Saturday, 3 September 2016

जन्मदिवस पर बधाइयों के लिए धन्यवाद .......

Dear friends, I thank you very much for your unconditional love and good wishes on the 68th birthday of this physical body vehicle or the sailing boat on which I am sailing across the ocean of this life. For me this body is nothing more than a sailing boat. The helmsman is my Guru and the favorable wind is God's grace. I am not this body but an eternal infinite consciousness. My age is only one, and that is infinity. Many many thanks. My best unconditional divine love to you all.
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प्रिय मित्रो, मैं आप के अहैतुकी दिव्य प्रेम और शुभ कामनाओं के लिए आप सब .
का आभारी हूँ| आप सब ने मेरे इस देहरूपी वाहन या नौका के 68वें जन्म दिवस पर शुभ सन्देश भेजे हैं| जिस नौका पर मैं इस भव सागर को पार कर रहा हूँ उसके कर्णधार मेरे गुरू हैं और अनुकूल वायु परमात्मा की कृपा है| मैं यह देह नहीं अपितु अनंत शाश्वत चैतन्य हूँ| मेरी आयु मात्र एक है और वह है अनन्तता| आप सब को मेरा अहैतुकी परम प्रेम| ॐ ॐ ॐ ||

मेरी आयु अनंत है (My age is infinity) .....

मेरी आयु अनंत है (My age is infinity) .....
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मेरी आयु अनंत है| परमात्मा की इच्छा से लोकयात्रा हेतु यह देह मिली| अब तक पता नहीं कितनी देहों में जन्मा और मरा हूँ| जीवन की यह यात्रा अब तक तो प्रारब्धानुसार चली, पर आगे मेरी कोई कामना ना हो, यही प्रार्थना है| कोई पृथक कामना, अभिलाषा या किसी संकल्प का कोई अवशेष ना रहे, और जीवन प्रभु को पूर्णतः समर्पित हो बस यही आशीर्वाद चाहते हुए आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम करता हूँ|
(हमारे परिवार में तो यह जन्मदिवस भारतीय तिथि से भाद्रपद अमावस्या को ही मनाया जाता है| पर जिन्हें भारतीय तिथियों का ज्ञान नहीं है वे मित्र ३ सितम्बर को ही मानेंगे)
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ॐ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च ||
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ||
ॐ पूर्णमदः पूणमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||

परम तत्व रूप में सद्गुरुदेव ही मेरी गति और मेरे आश्रय हैं ......

