Sunday, 7 October 2018

चिंता और भय से मुक्त होने के लिए अपनी पीड़ा किसे कहें ? ....

चिंता और भय से मुक्त होने के लिए अपनी पीड़ा किसे कहें ? .....
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मेरा विचार है कि हम अपनी पीड़ा भगवान को अकेले में कह कर उन्हें ही समर्पित कर दें| दुनिया के आगे रोने से कोई लाभ नहीं है| लोग हमारे सामने तो सहानुभूति दिखाएँगे पर पीठ पीछे हंसी और उपहास उड़ा कर मजा ही लेंगे| परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास रखें व सदा उनसे आतंरिक सत्संग करते रहें| संसार में किसी से भी मिलना तो एक नदी-नाव संयोग मात्र है, और कुछ नहीं| सिर्फ परमात्मा का साथ ही शाश्वत है|
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चिंता और भय दोनों ही मानसिक क्षय रोग हैं जो जीवित ही हमें नरकाग्नि और मृत्युमुख में धकेल देते हैं| ऐसे लोगों से दूर रहे जिन्हें भय और चिंता की आदत है, क्योंकि यह एक संक्रामक मानसिक बीमारी है| सकारात्मक और आध्यात्मिक लोगों का साथ करें, सद्साहित्य का अध्ययन करें, परमात्मा से प्रेम करें और उनका खूब ध्यान करें| हरेक व्यक्ति का अपना अपना प्रारब्ध होता है जिसे भुगतना ही पड़ता है, अतः जो होनी है सो तो होगी ही, उसके बारे में चिंता कर के अकाल मृत्यु को क्यों प्राप्त हों?
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भगवान श्रीराम और हनुमान जी की उपासना हमें भयमुक्त करती है| भक्ति और सेवा में हनुमान जी से बड़ा अन्य कोई दूसरा आदर्श नहीं है| हनुमान जी के उपासकों को तो मैनें कभी भयभीत होते हुए देखा ही नहीं है| भगवान श्रीराम का यह वचन है ....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||" (वा रा ६/१८/३३)
अर्थात् जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है
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गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ....
"अनान्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ|
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महाभारत के शांति पर्व में लिखा है ....
एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः| दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय|| (महाभारत, शान्तिपर्व ४७/९२)
अर्थात् ‘भगवान्‌ श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देनेवाला होता है| इसके सिवाय प्रणाममें एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करनेवालेका तो पुनः संसारमें जन्म होता है, पर श्रीकृष्को प्रणाम करनेवाला अर्थात्‌ उनकी शरणमें जानेवाला फिर संसार-बन्धनमें नहीं आता|'
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हमें हर प्रकार के बंधनों, मत-मतान्तरों, यहाँ तक की धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना ही पड़ेगा| परमात्मा सब प्रकार के बंधनों से परे है| चूँकि हमारा लक्ष्य परमात्मा है तो हमें भी उसी की तरह स्वयं को मुक्त करना होगा, और साधना द्वारा अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित होना होगा| दुखी व्यक्ति को सब ठगने का प्रयास करते हैं| धर्म के नाम पर बहुत अधिक ठगी हो रही है| स्वयं को परमात्मा से जोड़ें, न कि इस नश्वर देह से| समष्टि के कल्याण की ही प्रार्थना करें| समष्टि के कल्याण में ही स्वयं का कल्याण है| बीता हुआ समय स्वप्न है जिसे सोचकर ग्लानि ग्रस्त नहीं होना चाहिए|
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भगवान की कृपा सब भवरोगों का नाश करती है| अतः उन्हीं का आश्रय लें| वे निश्चित ही रक्षा करेंगे| प्रभु भक्ति के द्वारा ही हम भय और चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं| अन्य कोई मार्ग नहीं है| हम परमात्मा के अंश हैं अतः स्वयं का सम्मान करें| पमात्मा ने हमें विवेक दिया है अतः उसका उपयोग भी करें| शरणागति और समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई गति नहीं है| भगवान हम सब की रक्षा करें|
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हमे अपने जीवन के महत्वपूर्ण रहस्यों को जहाँ तक संभव हो सके, गोपनीय रखना चाहिए| पता नहीं जीवन के किस मोड़ पर, कौन व्यक्ति कब मित्र से शत्रु बन जाये अथवा ऐसे लोगों से जा मिले जो हमारे विरोधी हों| अतः अपनी पीड़ा भगवान से ही कहें ताकि कोई चिंता और भय न रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ अक्तूबर २०१८

1 comment:

  1. "आवत देखि सक्ति अति घोरा | प्रनतारति भंजन पन मोरा ||
    तुरत बिभीषन पाछें मेला | सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ||"

    अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली ||
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    "सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ||"

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