य का नहीं, हमारी गलत सोच का ही है| यह बात कोई बताना नहीं चाहता ताकि निराशा न फैले|
राष्ट्र, समाज व स्वयं की रक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना करें| धर्म की रक्षा तो भगवान कर लेंगे| हमारे विचार, संकल्प और हमारा आचरण पवित्र हो, तभी हमारी रक्षा होगी, अन्यथा विनाश निश्चित है| ॐ तत्सत् !!
३१ मार्च २०२० 

कर्म, भक्ति और ज्ञान में यथार्थतः कोई भेद नहीं है .....

कर्म, भक्ति और ज्ञान में यथार्थतः कोई भेद नहीं है .....
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ज्ञान, भक्ति और कर्म में मुझे कहीं कोई भेद नहीं दिखाई देता है| इन तीनों के स्पंदन की आवृतियाँ थोड़ी-बहुत पृथक-पृथक हो सकती हैं, पर मूल ऊर्जा एक ही है| इनमें कोई भेद नहीं है| इसका पता तब चलता है जब हरिःकृपा से गीता में बताए हुए 'समभाव' की अति अल्प मात्रा में भी अनुभूति होती है| यह समभाव ही हमें आत्म-तत्व का बोध कराकर उसमें अधिष्ठित करता है| यह समभाव ही गीता का योग है| भगवान कहते हैं ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
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हम स्वयं में भगवान के प्रति परमप्रेम (भक्ति) जागृत कर, भगवान को कर्ता बना कर, भगवान के लिए ही कर्म करेंगे तो हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) पवित्र होता है| अन्तःकरण के पवित्र होने पर ही ज्ञान की सिद्धी होती है| तभी समभाव में अधिष्ठान होता है| उस समय सिद्धी और असिद्धि में कोई भेद नहीं रहता| इस समत्व में स्थिति ही गीता का योग है| जैसा मुझे समझ में आया वैसा ही लिखा जा रहा है| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
३१ मार्च २०२०

चीन के बारे में ..... मैं अपने अनुभव से कुछ कहना चाहता हूँ .....

चीन के बारे में ..... मैं अपने अनुभव से कुछ कहना चाहता हूँ|
मैंने वर्षों पहिले चार बार चीन की यात्रा की है| सन १९९० तक चीन भारत की तुलना में हर क्षेत्र में बहुत अधिक पिछड़ा हुआ देश था| सन १९८५ में मैं पहली बार चीन दो महीने के लिए गया था| उस समय वहाँ सड़कों पर निजी वाहन नहीं चलते थे| सार्वजनिक बसें बहुत कम चलती थीं| प्रायः सभी लोग बाइसिकल से ही आते जाते थे| मैं जहाँ गया था वहाँ से चीन की दीवार पास में ही थी जिसके आसपास किसी से साइकिल माँग कर साइकिल पर खूब घूमता भी था| सभी के कपड़े एक जैसे व एक ही डिजायन के हुआ करते थे| कपड़ों पर इस्तरी करना मना था| घरों में स्नानगृह नहीं होते थे| लोग सप्ताह में या महीने में एक दिन सार्वजनिक स्नान-गृह में जाकर स्नान करते थे| मेरे विचार से भारतीयों की तुलना में चीनी लोग बहुत अधिक डरपोक होते हैं| मुझे आश्चर्य होता था कि उन्होंने तिब्बत पर अधिकार कैसे कर लिया और भारत को १९६२ में लड़ाई में कैसे हरा दिया? (इस विषय पर पहिले एक लेख में कई बातें लिखी थीं, जो अब नहीं लिख रहा) काफी कुछ जानने को मिला वहाँ के बारे में|
फिर सन १९९९ व सन २००० में फिर चीन जाने का अवसर मिला तो सब कुछ बदला हुआ पाया| सड़कों पर से साइकिलें गायब हो गई थीं| लोग निजी मोटर वाहनों का उपयोग करने लगे थे| दो-चार सरकारी दुकानों की जगह बड़े बड़े बाज़ार बन चुके थे| बाज़ारों में माल तो घटिया और नकली था पर स्वतंत्र व्यवसाय आरंभ हो चुका था|
वहाँ का खानपान बहुत ही तामसी है जिसे कोई सामान्य भारतीय कभी नहीं खा सकता| खुद ही अपना भोजन बनाकर अपनी स्वयं की व्यवस्था करो| फल, मेवे और दूध तो आसानी से मिल जाते हैं जिस से शाकाहारी अपना पेट भर सकते हैं|
किसी भी भोजनालय में जाओ तो वहाँ हर टेबल पर एक बर्नर पर रखे बड़े बर्तन में जानवरों की हड्डियाँ उबलती रहती हैं| लोग उसी पानी को पीते हैं| भोजनालय के द्वार पर जीवित मछलियाँ, सांप, झींगे, केंकड़े आदि रखे जाते हैं| आपको कौन से सांप का सूप पीना है, कौन सी मछली का मांस खाना है, बता दीजिए| पक कर आ जाएगा| मक्खन भी पशुओं की चर्बी का बनाते हैं| वहाँ का मुख्य भोजन नूडल्स के साथ सूअर का मांस है| मेरे जैसे शाकाहारी का जीना तो वहाँ असंभव है|
चीन के उत्तरी भाग में लोग महीने में एक दिन, और दक्षिणी चीन में लोग सप्ताह में एक दिन स्नान करते है| घरों में स्नानघर नहीं होता| सार्वजनिक स्नानघर होते हैं| सार्वजनिक स्नानघर में दो हॉल होते हैं| निर्वस्त्र होकर एक में महिलायें और एक में पुरुष सामूहिक स्नान करते हैं|
होंगकोंग के चुंगकिंग टावर के आसपास तो कुछ नेपाली रैस्टौरेंट हैं जहाँ शाकाहारी भोजन मिल जाता है, पर चीन की मुख्य भूमि में और ताईवान में कहीं भी नहीं मिलता| होंगकोंग के चुंगकिंग टावर में भारतीयों ही भारतीयों की दुकानें हैं जहाँ के ग्राहक भारतीय, नेपाली, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी ही अधिक होते हैं| वहाँ के एक दुकानदार ने बताया कि वहाँ संघ की शाखा भी लगती है| संघ का अस्तित्व वहाँ 'हिन्दू स्वयं सेवक संघ' के नाम से है|
चीन में अच्छी बात एक ही लगी कि वहाँ के लोग खूब मेहनती हैं| जितने का खाते हैं उस से अधिक का काम करते हैं| रूस के साइबेरिया व सुदूर-पूर्व में श्रमिकों की बहुत कमी थी अतः रूस ने लाखों चीनियों को रूस की नागरिकता दे कर अपने यहाँ बसा दिया है| रूस को चीनी श्रमिक ही अच्छे लगे क्योंकि चीनी श्रमिक खाते कम हैं और काम अधिक करते हैं|
भारत में वामपंथी लोग चीन का जितना महिमा-मंडन करते हैं, उतना वहाँ कुछ भी नहीं है| भारतीय मापदण्डों से वहाँ के समाज में कोई नैतिकता नहीं है|
३१ मार्च २०२० 

