Sunday, 7 October 2018

हमारा स्वधर्म क्या है ? .....

हमारा स्वधर्म क्या है ? .....
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गीता में भगवान कहते हैं ....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः"||३:३५||
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वधर्म और परधर्म क्या है? यहाँ मैं कम से कम शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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जिसके कारण किसी भी विषय का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उसका धर्म है| एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की भिन्नता उनके विचारों, गुणों, वासनाओं और स्वभाव पर निर्भर है| इन गुणों, वासनाओं और स्वभाव को ही हम स्वधर्म कह सकते हैं|
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हमें स्वयं की वासनाओं, गुणों और स्वभाव के अनुसार कार्य करने से संतुष्टि मिलती है, और दूसरों के स्वभाव, गुणों और वासनाओं की नक़ल करने से असंतोष और पीड़ा की अनुभूति होती है| अतः स्वयं के स्वभाव और वासनाओं के अनुसार कार्य करना हमारा स्वधर्म है, अन्यथा जो है वह परधर्म है| इसका किसी बाहरी मत-मतान्तर, पंथ या मज़हब से कोई सम्बन्ध नहीं है|
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गीता में अर्जुन के स्वभाव के अनुसार भगवान ने उसे युद्ध करने का उपदेश दिया था| अर्जुन चूँकि ब्राह्मण वेश में भी रहा था अतः उसे ब्राह्मणों का धर्म याद आ गया होगा, तभी उसने एकांत में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की इच्छा व्यक्त की थी जो ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं| भगवान ने उसे उपदेश दिया कि स्वधर्म में कुछ कमी रहने पर भी स्वधर्म का पालन ही उसके लिए श्रेयष्कर है|
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देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है| यह देह जिससे मेरी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| उसे भूख प्यास, सर्दी गर्मी आदि भी लगती है, यह और ज़रा, मृत्यु आदि उसका धर्म है|
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आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति है, अन्य कुछ भी नहीं| परमात्मा के प्रति आकर्षण और प्रेम, आत्मा का धर्म है|
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पर जब हमने यह देह धारण की है और समाज व राष्ट्र में रह रहे हैं, तो हमारा समाज और राष्ट्र के प्रति भी कुछ दायित्व बन जाता है जिसको निभाना भी हमारा धर्म है|
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जब जीवन में परमात्मा की कृपा होती है तब सारे गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं| उनके लिए किसी पृथक प्रयास की आवश्यकता नहीं है| परमात्मा के प्रति प्रेम ही सबसे बड़ा गुण है जो सब गुणों की खान है|
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अपना ईश्वर प्रदत्त कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करो| जहाँ विवेक कार्य नहीं करता वहाँ श्रुतियाँ प्रमाण हैं| भगवान एक गुरु के रूप में मार्गदर्शन करते हैं पर अंततः गुरु एक तत्व बन जाता है| उसे किसी नाम रूप में नहीं बाँध सकते|
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जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मेरी जाति, सम्प्रदाय व धर्म वही है जो परमात्मा का है| मेरा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से ही है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे हैं| सार की बात यह है कि मुझे सब चिंताओं को त्याग कर निरंतर परमात्मा का ही चिंतन करना चाहिए| मेरे साथ क्या होगा और क्या नहीं होगा यह परमात्मा की चिंता है, मेरी नहीं| यही मेरा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म|
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परमात्मा में मेरी वृत्ति स्थिर हो तभी मेरा जीवन कृतार्थ होगा| बाहर की बुराइयाँ देखने से पूर्व मुझे स्वयं की बुराइयाँ दूर करनी चाहिए|
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सबको सप्रेम साभार धन्यवाद, अभिनन्दन और नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०१८

उपासना .....

