Wednesday 14 November 2018

ह्रदय में सच्चा प्रेम होने पर कोई नियम बाधक नहीं होता .....

ह्रदय में सच्चा प्रेम होने पर कोई नियम बाधक नहीं होता .....
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जब भी किसी को भगवान को पाने की अभीप्सा होती है तब भगवान निश्चित रूप से किसी न किसी माध्यम से उस का मार्गदर्शन और सहायता करते हैं| कोई आवश्यक नहीं है कि प्रत्यक्ष रूप से किसी देहधारी महात्मा के माध्यम से ही कोई साधक मार्गदर्शन प्राप्त करे, सूक्ष्म जगत के किसी देवता, महात्मा या गहन प्रेरणा द्वारा भी भगवान मार्गदर्शन कर सकते हैं| कुछ बातें मुझे लिखने की अनुमति नहीं है, पर सूक्ष्म जगत की आत्माओं द्वारा भगवान की प्रेरणा से साधकों को सहायता व मार्गदर्शन मिलता है, इसकी मुझे अनुभूतियाँ हैं| योगमार्ग के आचार्यों ने कूटस्थ को गुरु माना है जो साक्षात नारायण है| गुरु परम्पराओं का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ पर सबसे बड़े गुरु तो भगवान स्वयं हैं| वे किसी भी परम्परा से परे हैं|
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सच्चे गुरु दुर्लभ नहीं हैं पर वे किसी को भी उसकी पात्रता होने पर ही मिलते हैं| प्रकृति के अपने मापदंड हैं, अपने नियम हैं| सृष्टि अपने नियमों से चलती है पर भगवान सब नियमों से परे हैं, उन्हें हम किसी नियम में नहीं बाँध सकते| ह्रदय में सच्चा प्रेम होने पर कोई नियम बाधक नहीं होता|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवम्बर २०१८

वासुदेवः सर्वम् इति .....

वासुदेवः सर्वम् इति .....
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सभी संत-महात्माओं की बात सादर स्वीकार्य है पर भगवान श्रीकृष्ण ने जो कह दिया वह अंतिम प्रमाण है| उससे आगे और कहीं कोई कुछ भी स्वीकार्य नहीं है|
श्रीभगवान कहते हैं .....
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||
अर्थात ..... बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है|
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गुरुकृपा से अब यह कुछ कुछ समझ में आ रहा है| पिछले ३९ वर्षों से मुझे लगातार यही "वासुदेवः सर्वम् इति" का एक ही पाठ पढ़ाया जा रहा है जिसे समझने में बुद्धि अब कुछ कुछ समर्थ हुई है|
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हीन भावना व अपराध बोध से मुक्ति भी गीता के ज्ञान से मिल जाती है| संसार सागर से तरने का उपाय भी गीता में ही मिल जाता है| सब तरह के भय, कायरता और बुराइयों से मुक्ति का उपाय भी गीता से मिल जाता है| गीता भारत का प्राण है|
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इस देह के अंत समय में भी चेतना में गीता के भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण ही रहें| और कुछ भी अभिलाषा नहीं है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवम्बर २०१८

बाल दिवस .....