भगवान हैं .....

भगवान की पूजा करनी चाहिए लेकिन पूजा करने से भगवान नहीं मिलते| अपने भीतर के देवत्व को जगाने से ही भगवान मिलते हैं| हमें स्वयं में ही भगवान को जागृत करना पड़ेगा, तभी हम भगवान को उपलब्ध हो सकते हैं| भगवान कोई आसमान से या अन्य कहीं से उड़कर आने वाली चीज नहीं है| हमें स्वयं में ही भगवान को व्यक्त करना पड़ता है| बाकी बातें किसी काम की नहीं हैं| भगवान कहीं बाहर नहीं, हमारे में ही अव्यक्त है जिसे व्यक्त करना पड़ेगा| जिनके पीछे पीछे हम भागते हैं, उनसे कुछ भी मिलने वाला नहीं है|
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भगवान "हैं", यहीं पर "हैं", सर्वत्र "हैं", इसी समय "हैं", हर समय "हैं", वे ही हमारे हृदय में धडक रहे "हैं", वे ही इन नासिकाओं से सांसें ले रहे "हैं", इन पैरों से वे ही चल रहे "हैं", इन हाथों से वे ही हर कार्य कर रहे "हैं", इन आँखों से वे ही देख रहे "हैं", इस मन और बुद्धि से वे ही सोच रहे "हैं", हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही "हैं"| सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि वे ही "हैं"| वे परम विराट और अनंत "हैं"| हम तो निमित्त मात्र, उन के एक उपकरण हैं| भगवान स्वयं ही हमें माध्यम बना कर सारा कार्य कर रहे हैं| कर्ता हम नहीं, स्वयं भगवान हैं| सारी महिमा भगवान की है| भगवान ने जहाँ भी रखा है और जो भी दायीत्व दिया है उसे हम नहीं, स्वयं भगवान ही कर रहे हैं| वे ही जगन्माता हैं, वे ही परमपुरुष हैं| हम उन के साथ एक हैं| कोई भेद नहीं है| ॐ ॐ ॐ ||

श्री गुरु चरण सरोज रज :---

श्री गुरु चरण सरोज रज :---
श्रीगुरुचरणों में जब से नमन किया है, सिर बापस उठा ही नहीं है, तब से झुका हुआ ही है और सदा झुका हुआ ही रहेगा| गुरु तत्व के साथ हम एक हैं| उन में और हमारे में कहीं कोई अंतर नहीं है| हमारा साथ शाश्वत है| शरीर तो पता नहीं कितनी बार छुटा है, मिला है, और छुटता रहेगा, पर गुरु का साथ शाश्वत है|
'श्री' शब्द में 'श' का अर्थ है श्वास, 'र' अग्निबीज है, और 'ई' शक्तिबीज| श्वास रूपी अग्नि और उसकी शक्ति ही 'श्री' है| श्वास का संचलन प्राण तत्व के द्वारा होता है| प्राण तत्व ..... सुषुम्ना नाड़ी में सोम और अग्नि के रूप में संचारित होता है| श्वास उसी की प्रतिक्रिया है| जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है|
सहस्त्रार में दिखाई दे रही ज्योति गुरु महाराज के चरण-कमल हैं| उस ज्योति का ध्यान श्रीगुरुचरणों का ध्यान है| उस ज्योति-पुंज का प्रकाश "श्रीगुरुचरण सरोज रज" है| सहस्त्रार में स्थिति श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| खेचरी-मुद्रा .... श्रीगुरुचरणों का स्पर्श है| जिन्हें खेचरी सिद्ध नहीं है वे साधनाकाल में जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखें और आती-जाती श्वास के प्रति सजग रहें| तालव्य-क्रिया के नियमित अभ्यास से खेचरी सिद्ध होती है|
संध्याकाल ..... दो श्वासों के मध्य का संधिकाल "संध्या" कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है| हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं| हर एक प्रश्वास जन्म है, और हर एक निःश्वास मृत्यु|
हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान केन्द्रों में ही रहता है तब वह धर्म की हानि है| हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तक व उससे ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है| आज्ञाचक्र और उस से ऊपर धर्मक्षेत्र है, उसके नीचे कुरुक्षेत्र|
यह मनुष्य देह इस संसार सागर को पार करने की नौका है, गुरु कर्णधार हैं, व अनुकूल वायु .... परमात्मा का अनुग्रह है| परमात्मा सदा हमारी चेतना में रहें|
ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता से भी परे .... परमशिव है| वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है| कुण्डलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है| हमारा मन सदा श्री गुरु चरण सरोज रज में लोटपोट करता रहे| ॐ तत्सत्!!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२०

अब भगवान को मुझ से भी बहुत बड़ी शिकायत है.....

