हमारा स्वधर्म क्या है ? .....
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गीता में भगवान कहते हैं ....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः"||३:३५||
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वधर्म और परधर्म क्या है? यहाँ मैं कम से कम शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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जिसके कारण किसी भी विषय का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उसका धर्म है| एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की भिन्नता उनके विचारों, गुणों, वासनाओं और स्वभाव पर निर्भर है| इन गुणों, वासनाओं और स्वभाव को ही हम स्वधर्म कह सकते हैं|
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हमें स्वयं की वासनाओं, गुणों और स्वभाव के अनुसार कार्य करने से संतुष्टि मिलती है, और दूसरों के स्वभाव, गुणों और वासनाओं की नक़ल करने से असंतोष और पीड़ा की अनुभूति होती है| अतः स्वयं के स्वभाव और वासनाओं के अनुसार कार्य करना हमारा स्वधर्म है, अन्यथा जो है वह परधर्म है| इसका किसी बाहरी मत-मतान्तर, पंथ या मज़हब से कोई सम्बन्ध नहीं है|
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गीता में अर्जुन के स्वभाव के अनुसार भगवान ने उसे युद्ध करने का उपदेश दिया था| अर्जुन चूँकि ब्राह्मण वेश में भी रहा था अतः उसे ब्राह्मणों का धर्म याद आ गया होगा, तभी उसने एकांत में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की इच्छा व्यक्त की थी जो ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं| भगवान ने उसे उपदेश दिया कि स्वधर्म में कुछ कमी रहने पर भी स्वधर्म का पालन ही उसके लिए श्रेयष्कर है|
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देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है| यह देह जिससे मेरी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| उसे भूख प्यास, सर्दी गर्मी आदि भी लगती है, यह और ज़रा, मृत्यु आदि उसका धर्म है|
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आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति है, अन्य कुछ भी नहीं| परमात्मा के प्रति आकर्षण और प्रेम, आत्मा का धर्म है|
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पर जब हमने यह देह धारण की है और समाज व राष्ट्र में रह रहे हैं, तो हमारा समाज और राष्ट्र के प्रति भी कुछ दायित्व बन जाता है जिसको निभाना भी हमारा धर्म है|
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जब जीवन में परमात्मा की कृपा होती है तब सारे गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं| उनके लिए किसी पृथक प्रयास की आवश्यकता नहीं है| परमात्मा के प्रति प्रेम ही सबसे बड़ा गुण है जो सब गुणों की खान है|
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अपना ईश्वर प्रदत्त कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करो| जहाँ विवेक कार्य नहीं करता वहाँ श्रुतियाँ प्रमाण हैं| भगवान एक गुरु के रूप में मार्गदर्शन करते हैं पर अंततः गुरु एक तत्व बन जाता है| उसे किसी नाम रूप में नहीं बाँध सकते|
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जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मेरी जाति, सम्प्रदाय व धर्म वही है जो परमात्मा का है| मेरा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से ही है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे हैं| सार की बात यह है कि मुझे सब चिंताओं को त्याग कर निरंतर परमात्मा का ही चिंतन करना चाहिए| मेरे साथ क्या होगा और क्या नहीं होगा यह परमात्मा की चिंता है, मेरी नहीं| यही मेरा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म|
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परमात्मा में मेरी वृत्ति स्थिर हो तभी मेरा जीवन कृतार्थ होगा| बाहर की बुराइयाँ देखने से पूर्व मुझे स्वयं की बुराइयाँ दूर करनी चाहिए|
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सबको सप्रेम साभार धन्यवाद, अभिनन्दन और नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०१८
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गीता में भगवान कहते हैं ....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः"||३:३५||
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वधर्म और परधर्म क्या है? यहाँ मैं कम से कम शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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जिसके कारण किसी भी विषय का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उसका धर्म है| एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की भिन्नता उनके विचारों, गुणों, वासनाओं और स्वभाव पर निर्भर है| इन गुणों, वासनाओं और स्वभाव को ही हम स्वधर्म कह सकते हैं|
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हमें स्वयं की वासनाओं, गुणों और स्वभाव के अनुसार कार्य करने से संतुष्टि मिलती है, और दूसरों के स्वभाव, गुणों और वासनाओं की नक़ल करने से असंतोष और पीड़ा की अनुभूति होती है| अतः स्वयं के स्वभाव और वासनाओं के अनुसार कार्य करना हमारा स्वधर्म है, अन्यथा जो है वह परधर्म है| इसका किसी बाहरी मत-मतान्तर, पंथ या मज़हब से कोई सम्बन्ध नहीं है|
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गीता में अर्जुन के स्वभाव के अनुसार भगवान ने उसे युद्ध करने का उपदेश दिया था| अर्जुन चूँकि ब्राह्मण वेश में भी रहा था अतः उसे ब्राह्मणों का धर्म याद आ गया होगा, तभी उसने एकांत में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की इच्छा व्यक्त की थी जो ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं| भगवान ने उसे उपदेश दिया कि स्वधर्म में कुछ कमी रहने पर भी स्वधर्म का पालन ही उसके लिए श्रेयष्कर है|
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देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है| यह देह जिससे मेरी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| उसे भूख प्यास, सर्दी गर्मी आदि भी लगती है, यह और ज़रा, मृत्यु आदि उसका धर्म है|
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आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति है, अन्य कुछ भी नहीं| परमात्मा के प्रति आकर्षण और प्रेम, आत्मा का धर्म है|
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पर जब हमने यह देह धारण की है और समाज व राष्ट्र में रह रहे हैं, तो हमारा समाज और राष्ट्र के प्रति भी कुछ दायित्व बन जाता है जिसको निभाना भी हमारा धर्म है|
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जब जीवन में परमात्मा की कृपा होती है तब सारे गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं| उनके लिए किसी पृथक प्रयास की आवश्यकता नहीं है| परमात्मा के प्रति प्रेम ही सबसे बड़ा गुण है जो सब गुणों की खान है|
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अपना ईश्वर प्रदत्त कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करो| जहाँ विवेक कार्य नहीं करता वहाँ श्रुतियाँ प्रमाण हैं| भगवान एक गुरु के रूप में मार्गदर्शन करते हैं पर अंततः गुरु एक तत्व बन जाता है| उसे किसी नाम रूप में नहीं बाँध सकते|
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जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मेरी जाति, सम्प्रदाय व धर्म वही है जो परमात्मा का है| मेरा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से ही है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे हैं| सार की बात यह है कि मुझे सब चिंताओं को त्याग कर निरंतर परमात्मा का ही चिंतन करना चाहिए| मेरे साथ क्या होगा और क्या नहीं होगा यह परमात्मा की चिंता है, मेरी नहीं| यही मेरा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म|
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परमात्मा में मेरी वृत्ति स्थिर हो तभी मेरा जीवन कृतार्थ होगा| बाहर की बुराइयाँ देखने से पूर्व मुझे स्वयं की बुराइयाँ दूर करनी चाहिए|
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सबको सप्रेम साभार धन्यवाद, अभिनन्दन और नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०१८