बाल दिवस ..... आज १४ नवम्बर को बाल दिवस है जो जवाहरलाल नेहरु के जन्मदिवस पर मनाया जाता है| पहले मैं सोचता था कि जवाहरलाल नेहरु अपने बचपन में कोई महान बालक रहा होगा, पर वास्तविकता तो कुछ और ही निकली| जवाहरलाल नेहरु के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जो बालकों का आदर्श बने| यह 'नेहरु' शब्द कैसे बना इसके बारे में दो मत हैं|
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(१) कुछ कश्मीरी ब्राह्मण मुग़ल बादशाह अकबर को विष्णु का अवतार मानते थे और अपने व्रत का पारन अकबर का दर्शन करने के बाद ही करते थे| अकबर अपनी ड्योढी में बैठकर उनको दर्शन देता था| इन कश्मीरी ब्राह्मणों ने अकबर के मन में यह भावना बैठा दी कि वह भगवान है| वह इन कश्मीरी ब्राह्मणों से बहुत प्रसन्न था और उन को दर्शनी बिराहमन कहता था पर वे कोई फारसी नाम चाहते थे अतः अकबर ने उनको "निहारू" नाम दिया जिसका अर्थ होता है निहारने वाला| यह निहारू शब्द ही अपभ्रंस होकर नेहरु बन गया|
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(२) दूसरा मत है कि १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की विफलता के पश्चात अंग्रेज़ी फ़ौज मुग़ल खानदान के सभी लोगों को निर्दयता से फांसी दे रही थी| मुग़ल खानदान का पुरुष, स्त्री या बालक कोई भी मिलता, अंग्रेजी फौज उसे उसी समय पास के किसी भी पेड़ पर फांसी लगा देती| दिल्ली के प्रायः हर वृक्ष पर लाशें लटकी हुई थीं| दि्ल्ली का एक मुग़ल कोतवाल घियासुद्दीन गाज़ी ब्राह्मण का वेश बनाकर आगरा की ओर भाग रहा था| रास्ते में अंग्रेजी फौज ने उससे नाम पूछा तो उसने अपना नाम पंडित गंगाधर बताया| वह बच गया और आगरा में किसी नहर के किनारे जा बसा| उसके वंशज 'नहरवा' और फिर 'नेहरू' कहलाये| ये लोग बाद में इलाहाबाद में रहने लगे| ये नेहरु लोग दिखावे के लिए हिन्दू कश्मीरी ब्राह्मण थे पर वास्तव में अन्दर से मुसलमान थे|
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नेहरु के जीवन में ऐसा कुछ भी आदर्श नहीं था जो उसे महान बनाए| वह एक फर्जी पंडित, गोमांसभक्षी, परस्त्रीगामी और अत्यधिक कामुक और लम्पट व्यक्ति था जो सिफलिस नाम की एक गन्दी से गन्दी यौन संक्रमित बीमारी से मरा जो अनेक तरह की अनेक स्त्रियों के साथ सम्भोग के कारण होती है|
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बालदिवस उन महान बालकों के जन्मदिवस पर मनाया जाना चाहिए और उन बालकों को याद करना चाहिये जिन्होने देश या धर्म के लिये कुछ न कुछ अच्छा काम किया हो| हमारे देश में वीर हकीकत राय, गोरा और बादल, तथा 'गुरु गोबिन्द सिहं के सुपुत्रों' जैसे अनेक वीर बालक हुये हैं|

मेरे जीवन की सारी आध्यात्मिक साधनाओं का सार "है" शब्द है ...

मेरे जीवन की सारी आध्यात्मिक साधनाओं का सार "है" शब्द है ...
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भगवान इसी समय, स्थायी रूप से हर समय, यहीं पर और सर्वत्र "है"| भगवान "है"| इस "है" से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, सब कुछ इसी "है" शब्द में है, इस से बाहर कुछ भी नहीं है| यह "है" शब्द कोई सैद्धांतिक कल्पना नहीं, बल्कि मेरे पूरे जीवन की आध्यात्मिक साधना के अनुभवों का निचोड़ है| इस "है" शब्द के साथ प्रणव यानि "ॐ" को और जोड़ लो तो "हं" (मानसिक उच्चारण में "हौं" हो जाता है)| इसी में सारी सृष्टि समाहित है| इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| "स" का अर्थ है "वह"| इन्हीं दो शब्दों से एक शब्द बनता है .... "हंसः" या "सोहं"| यही अजपा-जप है, यही हंस-गायत्री है, यही सारी आध्यात्मिक साधनाओं का सार और आधार है|
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भगवान की प्रेरणा से मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ यदि इसमें कोई अनुचित है या पाप है तो वह मेरी जिम्मेदारी है| अतः निश्चिन्त रहें, आपको कोई पाप-पुण्य या दोष नहीं लगेगा| मैं जिस चेतना में लिख रहा हूँ, उस चेतना में भगवान मेरे साथ हैं, और उन्हीं की कृपा से मैं यह सब लिख पा रहा हूँ| कोई पाप या पुण्य है तो वह परमात्मा का है, किसी अन्य का नहीं|
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हम यह शरीर नहीं हैं| यह शरीर तो इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ मात्र एक वाहन है जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं| यह शरीर एक "मोटर साइकिल" है जो हमें भगवान ने दी है| इस "मोटर साइकिल" के साथ हमारी चेतना जुड़ी हुई है| समय के साथ यह "मोटर साइकिल" तो यहीं रह जायेगी, पर इसके माध्यम से किये हुए सारे अच्छे-बुरे कर्मों का फल हमारी चेतना के साथ ही जुड़ा रहेगा|
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हम यह शरीर नहीं हैं, तो हैं कौन? कर्ता कौन है? हम क्या हैं? समर्पण क्या है? निष्कामता क्या है? :---
एक अनंत ज्योतिर्मय विस्तार है जिसमें सारी सृष्टि समाई हुई है| ये चांद-तारे, ये ग्रह-नक्षत्र और सारी आकाशगंगाएँ उसी ज्योतिर्मय विस्तार में हैं| उस के अतिरिक्त अन्य कोई या कुछ भी नहीं है| यह ज्योतिर्मय विस्तार ही परमात्मा है, और वही हम हैं| हम उस से पृथक नहीं हैं| स्वयं को यह शरीर मानना और इस शरीर की सुविधाओं को जोड़ने के लिए ही दिन-रात लगे रहना ..... सारे पापों का की जड़ है|
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(अभी मुझे इतना ही लिखने की प्रेरणा मिल रही है| यह लेख अधूरा है, जिसे कभी बाद में पूरा करूंगा).
आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ नवम्बर २०१८