अब भगवान को मुझ से भी बहुत बड़ी शिकायत है.....
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करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् |
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
वटपत्र के मध्य सोये हुए, अपने हस्तकमल द्वारा पदकमल को मुखकमल में प्रवेश कराते हुए, बालक श्रीकृष्ण को मन से स्मरण करता हूँ ||
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मैं भगवान से अनगिनत शिकायतें करता रहता हूँ, पर उनकी कभी नहीं सुनता| भगवान चाहे जितने भी सर्वशक्तिमान हों, मेरे लिए तो वे एक बालक की तरह बड़े भोले-भाले और सीधे-साधे हैं; पर हैं बड़े हठी और दृढ़ निश्चयी| बार-बार उन्हें मनाना पड़ता है, यदि नहीं भी मनाता तो भी मान जाते हैं; बड़े भोले हैं| मुझ से तो बहुत अधिक प्रेम रखते हैं| उनको मैं तो भूल जाता हूँ, पर वे कभी नहीं भूलते| दुःख-सुख में स्वयं ही मुझे अपनी याद दिला देते हैं| आज उन्होनें किसी ना किसी तरह शिकायत करते हुए कह ही दिया कि बाबा तुम हमें प्रेम नहीं करते| अब क्या उत्तर दें? कुछ समझ में नहीं आया| हमने कह दिया कि यह हमारे वश का नहीं है, तुम ही हमें प्रेम करते रहो| पर अपने बाल-स्वभाव में उन्होंने स्पष्ट कह ही दिया कि बाबा हमें तुम्हारा शत-प्रतिशत प्रेम चाहिए, ९९.९९ प्रतिशत भी नहीं चलेगा, पूरा ही प्रेम देना होगा| फिर नाराज होकर चले गए|
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अब मनाना तो उन्हें पड़ेगा ही| हृदय-सागर की विशाल जलराशि में तैरते हुए एक वटवृक्ष के छोटे से पत्ते पर लेटे हुए सूक्ष्म बालक के रूप में भी वे ही थे और जिसमें सारी सृष्टि समाई हुई है, वह विराट अनंतता और परमशिव भी वे ही थे| वे स्वयं ही स्वयं को प्रेम करें| मेरे वश का तो कुछ भी नहीं है| वास्तव में "मैं" तो है ही नहीं, वे ही सर्वस्व हैं, और वे ही यह "मैं" बन गए हैं| यह "मैं' एक निमित्त मात्र है, जिसका बोध ही माया का आवरण है|
ॐ तत्सत् ||
२० मार्च २०२०

दूसरों के सिर काट कर कोई बड़ा नहीं हो सकता ....

दूसरों के सिर काट कर कोई बड़ा नहीं हो सकता| दूसरों के घर के दीपक बुझाकर कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता| विश्व के अनेक लोग स्वयं तो शान्ति से रहना नहीं जानते, पर अपनी शान्ति की खोज, धर्म के नाम पर दूसरों के प्रति घृणा, दूसरों की सभ्यताओं के विनाश, और दूसरों के नरसंहार में ही ढूँढते रहे हैं| ऐसे लोग इस संसार को नष्ट करने के लिए सदा तत्पर हैं| दूसरों से घृणा कर के या दूसरों का गला काट कर हम परमात्मा को प्रसन्न नहीं कर सकते| शांति का मार्ग जो भगवान् ने बताया है वह है ....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
श्रुति भगवती भी कहती है ..... "एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति |"
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भगवान ने हमें सर्वत्र उन्हीं को देखने को कहा है, पर साथ-साथ आतताइयों से स्वयं की रक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए एकजुट होकर प्रतिरोध और युद्ध करने के धर्म के पालन करने को भी कहा है| हम अपना हर कार्य जिस भी परिस्थिति में हम हैं, उस परिस्थिति में ईश्वर-प्रदत्त निज-विवेक से निर्णय लेकर ही करें| जहाँ संशय हो वहाँ भगवान से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करें|
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हम मिल जुल कर प्रेम से रहेंगे तो सुखी रहेंगे | श्रुति भगवती कहती है ....
"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् | देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ||"
अर्थात् हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोले , हमारे मन एक हो| प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय हैं|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
१८ मार्च २०२०

हम पूर्णप्रेम से समर्पित होकर उनके प्रकाश का विस्तार करें ....

