भगवान की प्राप्ति से अधिक सरल अन्य कुछ भी नहीं है| भगवान कहीं दूर नहीं, हमारे हृदय में ही बैठे हुए हैं ---
Sunday, 9 January 2022
अखंड आध्यात्मिक साधना कैसे हो? ---
अखंड आध्यात्मिक साधना कैसे हो? ---
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अखंड आध्यात्मिक साधना (Unbroken Spiritual Meditation) सरल से भी सरल, और संभव से भी अधिक संभव है| इसमें कुछ भी जटिलता नहीं है| एक ही शर्त है कि हृदय में भगवान के प्रति परमप्रेम (Integral and absolute love for the Divine) और सत्यनिष्ठा (sincerity) हो| बस, और कुछ भी नहीं चाहिए| जिन में परमप्रेम और सत्यनिष्ठा नहीं है, उन्हें यह लेख पढ़ने की आवश्यकता नहीं है|
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इसमें आरंभ रात्रि के ध्यान से करना होगा| रात्रि को सोने से पूर्व परमात्मा का गहनतम ध्यान कर के निश्चिंत होकर सोयें, वैसे ही जैसे एक बालक अपनी माँ की गोद में सोता है| सिर के नीचे तकिया नहीं, जगन्माता का वरद हस्त हो| दूसरे दिन का प्रारम्भ परमात्मा के गहनतम ध्यान से करें| पूरे दिन अपना कार्य यथावत् सामान्य ढंग से करें| बस यही भाव रखें कि जो भी काम आप कर रहे हैं, वह काम आप नहीं, बल्कि आपके माध्यम से भगवान स्वयं कर रहे हैं| भगवान को कर्ता बनाओ, स्वयं कर्ता मत बनो| बार बार यही भाव रखें कि आपके हरेक कार्य को भगवान ही करते हैं, आप तो निमित्त मात्र हैं| भगवान ही आपके पैरों से चल रहे हैं, आँखों से देख रहे हैं, हाथों से काम कर रहे हैं, हृदय में धडक रहे हैं| आपके हर काम को भगवान ही कर रहे हैं|
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इस का लाभ यह होगा कि मृत्यु के समय भगवान ही आपको याद करेंगे| आपको उन्हें याद करने की चिंता नहीं करनी होगी| रात्रि में जब आप शयन कर रहे होंगे तब जगन्माता स्वयं जाग कर आप की रक्षा कर रही होगी|
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भगवान श्रीकृष्ण स्वयं भी हमें निमित्त मात्र बनने का आदेश देते हैं ---
"जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||"
अर्थात् इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो| ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं| हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो||
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भगवान ने अर्जुन को "सव्यसाचि" इसलिए कहा क्योंकि अर्जुन को दोनों हाथों से बाण चलाने का अभ्यास था| कूटस्थ हृदय में बिराजमान मेरे गुरु महाराज मुझे इसी समय यह उपदेश दे रहे हैं कि जब हमारी साँसें दोनों नासिकाओं से चल रही हों, उस समय हम भी सव्यसाचि हैं| जिस समय सांसें दोनों नासिकाओं से चल रही हों, वह साधना की सिद्धी का सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है| उस समय कूटस्थ सूर्य-मण्डल में परमपुरुष भगवान श्रीहरिः का ध्यान करते हुये, सुषुम्ना के सब चक्रों में प्रवाहित हो रहे प्राण-प्रवाह के प्रति भी सजग रहो| (आगे की बातें व्यक्तिगत और गोपनीय हैं).
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सब को मेरा हार्दिक नमन !! सब का कल्याण हो !!
कृपा शंकर
१० जनवरी २०२१
इस संसार में हम एक देवता की तरह रहें, नश्वर मनुष्य की तरह नहीं ---
इस संसार में हम एक देवता की तरह रहें, नश्वर मनुष्य की तरह नहीं ---
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हम जहाँ भी जाएँ, वहीं हमारे माध्यम से भगवान भी प्रत्यक्ष रूप से जायेंगे। हमारा अस्तित्व भगवान का अस्तित्व है, हमारा संकल्प भगवान का संकल्प है, और हमारे विचारों के पीछे भगवान की अनंत अथाह शक्ति है। भगवान का निरंतर स्मरण, उनके प्रति परमप्रेम और समर्पण -- यही हमारा स्वधर्म है, और यही सत्य-सनातन-धर्म है। सनातन धर्म कोई विचारधारा नहीं, एक महान परंपरा है, जो सृष्टि के आदि काल से है। जब भी जैसा भी समय मिले, एकांत में भगवान के सर्वाधिक कल्याणकारी, मंगलमय और प्रियतम रूप का खूब लम्बे समय तक गहनतम ध्यान करें। भगवान सर्वव्यापी और अनंत हैं, अतः हम उनकी सर्वव्यापी अनंतता पर ध्यान करें। हम यह नश्वर भौतिक देह नहीं हैं। हम भगवान की सर्वव्यापकता और अनंतता हैं। अपनी चेतना का विस्तार करें, और उसे भगवान की चेतना के साथ संयुक्त कर दें। भगवान स्वयं अनिर्वचनीय, नित्यनवीन, नित्यसजग, और शाश्वत आनंद हैं। आनंद का स्त्रोत प्रेम है। हम स्वयं परमप्रेममय बन जाएँ, व हमारी चेतना सर्वव्यापी और अनंत हो जाए। यह सबसे बड़ा योगदान है जो हम इस सृष्टि के रूपांतरण के लिए कर सकते हैं।
