सुख, संपति, परिवार, और बड़ाई ..... ये सब भगवान की भक्ति में बाधक हैं|
जिसे भी भगवान की उपासना करनी है, उसे इन सब का मोह त्यागना ही होगा| मैं
इस समाज में अनुपयुक्त (Misfit) हूँ, पर फिर भी टिका हुआ और जीवित हूँ
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मैं जिस समाज में रहता हूँ, उस समाज में मनुष्य जीवन की
सफलता व प्रगति का एकमात्र मापदंड है .... पास में रुपये पैसों का होना,
चाहे वे किसी भी माध्यम से अर्जित किये गए हों| जिस व्यक्ति ने जितने अधिक
रुपये व संपत्ति अर्जित की हैं वह व्यक्ति उतना ही अधिक सफल और बड़ा माना
जाता है| हमारे समाज में पढाई-लिखाई का एकमात्र उद्देश्य है .... अधिक से
अधिक रूपये बनाने की योग्यता प्राप्त करना| हमारे समाज में भगवान तो एक
साधन मात्र है जिस की आराधना करने से खूब रुपया-पैसा, धन-संपत्ति,
यश-कीर्ति, वैभव, व सांसारिक सफलता रूपी साध्य सिद्ध होते हैं| हमारे समाज
में भक्ति का अर्थ है ..... सांसारिक मनोकामनाओं की पूर्ती के लिए भगवान को
प्रसन्न करना ताकि जीवन सुचारू रूप से बिना विघ्न बाधाओं के चलता रहे| लोग
भागवत आदि की कथाएँ करवाते हैं जो एक धार्मिक मनोरंजन मात्र हैं| हमारे
समाज में परमात्मा से अहैतुकी प्रेम, समर्पण आदि की बातें सिर्फ एक मानसिक
उन्माद मात्र हैं| समाज में बड़ी क्रूरता है, सारा प्रेम दिखावटी है| आर्थिक
हित टकराते ही अच्छे से अच्छे आत्मीय भी शत्रु हो जाते हैं| चााहते सब हैं
कि भगतसिंह जन्म ले, पर दुसरे के घर में, स्वयं के घर में नहीं| मैं किसी
की निंदा नहीं कर रहा, एक वास्तविकता बता रहा हूँ|
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ऐसे समाज में
रहकर आत्म-साक्षात्कार हेतु परमात्मा की साधना कितनी कठिन है इसकी आप
कल्पना कर सकते हैं| मुँह के सामने तो सब बड़ी बड़ी मीठी मीठी बातें करते हैं
पर पीठ फेरते ही तिरस्कार व अपमानजनक निंदनीय शब्दों का प्रयोग करने लगते
हैं|
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पर जहाँ भी भगवान ने रखा है वहाँ सब तरह की विपरीतताओं के
पश्चात भी मैं सुखी और प्रसन्न हूँ| किसी भी तरह की कोई शंका या संदेह मुझे
नहीं है| मेरे विचार और सोच भी स्पष्ट है| किसी से मिलने की भी कोई इच्छा
अब नहीं रही है| भगवान चाहे तो वे स्वयं ही किसी से मिला दें, पर चला कर
मैं स्वयं अब किसी से भी नहीं मिलना चाहता|
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पूर्व जन्मों में
कोई अच्छे कर्म नहीं किये थे, कोई मुक्ति का उपाय नहीं किया था, इसी लिए उन
पूर्व जन्मों के कर्म फलों को भोगने के लिए यह जन्म लेना पड़ा| इसमें किसी
अन्य का कोई दोष नहीं है| मेरे शाश्वत साथी भगवान जो सोचते हैं उसी का
महत्त्व है, न कि नश्वर मनुष्यों का| मैं जहाँ भी हूँ वहीं परमात्मा हैं|
वे मेरे ह्रदय में नहीं, उन्होंने ही मुझे अपने स्वयं के हृदय में बैठा रखा
है| मैं परमात्मा के साथ एक हूँ और सदा रहूँगा| किसी से भी मेरी कोई
अपेक्षा और कामना नहीं है|
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"सुख संपति परिवार बड़ाई, सब परिहरि करिहउँ सेवकाई |
ये सब रामभगति के बाधक, कहहिं संत तव पद अवराधक |"
सुख संपति परिवार और बड़ाई ..... ये सब राम भक्ति में बाधक हैं| जिसे भी
भगवान की उपासना करनी है, उसे इन सब से मोह त्यागना ही होगा|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को नमन ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०१८