उपासना .....
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उपासना का अर्थ मेरे लिए परमात्मा के समीप बैठना यानि एकात्मता है| साकार और निराकार के बारे में कोई भ्रम मुझे नहीं है| घनीभूत ऊर्जा ही साकारता है अन्यथा निराकारता| जैसे जम गया तो बर्फ अन्यथा पानी| उपासना और उपवास दोनों का अर्थ एक ही है| परमात्मा भी एक विचार ही है जो पूर्ण सत्यता है|
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मौन निर्विचार होना उपासना का प्रथम अंग है| मौन निर्विचार होना कोई बेहोशी नहीं अपितु एक ही विचार के साथ पूर्ण सचेतन एकात्मता है| हम स्वयं ही वह विचार बन जाएँ, अन्य कोई विचार न आये, यही निर्विचारता है| इसका अभ्यास करना ही साधना है|
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जो नित्य है वह आत्म है, और जो अनित्य है वह है अनात्म| आत्म तत्व के साथ एकात्मता और अनात्म का अदर्शन निर्गुणोपासना है| मेरा अनुभव तो यही है कि सृष्टि में कुछ भी निर्गुण नहीं है| जो कुछ भी सृष्ट हुआ है वह सगुण है| जो नित्य है वह भी किसी न किसी रूप में सगुण ही है| हम कुछ कल्पना करते हैं, वह हमारी सृष्टि है जो सगुण है| सृष्टि से पूर्व यानी विचार आने से पूर्व जो था वह ही निर्गुण है| निर्गुण की कल्पना मेरी अल्प सीमित बुद्धि से परे है|
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सगुण का ध्यान करते करते यदि हम समाधिस्थ यानि समत्व में अधिष्ठित हो जाएँ तो इसे भी मैं निर्गुणोपासना ही कहूँगा, क्योंकि हम उस एक विचार के साथ एक हैं| यहाँ मेरी अनुभूति यानी जो मैं अनुभूत कर रहा हूँ वह ही मेरे लिए सत्य है|
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कई जन्मों के पुण्य फलों से परमात्मा को पाने की अभीप्सा का जन्म होता है| ह्रदय में उस तड़प का, उस प्यास का जन्म हुआ है यही हमारा सौभाग्य और परमात्मा की परम कृपा है| सगुण और निर्गुण के भाव से ऊपर उठकर परमात्मा का जो भी स्वरुप हमारे ह्रदय में आये उस के साथ निर्विकल्प यानि एकात्म हो जाना ही उपासना है|
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जो कुछ भी मैनें लिखा है वह मेरा अनुभव और मेरा विचार है| यहाँ मैं स्वयं के भावों को व्यक्त कर रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है कि कोई इस से सहमत हो| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०१८

पाप और पुण्य से परे की स्थिति ही सदा अभीष्ट हो .....

पाप और पुण्य से परे की स्थिति ही सदा अभीष्ट हो .....
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सारे पाप और पुण्यों से परे की भी कोई न कोई स्थिति तो अवश्य होती ही होगी क्योंकि स्वयं भगवान ने ऐसा कहा है .....
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्| अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्||८:२८||
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स्वयं के प्रयासों से तो कुछ नहीं हो सकता| हमारे पास उन्हें देने के लिए प्रेम के सिवाय तो अन्य कुछ है भी नहीं, वह भी उन्हीं का दिया हुआ है| वे ही अनुग्रह कर के कल्याण करेंगे| स्वयं साक्षात परमात्मा से कम कुछ भी पाने की कामना का कभी जन्म ही न हो|

ॐ तत्सत् !
५ अक्टूवर २०१८

भगवान की भक्ति से क्या मिलेगा? .....

भगवान की भक्ति से क्या मिलेगा?

कुछ भी नहीं मिलेगा, जो कुछ पास में है वह भी छीन लिया जाएगा| सारी विषय-वासनाएँ और कामनाएँ समाप्त हो जायेंगी और हम इस दुनियाँ के भोगों के लायक नहीं रहेंगे| जिन्हें कुछ चाहिए वे भगवान की भक्ति नहीं करें क्योंकि भगवान एक स्वार्थी प्रेमी हैं, वे हमारा शत-प्रतिशत प्रेम चाहते हैं|

हम स्वयं परमात्मा के पुष्प बनें .....