प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि .....

प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि .....
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आज से पूरे एक-सौ वर्ष पूर्व ११ नवम्बर १९१८ को प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ, जो २८ जुलाई १९१४ को आरम्भ हुआ था| भारत उस समय पराधीन था| इस युद्ध में ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार मारे गए सभी ७४,१८७ भारतीय सिपाहियों को श्रद्धांजलि| भगवान उन सब को सद्गति दे|
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वे तो बेचारे अपनी आजीविका के लिए ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती हुए थे जिन्हें ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए युद्ध की आग में ईंधन की तरह झोंक दिया गया और वे विदेशी धरती पर ही मारे गए| उनका कोई अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ| जयपुर राज्य के शेखावाटी क्षेत्र (जहाँ मैं रहता हूँ) के ही लगभग ७००० सिपाही इस युद्ध में मारे गए थे|
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इस युद्ध में दस लाख से अधिक भारतीय सेना ने भाग लिया जो ब्रिटेन के आधीन थी| ६२,००० से अधिक सिपाही तो युद्ध के मोर्चे पर ही मारे गए, और ६७,००० से अधिक घायल हुए| ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार कुल ७४,१८७ भारतीय ब्रिटिश सिपाही इस युद्ध में मरे| ये जर्मनी के विरुद्ध पूर्वी अफ्रिका और पश्चिमी यूरोप में मारे गए थे|

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एक बात जो बताई नहीं जाती और छिपाई गयी है वह यह कि प्रथम और द्वितीय दोनों विश्वयुद्धों में सबसे अधिक सैनिक भारत के ही मारे गए थे| भारत चूंकि ब्रिटेन के आधीन था अतः असहाय था इसलिए भारत के सैनिकों को बलि के बकरों यानि युद्ध में चारे के रूप में मरवाया गया था|
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काश ! प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने वाले भारत के उन दस लाख सिपाहियों में समाज और राष्ट्र की चेतना होती और उनकी बंदूकों का मुंह अंग्रेजों की ओर मुड़ गया होता ! द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आज़ाद हिन्द फौज द्वारा यही हुआ और अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागना पडा| दुर्भाग्य से भारत को आज़ाद कराने का श्रेय आज़ाद हिन्द फौज को नहीं मिला और भारत की सत्ता अंग्रेजों के मानस पुत्रों के हाथ ही आ गयी|
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उन सभी दिवंगत सैनिकों को श्रद्धांजलि !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ नवम्बर २०१८

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निम्न डॉ.विवेक आर्य के लेख से लिया गया है :---

