Tuesday, 21 January 2025

भक्तिमय होकर ध्यान-साधना तो हमें करनी ही पड़ेगी। ईश्वर की प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है --- .

 भक्तिमय होकर ध्यान-साधना तो हमें करनी ही पड़ेगी। ईश्वर की प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है ---

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ईश्वर हमें सदा निःस्पृह, वीतराग, और स्थितप्रज्ञ महात्माओं का सत्संग प्रदान करें। ध्यान साधना से ही हम निःस्पृह, वीतराग, और स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। यही ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग है। हम निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम, आत्मवान् और निस्त्रैगुण्य बनें। हम इतने अधिक प्रेममय हो जायें कि अनात्म विषयों से हमारा अनुराग ही समाप्त हो जाये। जब राग ही नहीं रहेगा तो द्वेष भी नहीं रहेगा। अपनी बुद्धि को परमात्मा में लगा कर हम व्यर्थ के शब्दों की ओर ध्यान ही न दें।
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जैसे एक रोगी के लिए कुपथ्य होता है, वैसे ही एक आध्यात्मिक साधक के लिए अनात्म विषय होते हैं। ईश्वर से दूरी ही दुःख है, और ईश्वर से समीपता सुख है।
हमारे शास्त्रों में तीन प्रकार के दुःख माने गए हैं --
आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आघिदैविक।
(१) आध्यात्मिक दुःख के अंतर्गत तरह तरह के रोग व्याधियाँ आदि शारीरिक, और क्रोध लोभ आदि मानसिक दुःख आते हैं।
(२) आधिभौतिक दुःख वह है जो पशु,पक्षी साँप, मच्छर, विषाणुओं आदि के द्वारा पहुँचता है।
(३) आधिदैविक दुःख वह है जो देवताओं अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों के कारण पहुँचता है, जेसे -- आँधी, वर्षा, वज्रपात, शीत, ताप इत्यादि।
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अंत में रामचरितमानस को ही उद्धृत करूंगा कि --
"नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥"
अर्थात् -- जगत्‌ में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है, तथा संतों के मिलने के समान सुख नहीं है।
ईश्वर हमें सदा निःस्पृह वीतराग स्थितप्रज्ञ महात्माओं का सत्संग प्रदान करें। फिर तो हम ईश्वर के साथ ही सत्संग करे, और ईश्वर यानि निजात्मा में ही रमण करें।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जनवरी २०२५

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