परम तत्व रूप में सद्गुरुदेव ही मेरी गति और मेरे आश्रय हैं ......
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उन से अधिक मेरे लिए कुछ भी नहीं है| मैं उन को किसी भी सांसारिक नाम और रूप के बंधन मे नहीं बाँध सकता| वे सब सांसारिक नाम-रूपों से परे हैं|
वे अनादि और सर्वव्यापी हैं| वे ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु हैं और वे ही परम ब्रह्म हैं|
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नाद और ज्योति के रूप में वे निरंतर मेरे कूटस्थ में बिराजमान हैं|
मैं अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उनको समर्पित करता हूँ|
कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति ही मेरी साधना है|
कोई वियोग और भेद ना रहे, बस यही मेरी प्रार्थना है|
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शिवनेत्र होकर शाम्भवी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहने पर विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है|
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यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है|
ॐ तत्सत् | ॐ गुरु ! जय गुरु ! ॐ ॐ ॐ ||
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अथातोऽद्वयतारकोपनिषदं व्याख्यास्यामो यतये
जितेन्द्रियाय शमदमादिषड्‌गुणपूर्णाय ॥ १ ॥
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चित्स्वरूपोऽहमिति सदा भावयन् सम्यक् निमीलिताक्षः
किंचिद् उन्मीलिताक्षो वाऽन्तर्दृष्ट्या भ्रूदहरादुपरि
सचिदानन्दतेजःकूटरूपं परं ब्रह्मावलोकयन् तद्‌रूपो भवति ॥ २ ॥
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गर्भजन्मजरामरणसंसारमहद्‌भयात् संतारयति तस्मात्तारकमिति ।
जीवेश्वरौ मायिकाविति विज्ञाय सर्वविशेषं नेति
नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म ॥ ३ ॥
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तत्सिद्ध्यैः लक्ष्यत्रयानुसंधानं कर्तव्यः ॥ ४ ॥
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अन्तर्लक्ष्यलक्षणम् -
देहामध्ये ब्रह्मनाडी सुषुम्ना सूर्यरूपिणी पूर्णचन्द्राभा वर्तते । सा तु मूलाधारादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रगामिनी भवति । तन्मध्ये तडित्कोटिसमानकान्त्या मृणालसूत्रवत् सूक्ष्माङ्‌गी कुण्डलिनीति प्रसिद्धाऽस्ति । तां दृष्ट्वा मनसैव नरः सर्वपापविनाशद्वारा मुक्तो भवति । फालोर्ध्वगललाटविशेषमंडले निरन्तरं तेजस्तारकयोगविस्फारणेन पश्यति चेत् सिद्धो भवति । तर्जन्यग्रोन्मीलितकर्णरन्धद्वये तत्र फूत्कारशब्दो जायते । तत्र स्थिते मनसि चक्षुर्मध्यगतनीलज्योतिस्स्थलं विलोक्य अन्तर्दृष्ट्या निरतिशयसुखं प्राप्नोति । एवं हृदये पश्यति । एवं अन्तर्लक्ष्यलक्षणं मुमुक्षुभिरुपास्यम् ॥ ५ ॥
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बहिर्लक्ष्यलक्षणम् -
अथ बहिर्लक्ष्यलक्षणम् । नासिकाग्रे चतुर्भिः षड्‌भिरष्टभिः दशभिः द्वादशभिः क्रमाद् अङ्‌गुलान्ते नीलद्युतिश्यामत्वसदृग्रक्तभङ्‌गीस्फुरत् पीतशुक्लवर्णद्वयोपेतं व्योम यदि पश्यति स तु योगी भवति । चलदृष्ट्या व्योमभागवीक्षितुः पुरुषस्य दृष्ट्यग्रे ज्योतिर्मयूखा वर्तन्ते । तद्दर्शनेन योगी भवति । तप्तकाञ्चनसंकाशज्योतिर्मयूखा अपाङ्‌गन्ते भूमौ वा पश्यति तद्‍दृष्टिः स्थिरा भवति । शीर्षोपरि द्वादशाङ्‍गुलसमीक्षितुः अमृतत्वं भवति । यत्र कुत्र स्थितस्य शिरसि व्योमज्योतिर्दृष्टं चेत् स तु योगी भवति ॥ ६ ॥
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मध्यलक्ष्यलक्षणम् -
अथ मध्यलक्ष्यलक्षणं प्रातश्चित्रादिर्णाखण्डसूर्यचक्रवत् वह्निज्वालावलीवत् तद्विहीनान्तरिक्षवत् पश्यति । तदाकाराकारितया अवतिष्ठति । तद्‌भूयोदर्शनेन गुणरहिताकाशं भवति । विस्फुरत् तारकाकारदीप्यमानागाढतमोपमं परमाकाशं भवति । कालानलसमद्योतमानं महाकाशं भवति । सर्वोत्कृष्टपरमद्युतिप्रद्योतमानं तत्त्वाकाशं भवति । कोटिसूर्यप्रकाशवैभवसंकाशं सूर्याकाशं भवति । एवं बाह्याभ्यन्तरस्थ-व्योमपञ्चकं तारकलक्ष्यम् । तद्दर्शी विमुक्तफलः तादृग् व्योमसमानो भवति । तस्मात् तारक एव लक्ष्यं अनमस्कफलप्रदं भवति ॥ ७ ॥
