Tuesday, 21 January 2025

जो गुज़र गया सो गुज़र गया, उसे याद करके ना दिल दुखा --- .

 जो गुज़र गया सो गुज़र गया, उसे याद करके ना दिल दुखा ---

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किशोरावस्था से ही मेरे जीवन का एक स्वप्न था जो कभी साकार नहीं हुआ। विगत जन्मों में अधिक अच्छे कर्म नहीं किये थे इसलिए इस जन्म में बहुत अधिक संघर्ष और बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पड़ा। लेकिन अब कोई क्षोभ या मलाल नहीं है।
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"वो नही मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
उसे याद करके ना दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
मुझे पतझड़ों की कहानियाँ, न सुना सुना के उदास कर
तू खिज़ाँ का फूल है, मुस्कुरा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया" (बद्र)
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वो स्वप्न साकार नहीं हुआ तो क्या हुआ? दूसरा स्वप्न दिखाई दे गया। दूसरा स्वप्न तो अकल्पनीय और बहुत अधिक भव्य था। अब तीसरा स्वप्न देख रहा हूँ जो बहुत अधिक रुक्ष और नीरस भी है, व मधुर भी है।
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मैं तो एक फूल हूँ, मुरझा गया तो मलाल क्यों
तुम तो एक महक हो, जिसे हवाओं में समाना है
मसला गया तो क्या हुआ, मैं तो ख़ुशी में चूर हूँ
कुचला गया तो क्या हुआ, मैं तो चमन का फूल हूँ
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यथार्थतः मैं परमात्मा के उद्यान का एक अप्रतिम पुष्प हूँ, जो अपने स्वामी की विराटता के साथ एक है। जीवन की एक उच्चतम और अति दुर्लभ उपलब्धि अनायास स्वतः ही प्रकट हुई है। सामने परमात्मा की ज्योतिर्मय अनंतता है। उससे भी परे स्वयं सच्चिदानंद भगवान परमशिव हैं। जब उपास्य पुरुषोत्तम/वासुदेव/परमशिव अपनी भव्यतम अभिव्यक्ति में स्वयं समक्ष हों, तब कैसी उदासी और कैसी अप्रसन्नता ?
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"तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग!
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल;
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान;
यही दु:ख सुख विकास का सत्य यही 'भूमा' का मधुमय दान। (प्रसाद)
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वास्तव में 'भूमा' का आंशिक बोध ही अब तक के इस जीवन की उच्चतम उपलब्धि है। 'भूमा' के साथ अभेद ही इस जीवन की पूर्णता होगी। मेरी व्यथा का कारण भी 'भूमा' के साथ अभी तक पूरी तरह एक न हो पाना ही है। 'भूमा' से कम कुछ भी मुझे सुखी नहीं कर सकता।
ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार ने अपने प्रिय शिष्य नारद को 'भूमा' का साक्षात्कार करा कर ही देवर्षि बना दिया था।
श्रुति भगवती कहती है --
"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥" (छान्दोग्योपनिषद्‌ ७/२३/१)
अर्थात - ‘जो भूमा (महान् निरतिशय) है, वही सुख है, अल्प में सुख नहीं है। भूमा ही सुख है और भूमा को ही विशेष रूप से जानने की चेष्टा करनी चाहिये।
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‘अल्प’ और ‘भूमा’ क्या है, इसको बतलाती हुई श्रुति फिर कहती है --
"यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमाऽथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पं यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मर्त्यम्॥" (छान्दोग्योपनिषद्‌ ७/२३/२)
अर्थात -- ‘जहाँ अन्य को नहीं देखता, अन्य को नहीं सुनता, अन्य को नहीं जानता, वह भूमा है और जहाँ अन्य को देखता है, अन्य को सुनता है, अन्य को जानता है, वह अल्प है। जो भूमा है, वही अमृत है और जो अल्प है, वह मरणशील (नश्वर) है।’
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यह ब्रह्मज्ञान है जिसे पाना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। यही आत्म-साक्षात्कार है, यही परमात्मा की प्राप्ति है। इसे पाकर ही हम कह सकते है --
शिवोहं शिवोहं !! अहं ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ !!
मैं शिव हूँ, ये नश्वर भौतिक, सूक्ष्म, और कारण शरीर नहीं। मैं यह अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) भी नहीं हूँ। न ही मैं ये इंद्रियाँ और उनकी तन्मात्राएँ हूँ॥
मैं अनंत, विराट, असीम, पूर्णत्व, और परमशिव हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जनवरी २०२३

आध्यात्मिक चुंबकीय पर्वत --- .

