Friday, 11 June 2021

संक्षेप में ब्राह्मण धर्म ---

 संक्षेप में ब्राह्मण धर्म .....

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हर ब्राह्मण को अपने ऋषिगौत्र, प्रवर, वेद, उपवेद व उसकी शाखा का, और गायत्री, प्राणायाम, संध्या आदि का ज्ञान अवश्य होना चाहिए| यदि नहीं है तो अपने पारिवारिक आचार्य से शीघ्रातिशीघ्र सीख लें|
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पूरे भारत में अधिकाँश ब्राह्मणों की शुक्ल-यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता की माध्यन्दिन शाखा है| इस का विधि भाग शतपथब्राह्मण है, जिसके रचयिता वाजसनेय याज्ञवल्क्य हैं| शतपथब्राह्मण में यज्ञ सम्बन्धी सभी अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन है| जो समझ सकते हैं उन ब्राह्मणों को अपने अपने वेद आदि का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए| आजकल के इतने भयंकर मायावी आकर्षणों और गलत औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के पश्चात भी शास्त्रोक्त कर्मों को नहीं भूलना चाहिए|
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मनुस्मृति ने ब्राह्मण के तीन कर्म बताए हैं ... "वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्|"
अर्थात वेदाभ्यास, शम और आत्मज्ञान के लिए निरंतर यत्न करना ब्राह्मण के कर्म हैं| इन्द्रियों के शमन को 'शम' कहते हैं| चित्त वृत्तियों का निरोध कर उसे आत्म-तत्व की ओर निरंतर लगाए रखना भी 'शम' है| धर्म पालन के मार्ग में आने वाले हर कष्ट को सहन करना 'तप' है| यह भी ब्राह्मण का एक कर्त्तव्य है| जब परमात्मा से प्रेम होता है और उन्हें पाने की एक अभीप्सा जागृत होती है तब गुरुलाभ होता है| धीरे धीरे मुमुक्षुत्व और आत्मज्ञान की तड़प पैदा होती है| उस आत्मज्ञान को प्राप्त करने की निरंतर चेष्टा करना ब्राह्मण का परम धर्म है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण के नौ कर्म बताए हैं .....
"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||१८:४२||
अर्थात् शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान, और आस्तिक्य ये ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं||
और भी सरल शब्दों में ..... मनका निग्रह करना, इन्द्रियोंको वशमें करना; धर्मपालनके लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना; दूसरोंके अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदिमें सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदिका ज्ञान होना; यज्ञविधिको अनुभवमें लाना; और परमात्मा, वेद आदिमें आस्तिक भाव रखना -- ये सब-के-सब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं।
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इनके अतिरिक्त ब्राह्मण के षटकर्म भी हैं, जो उसकी आजीविका के लिए हैं|
अन्य भी अनेक स्वनामधान्य आदरणीय आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है जिसे यहाँ इस संक्षिप्त लेख में लिखना संभव नहीं है|
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ब्राह्मण के लिए एक दिन में १० आवृति (संख्या) गायत्री मंत्र की अनिवार्य हैं| जो दिन में गायत्री मंत्र की एक आवृति भी नहीं करता वह ब्राहमणत्व से च्युत हो जाता है, और उसे प्रायश्चित करना पड़ता है|
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इस लघु लेख में इस से अधिक लिखना मेरे लिए संभव नहीं है| आप सब को नमन! इति|
ॐ तत्सत्|
१२ जून २०२०

परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था होती है ---

 परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था होती है ......