हम स्वयं परमात्मा के पुष्प बनें| बाहर के सौन्दर्य से हम प्रभावित हो जाते हैं, पर उससे भी कई गुणा अधिक सौन्दर्य तो हमारे स्वयं के भीतर है जिसे हम नहीं जानते| ब्रह्ममुहूर्त में मेरुदंड उन्नत रखते हुए पूर्वाभिमुख होकर किसी पवित्र स्थान में एक ऊनी कम्बल के आसन पर बैठिये| दृष्टिपथ भ्रूमध्य में हो और चेतना उत्तरा सुषुम्ना में| अब उस चैतन्य को समस्त ब्रह्मांड में विस्तृत कर दें| यह अनंत विस्तार और परम चैतन्य और कोई नहीं हम स्वयं हैं| पूर्ण प्रेम से अपने इस आत्मरूप का ध्यान कीजिये| वहाँ एक ध्वनि गूँज रही है, उस ध्वनि को गहनतम ध्यान से सुनते रहिये| पूरी सृष्टि सांस ले रही है जिसके प्रति सजग रहें| हमारा यह रूप भगवान का ही रूप है| इसका आनंद लेते रहें| परमात्मा की निरंतर उपस्थिति से हमारे हृदय पुष्प की पंखुड़ियाँ जब खिलेंगी तो उनकी भक्ति रूपी महक सभी के हृदयों में फ़ैल जायेगी| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ अक्तूबर २०१८

मैं मानवतावादी नहीं, समष्टिवादी हूँ .....

मैं मानवतावादी नहीं, समष्टिवादी हूँ| "मानवता" व "इंसानियत" जैसे शब्द विदेशी मूल के हैं, भारतीय नहीं| ऐसे शब्दों का प्रयोग रूसी साहित्यकार मेक्सिम गोर्की द्वारा आरम्भ हुआ और सारे विश्व में फ़ैल गया| तत्कालीन रूसी इतिहास की जानकारी के कारण मैं ऐसे शब्दों से प्रभावित नहीं होता| मैं भीं किसी जमाने में मार्क्सवाद से प्रभावित था, पर वह मेरी भूल थी| जीवन में मुझे तृप्ति और संतुष्टि केवल "वेदांत" दर्शन में ही मिली है|
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किसानों और मजदूरों के नाम पर विश्व के जिन जिन देशों में भी तथाकथित सर्वहारा क्रांति से कुछ समय के लिए साम्यवादी सत्ताएँ आईं, जैसे रूस, चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया, पूर्व सोवियत संघ के देश, अल्बानिया, रोमानिया, बुल्गारिया, हंगरी, पूर्व युगोस्लाविया के देश, पूर्व पूर्वी जर्मनी, यमन, बर्मा, कम्बोडिया व वियतनाम आदि आदि आदि में, वे अपने पीछे एक विनाशलीला छोड़ गईं| इन सब तथाकथित क्रांतियों के पीछे छल-कपट और असत्य था| इन तथाकथित क्रांति के नेताओं के जीवन में कुछ भी अनुकरणीय नहीं था| मार्क्सवाद और समाजवाद एक विफल सिद्धांत है जो कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता|

चिंता और भय से मुक्त होने के लिए अपनी पीड़ा किसे कहें ? ....