कूटस्थ परमात्मा ने हमें उनके प्रकाश के विस्तार का कार्य दिया है, वही हमारा स्वधर्म है|
हम पूर्णप्रेम से समर्पित होकर उनके प्रकाश का विस्तार करें|
हमारी हर क्रिया में उन की अभिव्यक्ति हो, हमारी प्रज्ञा उन में प्रतिष्ठित हो| ॐ ॐ ॐ !!
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्| नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता||२:५७||"
"तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः| वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता||२:६१||"
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पुनश्च :--- आज के इस चुनौती भरे समय में हम परमात्मा में प्रतिष्ठित होकर उनके प्रकाश का विस्तार करें| हमारी हर क्रिया में उनकी अभिव्यक्ति हो| यही हमारा स्वधर्म / परमधर्म है| हमारे जन्म का उद्देश्य ही यही है, हमारा जन्म इसीलिए हुआ है| इस स्वधर्म का पालन करते-करते ही हम इस संसार में रहें और इस का पालन करते करते ही संसार से विदा लें| ॐ तत्सत् |
कृपा शंकर
१७ मार्च २०२०

राम नाम परमब्रह्म है .....

राम नाम परमब्रह्म है .....
राम नाम में अखिल सृष्टि समाई हुई है, राम नाम सारे शास्त्रों का प्राण है, और भारत का उद्धार भी राम नाम ही करेगा| सिर्फ जयश्रीराम-जयश्रीराम के उद्घोष से ही काम नहीं चलेगा, हम को स्वयं ही अपनी निज चेतना में राममय बनना होगा| इस विषय पर यहाँ सत्संग करते हैं|
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भगवान श्रीकृष्ण ॐकार की महिमा में दो बार गीता में कहते हैं ....
"रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः| प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु||७:८||"
अर्थात् हे कौन्तेय ! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में प्रणव (ॐकार) हूँ तथा आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ||
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्| यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः||१०:२५||"
अर्थात् महर्षियों में भृगु और वाणियों-(शब्दों-) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव (ॐकार) मैं हूँ| सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालों में हिमालय मैं हूँ||
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प्रणव (ॐकार) पहले प्रकट हुआ, उस से त्रिपदा गायत्री बनी और वेदत्रय उस से बने| राम नाम को वेदों का प्राण माना जाता है, क्योंकि राम नाम से प्रणव होता है| जैसे प्रणव से र निकाल दो तो केवल पणव यानि ढोल हो जाएगा| ॐ में से म निकाल दिया जाए तो वह शोक का वाचक ओ हो जाएगा| प्रणव में र और ॐ में म कहना आवश्यक है, इसलिए राम नाम वेदों का प्राण है|
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भगवान् के नाम और रूप दोनों अनिर्वचनीय हैं| वृक्ष में जो शक्ति है वह बीज से ही आती है इसी प्रकार अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा में जो शक्ति है वह राम नाम से आती है| राम नाम अविनाशी व सर्वत्र व्यापक रूप से परिपूर्ण है| राम नाम के निरंतर मानसिक जप से स्वयं में एक अलौकिक शक्ति का प्राकट्य होता है| राम नाम एक मणिदीप और दीप्तिमान अग्नि है जो सारे अंधकार को नष्ट कर देती है| राम के बिना वर्णमाला भी अंधी है, क्योंकि रा और म ये दोनों अक्षर वर्णमाला की दो आँखें हैं| राम नाम के उच्चारण से वाणी में मिठास आता है और रोम-रोम पवित्र हो जाता है| राम नाम से समुद्र में बड़े बड़े पत्थर तैर गए, तो हमारा उद्धार कौन सी बड़ी बात है?
"ॐ सर्वशक्तिमते परमात्मने श्रीरामाय नम:||" राम राम राम|
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर
१७ मार्च २०२०