 आध्यात्मिक चुंबकीय पर्वत ---

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एक पर्वत है जहाँ जाने के लिए चढ़ाईदार एक पक्की सड़क है। जहाँ से चढ़ाई आरंभ होती है, वहाँ उस बिन्दु पर अपनी मोटर गाड़ी का इंजन बंद कर गाड़ी को न्यूट्रल में डाल दो। उस पर्वत शिखर का चुंबकीय आकर्षण इतना प्रबल है कि गाड़ी अपने आप ही शिखर तक पहुँच जायेगी। यह सत्य है, भौतिक जगत में भी; और आध्यात्मिक जगत में भी।
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आध्यात्मिक जगत में -- वह स्थान आपका कूटस्थ है। भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करते करते एक ज्योति के दर्शन होते हैं। एक बार दर्शन होने के पश्चात उसका नाश नहीं होता। वह ज्योति ही कूटस्थ है, जिसका ध्यान करते करते परमात्मा की चेतना स्वयमेव ही जागृत हो जाएगी। शर्त केवल एक ही है कि हमारा आचरण सत्यनिष्ठ हो।
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पुनश्च :--- भ्रूमध्य पर ध्यान केंद्रित कर वहाँ अपने इष्ट देव का ध्यान और मंत्रजप पूरी सत्यनिष्ठा से नित्य कम से कम दो घंटे तक करें। तीन महीने में ही आप स्वयं को पूरी तरह बदला हुआ और आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत अधिक उन्नत पाओगे।

अयोध्या में रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा को झुंझुनूं में आनंदोत्सव के रूप में मनाया गया ---

 आज के जैसा महोत्सव मैंने अपने पूरे जीवन में कभी नहीं देखा। मेरी आयु ७७ वर्ष है। पूरा विश्व ही आज राममय हो गया था। मेरा जीवन धन्य हुआ जो मैं यह दिन देख सका। पिछले पाँच सौ वर्षों के अंतराल के पश्चात यह सुयोग मिला। मैं राजस्थान के एक बहुत छोटे से नगर झुंझुनूं में रहता हूँ, आज यह पूरा नगर ही राममय हो गया था। छोटे-बड़े हरेक मंदिर में सफाई, रोशनी, सजावट, भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ और अनेक स्थानों पर भंडारे हुए। जरूरतमंद लोगों को कंबलें, जूते और वस्त्र बाँटे गए, बच्चों से धर्मज्ञान विषयक प्रश्नोत्तरियाँ हुईं, स्कूलों के बालकों ने अपने बैंड बाजे बजाते हुए जुलूस निकाले। हरेक के चेहरे पर प्रसन्नता थी। संत-महात्माओं ने अपने आश्रमों में धार्मिक कार्यक्रम किये। अनेक स्थानों पर अखंड रामचरितमानस का पाठ हुआ। पिछले पाँच सौ वर्षों से इसी दिन की प्रतीक्षा थी। इसे ही रामकृपा कहते हैं।

जय जय श्रीसीताराम !! श्री रामचंद्रचरणो शरणम् प्रपद्ये !! श्रीमते रामचंद्राय नमः !!
सर्वेश्वरश्रीरघुनाथोविजयतेतराम !! रां रामाय नमः !!
कृपा शंकर
२२ जनवरी २०२४
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पुनश्च: ---- अयोध्या में रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा को झुंझुनूं में आनंदोत्सव के रूप में मनाया गया. इस मौके पर सेठ मोतीलाल स्टेडियम में एक लाख 11 हजार 111 दीपकों को शाम को एक साथ प्रज्ज्वलित कर दिवाली जैसा माहौल बनाया गया.



भक्तिमय होकर ध्यान-साधना तो हमें करनी ही पड़ेगी। ईश्वर की प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है --- .

 भक्तिमय होकर ध्यान-साधना तो हमें करनी ही पड़ेगी। ईश्वर की प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है ---

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ईश्वर हमें सदा निःस्पृह, वीतराग, और स्थितप्रज्ञ महात्माओं का सत्संग प्रदान करें। ध्यान साधना से ही हम निःस्पृह, वीतराग, और स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। यही ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग है। हम निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम, आत्मवान् और निस्त्रैगुण्य बनें। हम इतने अधिक प्रेममय हो जायें कि अनात्म विषयों से हमारा अनुराग ही समाप्त हो जाये। जब राग ही नहीं रहेगा तो द्वेष भी नहीं रहेगा। अपनी बुद्धि को परमात्मा में लगा कर हम व्यर्थ के शब्दों की ओर ध्यान ही न दें।
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जैसे एक रोगी के लिए कुपथ्य होता है, वैसे ही एक आध्यात्मिक साधक के लिए अनात्म विषय होते हैं। ईश्वर से दूरी ही दुःख है, और ईश्वर से समीपता सुख है।
हमारे शास्त्रों में तीन प्रकार के दुःख माने गए हैं --
आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आघिदैविक।
(१) आध्यात्मिक दुःख के अंतर्गत तरह तरह के रोग व्याधियाँ आदि शारीरिक, और क्रोध लोभ आदि मानसिक दुःख आते हैं।
(२) आधिभौतिक दुःख वह है जो पशु,पक्षी साँप, मच्छर, विषाणुओं आदि के द्वारा पहुँचता है।
(३) आधिदैविक दुःख वह है जो देवताओं अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों के कारण पहुँचता है, जेसे -- आँधी, वर्षा, वज्रपात, शीत, ताप इत्यादि।
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अंत में रामचरितमानस को ही उद्धृत करूंगा कि --
"नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥"
अर्थात् -- जगत्‌ में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है, तथा संतों के मिलने के समान सुख नहीं है।
ईश्वर हमें सदा निःस्पृह वीतराग स्थितप्रज्ञ महात्माओं का सत्संग प्रदान करें। फिर तो हम ईश्वर के साथ ही सत्संग करे, और ईश्वर यानि निजात्मा में ही रमण करें।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जनवरी २०२५