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द्विविधं तारकम् -
तत्तारकं द्विविधं पूर्वार्धं तारकं उत्तरार्धं अमनस्कं चेति । तदेष श्लोको भवति । तद्योगं च द्विधा विद्धि पूर्वोत्तरविधानतः । पूर्वं तु तारकं विद्यात् अमनस्कं तदुत्तरमिति ॥ ८ ॥
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तारकयोगसिद्धिः -
अक्ष्यन्तस्तारयोः चन्द्रसूर्यप्रतिफलनं भवति । तारकाभ्यां सूर्यचंद्रमण्डलदर्शनं ब्रह्माण्डमिव पिण्डाण्डशिरोमध्यस्थाकाशे रवीन्दुमण्डलद्वितयमस्तीति निश्चित्य तारकाभ्यां तद्दर्शनम् । अत्रापि उभयैक्यदृष्ट्या मनोयुक्तं ध्यायेत् । तद्योगाभावे इंद्रियप्रवृत्तेरनवकाशात् । तस्माद अन्तर्दृष्ट्या तारक एवानुसंधेयः ॥ ९ ॥
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मूर्तामूरभेदेन द्विविधमनुसन्धेयम् -
तत्तारकं द्विविधं, मूर्तितारकं अमूर्तितारकं चेति । यद् इंद्रियान्तं तत् मूर्तिमत् । यद् भ्रूयुगातीतं तत् अमूर्तिमत् । सर्वत्र अन्तःपदार्थ- विवेचने मनोयुक्ताभ्यास इष्यते । तारकाभ्यां तदूर्ध्वस्थसत्त्वदर्शनात् मनोयुक्तेन अन्तरीक्षणेन सच्चिदानन्दस्वरूपं ब्रह्मैव । तस्मात् शुक्लतेजोमयं ब्रह्मेति सिद्धम् । तद्‌ब्रह्म मनःसहकारिचक्षुषा अन्तर्दृष्ट्या वेद्यं भवति । एवं अमूर्तितारकमपि । मनोयुक्तेन चक्षुषैव दहरादिकं वेद्यं भवति । रूपग्रहणप्रयोजनस्य मनश्चक्षुरधीनत्वात् बाह्यवदान्तरेऽपि आत्ममनश्चक्षुःसंयोगेनैव रूपग्रहणकार्योदयात् । तस्मात् मनोमयुक्ता अन्तर्दृष्टितारकप्रकाशाय भवति ॥ १० ॥
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तारकयागस्वरूपम् -
भूयुगमध्यबिले दृष्टिं तद्‍द्वारा ऊर्ध्वस्थितजेज आविर्भूतं तारकयोगो भवति । तेन सह मनोयुक्तं तारकं सुसंयोज्य प्रयत्‍नेन भ्रूयुग्मं सावधानतया किंचित् ऊर्ध्वं उत्क्षेपयेत् । इति पूर्वतारकयोगः । उत्तरं तु अमूर्तिमत् अमनस्कं इत्युच्यते । तालुमूलोर्ध्वभागे महान् ज्योतिर्मयूखो वर्तते । तद्योगिभिर्ध्येयम् । तस्मात् अणिमादि सिद्धिर्भवति ॥ ११ ॥
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शाम्भवीमुद्रा -
अन्तर्बाह्यलक्ष्ये दृष्टौ निमेषोन्मेषवर्जितायां सत्यां शांभवी मुद्रा भवति । तन्मुद्रारूढज्ञानिनिवासात् भूमिः पवित्रा भवति । तद्‍दृष्ट्वा सर्वे लोकाः पवित्रा भवन्ति । तादृशपरमयोगिपूजा यस्य लभ्यते सोऽपि मुक्तो भवति ॥ १२ ॥
अन्तर्लक्ष्यविकल्पाः -
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अन्तर्लक्ष्यज्वलज्योतिःस्वरूपं भवति । परमगुरूपदेशेन सहस्रारे जलज्ज्योतिर्वा बुद्धिगुहानिहितचिज्ज्योतिर्वा षोडशान्तस्थ तुरीयचैतन्यं वा अन्तर्लक्ष्यं भवति । तद्दर्शनं सदाचार्यमूलम् ॥ १३ ॥
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आचार्यलक्षणम् -
आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
योगज्ञो योगनिष्ठश्च सदा योगात्मकः शुचिः ॥ १४ ॥
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गुरुभक्तिसमायुक्तः पुरुषज्ञो विशेषतः ।
एवं लक्षणसंपन्नो गुरुरित्यभिधीयते ॥ १५ ॥
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गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः ।
अंधकारनिरोधित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥ १६ ॥
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गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः ।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परायणम् ॥ १७ ॥
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गुरुरेव पराकाष्ठा गुरुरेव परं धनम् ।
यस्मात्तदुपदेष्टासौ तस्मात्-गुरुतरो गुरुरिति ॥ १८ ॥
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ग्रन्थाभ्यासफलम् -
यः सकृदुच्चारयति तस्य संसारमोचनं भवति । सर्वजन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति । सर्वान् कामानवाप्नोति । सर्वपुरुषार्थ सिद्धिर्भवति । य एवं वेद । इति उपनिषत् ॥