जब आग लगी हो अंतर में ----

जब आग लगी हो अंतर में ---- तब हृदय में एक अदम्य, असीम-वेदना जागृत होती है जो व्यक्त नहीं हो पाती| वह वेदना कभी परमप्रेम, तो कभी आनंद बन जाती है| हृदय के गहनतम भाव व्यक्त नहीं होते| सारी अभिव्यक्तियाँ उस ज्वालामयी वेदना के स्फुर्लिंग मात्र हैं, और कुछ नहीं| परमप्रेम की यह पीड़ा, प्रेमास्पद की प्रत्यक्ष उपस्थिती ही शांत कर सकती है| सांसारिक दृष्टि से तो यह बेकार की बात है, इसीलिए एक कवि ने कहा है ....
"उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में,
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए |
खुली हवाओं में उड़ना तो उस की फ़ितरत है,
परिंदा क्यूं किसी शाख़-ए-शजर का हो जाए|"
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बृहदारण्यक उपनिषद में एक उपदेश ऋषि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को दिया था, जिसकी दक्षिणा स्वरुप राजा जनक ने अपना सारा राज्य और यहाँ तक कि स्वयं को भी अपने गुरु ऋषि याज्ञवल्क्य के श्रीचरणों में अर्पित कर दिया था| ऋषि याज्ञवल्क्य ने अंत में कहा कि "ब्रह्मज्ञ उस ब्रह्म को जानने के पश्चात किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता है| वह शान्त, तपस्वी, विरक्त, सहिष्णु और एकाग्र-चित्त आत्मवत होकर आत्मा में ही परमात्मा को देखता है| उस को कोई पाप नहीं छू सकता| वह निर्मल सब पापों से परे संशय रहित बन जाता है| यह ब्रह्मलोक है, सम्राट् ! इस तक आप पहुंच गये हैं|"
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गीता में भगवान कहते हैं ...
"यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ| समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते||२:१५||"
अर्थात् हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये व्यथित नहीं कर सकते हैं वह अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी होता है||
""यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते" ||१८:१७||
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न (पाप से) बँधता है|
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इसी सत्य को जीसस क्राइस्ट ने भी कहा है ... "But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you." {Matthew 6:33 (KJV)}
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हमारा जीवन अनंत कालखंड में एक छोटा सा पड़ाव मात्र है| हम पूर्णरूपेण परमात्मा को समर्पित हों| गुरु महाराज ने तदाकार-वृत्ति, नाद-श्रवण और सूक्ष्म प्राणायाम का उपासना में बड़ा महत्त्व बताया है| इनके बिना कोई भी आध्यात्मिक साधना सफल नहीं होती| हमारी मुमुक्षा तीव्र होगी तभी आगे के द्वार खिलेंगे| मंद और अति मंद मुमुक्षा किसी काम की नहीं है| भगवान की परमकृपा हम सब पर हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०२०
स्वर्ग (जन्नत) की कल्पना एक नकारात्मक मनोरंजन मात्र है .....
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आजकल जन्नत यानि स्वर्ग में बहुत अधिक भीड़-भाड़ और धक्का-मुक्की चल रही है| वहाँ House Full है| जिसको देखो वो ही वहाँ जाने की व्यवस्था कर रहा है| वहाँ की हालत निश्चित रूप से जहन्नुम यानि नर्क से भी बुरी है| लोग उस काल्पनिक स्वर्ग में जाने के लिए एक-दूसरे की गर्दन काट रहे हैं, और खून-खराबा कर के अपने व दूसरों के वर्तमान को नर्क से भी बुरा बना रहे हैं| जन्नत और जहन्नुम (स्वर्ग और नर्क) दोनों ही हमारी मानसिक कल्पनाएँ हैं| हमारा मन ही इनका निर्माण करता है| ये मनोलोक हैं जिन की सृष्टि हमारे मन से होती हैं| आज तक कोई वहाँ से सचेतन रूप से बापस भी आया है क्या? मन को बहलाने के लिए ही हम इनकी कल्पनाएँ करते हैं जो हमारा एक नकारात्मक मनोरंजन मात्र है| जिन लोगों ने जन्नत और जहन्नुम का ठेका ले रखा है, भगवान उन ठेकेदारों से हमें बचाए|
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जीव, ईश्वर का अंश है, उस का लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना होना चाहिए, न कि स्वर्ग या इससे मिलता-जुलता कुछ और| स्वर्ग प्राप्ति की कामना सबसे बड़ा धोखा और समय की बर्बादी है| जो भी समय मिले उसमें परमात्मा का स्मरण और ध्यान करना चाहिए| परमात्मा की चेतना में जो भी समय निकल जाए वो ही सार्थक है, बाकी सब मरुभूमि में गिरी हुई जल की कुछ बूंदों की तरह निरर्थक है| किसी भी तरह की कोई कामना का अवशेष नहीं रहना चाहिए| आत्मा नित्य मुक्त है, सारे बंधन अपने स्वयं के ही अपने स्वयं पर थोपे हुए हैं| इनसे मुक्त होना ही सार्थकता है|
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जन्नत की तलाश और ये बेहतरीन शेर... (साभार: अमर उजाला, काव्य डेस्क)
(1) हमें पीने से मतलब है जगह की क़ैद क्या 'बेख़ुद'
उसी का नाम जन्नत रख दिया बोतल जहाँ रख दी
- बेख़ुद देहलवी
(2) हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
- मिर्ज़ा ग़ालिब
(3) चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है
- मुनव्वर राना
(4) जो और कुछ हो तेरी दीद के सिवा मंज़ूर
तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए
- हसरत मोहानी
(5) फिर न आया ख़याल जन्नत का
जब तेरे घर का रास्ता देखा
- सुदर्शन फ़ाख़िर
(6) उनकी गली नहीं है न उनका हरीम है
जन्नत भी मेरे वास्ते जन्नत नहीं रही
- नादिर शाहजहाँ पुरी
(7) ख़्वाब हाय दिल नशीं का इक जहाँ आबाद हो
तकिया जन्नत भी उठा लाए अगर इरशाद हो
- मुजतबा हुसैन
(8) अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़
कूचा-ए-यार में चल देख ले जन्नत मेरी
- फ़ानी बदायुनी
(9) प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
ये फ़रिश्ते आज जन्नत से निकाले जाएँगे
- आलोक यादव
(10) हुआ है चार सज्दों पर ये दावा ज़ाहिदों तुमको
ख़ुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है
- दाग़ देहलवी
(11) जन्नत से जी लरज़ने लगा जब से ये सुना
अहल-ए-जहाँ वहाँ भी मिलेंगे यहाँ के बाद
- अज्ञात
(12) मयख़ाने में मज़ार हमारा अगर बना
दुनिया यही कहेगी कि जन्नत में घर बना
- रियाज़ ख़ैराबादी
(13) इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार
शैख़ जी तुम भी ज़रा कू-ए-बुताँ तक आओ
- अली सरदार जाफ़री
(14) गुनाहगार के दिल से न बच के चल ज़ाहिद
यहीं कहीं तेरी जन्नत भी पाई जाती है
- जिगर मुरादाबादी
(15) हूरों से न होगी ये मुदारात किसी की
याद आएगी जन्नत में मुलाक़ात किसी की
- बेख़ुद देहलवी
(16) रौशनी वालों ने दोज़ख़ में बुलाया है मुझे
मेरी जन्नत के अँधेरों मेरा दामन पकड़ो
- अख़्तर जावेद
(17) बातें नासेह की सुनीं यार के नज़्ज़ारे किए
आँखें जन्नत में रहीं कान जहन्नम में रहे
- अमीर मीनाई
(18) पी शौक़ से वाइज़ अरे क्या बात है डर की
दोज़ख़ तेरे क़ब्ज़े में है जन्नत तेरे घर की
- शकील बदायुनी
(19) किस पे मरते हो आप पूछते हैं
मुझ को फ़िक्र-ए-जवाब ने मारा
- मोमिन ख़ाँ मोमिन
(20) जन्नत की तस्वीर को देखो
आओ ज़रा कश्मीर को देखो
- नज़ीर बनारसी
(21) गली में उस की न फिर आते हम तो क्या करते
तबीअत अपनी न जन्नत के दरमियान लगी
- मोमिन ख़ाँ मोमिन
(22) करवट करवट है लहलहाती जन्नत
ये रात ये कुछ हिलते हुए रूप-कलस
- फ़िराक़ गोरखपुरी
(23) जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
- दाग़ देहलवी

