Wednesday 21 February 2018

१८ फरवरी सन १९४६ का भारतीय इतिहास में वह अति महत्वपूर्ण दिवस .....

१८ फरवरी सन १९४६ का भारतीय इतिहास में वह अति महत्वपूर्ण दिवस .....
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१८ फरवरी १९४६ के दिन एक अति महत्वपूर्ण घटना भारत के इतिहास में हुई थी, जिसने भारत से अंग्रेजों को भागने को बाध्य कर दिया था| यह भारतीयों के जनसंहारकारी अंग्रेजी राज के कफन में आख़िरी कील थी| इस घटना के इतिहास को स्वतंत्र भारत में छिपा दिया गया और विद्यालयों में कभी पढ़ाया नहीं गया|
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अगस्त १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन पूर्ण रूपेण विफल हो गया था| अंग्रेजों ने उसे हिंसात्मक रूप से कुचल दिया था| गांधी जी की नीतियों ने पूरे भारत में एक भ्रम उत्पन्न कर दिया था और उनके द्वारा तुर्की के खलीफा को बापस गद्दी पर बैठाए जाने के लिए किये गए खिलाफत आन्दोलन ने भारत में विनाश ही विनाश किया| उसकी प्रतिक्रियास्वरूप केरल में मोपला विद्रोह हुआ और लाखों हिन्दुओं की हत्याएँ हुई| गाँधी ने उन हत्यारों को स्वतंत्रता सेनानी कहा| पकिस्तान की मांग भी भयावह रूप से तीब्र हो उठी|
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भारत स्वतंत्र हुआ इसका कारण था ..... द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अंग्रेजी सेना की कमर टूट गयी थी और वह भारत पर नियंत्रण करने में असमर्थ थी| भारतीय सिपाहियों ने अन्ग्रेज़ अधिकारियों के आदेश मानने से मना कर दिया था और नौसेना ने विद्रोह कर दिया जिससे अँगरेज़ बहुत बुरी तरह डर गए और उन्होंने भारत छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी| स्वतन्त्रता कोई चरखा कातने से या अहिंसात्मक सत्याग्रह से नहीं मिली जिसका झूठा इतिहास हमें पढ़ाया गया है|
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस व आजाद हिन्द फौज द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने १८ फरवरी १९४६ को HMIS Talwar नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया था| उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की|
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नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई, कोलकात्ता, रंगून और कराँची तक फैल गया| महानगर, नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया और उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा| स्थान - स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी| ऐसे समय में भारतीय नेताओं ने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे उन वीर सैनिकों का कोई साथ नहीं दिया , जबकि देश की आम जनता ने उन सैनिकों को पूरा सहयोग दिया|
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नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना, जवाहर लाल नेहरु और मोहनदास गाँधी ने निन्दा की व नौसैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं कहा| क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था? जिन लोगों ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, कोल्हू में बैल की तरह जोते गये , नंगी पीठ पर कोडे खाए, भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झूल गये, क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था ?
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भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जड़ें हिला दीं और अंग्रेजों के हृदयों को भय से भर दिया| अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता, भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर १८५७ का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है, और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा, अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है|
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तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि १९४६ में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह (मुक्ति संग्राम) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी| १९४७ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि ....
"हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे|"
( दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ -१२५, लेखक - प्रोफेसर समर गुहा)
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नेताजी सुभाष से प्रेरणाप्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रेजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था| इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.बी.चक्रवर्ती जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है|
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जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे-सीधे पूछा कि गांधी का "अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन" तो १९४७ से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय की भारतीय परिस्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों का भारत छोडना आवश्यक हो जाए, तब आपने ऐसा क्यों किया?
तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया , जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण इंडियन नेवी का विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना , थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था|
अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि "गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम ही रहा"|
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एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है -
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम - ३, लेखक - डॉ. आर. सी. मजूमदार |
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका - गिरिजा के. मुखर्जी |
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा |
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पुनश्चः :- आज़ादी हमें कोई चरखा चलाकर या अहिंसा से नहीं मिली| इस आज़ादी के पीछे लाखों लोगों का बलिदान था| नेहरु और जिन्ना दोनों ही अंग्रेजों के हितचिन्तक थे जिन्हें गांधी की मूक स्वीकृति थी| भारत से अँगरेज़ गए और जाते जाते अपने ही मानस पुत्रों .... नेहरु और जिन्ना को सत्ता सौंप गए| जितना अधिकतम भारत का विनाश वे कर सकते थे उतना विनाश जाते जाते भी कर गए|
वन्दे मातरं | भारत माता की जय |
१९ फरवरी २०१७

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