प्रथम विश्व युद्ध में आधिकारिक रूप से 1215318 भारतीय सैनिकों ने भाग लिया जिनमें से 101439 मारे गए। 64350 घायल हुए जिनमें से अनेक की मृत्यु बाद में उन्हीं घावों के कारण हुई, 3762 लापता हुए अथवा युद्धबंदी हुए। आपको जानकर अचरज होगा कि युद्ध सम्बंधित अंग्रेजों द्वारा लिखित पुस्तकों में भारतीयों के योगदान चंद शब्दों में अथवा फुटनोट में केवल खानापूर्ति के लिए प्रस्तुत किया गया हैं। यहाँ तक की बीबीसी द्वारा प्रथम विश्व युद्ध पर 12 भागों में बनाई गई 23 घंटे 30 मिनट की डॉक्यूमेंट्री में भारतीयों को एक मिनट से भी कम समय दिया गया। अकेले पंजाब क्षेत्र से उन दिनों 470000 सैनिक लोग अंग्रेज सेना में शामिल हुए जिनमें से 70000 गैर सैनिक थे।
2. अधिकांश भारतीय सैनिक ऐसे विदेशी मोर्चों पर लड़े जहाँ का उन्होंने कभी नाम तक नहीं सुना था। न उनके पास जर्मन फौज के समान आधुनिक हथियार थे। न ही सर्दियों के कपड़े थे। अफ्रीका की गर्मी से लेकर यूरोप की कड़कड़ाती ठण्ड में सैनिकों को लड़ना पड़ा। आवश्यक संसाधनों से विहीन होते हुए भी सिख, गोरखा, बलूच, पंजाबी, कुमायूं, गढ़वाली, पठान,राजपूत, जाट, डोगरा, मराठा और मद्रास रेजिमेंट के अनेक सैनिकों ने अपनी बहादुरी और शौर्य की ऐसी गाथाएं लिखी। जो इतिहास में अपन विशेष महत्व रखती हैं। जिन सैनिकों की युद्ध में वीरगति हुई उन्हें से अनेकों को अंतिम सम्मान तक नहीं मिला। उनकी लाशें या तो युद्धक्षेत्र में ही दबा दी गई अथवा पशुओं का ग्रास बनी।
3. केवल सैनिक ही नहीं भारत देश के बाहर जब इतनी बड़ी सेना लड़ रही हो तो देश के संसाधन जैसे अन्न, गोला-बारूद, राशन, युद्ध सामग्री, कपड़े ,घोड़े से लेकर धन को भी विदेश भेजा गया। 1914 में भारत से युद्ध के नाम पर 100 मिलियन पौंड की राशि भी ब्रिटेन भेजी गई। इसके अतिरिक्त अन्य राशि भी भेजी गई जिसका कुल जोड़ उस काल में 146.2 मिलियन पौण्ड बैठता था। उस काल में भारत में न केवल अकाल पड़ा था, अपितु इन्फ्लुएंजा का भी देशव्यापी प्रकोप था। गरीबी, अशिक्षा से ग्रस्त देश में पहले से ही कठिन परिस्थितियां थी। ऐसे में देश पर युद्ध के नाम पर अतिरिक्त कर भी अंग्रेजों ने लाद दिया था।
4. सन 1914 से 1916 तक सेना में भारतीयों ने प्रवेश अपनी इच्छा से लिया। 1917 से अंग्रेजों ने जोर-जबरदस्ती करना आरम्भ कर दिया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर डायर ने 2 लाख लोगों की सेना में भर्ती का संकल्प लिया। उसके संकल्प के कारण स्थानीय जमींदारों और लम्बरदारों ने प्रजा पर अत्याचार आरम्भ कर दिया। उन परिवारों की सूची बनाई गई जिनके पास एक से अधिक युवा लड़के थे। धन-बल का भर्ती के लिए प्रयोग किया गया। जिन किसानों ने अपने बेटों को देने से मना कर दिया उन पर भारी कर लगा दिया गया। यह कर 300% तक भी गया। अटक और मियांवाली के किसान भाग कर नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस चले गये ताकि भर्ती से बच सके। मुल्तान में खेतिहर किसानों के भर्ती न होने पर खेतों को पानी तक रोक दिया गया। ऐसे अनेक अत्याचार उस काल में किये गए। एक सिपाही को 11 रुपये मासिक, एक तोपची को 14 रुपये और एक घोड़े के साथ 34 रुपये मासिक दिए जाते थे।