गुरु बनना महापुरुषों का काम है, साधकों का नहीं .....

गुरु बनना महापुरुषों का काम है, साधकों का नहीं .....
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किसी साधक का गुरु बनना उसके पतन का हेतु है| 'शिष्यत्व' एक पात्रता है| जब वह पात्रता होती है तब सद्गुरु स्वयं चले आते हैं| सद्गुरु को कहीं ढूँढना नहीं पड़ता| सबसे महत्वपूर्ण है शिष्यत्व की पात्रता| वह पात्रता है ..... परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और उन्हें पाने की तड़प, और एक अदम्य अभीप्सा| जब वह अभीप्सा होती है तब प्रभु एक सद्गुरु के रूप में निश्चित तौर से आते हैं| वे शिष्य के ह्रदय में यह बोध भी करा देते हैं की मैं आ गया हूँ| एक निष्ठावान शिष्य कभी धोखा नहीं खाता| गुरुवाद के नाम पर आजकल गोरखधंधा भी खूब चल रहा है| दिखावटी गुरु बनकर चेले मूँड कर उनका शोषण करना आजकल खूब सामान्य व्यवसाय हो चला है| वैसे ही फर्जी चेला बनना भी एक व्यवसाय हो गया है| आज के युग की स्थिति बड़ी विचित्र है| चेले सोचते हैं की कब गुरु मरे और उसकी सम्पत्ति हाथ लगे| कई बार तो चेले ही गुरु को मरवा देते हैं| गुरु के मरने पर कई बार तो चेलों में खूनी संघर्ष भी हो जाता है| व्यवहारिक रूप से इस तरह की अनेक घटनाओं को सुना व देखा है| अतः इन पचड़ों में न पड़कर भगवान की निरंतर भक्ति में लगे रहना ही अच्छा है| जब हम प्रभु को ठगना चाहते हैं तो प्रभु भी एक ठग-गुरु बन कर आते हैं, और हमारा सब कुछ हर कर ले जाते हैं| प्रभु किसी महापुरुष या महात्मा (जो आत्मा महत् तत्व से जुडी हो) के रूप में आते हैं और साधक मुमुक्षु को दिव्य पथ पर अग्रसर कर देते हैं| यही दीक्षा है|
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गुरु सेवा का अर्थ है ----- ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु के द्वारा बताए हुए मार्ग पर सतत चलना| हमारी साधना में कोई कमी रह जाती है तब गुरु उस कमी का शोधन कर उसे दूर कर देते हैं| गुरु आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है वह किसी के निजी जीवन में दखल नहीं देता|
जिस के संग में हमारे मन की चंचलता समाप्त हो, मन शांत हो, और जिसके संग से परमात्मा की चेतना निरंतर जागृत रहे वही गुरु पद का अधिकारी हो सकता है| गुरु जिस देह रूपी वाहन से अपनी लोक यात्रा कर रहे हों उसका ध्यान रखना भी गुरु सेवा का एक भाग है पर मुख्य बात है कि उनके संग से हमारी परमात्मा में स्थिति हो रही है या नहीं|
यदि गुरु की सेवा भी परमार्थ के ज्ञान में, अपने अद्वैत-अखण्ड की अनुभूति में बाधक होती हो तो उनको भी छोड़ देना चाहिए --- न गुरुः और न शिष्यः| जब परमार्थ में स्थिति हो जाये तब गुरु - शिष्य का भौतिक सम्बन्ध भी नहीं रहता| यह बहुत विलक्षण बात है| गुरु साधनरूप हैं साध्य नहीं|
उनकी हाड-मांस की देह गुरु नहीं हो सकती| गुरु तो उनकी चेतना है|
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गुरु शिष्य का मंगल और कल्याण ही चाहते हैं|
" मीङ्गतौ " धातु से " मङ्गल " शब्द बनता है , जिसका अर्थ होता है "आगे बढ़ना"| आगे तो शिष्य को ही बढना पड़ता है| जब आगे बढने की कामना और प्रयास ही नहीं होता तब शिष्य भी अपनी पात्रता खो देता है और गुरु का वरदहस्त उस पर और नहीं रहता|
"कल्याण" शब्द का भी यही अर्थ है संस्कृत में "कल्य" का अर्थ होता है "प्रातःकाल"| इसलिए कल्याण का तात्पर्य यह है कि जीवन में "नवप्रभात" आये|
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योग साधक ध्यान में भ्रूमध्य और उससे ऊपर दिखाई देने वाली सर्वव्यापक ज्योति और ध्यान में ही सुनाई देने वाली अनहद नाद रूपी प्रणव ध्वनी पर ध्यान करते हैं, और जब उनकी चेतना विस्तृत होकर सर्वव्यापकता को निरंतर अनुभूत करती है उसे 'कूटस्थ चैतन्य' कहते हैं| उस सर्वव्यापकता को कूटस्थ ब्रह्म मानते हैं| कूटस्थ ही वास्तविक गुरु है जो दिव्य ज्योति और प्रणव रूप में निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन देता रहता है| मेरे विचार से और मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से गुरु वही बन सकता है जिसे ईश्वर द्वारा गुरु बनने की प्रेरणा प्राप्त हो, जो निरंतर ब्राह्मी स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो| "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| यह भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त बड़ा सुन्दर और गहन अर्थों वाला शब्द है| सुनार सोने को आकृति देने के लिए जिस पर रख कर छोटी हथौड़ी से पीटता है उसे भी 'कूट' कहते हैं, और इस प्रक्रिया को 'कूटना' कहते हैं| 'कूट' का अर्थ छिपा हुआ भी है| जो सर्वत्र व्याप्त है और कहीं दिखाई नहीं देता उसे 'कूटस्थ' कहते हैं| भगवान 'कूटस्थ' हैं अतः गुरु भी 'कूटस्थ' है| योगियों के लिए भ्रूमध्य में अवधान 'कूटस्थ' है|
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निरंतर ज्योतिर्मयब्रह्म के आज्ञाचक्र और सहस्त्रार में दर्शन, और नादब्रह्म का निरंतर श्रवण --- 'कूटस्थ चैतन्य' है| ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन एक पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के रूप में होते हैं, वे पंचमुखी महादेव हैं| उस श्वेत नक्षत्र के चारों ओर का नीला आवरण 'कृष्णचैतन्य' है| उस नीले आवरण के चारों ओर की स्वर्णिम आभा 'ओंकार' यानि प्रणव है जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है| उस श्वेत नक्षत्र का भेदन कर योगी परमात्मा से एकाकार हो जाता है| तब वह कह सकता है ------ 'शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि'| यही परमात्मा की प्राप्ति है|
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कूटस्थ ही हमारा घर है, कूटस्थ ही हमारा आश्रम है और कूटस्थ ही हमारा अस्तित्व है| दरिया साहेब का एक बड़ा सुन्दर पद्य है ---
"जाति हमारी ब्रह्म है, माता पिता हैं राम| गृह हमारा शुन्य में, अनहद में विश्राम||"
कौन तो गुरु है और कौन शिष्य ? सब कुछ तो परमात्मा है जो हम स्वयं हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१३ मार्च २०२०
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पुनश्च: :-----
"आये थे हरी भजन को ओटन लगे कपास" और "गुरु लोभी चेला लालची" वाली बात है| आजकल का शिष्य भी देखता है की फलाँ फलाँ गुरु से मुझे क्या लाभ मिल सकता है आदि| आजकल के आधुनिक गुरु भी देखते हैं कैसे कोई मालदार आसामी फँसे और उसका धन प्राप्त हो| जब कि मुख्य और एकमात्र आवश्यकता है "शिष्यत्व" की पात्रता की है| जब वह पात्रता होती है तब गुरु का प्राकट्य स्वतः होता है| अन्यथा भगवान शिव आदि गुरु हैं| वास्तविक गुरु परमात्मा ही हैं|

