पराविद्या और अपराविद्या ... (स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से संकलित)
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(1) पराविद्या :---- परमात्मा को जानने वाली विद्या है|
(2) अपराविद्या :----- जो धर्म-अधर्म और कर्त्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराये वह विद्या है|
ज्ञानशक्ति से हम जानते हैं और क्रियाशक्ति से करते हैं|
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शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, और ज्योतिष ---- इनका ज्ञान होने से ही हम वेदों को समझ सकते हैं| ये अपरा विद्याएँ हैं|
(1) वेदों के सही उच्चारण के ढंग को "शिक्षा" कहते हैं| वेदों के एक ही शब्द के दो प्रकार से उच्चारण से अलग अलग अर्थ निकलते है| इसलिये वेद को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उच्चारण कैसे हो|
(2) जितने भी धार्मिक कर्म .... पूजा, हवन आदि है उन सब को करने का तरीका जिन ग्रंथों में है वे "कल्प" सूत्र है|
(3) "व्याकरण" वेद के पदों को कैसे समझा जाये यह बताता है|
(4) "निरुक्त" शब्दों के अर्थ लगाने का तरीका है|
(5) "छंद" अक्षर विन्यास के नियमों का ज्ञान कराता है|
(6) "ज्योतिष" से कर्म के लिये उचित समय निर्धारण का ज्ञान होता है|
----- उपरोक्त छःओं का ज्ञान वेदों को समझने के लिए आवश्यक है| ये और चारों वेद "अपराविद्या" में आते हैं|
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"पराविद्या उसको कहते हैं जिससे परमेश्वर की प्राप्ति हो अर्थात् साक्षात्कार होता है| उपनिषद् के पढ़ने में जो ज्ञान है वह अपराविद्या है, पर उसमें बताये का साक्षात्कार जिससे होता है वह पराविद्या है|
"धर्म" -- अपराविद्या है, और "साक्षात्कार" --- "पराविद्या" है|
"शब्दज्ञान" अपराविद्या है और "ब्रह्मसाक्षात्कार" पराविद्या है|
शब्द का ज्ञान होने से हम समझते हैं कि विषय का ज्ञान हो गया, पर मात्र शब्दों के ज्ञान से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| शास्त्रों के अध्ययन मात्र से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| निज जीवन में परमात्मा को अवतृत कराने का ज्ञान पराविद्या है|
वेद जब परमात्मा का साक्षात्कार करा दे तब वह पराविद्या है| पराविद्या ही वस्तुतः ज्ञान है| पराविद्या से जो परमात्मा का ज्ञान होता है वही एकमात्र ज्ञान है| उससे भिन्न तो सब ज्ञान का आभास मात्र है, ज्ञान नहीं|
!! ॐ ॐ ॐ !!
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(1) पराविद्या :---- परमात्मा को जानने वाली विद्या है|
(2) अपराविद्या :----- जो धर्म-अधर्म और कर्त्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराये वह विद्या है|
ज्ञानशक्ति से हम जानते हैं और क्रियाशक्ति से करते हैं|
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शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, और ज्योतिष ---- इनका ज्ञान होने से ही हम वेदों को समझ सकते हैं| ये अपरा विद्याएँ हैं|
(1) वेदों के सही उच्चारण के ढंग को "शिक्षा" कहते हैं| वेदों के एक ही शब्द के दो प्रकार से उच्चारण से अलग अलग अर्थ निकलते है| इसलिये वेद को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उच्चारण कैसे हो|
(2) जितने भी धार्मिक कर्म .... पूजा, हवन आदि है उन सब को करने का तरीका जिन ग्रंथों में है वे "कल्प" सूत्र है|
(3) "व्याकरण" वेद के पदों को कैसे समझा जाये यह बताता है|
(4) "निरुक्त" शब्दों के अर्थ लगाने का तरीका है|
(5) "छंद" अक्षर विन्यास के नियमों का ज्ञान कराता है|
(6) "ज्योतिष" से कर्म के लिये उचित समय निर्धारण का ज्ञान होता है|
----- उपरोक्त छःओं का ज्ञान वेदों को समझने के लिए आवश्यक है| ये और चारों वेद "अपराविद्या" में आते हैं|
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"पराविद्या उसको कहते हैं जिससे परमेश्वर की प्राप्ति हो अर्थात् साक्षात्कार होता है| उपनिषद् के पढ़ने में जो ज्ञान है वह अपराविद्या है, पर उसमें बताये का साक्षात्कार जिससे होता है वह पराविद्या है|
"धर्म" -- अपराविद्या है, और "साक्षात्कार" --- "पराविद्या" है|
"शब्दज्ञान" अपराविद्या है और "ब्रह्मसाक्षात्कार" पराविद्या है|
शब्द का ज्ञान होने से हम समझते हैं कि विषय का ज्ञान हो गया, पर मात्र शब्दों के ज्ञान से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| शास्त्रों के अध्ययन मात्र से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| निज जीवन में परमात्मा को अवतृत कराने का ज्ञान पराविद्या है|
वेद जब परमात्मा का साक्षात्कार करा दे तब वह पराविद्या है| पराविद्या ही वस्तुतः ज्ञान है| पराविद्या से जो परमात्मा का ज्ञान होता है वही एकमात्र ज्ञान है| उससे भिन्न तो सब ज्ञान का आभास मात्र है, ज्ञान नहीं|
!! ॐ ॐ ॐ !!
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