5. युद्ध क्षेत्र में बिमारियों की भरमार थी। बड़ी संख्या में सिपाही बीमारी से हताहत हो जाते थे। जत्थे के जत्थे एक ही बीमारी से एकसाथ ग्रस्त हो जाते थे। इनका नाम भी उस बीमारी के नाम से हो जाता था जैसे खसरा जत्था, काली खांसी जत्था, स्कारलेट बुखार जत्था, ट्रेंच बुखार जत्था आदि। अनेक सिपाहियों की मृत्यु तो रात में बर्फ में जम जाने से भी हो जाती थी। अंग्रेज सैनिक जहाँ कुछ दिनों के युद्ध के पश्चात छुट्टी पर चले जाते थे वहीं भारतीय सैनिकों को कभी कोई छुट्टी नहीं मिलती थी। एक तो वे अपने घरों से बहुत दूर थे। दूसरे उन्हें वापिस भारत लाने के लिए समुद्री जहाज उपलब्ध नहीं थे। तीसरे भेदभाव के चलते अंग्रेज उन्हें केवल युद्ध में लगाए रखना चाहता था। युद्धरत सैनिक अपनी मातृभाषा जैसे हिंदी, उर्दू, गुरुमुखी आदि में जो खत अपने परिवार को लिखते थे। वे सभी खत सीधे घर नहीं जाते थे। उनका न केवल अंग्रेज लोग अनुवाद करवाते थे अपितु उनमें से अनेकों को नष्ट कर दिया जाता था। युद्ध की कठिन परिस्थितियों, युद्धनीति, अंग्रेज महिलाओं के विषय में जानकारी, युद्ध क्षेत्र में शत्रु की बमवर्षा से लेकर संसाधनों की घोर कमी, बिमारियों , जर्मन सैनिकों की प्रशंसा , भारतीय सैनिकों का अंग्रेजों के प्रति विरोध आदि के विषय में अगर कोई जानकारी होती तो उसे छुपा लिया जाता था। ऐसे अनेक खत थे जिनमें लिखा था कि शत्रु की गोलीबारी ऐसे होती है, जैसा वर्षा हो रही हो। लाशों के ढेर मक्की की फसल के समान युद्धक्षेत्र में लगे हुए है। अंग्रेज नर्स भारतीय सैनिकों की चिकित्सा सेवा नहीं करती थी। क्यूंकि अंग्रेजों को लगता था कि उनकी जाति श्रेष्ठ है और काले भारतीयों की उनसे कोई तुलना नहीं हैं। उन्हें यह किसी भी प्रकार से स्वीकार नहीं था कि किसी भारतीय सैनिक का किसी गोरी महिला से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध स्थापित हो।
6. अफ्रीका से लौटकर आये महात्मा गाँधी की भूमिका विश्व युद्ध के सम्बन्ध में जानना अत्यंत आवश्यक है। यह सत्य है कि अंग्रेजों ने विश्व युद्ध भारत के सैनिक और संसाधनों के बल पर लड़ा। अगर भारत का साथ अंग्रेजों को न मिलता तो उनकी जर्मन के आगे हार सुनिश्चित थी। ऐसी परिस्थिति में भारत स्वत: ही स्वतंत्र हो जाता। मगर महात्मा गाँधी को अंग्रेजों ने युद्ध में साथ देने के बदले एक वायदा दिया कि बदले में भारतीयों को शासन में भागीदारी दी जाएगी। यह अधिकार कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे कामनवेल्थ देशों को मिले अधिकारों के जैसा होगा। मगर हुआ बिलकुल विपरीत। युद्ध समाप्त होने पर अंग्रेज अपने वायदे को भूल गए। उन्होंने भारतीयों के अधिकार देने के विपरीत उस काल का सबसे विवादित काला कानून रौलेट एक्ट दिया। जिसमें किसी को कभी भी बिना कारण बताये कितने भी समय के लिए राष्ट्रद्रोह के लिए हिरासत में लिया जा सकता था। इस कानून के विरोध में हुई जनसभा पर निरीह भीड़ पर गोलीबारी कर डायर ने 1919 में जलियांवाला कांड को अंजाम दिया था। भारतीयों के घावों पर नमक लगाते हुए नग्रेजों ने इस अत्याचार के लिए उसे सम्मानित किया था। महात्मा गाँधी की असफलताओं की लम्बी सूची में यह यह एक ओर असफलता थी।
इन उदहारणों से यह स्पष्ट होता है कि सोने की चिड़िया कहलाने वाले हमारे देश को अंग्रेजों ने किस प्रकार से खोखला कर दिया। उस काल में अंग्रेजों की नौकरी करने वाले भारतीयों को आर्यसमाज के शीर्घ नेता स्वामी श्रद्धानन्द कहा करते थे कि
" क्या तुम चंद रुपयों के लिए गोरे साहिब को सल्यूट करते हो। क्या तुम्हारा आत्म-स्वाभिमान समाप्त हो चूका है?"
यही प्रश्न अंग्रेजों के हिमायती साम्यवादी से भी है जो इन सत्य तथ्यों को कभी स्वीकार नहीं करते।
[यह लेख संक्षिप्त रूप में दिया गया है। हिंदुस्तान टाइम्स दिनांक 11 नवंबर, दिल्ली, अंग्रेजी संस्करण के आधार पर यह सामग्री लिखी गई है।]