ईसा मसीह और उनका भारत में प्रवास .......


(1) ईसा मसीह ने फिलिस्तीन से 13 वर्ष की उम्र में ही भारत आकर 30 वर्ष की उम्र तक यानि 17 वर्षों तक भारत में ही रह कर अध्ययन और साधना की थी |
(2) तत्पश्चात 3 वर्ष के लिए वे बापस फिलीस्तीन चले गए, वहाँ सनातन धर्म का प्रचार किया, व ३३ वर्ष की उम्र में सूली से जीवित बचकर भारत में ही बापस आकर 112 वर्ष तक की उम्र पाने के पश्चात कश्मीर के पहलगांव में देह त्याग किया|
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उपरोक्त विषय पर दिया गया ओशो का प्रवचन ----
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"जब भी कोई सत्‍य के लिए प्‍यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्‍सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्‍लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्‍य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे। ईसामसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्‍लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्‍योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्‍हें सूली ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइाबिल में उन सालों को क्‍यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्‍हें जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।
यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्‍मे, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्‍मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्‍होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्‍द भी नहीं सुने थे। फिर क्‍यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्‍यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्‍योंकि इस व्‍यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्‍पना की जा सकती है।
पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्‍म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्‍पष्‍ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्‍हें समझ आएगा कि क्‍यों वे बारा-बार कहते हैं- ' अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्‍थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्‍हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।' यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्‍होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।
ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्‍यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्‍क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था।
जीसस कहते हैं कि अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था। कौन हैं ये पुराने पैगंबर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,- कि ईश्‍वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है!? यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्‍वर के मुंह से ये शब्‍द भी कहलवा दिए हैं कि मैं कोई सज्‍जन पुरुष नहीं हूं, तुम्‍हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्‍यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं। पुराने टेस्‍टामेंट में ईश्‍वर के ये वचन हैं। और ईसा मसीह कहते हैं, मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्‍मा प्रेम है। यह ख्‍याल उन्‍हें कहां से आया कि परमात्‍मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्‍मा को प्रेम कहने का कोई और उल्‍लेख नहीं है। उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्‍त, भारत, लद्दाख और तिब्‍बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्‍कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं। तुम्‍हें जानकर आश्‍चर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्‍यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्‍य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्‍या हुआ? आजकल वे कहां हैं ? क्‍योंकि उनकी मृत्‍यु का तो कोई उल्‍लेख है ही नहीं !
सच्‍चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्‍तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्‍योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्‍वस्‍थ है तो 60 घंटे से भी ज्‍यादा लोग जीवित रहे, ऐसे उल्‍लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।
यह एक मिलीभगत थी, जीसस के शिष्‍यों की पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्‍य के अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्‍या में रोमन वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। पोंटियस के दस्‍तखत के बगैर यह हत्‍या नहीं हो सकती थी।पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए। जीसस वहां एक मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था। यदि वह जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्‍मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा, मगर उसके स्‍वयं के अंत:करण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्‍यक्ति की हत्‍या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।
तो पोंटियस ने जीसस के शिष्‍यों के साथ मिलकर यह व्‍यवस्‍था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्‍त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार का कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्‍थगित किया जाता रहा। ब्‍यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया गया और सूर्यास्‍त के पहले ही उन्‍हें जीवित उतार लिया गया। यद्यपि वे बेहोश थे, क्‍योंकि शरीर से रक्‍तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी। पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार को यहूदी उन्‍हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस के देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्‍यगण उन्‍हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए।
जीसस ने भारत में आना क्‍यों पसंद किया? क्‍योंकि युवावास्‍था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्‍होंने अध्‍यात्‍म और ब्रह्म का परम स्‍वाद इतनी निकटता से चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह स्‍वस्‍थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए। कश्‍मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्‍मरण रहे, भारत में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है, जोशुआ- यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। जीसस जोशुआ का ग्रीक रुपांतरण है। जोशुआ यहां आए- समय, तारीख वगैरह सब दी है। एक महान सदगुरू, जो स्‍वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्‍यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल की दीर्घायु तक यहांरहे। इसी वजह से वह स्‍थान भेड़ों के चरवाहे का गांव कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है-पहलगाम, उसका काश्‍मीरी में वही अर्थ है- गड़रिए का गांव
जीसस यहां रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्‍य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्‍यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्‍होंने मरना भी यहीं चाहा, क्‍योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)जीवन एक सौंदर्य है और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)मरना भी अत्‍यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्‍यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्‍तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।
यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह त्‍यागी थी | इससे भी अधिक आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह त्‍यागी थी! उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्‍थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू मूसा के बगल वाला स्‍थान स्‍वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्‍यों कश्‍मीर में आकर मृत्‍यु में प्रवेश किया?
मूसा ईश्‍वर के देश इजराइल की खोज में यहूदियों को इजिप्‍त के बाहर ले गए थे। उन्‍हें 40 वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्‍होंने घोषणा की कि, यही वह जमीन है, परमात्‍मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्‍हालो!
मूसा ने जब इजिप्‍त से यात्रा प्रारंभ की थी तब की पीढ़ी लगभग समाप्‍त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए और नए बच्‍चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी, वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थेा उन्‍होंने युवा लोगों शासन और व्‍यवस्‍था का कार्यभारा सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए। यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्‍त्रों में भी, उनकी मृत्‍यु के संबंध में , उनका क्‍या हुआ इस बारे में कोई उल्‍लेख नहीं है। हमारे यहां (कश्‍मीर में ) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।
मूसा भारत क्‍यों आना चाहते थे ? केवल मृत्‍यु के लिए ? हां, कई रहस्‍यों में से एक रहस्‍य यह भी है कि यदि तुम्‍हारी मृत्‍यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन भगवत्‍ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्‍हारी मृत्‍यु भी एक उत्‍सव और निर्वाण बन जाती है।
सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्‍वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।"
= ओशो =

सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति ........

सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति .....
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परमात्मा को उपलब्ध होने की और उसे स्वयं के जीवन में अवतरित व व्यक्त करने की शाश्वत अभीप्सा ही सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति है|
उस अभीप्सा से ही समस्त गुण स्वयमेव खिंचे चले आते हैं|
यही सार है, बाकी सब निःसार है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही हुई है|
भारत का भविष्य सनातन हिन्दू धर्म पर निर्भर है, इस पृथ्वी का भविष्य भारत पर निर्भर है, और इस समस्त सृष्टि का भविष्य इस पृथ्वी पर निर्भर है चाहे भौतिक रूप से अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में यह पृथ्वी नगण्य है|
धर्म विहीन सृष्टि का सम्पूर्ण विनाश सुनिश्चित है|

ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||

पराविद्या और अपराविद्या ..........

पराविद्या और अपराविद्या ... (स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से संकलित)
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(1) पराविद्या :---- परमात्मा को जानने वाली विद्या है|
(2) अपराविद्या :----- जो धर्म-अधर्म और कर्त्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराये वह विद्या है|
ज्ञानशक्ति से हम जानते हैं और क्रियाशक्ति से करते हैं|
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शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, और ज्योतिष ---- इनका ज्ञान होने से ही हम वेदों को समझ सकते हैं| ये अपरा विद्याएँ हैं|
(1) वेदों के सही उच्चारण के ढंग को "शिक्षा" कहते हैं| वेदों के एक ही शब्द के दो प्रकार से उच्चारण से अलग अलग अर्थ निकलते है| इसलिये वेद को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उच्चारण कैसे हो|
(2) जितने भी धार्मिक कर्म .... पूजा, हवन आदि है उन सब को करने का तरीका जिन ग्रंथों में है वे "कल्प" सूत्र है|
(3) "व्याकरण" वेद के पदों को कैसे समझा जाये यह बताता है|
(4) "निरुक्त" शब्दों के अर्थ लगाने का तरीका है|
(5) "छंद" अक्षर विन्यास के नियमों का ज्ञान कराता है|
(6) "ज्योतिष" से कर्म के लिये उचित समय निर्धारण का ज्ञान होता है|
----- उपरोक्त छःओं का ज्ञान वेदों को समझने के लिए आवश्यक है| ये और चारों वेद "अपराविद्या" में आते हैं|
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"पराविद्या उसको कहते हैं जिससे परमेश्वर की प्राप्ति हो अर्थात् साक्षात्कार होता है| उपनिषद् के पढ़ने में जो ज्ञान है वह अपराविद्या है, पर उसमें बताये का साक्षात्कार जिससे होता है वह पराविद्या है|
"धर्म" -- अपराविद्या है, और "साक्षात्कार" --- "पराविद्या" है|
"शब्दज्ञान" अपराविद्या है और "ब्रह्मसाक्षात्कार" पराविद्या है|
शब्द का ज्ञान होने से हम समझते हैं कि विषय का ज्ञान हो गया, पर मात्र शब्दों के ज्ञान से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| शास्त्रों के अध्ययन मात्र से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| निज जीवन में परमात्मा को अवतृत कराने का ज्ञान पराविद्या है|
वेद जब परमात्मा का साक्षात्कार करा दे तब वह पराविद्या है| पराविद्या ही वस्तुतः ज्ञान है| पराविद्या से जो परमात्मा का ज्ञान होता है वही एकमात्र ज्ञान है| उससे भिन्न तो सब ज्ञान का आभास मात्र है, ज्ञान नहीं|
!! ॐ ॐ ॐ !!