आध्यात्मिक साधना के लिए हठयोग की आधारभूत आवश्यकता :----

आध्यात्मिक साधना के लिए हठयोग की आधारभूत आवश्यकता :----
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आध्यात्मिक साधना के लिए हम हठयोग की उपेक्षा नहीं कर सकते| हठयोग के कुछ साधन हैं जिन के बिना हमें योगमार्ग में सफलता बिल्कुल नहीं मिल सकती| मैं तीन मूलभूत आवश्यकताओं की चर्चा कर रहा हूँ जिनकी सिद्धि हठयोग से ही संभव है .....
(१) साधनाकाल में हमारी कमर सदा सीधी रहे .....
साधनाकाल में मेरुदंड का उन्नत रहना अत्यंत आवश्यक है| जिनकी कमर झुक गई है, उन्हें सिद्धि नहीं मिल सकती, क्योंकि सुषुम्ना नाड़ी में उनका प्राण-प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है| किसी सिद्ध पुरुष की कमर झुक जाए तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, पर कमर के झुकते ही साधक की साधना अवरुद्ध हो जाती है| उसे पुनर्जन्म लेना ही पड़ता है| हठयोग के कई आसन हैं जिनके नियमित अभ्यास से कमर कभी नहीं झुकती|
(२) दोनों नासिकाओं से सांस चलती रहे .....
जब तक दोनों नासिकाओं से सांस नहीं चलती, ध्यान में सफलता नहीं मिलती| ध्यान होता ही तभी है जब दोनों नासिकाओं से सांस चल रही हो| हठयोग में कई क्रियाएँ हैं जिनसे नासिकायें अवरुद्ध नहीं होती| यदि फिर भी कोई समस्या हो तो किसी अच्छे ई.एन.टी.सर्जन से सर्जरी द्वारा उपचार कराना पड़ता है| मेरी नासिकाओं में दो आंतरिक दोष थे जिनसे मुझे सांस लेने में बड़ी कठिनाई होती थी| वर्षों पहिले दो बार नाक की सर्जरी करानी पड़ी थी, फिर कभी कोई कठिनाई नहीं हुई|
(३) आसन में स्थिरता हो .....
किसी एक आसन में स्थिर होकर सुख से दीर्घ काल तक बैठ सकें, यह बहुत बड़ी आवश्यकता है जो हठयोग के अभ्यास से ही संभव है| फिर कुछ प्राणायाम हैं जिनकी सिद्धि हुए बिना भी आसन में स्थिरता नहीं आती|
और भी कई बातें हैं, पर ये तीन मूलभूत आवश्यकताएँ हैं जिनकी सिद्धि हठयोग से ही संभव है|
सभी को नमन | ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
१३ मार्च २०२०

गुरुकृपा फलीभूत हो ..........

