आनंदमय होना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ---
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जीवन की संपूर्णता व विराटता को त्याग कर हम लघुता को अपनाते हैं तो निश्चित रूप से विफल होते हैं| जो हम ढूँढ़ रहे हैं या जो हम पाना चाहते हैं, वह तो हम स्वयं हैं| हम यह शरीर नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं| श्रुति भगवती कहती है -- "ॐ खं ब्रह्म|" खं का अर्थ होता है आकाश-तत्व यानि ब्रह्म (परमात्मा) की सर्वव्यापकता| उस के समीप यानि एक होकर हम सुखी हैं, और उस से दूर होकर दुःखी| भगवान सनत्कुमार का देवर्षि नारद को कहा हुआ यह अमर वाक्य भी श्रुतियों में है कि -- "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति|" भूमा यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में सुख नहीं है| हमें उस भूमा-तत्व यानि परमात्मा की अनंतता के साथ एक होना पड़ेगा, उस से कम नहीं| वही हमारा वास्तविक स्वरूप है|
.कामायनी महाकाव्य की इन पंक्तियों में कवि जयशंकर प्रसाद ने भी “भूमा” शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ बड़ा दार्शनिक है …..
“जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल |
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य यही “भूमा” का मधुमय दान |”
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भूमा तत्व की अनुभूति बहुत गहरे ध्यान में सभी साधकों को होती है| बहुत गहरे ध्यान में साधक पाता है कि सब सीमाओं को लांघ कर उसकी चेतना सारे ब्रह्मांड की अनंतता में विस्तृत हो गयी है, और वह समष्टि यानि समस्त सृष्टि के साथ एक है| परमात्मा की उस अनंतता के साथ एक होना “भूमा” है जो साधना की पूर्णता भी है| मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर है अर्थात् भूमि है| इस सीमित शरीर का जब विराट से सम्बन्ध होता है तो यह ‘भूमा’ है|
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अजपा-जप में हम भूमा तत्व का ही ध्यान करते हैं| जो योगमार्ग के ध्यान साधक हैं, उन्हें पहली दीक्षा अजपा-जप की दी जाती है| सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में साधक भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म के कूटस्थ सूर्यमंडल का ध्यान करते हैं, जो सर्वव्यापक अनंत है| फिर हर सांस के साथ “हं” और “सः” बीजमंत्रों के साथ उस अनंतता यानि “भूमा” का ही ध्यान करते हैं|
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हम निरंतर प्रगति करते रहें| जीवन में परमात्मा की आनंददायक अनुभूति, तृप्ति और संतुष्टि -- प्राप्त करनी है तो परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम और समर्पण का भाव विकसित करें| यथासंभव अधिकाधिक ध्यान साधना करें, और निरंतर परमात्मा का स्मरण करें| यदि संभव हो तो प्रातःकाल में तारों के छिपने से पूर्व, और संध्याकाल में तारों के उगने से पूर्व, अपने आसन पर बैठ जाएँ, और प्राणायाम, गायत्री जप, व ध्यान साधना का आरंभ कर दें| हर समय परमात्मा का स्मरण करें, और जीवन के हर कार्य का उन्हें कर्ता बनाएँ| यदि कर्ताभाव अवशिष्ट है तो अपना हर कार्य परमात्मा की प्रसन्नता के लिए ही करें| रात्रि को सोने से पूर्व कुछ देर तक बहुत गहरा ध्यान करें, और जगन्माता की गोद में निश्चिंत होकर एक छोटे बालक की तरह सो जाएँ| दिन का आरंभ परमात्मा के ध्यान से करें, और पूरे दिन उन का स्मरण रखें|
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उन्नत ध्यान साधना :---
पूर्ण प्रेम यानि पूर्ण भक्ति से भगवान की विराट अनंतता का ध्यान किया जाता है| सर्वदा भाव यही रखें कि भगवान अपना ध्यान स्वयं कर रहे हैं, हम तो निमित्त-मात्र हैं| हर समय अपनी चेतना आज्ञाचक्र से ऊपर रखें| सहस्त्रार चक्र में श्रीगुरु-चरणों का ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में ध्यान और नाद-श्रवण करें| फिर अपना संपूर्ण ध्यान ब्रह्मरंध पर केंद्रित करके ब्रह्म में लीन हो जाएँ| धीरे-धीरे अनुभूति होगी कि हमारी चेतना इस शरीर से बाहर है, तब अपनी चेतना को संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला दें, और अनंतता रूपी अपने वास्तविक स्वरूप का ध्यान करें| आगे का, और अब तक का सारा मार्गदर्शन भगवान स्वयं करेंगे| पात्रता यही है कि हम में सत्यनिष्ठा, परमप्रेम, उत्साह और तत्परता हो|
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०२१