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समष्टि के कल्याण की प्रार्थना, स्वयं के कल्याण की ही प्रार्थना है। सम्पूर्ण समष्टि ही हमारी देह है, यह नश्वर भौतिक देह नहीं। इस भौतिक देह के अनाहत-चक्र और आज्ञा-चक्र के मध्य में विशुद्धि-चक्र के सामने का स्थान एक अति सूक्ष्म चुम्बकीय क्षेत्र है। अपने दोनों हाथ जोड़कर, भ्रूमध्य को दृष्टिपथ में रखते हुए, उस चुम्बकीय क्षेत्र में अपनी हथेलियों का तीव्र घर्षण करने से हमारी अँगुलियों में एक दैवीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। उस दैवीय ऊर्जा को अपनी अँगुलियों में एकत्र कर, अपने दोनों हाथ ऊपर की ओर उठाकर, ॐ का उच्चारण करते हुए सम्पूर्ण ब्रह्मांड में विस्तृत करते हुए छोड़ दें। वह ऊर्जा समष्टि का निश्चित रूप से कल्याण करती है। समष्टि का कल्याण ही हमारा कल्याण है, क्योंकि यह समष्टि ही हमारी वास्तविक देह है।
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अपने विचारों को पवित्र और शुद्ध रखें। हमारे सारे संकल्प शिव-संकल्प हों। किसी के अनिष्ट की कामना न करें। किसी के अनिष्ट की कामना से हमारा स्वयं का ही अनिष्ट होता है। अपनी चेतना को निरंतर आज्ञा-चक्र से ऊपर रखें, और सहस्त्रार के मध्य में रखने की साधना करें। रात्री को सोने से पूर्व भगवान का गहनतम ध्यान कर के सोयें, और दिन का प्रारम्भ भी भगवान के ध्यान से करें। सारे दिन भगवान की स्मृति बनाए रखें। कोई हमारे बारे में क्या कहता है और क्या सोचता है इसकी चिंता न करें, क्योंकि महत्त्व इसी बात का है कि भगवान की दृष्टि में हम क्या हैं। जो उन्नत साधक हैं वे इस भौतिक देह और सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे दहराकाश में परमशिव का ध्यान करें। यह एक अनुभूति है जो गुरु की परम कृपा से ही होती है, किसी को समझाई नहीं जा सकती। इस संसार में हम एक देवता हैं, नश्वर मनुष्य नहीं। हम जहाँ भी हैं, भगवान भी वहीं हैं। हमारा अस्तित्व भगवान का अस्तित्व है। हम भगवान के साथ एक हैं। हमारे साथ भगवान की अनंत अथाह शक्ति है।
"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥" ॐ शांति शांति शांति॥
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत !
कृपा शंकर
९ जनवरी २०२२
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यह पृथ्वी हमें पाकर सनाथ है. जहाँ भी हम हैं, वहीं भगवान हैं. देवता हमें देखकर तृप्त व आनंदित होते हैं. हम भगवान के साथ एक हैं. जहाँ देखो वहीं हमारे ठाकुर जी बिराजमान हैं. कोई अन्य है ही नहीं, मैं भी नहीं. जय हो!
विषयों के भोग में कोई पाप नहीं है, चिंतन और कामना में ही पाप है ---
विषयों के भोग में कोई पाप नहीं है, चिंतन और कामना में ही पाप है ---
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मैं जो लिख रहा हूँ, वह मेरा अनुभूतिजन्य सत्य है, कोई थोथी कल्पना या बुद्धि-विलास नहीं। मैं कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं कर रहा, बल्कि जीवन में जो भी अनुभूत किया है, वही अपनी अति-अति अल्प और अति-अति सीमित क्षमतानुसार लिखने का स्वभाविक प्रयास कर रहा हूँ। कई बार मुझे अपने पूर्व जन्म की स्मृतियाँ भी आ जाती हैं। पूर्व जन्मों के शत्रु और मित्र भी कई बार इस जन्म में मिले हैं, जिन्होंने मेरा खूब अहित और हित किया है। विगत के सारे संस्कारों से मुक्त होकर अब वर्तमान में जीना चाहता हूँ। सारे बंधनों से मुक्त हो कर जीवन के एकमात्र परम सत्य परमात्मा को जीवन में व्यक्त करने की अभीप्सा (एक अतृप्त प्यास और तड़प) है, जो तृप्त हो। जिसे हम अभीप्सा कहते हैं, वह एक स्वभाविक अतृप्त प्यास और तड़प है, कोई कामना नहीं।
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पुनर्जन्म एक सत्य है। इस शरीर की मृत्यु के समय जैसी भावना होती है वैसा ही अगला जन्म होता है। कर्मफलों का मिलना भी एक सत्य है, जिसे कोई नकार नहीं सकता। कर्मफलों को भोगने के लिए ही पुनर्जन्म होता है। कर्मफलों से मुक्त होने की एक विधि है, जो इतनी आसान नहीं है। उसमें समय लगता है। वह किसी कर्मकांड से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उपासना से सम्पन्न होती है।
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यह सबको पता होना चाहिए कि "कर्म" क्या हैं। हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं, जो हमारे खाते में जुड़ते रहते हैं। जो कुछ भी हम सोचते हैं, वे ही हमारे कर्म हैं। यह सृष्टि द्वैत से बनी है| सृष्टि के अस्तित्व के लिए विपरीत गुणों का होना अति आवश्यक है। प्रकाश का अस्तित्व अन्धकार से है और अन्धकार का प्रकाश से। मनुष्य जैसा और जो कुछ भी सोचता है वह ही "कर्म" बनकर उसके खाते में जमा हो जाता है। यह सृष्टि हमारे विचारों से बनी है। हमारे विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर व्यक्त हो रहे हैं। ये ही हमारे कर्मों के फल हैं।