गुरुकृपा फलीभूत हो ..........
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परम गुरुकृपा से आज प्रातः उठते ही मुझे लगा कि सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर गया है, सारी सृष्टि नष्ट हो गई है, कहीं पर कुछ भी और कोई भी नहीं बचा है| मैं स्वयं को जो यह शरीर समझता था, वह शरीर भस्म होकर मेरे सामने पड़ा था| मैंने अपनी स्वयं की मृत देह को स्वयं के सामने भस्म होते हुए देखा| मेरे सिवाय वहाँ अन्य कोई नहीं था| मुझे कोई घबराहट या कोई चिंता नहीं हुई| स्मृति में दो मंत्र आए जिनसे मन आनंद से भर गया|
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पहले तो मार्कन्डेय ऋषि कृत भगवान शिव के आराधना स्तोत्र की यह पंक्ति स्मृति में सामने आई ....
"चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः|"
अर्थात जब भगवान चन्द्रशेखर का आश्रय लिया है तब मृत्यु यानि यमराज मेरा क्या बिगाड़ लेगा? गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिस 'कूटस्थ' शब्द का प्रयोग किया है, वह कूटस्थ ही भगवान चन्द्रशेखर हैं| कूटस्थ-चैतन्य यानि गीता में बताई हुई ब्राह्मी-स्थिति ही भगवान चन्द्रशेखर में आश्रय है| ब्राह्मी-स्थिति जब प्राप्त हो आए तब आत्मा की अमरता यानि शाश्वतता का पता चलता है| उस स्थिति में कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, या बिगड़ सकता चाहे समस्त सृष्टि ही टूट कर बिखर जाये| इसी की महिमा में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है .... "यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः|"
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फिर ईशावास्योपनिषद् का १७ वां मन्त्र सामने आया ..... "वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् | ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ||"
"ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ..... यह श्रुति-भगवती का आदेश है जो चेतना की गहराई में उतर जाये तो मृत्यु हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती| मेरे सामने मेरा यह शरीर भस्म होकर पड़ा था, जिस से मेरा इसके भस्म होने तक ही संबंध था| अब श्रुति भगवती का यह आदेश सुनाई दे रहा था ... "ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ... जिसका पालन ही मेरी आगे की गति तय करेगा| इस मंत्र का अर्थ थोड़ा गूढ़ है जिसे ध्यान से समझना पड़ेगा|
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गीता के नौवें अध्याय के सौलहवें मंत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को क्रतु और यज्ञ भी बताया है (अहं क्रतुरहं यज्ञः)|
ॐ परमात्मा का नाम है .... "तस्य वाचकः प्रणवः" .. ||योगसूत्र.१:२७||
श्रुति भगवती के आदेशानुसार प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए .....
"प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते| अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || (मुण्डक.२:२:४)"
बाण का जैसे एक लक्ष्य होता है वैसे ही हम सबका लक्ष्य परमात्मा ही होना चाहिए| हमें प्रणव का आश्रय लेकर प्रभु का ध्यान करते हुए स्वयं को उन तक पहुँचाना है|
"ॐ क्रतो स्मर" का अर्थ यही समझ में आता है कि प्रणव के द्वारा निरंतर यज्ञरूप में हम भगवान का स्मरण करें| हमारी सुषुम्ना नाड़ी में प्राणों का प्रवाह सोम और अग्नि के रूप में चलता रहता है, यह भी एक यज्ञ है| कूटस्थ में ज्योति-दर्शन और नाद-श्रवण भी एक यज्ञ है| हम स्वयं को परमात्मा में समर्पित करते हैं, यह भी एक यज्ञ है| हमारा समर्पित होना ही हमारा कृत है| परमात्मा में समर्पित होकर यानि देह-भाव से मुक्त होकर परमात्म-भाव द्वारा (स्वयं द्वारा स्वयं का) परमात्मा का स्मरण "कृतं स्मर" हो सकता है| मुझे तो यही समझ में आ रहा है|
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भगवान हमें अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करने को कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्यमनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
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शरीर तो हमारा भस्म हो जाएगा, उसके साथ हमारा कोई संबंध नहीं रहेगा| अतः अनुग्रह कर के भगवान स्वयं ही हमारा स्मरण करेंगे| हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहेगा, कोई भेद नहीं होगा| हम परमात्मा के साथ एक होंगे|
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किसी भी तरह की चिंता की कोई बात नहीं है| भगवान का स्पष्ट आश्वासन है.....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
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अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है| ओंकार का ध्यान ही चिदाकाश, दहराकाश, महाकाश, पराकाश और सूर्याकाश इत्यादि लोकों से पार करा कर मह:, जन:, तप: और सत्यलोक से भी परे ले जाकर ब्रह्ममय बना देता है| इसका कभी क्षय नहीं होता अतः यह अक्षर या अक्षय है| ओंकार के ध्यान से हमारे अन्तःकरण की अधोगामी गति ऊर्ध्वगामी हो जाती हैं| यह साक्षात ब्रह्म साधना है जिसकी घोषणा सभी उपनिषद् और भगवद्गीता करती है| इसकी विधि किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से सीखें| पर यह याद रखें .... "ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर|"
ॐ श्रीगुरवे नमः | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१० मार्च २०२०