चिंता और भय से मुक्त होने के लिए अपनी पीड़ा किसे कहें ? .....
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मेरा विचार है कि हम अपनी पीड़ा भगवान को अकेले में कह कर उन्हें ही समर्पित कर दें| दुनिया के आगे रोने से कोई लाभ नहीं है| लोग हमारे सामने तो सहानुभूति दिखाएँगे पर पीठ पीछे हंसी और उपहास उड़ा कर मजा ही लेंगे| परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास रखें व सदा उनसे आतंरिक सत्संग करते रहें| संसार में किसी से भी मिलना तो एक नदी-नाव संयोग मात्र है, और कुछ नहीं| सिर्फ परमात्मा का साथ ही शाश्वत है|
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चिंता और भय दोनों ही मानसिक क्षय रोग हैं जो जीवित ही हमें नरकाग्नि और मृत्युमुख में धकेल देते हैं| ऐसे लोगों से दूर रहे जिन्हें भय और चिंता की आदत है, क्योंकि यह एक संक्रामक मानसिक बीमारी है| सकारात्मक और आध्यात्मिक लोगों का साथ करें, सद्साहित्य का अध्ययन करें, परमात्मा से प्रेम करें और उनका खूब ध्यान करें| हरेक व्यक्ति का अपना अपना प्रारब्ध होता है जिसे भुगतना ही पड़ता है, अतः जो होनी है सो तो होगी ही, उसके बारे में चिंता कर के अकाल मृत्यु को क्यों प्राप्त हों?
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भगवान श्रीराम और हनुमान जी की उपासना हमें भयमुक्त करती है| भक्ति और सेवा में हनुमान जी से बड़ा अन्य कोई दूसरा आदर्श नहीं है| हनुमान जी के उपासकों को तो मैनें कभी भयभीत होते हुए देखा ही नहीं है| भगवान श्रीराम का यह वचन है ....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||" (वा रा ६/१८/३३)
अर्थात् जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है
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गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ....
"अनान्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ|
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महाभारत के शांति पर्व में लिखा है ....
एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः| दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय|| (महाभारत, शान्तिपर्व ४७/९२)
अर्थात् ‘भगवान्‌ श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देनेवाला होता है| इसके सिवाय प्रणाममें एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करनेवालेका तो पुनः संसारमें जन्म होता है, पर श्रीकृष्को प्रणाम करनेवाला अर्थात्‌ उनकी शरणमें जानेवाला फिर संसार-बन्धनमें नहीं आता|'
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हमें हर प्रकार के बंधनों, मत-मतान्तरों, यहाँ तक की धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना ही पड़ेगा| परमात्मा सब प्रकार के बंधनों से परे है| चूँकि हमारा लक्ष्य परमात्मा है तो हमें भी उसी की तरह स्वयं को मुक्त करना होगा, और साधना द्वारा अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित होना होगा| दुखी व्यक्ति को सब ठगने का प्रयास करते हैं| धर्म के नाम पर बहुत अधिक ठगी हो रही है| स्वयं को परमात्मा से जोड़ें, न कि इस नश्वर देह से| समष्टि के कल्याण की ही प्रार्थना करें| समष्टि के कल्याण में ही स्वयं का कल्याण है| बीता हुआ समय स्वप्न है जिसे सोचकर ग्लानि ग्रस्त नहीं होना चाहिए|
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भगवान की कृपा सब भवरोगों का नाश करती है| अतः उन्हीं का आश्रय लें| वे निश्चित ही रक्षा करेंगे| प्रभु भक्ति के द्वारा ही हम भय और चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं| अन्य कोई मार्ग नहीं है| हम परमात्मा के अंश हैं अतः स्वयं का सम्मान करें| पमात्मा ने हमें विवेक दिया है अतः उसका उपयोग भी करें| शरणागति और समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई गति नहीं है| भगवान हम सब की रक्षा करें|
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हमे अपने जीवन के महत्वपूर्ण रहस्यों को जहाँ तक संभव हो सके, गोपनीय रखना चाहिए| पता नहीं जीवन के किस मोड़ पर, कौन व्यक्ति कब मित्र से शत्रु बन जाये अथवा ऐसे लोगों से जा मिले जो हमारे विरोधी हों| अतः अपनी पीड़ा भगवान से ही कहें ताकि कोई चिंता और भय न रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ अक्तूबर २०१८