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परमात्मा की सृष्टि में कुछ भी बुरा या अच्छा नहीं है। कामना ही बुरी है| भगवान श्रीकृष्ण के निम्न वचनों का स्वाध्याय कीजिये। --
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२:६२॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।२:६३॥"
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।२:६४॥"
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।२:६५॥"
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।२:६६॥"
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।२:६७॥"
अर्थात् - विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है। वशीभूत अन्तःकरण वाला कर्मयोगी साधक रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होने पर साधक के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है। ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधक की बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है। जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है? अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।
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विषय मिलने पर विषय का प्रयोग आसक्ति को पैदा नहीं करेगा। परन्तु जब हम विषय को मन में सोचते हैं तो उसके प्रति कामना जागृत होगी। यह कामना ही हमारा "बुरा कर्म" है, और निष्काम रहना ही "अच्छा कर्म" है। हम बुराई बाहर देखते हैं, अपने भीतर नहीं। हम विषयों को दोष देते है| पर दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है।
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कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। उनसे ऊपर उठने का एक ही उपाय है, और वह है -- "निरंतर हरिः स्मरण।" सांसारिक कार्य भी करते रहो पर प्रभु को समर्पित होकर। इससे क्या होगा? भगवान कहते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।१८:५८॥"
अर्थात् - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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हम अपनी इस सृष्टि का रूपांतरण भी कर सकते हैं। चारों ओर की सृष्टि जो हमें जैसी भी दिखाई दे रही है वह हम सब के विचारों का ही घनीभूत रूप है। हम सब परमात्मा के अंश हैं, अतः हम जैसी भी कल्पना करते हैं, जैसी भी कामना करते हैं, व जैसे भी विचार रखते हैं, वे ही धीरे धीरे घनीभूत होते हैं, और वैसी ही सृष्टि का निर्माण होने लगता है। किसी के विचार अधिक शक्तिशाली होते हैं, किसी के कम। जिस के विचार अधिक शक्तिशाली होते हैं, वे इस सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में अपना अधिक योगदान देते हैं। हम अपने चारों ओर के घटनाक्रमों, वातावरण और परिस्थितियों से प्रसन्न नहीं हैं और उनका रूपांतरण करना चाहते हैं तो निश्चित रूप से अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने का प्रयास करें। आध्यात्मिक रूप से यह सृष्टि प्रकाश और अन्धकार का खेल है, वैसे ही जैसे सिनेमा के पर्दे पर जो दृश्य दिखाई देते हैं वे प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं। अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान हम उस प्रकाश में वृद्धि द्वारा ही कर सकते हैं।
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इस विषय पर और अधिक लिखना मेरी सीमित और अल्प क्षमता से परे है। स्वयं को व्यक्त करने का यह मेरा स्वभाव है। सभी का मंगल हो।
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
कृपा शंकर
९ जनवरी २०२२
भगवान का सामान ---
मुझ में लाखों कमियाँ, दोष और बुराइयाँ हैं| पापों की एक बहुत मोटी गठरी भी मेरे सिर पर लदी हुई है| लेकिन मुझे इन से कोई शिकायत नहीं हैं, मैं प्रसन्न हूँ, क्योंकि यह भगवान का दिया हुआ सामान है; उनकी अमानत है, जो मुझे उन को बापस भी लौटानी है| मेरे पास और कुछ है भी नहीं, यही सामान मेरे पास है| ये ही मेरे पत्र-पुष्प हैं, खाली हाथ नहीं हूँ|
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अभी इस समय तो भगवान मेरे ही हृदय में छिपे हुए हैं, उनके बाहर आते ही उनका सामान उनको लौटा दूँगा; साथ-साथ स्वयं को भी उन्हीं के हवाले कर दूँगा, क्योंकि उनके सिवाय मेरा भी कोई ठिकाना नहीं है|
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जय हो, प्रभु श्रीहरिः! कब तक छिपोगे? एक न एक दिन तो सामने आना ही पड़ेगा| आपकी जय हो, साथ-साथ आपके सभी प्रेमियों की भी जय हो|
९ जनवरी २०२१
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