जो गुज़र गया सो गुज़र गया, उसे याद करके ना दिल दुखा ---
.
किशोरावस्था से ही मेरे जीवन का एक स्वप्न था जो कभी साकार नहीं हुआ। विगत जन्मों में अधिक अच्छे कर्म नहीं किये थे इसलिए इस जन्म में बहुत अधिक संघर्ष और बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पड़ा। लेकिन अब कोई क्षोभ या मलाल नहीं है।
.
"वो नही मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
मुझे पतझड़ों की कहानियाँ, न सुना सुना के उदास कर
तू खिज़ाँ का फूल है, मुस्कुरा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया" (बद्र)
.
वो स्वप्न साकार नहीं हुआ तो क्या हुआ? दूसरा स्वप्न दिखाई दे गया। दूसरा स्वप्न तो अकल्पनीय और बहुत अधिक भव्य था। अब तीसरा स्वप्न देख रहा हूँ जो बहुत अधिक रुक्ष और नीरस भी है, व मधुर भी है।
.
मैं तो एक फूल हूँ, मुरझा गया तो मलाल क्यों
तुम तो एक महक हो, जिसे हवाओं में समाना है
मसला गया तो क्या हुआ, मैं तो ख़ुशी में चूर हूँ
कुचला गया तो क्या हुआ, मैं तो चमन का फूल हूँ
.
यथार्थतः मैं परमात्मा के उद्यान का एक अप्रतिम पुष्प हूँ, जो अपने स्वामी की विराटता के साथ एक है। जीवन की एक उच्चतम और अति दुर्लभ उपलब्धि अनायास स्वतः ही प्रकट हुई है। सामने परमात्मा की ज्योतिर्मय अनंतता है। उससे भी परे स्वयं सच्चिदानंद भगवान परमशिव हैं। जब उपास्य पुरुषोत्तम/वासुदेव/परमशिव अपनी भव्यतम अभिव्यक्ति में स्वयं समक्ष हों, तब कैसी उदासी और कैसी अप्रसन्नता ?
.
"तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग!
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल;
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान;
यही दु:ख सुख विकास का सत्य यही 'भूमा' का मधुमय दान। (प्रसाद)
.
वास्तव में 'भूमा' का आंशिक बोध ही अब तक के इस जीवन की उच्चतम उपलब्धि है। 'भूमा' के साथ अभेद ही इस जीवन की पूर्णता होगी। मेरी व्यथा का कारण भी 'भूमा' के साथ अभी तक पूरी तरह एक न हो पाना ही है। 'भूमा' से कम कुछ भी मुझे सुखी नहीं कर सकता।
ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार ने अपने प्रिय शिष्य नारद को 'भूमा' का साक्षात्कार करा कर ही देवर्षि बना दिया था।
श्रुति भगवती कहती है --
"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥" (छान्दोग्योपनिषद् ७/२३/१)
अर्थात - ‘जो भूमा (महान् निरतिशय) है, वही सुख है, अल्प में सुख नहीं है। भूमा ही सुख है और भूमा को ही विशेष रूप से जानने की चेष्टा करनी चाहिये।
.
‘अल्प’ और ‘भूमा’ क्या है, इसको बतलाती हुई श्रुति फिर कहती है --
"यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमाऽथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पं यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मर्त्यम्॥" (छान्दोग्योपनिषद् ७/२३/२)
अर्थात -- ‘जहाँ अन्य को नहीं देखता, अन्य को नहीं सुनता, अन्य को नहीं जानता, वह भूमा है और जहाँ अन्य को देखता है, अन्य को सुनता है, अन्य को जानता है, वह अल्प है। जो भूमा है, वही अमृत है और जो अल्प है, वह मरणशील (नश्वर) है।’
.
यह ब्रह्मज्ञान है जिसे पाना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। यही आत्म-साक्षात्कार है, यही परमात्मा की प्राप्ति है। इसे पाकर ही हम कह सकते है --
शिवोहं शिवोहं !! अहं ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ !!
मैं शिव हूँ, ये नश्वर भौतिक, सूक्ष्म, और कारण शरीर नहीं। मैं यह अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) भी नहीं हूँ। न ही मैं ये इंद्रियाँ और उनकी तन्मात्राएँ हूँ॥
मैं अनंत, विराट, असीम, पूर्णत्व, और परमशिव हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जनवरी २०२३
No comments:
Post a Comment