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मैंने अपने जीवन में अब तक जो कुछ भी साधना, स्वाध्याय व सत्संग से सीखा है, उसका सार है कि ....
"परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था है|"
मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य इस परमशिवावस्था को उपलब्ध होना है| इस से पृथक जो कुछ भी है वह भटकाव है, जिस से हम बचें| हम जीव नहीं, परमशिव हैं| जिसे हम "ईश्वर को प्राप्त करना या होना" कहते हैं ..... वह परमशिवावस्था ही है| शिवत्व का ध्यान करते करते एक अवर्णनीय स्थिति आती है जहाँ हमारी चेतना विस्तृत होकर समष्टि के साथ एक हो जाती है, हम जड़-चेतन सर्वस्व के साथ एक हो जाते हैं, और पाते हैं कि हमारे से अन्य तो कोई है ही नहीं| हम स्वयं को ज्योतिषांज्योति प्रकाशमय पाते हैं, जहाँ कोई अज्ञान और अंधकार नहीं है, जिसके बारे में श्रुति भगवती कहती है ....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः|
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति||"
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गीता में जिस ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने की बात भगवान श्रीकृष्ण ने कही है, वह भी यही है|
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति|
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||"
वही भगवान का परमधाम है जहाँ पहुँच कर फिर कोई बापस नहीं आता|
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः|
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||"
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इससे अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी है वह भटकाव है| सारे शैव व शाक्त आगमों व योगदर्शन का भी यही उपदेश है| बड़ी विचित्र लीला है जिसे बुद्धि से समझना असंभव है.....
"शिव शक्ति की उपासना करते हैं और शक्ति शिव की|"
यह साधकों को संकेत है कि "परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था है|"
ये सारे रहस्य भगवान स्वयं समझा देते हैं जब हमारे हृदय में उनके लिए परमप्रेम और अभीप्सा जागृत होती है| उन्हें अन्य कोई समझा भी नहीं सकता| तब तक ये रहस्य, रहस्य ही रहेंगे| इति||
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ॐ तत्सत् || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१२ जून २०२०
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पुनश्च:
शिव और शक्ति में कोई भेद नहीं है| दोनों एक हैं, उनकी अभिव्यक्ति ही पृथक-पृथक हैं|
योग साधना का उद्देश्य है महाशक्ति कुंडलिनी का परमशिव से मिलन|
सारे शैव साधक शक्ति की साधना करते हैं, और शाक्त साधक शिव की|
महात्माओं से सुना है कि ....
शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि, षड़ाक्षरी बीज द्वारा श्रीविद्या की साधना करते थे|
परम सिद्ध अगस्त्य ऋषि, हयग्रीव से प्राप्त पञ्चदशाक्षरी बीज द्वारा श्री विद्या की साधना करते थे|
आचार्य शंकर, श्रीविद्या की साधना करते थे|
गुरु गौरक्षनाथ, माँ छिन्नमस्ता के साधक थे|
हमारा लक्ष्य है शिवत्व की प्राप्ति, इसमें कोई संशय न रखें|
जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः|

कर्मफलों का त्याग ---

कर्मफलों का त्याग ---
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कर्मफलों का त्याग -- भगवान श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में स्वयं का समर्पण है। जिसने कर्मफलों का त्याग कर दिया है, उसके लिए कोई "कर्मयोग" नहीं है। उसके लिए सिर्फ "ज्ञान" और "भक्ति" है, क्योंकि वह केवल एक निमित्त मात्र साक्षी है। कोई कर्मफल उस पर लागू नहीं होता, क्योंकि उसके कर्मों के कर्ता और भोक्ता तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं बन जाते हैं।
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समस्त कामनाओं के नाश से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। जो कूटस्थ अक्षर ब्रह्म की उपासना करने वाले अभेददर्शी हैं, उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। भगवान कहते हैं --
"श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥१२:१२॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है; त्याग से तत्काल ही शान्ति मिलती है॥
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ऐसे भक्तों का उद्धार अति शीघ्र भगवान स्वयं कर देते हैं। भगवान कहते हैं --
"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२:७॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ॥
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ईश्वरभाव और सेवकभाव परस्पर विरुद्ध है। इस कारण प्रमाण द्वारा आत्मा को साक्षात् ईश्वररूप जान लेने के पश्चात् कोई किसी का सेवक नहीं है।
भगवान कहते हैं --
"अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥१२:१३॥"
"सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१२:१४॥"
अर्थात् -- भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है; जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान् है॥
जो संयतात्मा, दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है, जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है, जो ऐसा मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है॥
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हम सदा संतुष्ट और समभाव में रहें। अपना संकल्प-विकल्पात्मक मन और निश्चयात्मिका बुद्धि -- भगवान को समर्पित कर दें। भगवान को कभी न भूलें। मन और बुद्धि -- जब भगवान को समर्पित है, समभाव में स्थिति है और पूर्ण संतुष्टि है, -- तब हम भगवान को उपलब्ध हैं। ॐ श्री गुरवे नमः !!
ॐ तत्सत् !!

११ जून २०२१ 

पुनश्च: --- 

शाश्वत संकल्प जो बड़ी दृढ़ता से हर समय रहे ---
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मुझे इसी जीवन में, अभी, इसी समय, -- परमात्मा की प्राप्ति करनी है।
मुझे पूर्ण श्रद्धा और विश्वास है कि मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम हूँ। भगवान हर समय मुझ में स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। स्वयं परमात्मा मुझमें व्यक्त हैं। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ !!